बिन सावन के बरसा

बिन सावन के बरसा फिर इक तन्हा बादल
किसकी आंखों का भीग गया है काजल

आंगन में आने की इक हल्की सी आहट
दिल धड़काती है, कांप उठा पलकों का पट
छूट गया फिर तन से भीगा-भीगा आंचल
बिन सावन के बरसा फिर इक तन्हा बादल

रस्ता किसका तकता है मन का सूनापन
कंगन रूठा, रूठ गई पायल की छन-छन
तन में शूल चुभाए झोंका बैरन शीतल
बिन सावन के बरसा फिर इक तन्हा बादल
-फ़िरदौस ख़ान
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सजी फूलों से राहें


आज बिखरे हैं मेरी क़िस्मत के सितारें कितने
कल तलक थे मेरी मुट्ठी में सहारे कितने

यूं भी दिन गुज़रे सजी फूलों से राहें, लेकिन
घर में बसते रहे हर सिम्त शरारे कितने

फिर बहार आई जो महकी है रफ़ाकत उसकी
देखना इसमें छुपे ख़्वाब हमारे कितने

चाह क़ुर्बत की लिए लोग भटकते हैं
कर रहे मील के पत्थर भी इशारे कितने

भीड़ ही भीड़ यहां हसरतों की किश्ती में
नाख़ुदा तूने यहां लोग उतारे कितने

सब पहुंच जाएंगे मंज़िल, भरोसा तो रखो
एक ही दरिया के होते हैं किनारे कितने

कौन अब वादिये-फ़िरदौस तेरी सैर करे
रूठते जा रहे हैं झीलों के नज़ारे कितने
-फ़िरदौस ख़ान

शब्दार्थ
शरारे=शरारे
क़ुर्बत=नज़दीकी
वादिये-फ़िरदौस= कश्मीर
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हाथों में कैसे ये मेहंदी रचा लूं

इन आंखों में सूरत तुम्हारी बसा लूं
सफ़र आख़िरी है चलो मैं विदा लूं

ख़फ़ा ज़िन्दगी का हर इक रंग मुझसे
तो हाथों में कैसे ये मेहंदी रचा लूं

बहुत दूर मंज़िल तो राहें अंधेरी
अब ऐसे में यादों की शम्में जला लूं

ये मंज़र तो अब मुझसे देखें न जाएं
मैं दुख-दर्द दुनिया के दिल में छुपा लूं

हर इक लम्हा जब मौत सिर पर खड़ी है
तो क्या ज़िन्दगी से मैं अहदे-वफ़ा लूं

ये आंखें तो 'फ़िरदौस' सूनी रहेंगी
अगर ज़वरों से मैं ख़ुद को सजा लूं
-फ़िरदौस ख़ान
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आहटें धूप की


ज़ुल्मतें जब भी मेरे घर से गुज़र जाएंगी
आहटें धूप की आंगन में उतर जाएंगी

रहगुज़ारों में अगर उम्र को भटकाओगे
हसरतें ख़्वाब के जंगल में बिखर जाएंगी

मौसम-ए-ख़ार में कलियां जो हुईं अफ़सुर्दा
चांदनी बनके बहारों में निखर जाएंगी

हर तरफ़ आग और सहरा का अजब मंज़र है
बदलियां बनके घटा किसके नगर जाएंगी

तोड़ न देना परिंदों के बसेरे फिर से
ख़्वाहिशें उड़ने की बेचारों की मर जाएंगी

दास्तां माज़ी की पूछो न, तो बेहतर होगा
बूंदें शबनम की लबे-गुल से बिखर जाएंगी

याद आएंगे फ़िरदौस के गुज़रे लम्हे
तितलियां वक़्त की कुछ और संवर जाएंगी
-फ़िरदौस ख़ान

शब्दार्थ
फ़िरदौस - जन्नत, स्वर्ग
अफ़सुर्दा - उदास
माज़ी - अतीत
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सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे

मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे

रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे

रेगज़ारों में कटती रही ज़िन्दगी
ख़ार चुभते रहे, गुनगुनाते रहे

ज़िन्दगीभर उसी अजनबी के लिए
हम भी रस्मे-दहर को निभाते रहे
-फ़िरदौस ख़ान
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तुम हो महबूब मेरे...

तुम हो महबूब मेरे तुमको बताऊं कैसे
बेक़रारी तुम्हें दिल की दिखाऊं कैसे

ज़िन्दगी में मेरी कांटों के सिवा कुछ भी नहीं
फूल राहों में तुम्हारी मैं बिछाऊं कैसे

तेरे नग़में मेरी इक उम्र का सरमाया हैं
अपनी यादों से भला इनको मिटाऊं कैसे

दरो-दीवार पे छाई हुई ख़ामोशी है
घर के आंगन में बहारों को बुलाऊं कैसे

जुस्तजू फिर मुझे सहराओं में ले आई है
वक़्त की तल्ख़ियों से ख़ुद को बचाऊं कैसे

मुझको मालूम है हर ख़्वाब की ताबीर नहीं
अपनी पलकों पे सदा इनको सजाऊं कैसे

फिर स्याह रात किनारों पे उतर आई है
बीच तूफ़ां के चराग़ों को जलाऊं कैसे
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरा साथ निभाना होगा...


सामने ग़ैर के हंसते हुए आना होगा
ऐ मेरे दर्द, मेरा साथ निभाना होगा

देख लेना मेरी तक़दीर भी चमकेगी ज़रूर
मेरी आवाज़ से रौशन ये ज़माना होगा

बेख़्याली में तुझे देख लिया था यूं ही
मुझको मालूम न था दिल ये दिवाना होगा

तेरी यादों का कफ़न ओढ़ के सो जाऊंगी
दफ़न होकर भी मुझे प्यार निभाना होगा
-फ़िरदौस ख़ान
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लुत्फ़ जब भी किसी मंज़र का उठाया हमने...

लुत्फ़ जब भी किसी मंज़र का उठाया हमने
दिल को बेचैन-सा वीरान सा पाया हमने

आज फिर याद किया धूप में जलकर उसको
आज फिर छत पे वही ख़्वाब बुलाया हमने

हादसा आज अचानक वही फिर याद आया
कितनी मुश्किल से जिसे दिल से भुलाया हमने

नर्म झोंके की तरह दिल को जो छूकर गुज़रा
ग़म उसी शख्स का ताउम्र उठाया हमने

जिसको ठुकरा दिया 'फ़िरदौस' जहां ने, उसको
अपने गीतों में सदा ख़ूब सजाया हमने
-फ़िरदौस ख़ान
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याद उस शख़्स की...


रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे
याद उस शख़्स की हर रोज़ रुलाती है मुझे

ख़्वाब जब सच के समन्दर में बिखर जाते हैं
उम्र तपते हुए सहरा में सजाती है मुझे

ज़िन्दगी एक जज़ीरा है तमन्नाओं का
धूप उल्फ़त की यही बात बताती है मुझे

हर तरफ़ मेरे मसाइल के शरार बरपा हैं
जुस्तजू अब्र की हर लम्हा बुलाती है मुझे

में संवरने की तमन्ना में बिखरती ही गई
आंधियां बनके हवा ऐसे सताती है मुझे

जब से क़िस्मत का मेरी रूठ गया है सूरज
तीरगी वक़्त की हर रोज़ डराती है मुझे

आलमे-हिज्र में 'फ़िरदौस' खो गई होती
चांदनी रोज़ रफ़ाक़त की बचाती है मुझे
-फ़िरदौस ख़ान
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मरने के हमेशा ही बहाने नहीं आते

होठों पे मुहब्बत के तराने नहीं आते
जो बीत गए फिर वो ज़माने नहीं आते

आज़ाद वतन है, इसे आज़ाद रखेंगे
मरने के हमेशा ही बहाने नहीं आते

इस देश की इज़्ज़त है तिरंगा ये हमारा
रंग इसके निगाहों में बसाने नहीं आते

बातें तो बहुत करते हैं, ये अहले-सियासत
उजड़ी हुई बस्ती को बसाने नहीं आते

पत्थर को भी हमने दिया भगवन का दर्जा
दुश्मन के भी दिल, हमको दुखाने नहीं आते
-फ़िरदौस ख़ान
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रोटी और चांद

रात के सन्नाटे में
एक लम्बी, पतली
स्याह सड़क
नागिन की तरह
बल खाती हुई
दिखाई देती है
दूर, बहुत दूर...
सड़क के एक छोर पर
खड़े पेड़ के नीचे
एक बच्चा
'रोटी-रोटी' चिल्ला रहा है
एक रोटी के लिए
भूख से बेहाल
कभी नोंचता है
मां के बिखरे हुए बाल
तो कभी
उसके आंचल का
फटा पुराना पल्लू
चबाने लगता है
ढकने की पूरी कोशिश की है
भूख न मिटने की हालत में
मां को जड़ देख
वो हाथ बढ़ाता है
दूर आसमान में
सितारों के बीच
चमकते चांद की तरफ़
अपने नन्हें हाथों से
ताली बजाता है
मानो
उसकी चाह
पूरी हो गई हो
उसे रोटी दिख गई हो
फिर वो चांद पकड़ने की
नाकाम कोशिश करता है
बच्चे के मासूम चेहरे को देख
मां के सब्र का बांध
टूट जाता है
और आंखों से
बहने लगती है
गंगा-जमना
कोसती है वो ख़ुद को
अपनी बदकिस्मती को
ग़रीबी को
अपनी मजबूरी को
फिर उसकी नज़र
जा टिकती है चांद पर
पूछती है ख़ुद से
रोटी और चांद में अंतर
आख़िर में
दोनों को ही
एक मान लेती है
क्यूंकि
दोनों ही तो
उससे दूर है, बहुत दूर...
-फ़िरदौस ख़ान

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तुम्हारे लिए...


मैं अकसर सोचती हूं
तुम्हारे लिए
एक गीत लिखूं
आसमान के काग़ज़ पर
चांदनी की रौशनाई से
मगर
मेरे जज़्बात के मुक़ाबिल
हर शय छोटी पड़ जाती है
इस कायनात की...
-फ़िरदौस ख़ान
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हमसफ़र


हमसफ़र
कहने को
महज़ एक लफ्ज़ है
लेकिन
इसमें छुपी हैं
दो धड़कते जवां दिलों की
कितनी ही उमंगें, ख़्वाहिशें
और तमन्नाएं
जिनके सहारे
इंसान
दुनिया की भूल-भूलैया में
कितनी ही दिक्क़तों को
झेलते हुए
आगे बढ़ जाता है
अपनी उस मंज़िल की चाह में
जिसके इंद्रधनुषी सपने
उसने संजोए हैं
बचपन से जवानी तक
या शायद
हसरतों के आखिरी लम्हे तक
मगर
कितना मुश्किल होता है
अपने ख्यालात, अपने अहसासात को
मुजस्सम करना
शायद
दो धड़कते जवां दिलों की इंतिहा
हमेशा
तड़पते रहने में ही है...
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरे महबूब


मेरे महबूब !
उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख़्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख़्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश  की है...

-फ़िरदौस ख़ानशब्दार्थ
परस्तिश---- पूजा
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