पिछले दिनों फ़िल्मी गीतकार स्वर्गीय शैलेन्द्र जी के मित्र अनिल सराफ़ के छोटे भाई नलिन सराफ़ ने अपनी एक किताब भेजी थी... हमने इस किताब की समीक्षा की... इसे बहुत सराहा गया... काफ़ी लोगों के मेल और फ़ोन आए... पेश है समीक्षा...
फ़िल्मी गीतों में महकी साहित्य की ख़ुशबू...
फ़िरदौस ख़ान
गीतकार शैलेंद्र ने फ़िल्मों में भी साहित्य की महक को बरक़रार रखा, इसलिए काव्य प्रेमियों ने उन्हें गीतों का राजकुमार कहा है. शैलेंद्र मन से कवि ही थे, तभी तो उनके फ़िल्मी गीतों में भी काव्य की पावन गंगा बहती है. उनसे प्रभावित होकर उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने उन्हें कविराज का ख़िताब दिया था. मुंबई के शैलेंद्र प्रशंसक परिवार ने उनकी याद में एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है मौसम सुहाना और ये मौसम हसीं. इस किताब में शैलेंद्र के गीतों, कविताओं और उनसे जुड़े संस्मरणसंग्रहीत हैं. संकलनकर्ता नलिन सराफ़ का कहना है कि मेरे बड़े भाई श्री अनिल जी, जो शैलेंद्र जी के अभिन्न मित्र रहे हैं, चाहते हैं कि उनकी रचनाएं और अनछुए जीवन के प्रसंग लोगों के सामने आएं. इसी विचार ने धीरे-धीरे मूर्तरूप लिया और नतीजतन यह पुस्तक आपके सामने है. शैलेंद्र की कई फ़िल्मी रचनाएं, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं, कई फ़िल्मी गीत जो रिकॉर्ड तो हुए, लेकिन परदे तक नहीं पहुंचे, कुछ अनूठे जीवन प्रसंग, लोगों के अपने अनुभव, उनके कई दुर्लभ चित्र और हस्तलिखित पत्र आदि को इस किताब में शामिल किया गया है.
नलिन सराफ़ कहते हैं, शैलेंद्र का असली नाम शंकर दस राव है, लेकिन साहित्य में शंकर शैलेंद्र और फ़िल्मों में वह शैलेंद्र नाम से जाने जाते हैं. बिहार के एक खेतीहर मज़दूर का वंशज, मिलेट्री हॉस्पिटल के मामूली फौजी क्लर्क का पुत्र जिसका जन्म एक निर्धन दलित परिवार में हुआ और बचपन अत्यंत तकली़फ़ों में गुज़रा. वह अपनी प्रतिभा, कुशाग्र बुद्धि और लगन के कारण ही शंकर दास राव से प्रसिद्ध कवि-गीतकार शैलेंद्र की मंज़िल तक पहुंच पाया. मेरा उनसे काव्यात्मक परिचय 1954 में फ़िल्म बूट पालिश से हुआ, जिसका गीत नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है? मेरे अंतर्मन को छू गया. कालांतर में उन्होंने बताया कि यह गीत उन्हें अपने बच्चे की बंद मुट्ठियों को देखकर उपजा था. वह कर्मयोगी थे. वह भाग्य पर आंख मूंदकर विश्वास करने वालों में से नहीं थे. इसलिए इस गीत में उन्होंने यह बात ज़ाहिर की-मुट्ठी में है तक़दीर हमारी, हमने क़िस्मत को वश में किया है. वैसे वह जीवन की किसी भी घटना को अपने गीतों में सहज पिरो देते थे. उनकी प्रारंभिक ग़ैर फ़िल्मी रचनाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी, मध्यमवर्गीय समस्याओं, मज़दूरों का मानसिक द्वंद्व लिए होती थीं. वे मूलत: मज़दूर हृदय इंसान थे, अत: उनकी रचनाओं में इसकी झलक सा़फ़ नज़र आती है. वह अपनी लेखनी के बल पर क्रांति लाने के पक्षधर थे. प्रसिद्ध गायक तलत महमूद के कहने पर उन्होंने एक ख़ूबसूरत गीत लिखा था-
है सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है ख़ुशी, आंसू भी छलकते आते हैं…
वह लोक नाट्य मंच यानी इप्टा से शुरू से जु़डे थे. उसके हर कार्यक्रम में पूरे जोश से सक्रिय रहते और अपने गीत सुनाया करते थे. ऐसे ही एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर ने उनका गीत- जलता है पंजाब सुना और बेहद प्रभावित हुए. उन्होंने राजकपूर से इसकी चर्चा की, जो स्वयं के बैनर तले फ़िल्म निर्माण शुरू कर चुके थे. राजकपूर ने ऐसे की एक कार्यक्रम में उनका गीत-मोरी बगिया में आग लगाय गयो गोरा परदेशी सुना और मोहित हो उठे. उन्होंने शैलेंद्र से फ़िल्मों के लिए लिखने को कहा, लेकिन उनके प्रस्ताव को शैलेंद्र ने बड़ी नम्रता और दृढ़ता से यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि मैं फ़िल्मों के लिए नहीं लिखता. मगर आगे जाकर पारिवारिक मजबूरियों की वजह से उन्होंने राजकपूर से मुलाक़ात की और इस तरह वह आरके बैनर के स्थायी गीतकार बन गए, साथ ही शंकर-जयकिशन के भी. इसके अलावा उन्होंने प्राय: सभी प्रमुख संगीतकारों के साथ काम किया. उन्होंने नए संगीतकारों के लिए भी लिखा. राजकपूर की फ़िल्मों की कथावस्तु और उनके विचार शैलेंद्र के विचारों से मेल खाते थे. वह अपनी फ़िल्म में अधिक से अधिक गीत शैलेंद्र के ही रखना चाहते थे. इसका प्रमुख कारण उनकी सरल एवं गेय शब्दावली तो था ही, साथ ही उनके गीत पूरे दृश्य को आत्मसात कर कहानी का हिस्सा बन जाते थे और उसके प्रवाह को आगे बढ़ाने में सहायक होते थे. राजकपूर की फ़िल्म मेरा नाम जोकर के शीर्ष गीत के मुखड़े की प्रेरणा उन्हें श्रीमदभगवद गीता से मिली. यह गीत-जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां, राजकपूर के लिए लिखा गया आख़िरी गीत था, वह भी सिर्फ़ मुखड़ा ही लिख पाए, जिसे बाद में उनके बेटे शैली ने पूरा किया.
एक बार उनसे पूछा गया कि कभी आपने अपनी आत्मकथा को काव्य रूप में ढाला या ढालने की सोची? जवाब में उन्होंने श्री 420 के गीत-दिल का हाल सुने दिलवाला की इन पंक्तियों का ज़िक्र किया-
छोटे से घर में ग़रीब का बेटा
मैं भी हूं मां के नसीब का बेटा
रंजो-ग़म बचपन के साथी
आंधियों में जली जीवन की बाती
भूख ने बड़े प्यार से पाला
ख़ुश हूं, मगर आबाद नहीं मैं
मंज़िल मेरे पास खड़ी है
पांव में लेकिन बेड़ी पड़ी है
टांग अड़ाता है दौलत वाला…
शैलेंद्र बंगाली भाषा और बंगाल के लोक संगीत के बड़े प्रशंसक थे. यही वजह थी कि सलिल चौधरी ने जब अपना हिंदी फ़िल्मी सफ़र बिमल राय की फ़िल्म दो बीघा ज़मीन से शुरू किया तो उनकी पहली पसंद शैलेंद्र थे. उन्होंने अपने यादगार गीत-संगीत की रचना से उस फ़िल्म को अमर बना दिया. इसके बाद सलिल चौधरी ने अधिकांश फ़िल्में उन्हीं के साथ कीं. एसडी बर्मन के साथ भी उन्होंने कई फ़िल्में के गीत लिखे. उन्होंने 1955 की फ़िल्म मुनीमजी का शिव विवाह और मद भरे नैन के गीतों से लेकर 1967 की ज्वैलथीफ तक में अनेक मधुर गीत लिखे. बर्मन दा के साथ गाइड के गीतों ने तो फ़िल्म को अमरत्व तक पहुंचा दिया. गाइड से शैलेंद्र के जुड़ाव की एक रोचक गाथा है. एक रात बर्मन दा के विशेष आग्रह पर शैलेंद्र उनसे मिलने होटल सन एंड सेंड में गए, जहां वह देवानंद और विजय आनंद के साथ बैठे हुए थे. दादा ने बताया कि गोल्डी (विजय आनंद) गाइड के गीत शैलेंद्र से लिखवाना चाहते हैं. शैलेंद्र पहले भी विजय आनंद की फ़िल्म बाज़ार के लिए गीत लिख चुके थे. शैलेंद्र थोड़ा सकपकाए, क्योंकि गाइड के लिए वह दूसरे गीतकार को अनुबंधित कर चुके थे और दो गाने रिकॉर्ड भी हो चुके थे. लेकिन विजय आनंद ने ज़ोर देकर कहा कि गाइड के कथानक के साथ सिर्फ़ आप ही के गीत आत्मसात हो सकते हैं. शैलेंद्र ने इस आत्मीय दबाव पर सोचकर कहा कि पहले आप उस गीतकार को उसका पूरा पारिश्रमिक देकर मुक्त कर दीजिए. भले ही उससे आपको और नहीं लिखवाना है. अपने पारिश्रमिक के रूप में उन्होंने एक भारी रक़म की मांग रख दी, जो इस गीतकार की रक़म और उस व़क्त की प्रचलित रक़म से कई गुना ज़्यादा थी. विजय आनंद ने उसे फ़ौरन मंज़ूर करते हुए उन्हें अनुबंधित कर लिया. उसी वक़्त उन्होंने एक गीत का यह मुखड़ा लिखकर उन्हें दे दिया-
दिन ढल जाए, हाय रात न जाए
तू तो न आई, तेरी याद सताए…
इस फ़िल्म के सभी गीत बहुत लोकप्रिय हुए. इस बारे में देवानंद का कहना है, गाइड के गीत इसकी सबसे बड़ी ताक़त थे. मैं हमेशा मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी और नीरज से मुतासिर रहा, पर उसके गीतों में शैलेंद्र ने जैसे अपनी आत्मा उंडेल दी थी. बक़ौल लता मंगेशकर, उनके दिल में सदा एक आग धधकती रहती, जो इस अन्यायी समाज-व्यवस्था को फूंक देना चाहती थी. फ़िल्मी गीतों की हज़ार-हज़ार बंदिशों में रहकर भी वह दर्द और वह आग उनके गीतों में स्पष्ट दिखाई देती थी. बाबू जगजीवनराम ने कहा था कि संत रविदास के बाद शैलेंद्र हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय हरिजन कवि हैं. शायर और फ़िल्मी गीतकार हसरत जयपुरी के मुताबिक़, शैलेंद्र जैसा हिंदी फ़िल्म गीतकार आज तक न कोई हुआ है और न कोई होगा.
30 अगस्त, 1923 को जन्मे शैलेंद्र ने 14 दिसंबर, 1966 को आख़िरी सांस ली. उनकी पत्नी शकुंतला शैलेंद्र कहती हैं, मन की अंधियारी सतहों पर एकाएक यादों के सौ-सौ मोती झिलमिलाने लगते हैं. बिछोह पर बना कुहासा धीमे-धीमे छंटने लगता है और हंसता-मुस्कराता अतीत मुझे अपने आप में समेट लेता है. स्वर्गीय पति की यादों के मेले जैसे इर्द-गिर्द जु़डने लगते हैं और अनगिनत फूलों की महक मेरी सांसों में समा उठती है. फिर मादक रस में डूबी हुई उनकी गुनगुनाहट पल-प्रतिपल मन प्राणों को दुलारने लगती है-मैं तो तुम्हारे पास हूं शकुन. भले ही दुनिया के लिए मर गया हूं, पर तुम्हारे लिए तो हमेशा जीवित रहूंगा. राजकपूर शैलेंद्र की मौत से बहुत दुखी हुए थे. उन्होंने कहा था, कमबख्त शायर था न. जाने के लिए भी उसने क्या दिन चुना? मेरा जन्मदिन.
शैलेंद्र कबीर, सूरदास, तुलसीदास आदि की तरह सरल और सीधी बात काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करने वाले गीतकार थे. उन्होंने आम आदमी की बोली में उनके दिल दिल की बात सामने रख दी. यही वजह है कि उनके गीत सीधे दिल में उतर जाते हैं. भले ही हिंदी साहित्य ने उनकी उपेक्षा की, लेकिन भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग ने 1985 में प्रकाशित देशभक्ति की कविताएं संकलन में भारतेंदु हरिश्चंद्र, हरिओम, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत जैसे महान कवियों की रचनाओं के साथ शैलेंद्र की भी एक कविता प्रकाशित कर उन्हें सम्मानित किया.
तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग, तो उतार ला ज़मीन पर…
बहरहाल, पाठकों ख़ासकर शैलेंद्र के प्रशंसकों के लिए यह एक बेहतरीन किताब है.
(स्टार न्यूज़ एजेंसी)