विंड चाइम्स...


विंड चाइम्स... कितना भला लगता है हवा से हिलती विंड चाइम्स का मधुर संगीत... कितने बरसों से ये विंड चाइम्स अपनी मधुर संगीत से दिल लुभा रही हैं... ये हमें बसंत के मौसम की याद दिला देती हैं, क्योंकि इन्हें बसंत के मौसम में ही लगाया था... और तभी से ये हमारे घर की सबसे प्यारी चीज़ों में शुमार हो गईं...

विंड चाइम्स यानी छोटे-बड़े आकार की घंटियों का समूह... इन घंटियों को इस तरह समायोजित किया जाता है कि ये हवा के झोंके से बजने लगती हैं... घंटियों के बजने से मधुर संगीत निकलता है, जो बेहद कर्णप्रिय लगता है... मन कितना ही उदास हो, इनका मधुर संगीत सारी उदासी दूर भगा देता है... इनके संगीत से माहौल ख़ुशनुमा हो जाता है...

हिंदुस्तान में लाफ़िंग बुद्धा के बाद विंड चाइम्स सर्वाधिक लोकप्रिय हैं... यह बौद्ध संस्कृति की देन है, जो चीन और जापान होते हुए आज पूरी दुनिया में मशहूर हो गईं... फ़ेंगशुई के मुताबिक़ विंड चाइम्स घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करती हैं... बाज़ार में छोटे-बड़े सभी आकार में विंड चाइम्स मिल जाती हैं... ये मेटल, क्रिस्‍टल, बांस, लकड़ी और फ़ाइबर की भी होती हैं... हमें मेटल की विंड चाइम्स ही सबसे ज़्यादा भाती हैं...
(ज़िंदगी की किताब का एक वर्क़...)
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हरे बॊर्डर वाली पीली साड़ी...


साड़ी... रंग-बिरंगी साड़ियां किसी का भी मन मोह लेती हैं. हमें साड़ी बहुत पसंद है. ख़ासकर बॉर्डर वाली साड़ियां. किसी भी ख़ास मौक़े पर हम साड़ी ही बांधते हैं. दफ़्तर में जींस-शर्ट या जींस कुर्ता ही हमें ठीक लगता है. सफ़र के दौरान भी जींस-शर्ट से बेहतर कोई पहनावा नहीं. घर में तो सलवार-कमीज़ या लॉन्ग स्कर्ट कुछ भी पहन लो.

जब दूरदर्शन में पहला कार्यक्रम था, तो हमसे कहा गया कि हमें बॉर्डर वाली साड़ी पहननी है. कहने को तो हमारे पास बहुत-सी साड़ियां थीं, जो पापा मम्मा के लिए लाते थे. सभी ज़री वाली साड़ियां थीं. जैसी बॉर्डर वाली सादी साड़ी हमें चाहिए थी, वह हमारे पास नहीं थी. शाम भी काफ़ी हो चुकी थी. बाज़ार से साड़ी ले भी आते, लेकिन ब्लाऊज़ का क्या करें. यही दिक़्क़त पेश आ रही थी. हमने पड़ौस की आंटी से बात की कि क्या वह सुबह 11 बजे तक हमें ब्लाऊज़ सील कर दे सकती हैं. उन्होंने इतने जल्दी ब्लाऊज़ सील कर देने से मना कर दिया. अच्छी बात यह रही कि उन्होंने हमारी परेशानी हल कर दी. उन्होंने हमें अपनी नई हरे बॉर्डर वाली पीली साड़ी दी और ब्लाऊज़ की दोनों तरफ़ कच्ची सिलाई करके उसे हमारे नाप का बना दिया. हम बहुत ख़ुश थे.

हमने हरे बॉर्डर वाली पीली साड़ी पहनकर कार्यक्रम किया. कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा. उसके बाद तो हमने बॉर्डर वाली कई साड़ियां ख़रीदीं. आज हमारे पास इतनी साड़ियां हैं कि हमें उनकी गिनती तक याद नहीं. बाज़ार में कुछ भी लेने जाएं, कोई साड़ी पसंद आ जाए, तो ख़रीद ही लेते हैं. लेकिन हरे बॉर्डर वाली पीली साड़ी को हमें कभी नहीं भूल सकते. वह तो हमारी यादों में बस चुकी है. हमें बसंत पंचमी के लिए एक साड़ी ख़रीदनी है. सोच रहे हैं कि हरे बॉर्डर वाली पीले रंग की साड़ी ही लें.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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ज़िंदादिली की मिसाल स्टीफ़न हॉकिंग


फ़िरदौस ख़ान
इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता. अपनी हिम्मत और लगन के बूते वह नामुमकिन को भी मुमकिन बना सकता है. इसकी एक बेहतरीन मिसाल है स्टीफ़न हॉकिंग, जिन्होंने असाध्य बीमारी के बावजूद कामयाबी के आसमान को छुआ. तक़रीबन 22 साल की उम्र में उन्हें एमियो ट्रोफिक लेटरल स्केलरोसिस नामक बीमारी हो गई थी. यह ऐसी बीमारी है, जो कभी ठीक नहीं होती. इसकी वजह से व्यक्ति का पूरा जिस्म अपंग हो जाता है, सिर्फ़ दिमाग़ ही काम करने योग्य रहता है. स्टीफ़न ने एक बार कहा था कि मैं भाग्यशाली हूं कि मेरा केवल शरीर बीमार हुआ है. मेरे मन और दिमाग़ तक रोग पहुंच नहीं पाया. हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित स्टीफ़न हॉकिंग एक महान वैज्ञानिक नामक किताब एक महान वैज्ञानिक से रूबरू कराती है. स्टीफ़न हॉकिंग न्यूटन और आइंस्टीन के समकक्ष ख़डे हैं. कॉस्मोलोजिस्ट, मैथेमेटिशियन, कैंब्रिज में ल्यूकेशियन प्रोफ़ेसर, अंतरिक्ष और ब्लैक होल से पर्दा उठाने वाले, आकाश में काले गड्ढे ढूंढने वाले, अंतरिक्ष के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाने वाले स्टीफ़न हॉकिंग ने 12 मानद उपाधियां हासिल कीं और अनेक पुरस्कारों से उन्हें नवाज़ा जा चुका है. उनकी किताब ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम ने ब्रिकी के रिकॉर्ड क़ायम किए. उन्होंने ज़ीरो ग्रेटीविटी फ़्लाइट से अंतरिक्ष की यात्रा की.

यह किताब स्टीफ़न हॉकिंग की ज़िंदगी के विभिन्न पहुलुओं पर रौशनी डालती है. इसमें उनकी निजी ज़िदगी के अलावा उनके कार्यों का भी लेखा-जोखा है. स्टीफ़न हॉकिंग ने एक आम व्यक्ति की तरह ही ज़िंदगी को जिया. यहां रिश्तों में मिठास भी है, तो कहीं-कहीं क़डवाहट भी देखने को मिलती है, वजह चाहे जो भी रही हो. कहा जाता है कि कामयाबी पाना एक बात है और उसे पचा ले जाना दूसरी बात है. लगता है स्टी़फन के संबंध में भी यही हुआ. शायद वह अपनी कामयाबी को हज़म नहीं कर पाए. कहते हैं कि सफ़लता के घमंड में आगे चलकर उनका अनुसंधान कार्य कमज़ोर पड़ने लगा. उनकी हिम्मत और धैर्य हठ में बदलने लगे. हालांकि वह सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे थे, लेकिन उनकी अपेक्षाएं ब़ढने लगीं. जीवन के विभिन्न पहलू उन्हें प्रभावित करने लगे. अपनी इच्छाओं को पूरा करने में ही उनका अधिकांश समय बीतने लगा. किसी की बात अस्वीकार करना उन्हें कठिन लगने लगा. सभी का निमंत्रण स्वीकार करके हर जगह जाने लगे. विदेश यात्राएं, अलंकार, मेडल, सम्मान, प्रशंसा आदि सब एकत्र होकर स्टी़फन को अपनी पत्नी और बच्चों से दूर ले जाने लगे. उनके साथ जेन का विदेश जाना भी कम हो गया. इस कार्य को उनकी नर्सें करने लगीं. स्टीफ़न के जीवन में जेन की सहभागिता कम होने लगी. अपने बीमार पति को साहस देने, ढांढस बंधाने और प्रेरित करने का काम लगभग समाप्त हो गया. अब एक ही काम बचा था. उन्हें हर समय यह बताना कि तुम परमात्मा नहीं हो और न बन सकते हो. 1990 तक उनका वैवाहिक जीवन सामान्य चल रहा था. विवाह को 25 वर्ष पूरे हो रहे थे. अत: उन्होंने इसे एक महोत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लिया, लेकिन दूसरी ओर अलग ही खिचड़ी पक रही थी. स्टीफ़न का रोमांस अपनी नर्स इलाइन के साथ ब़ढ रहा था. यद्यपि जेन इस संबंध को उसी प्रकार स्वीकार करने को तैयार थीं, जिस प्रकार स्टीफ़न ने जेन और जोनाथन के संबंधों को स्वीकार किया था कि इस प्रकार का संबंध गुप्त रहेगा. परिवार और बच्चों को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाएगा, लेकिन शायद अब पानी सिर के ऊपर से गुज़र रहा था. अक्टूबर 1989 में लूसी फ्रेंच और स्पेनिश प़ढने के लिए ऑक्सफोर्ड चली गई. रॉबर्ट अपनी परास्नातक की पढ़ाई के लिए ग्लासगो चले गए. अवसर पाकर स्टीफ़न ने जेन को अपने अलग होने और इलाइन के साथ रहने की चिट्ठी थमा दी. दोनों आकस्मिक रूप से अलग हो गए, लेकिन दोनों में से किसी ने भी इस संबंध विच्छेद की सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की और न संबंध विच्छेद का कोई कारण ही बताया. हालांकि स्टीफ़न ने अपने आपको बहुत भाग्यशाली माना है. उन्होंने अपनी पुस्तक ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम की भूमिका में स्वीकार किया है कि उनकी पत्नी जेन और बच्चों रॉबर्ट, लूसी एवं टिम की सहायता, सहयोग एवं प्रेरणा के बलबूते ही मैंने अपना साधारण जीवन जिया और इतना ऊंचा करियर बनाया. उन सबके सहयोग के बिना यह सब संभव नहीं था.

स्टीफ़न की ख्याति दिनोदिन ब़ढ रही थी. बसंत 1989 की बात है जब एक फ़िल्म निर्माता गोरडन फ्रीडमेन ने स्टीफ़न के सामने उनकी किताब ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम पर फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव रखा. स्टीफ़न तैयार हो गए, लेकिन उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि उनकी फ़िल्म भी उनकी किताब की तरह ही होनी चाहिए, यानी फ़िल्म विज्ञान पर हो, वैज्ञानिक पर नहीं. आख़िरकार फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई तो स्टीफ़न ने महसूस किया कि कई साक्षात्कार कार्यक्रम और दृश्य, परिवार और दोस्तों के साथ फ़िल्माए जा चुके हैं, लेकिन यह बायोग्राफ़ी तो आधी ही है. यानी उनकी पत्नी का इसमें कोई योगदान नहीं है. जेन से संपर्क किया गया और उनसे फ़िल्म में शामिल होने का अनुरोध किया गया, लेकिन जेन ने इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया. शायद वह नहीं चाहती थीं कि उनकी व्यक्तिगत जीवन कैमरे के सामने आए. इस संबंध में स्टीफ़न ने भी ख़ामोशी अख़्तियार कर ली. अकादमी ऑफ़ मोशन पिक्चर आर्ट एंड साइन्स में 14 अगस्त, 1994 को इस फ़िल्म का प्रीमियर शो किया गया. फ़िल्म कामयाबी रही. इसके बाद स्टीफ़न और इलाइन मेसन ने 16 सितंबर, 1995 को शादी कर ली. इस शादी में जेन और स्टीफ़न के बच्चे शामिल नहीं हुए.

असाध्य बीमारी के बावजूद स्टीफ़न ने कभी हार नहीं मानी. एक साक्षात्कार में अपनी बीमारी के बारे में उन्होंने कहा था, मैं अपनी बीमारी के प्रति कृतज्ञ हूं, जिसके कारण मैं अपना पूरा ध्यान शोध कार्य में लगा सका और समय खाऊ कार्यों से बच सका. अगर मैं शारीरिक रूप से स्वस्थ होता तो शायद इतना न कर पाता. मैं अपनी इस बीमारी के कारण ही थ्योरिटिकल फ़िज़िक्स में काम कर सका, क्योंकि इस काम में मेरी यह गंभीर बीमारी कभी बाधा नहीं बनी. इसका मुझे संतोष है. उन्होंने कॉस्मोलॉजी विषय को अपना शोध विषय बनाया और ब्रह्मांड की खोज में लग गए. अभी तक ब्रह्मांड के ओर-छोर का पता नहीं लग पाया है. उन्होंने अपने साथी कीप और पर्सकिल के साथ मिलकर ब्लैक होल्स पर भी का़फी काम किया है. उन्होंने बताया कि ब्लैक होल में जो कुछ भी जाएगा, स्वाहा हो जाएगा.

फ़िलहाल अपनी दूसरी पत्नी इलाइन से तलाक़ के बाद वह अकेले जीवन गुज़ार रहे हैं. 8 जनवरी, 2012 को उनका 70वां जन्मदिन मनाया गया. लोगों का कहना है कि एमियो ट्रोफिक लेटरल स्केलरोसिस जैसी बीमारी के बाद किसी को 50 वर्ष तक जीवित रहते नहीं देखा गया. वह विकलांगों के लिए भी काम करते हैं. उन्होंने विकलांगों के लिए उपलब्ध तकनीक का प्रसार किया. इसके लिए उन्हें प्राइड मोबिलिटी की तरफ़ से क्वान्टम जेजी 1400 नाम की व्हीलचेयर भी मिली, जिसकी तुलना उन्होंने फ़ेरारी गा़डी से की. परमाणु शक्ति का इस्तेमाल मानव कल्याण के लिए करने के हिमायती स्टीफ़न चाहते हैं कि विज्ञान परमाणु की इस शक्ति को ऊर्जा के स्रोत के रूप में विकसित करे. बहरहाल, स्टीफ़न हॉकिंग की यह जीवनी जहां इस महान वैज्ञानिक से रूबरू कराती है, वहीं यह भी सबक़ देती है कि इंसान को कभी मायूस नहीं होना चाहिए. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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अपना घर...


बहुत कम ही ऐसी लड़कियां होती हैं, जिनका अपना घर होता है... जहां वे जन्म लेती हैं, वो उनके पिता का घर होता है... और शादी के बाद पति का घर... लेकिन इन दोनों ही घरों में उनका अपना कुछ नहीं होता... वे तो अपनी मर्ज़ी से अपने लिए एक कमरा भी नहीं चुन सकतीं... पिता के घर में यह हक़ भाइयों को ही मिलता है... वे अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद का कमरा चुनते हैं... दलील होती है कि उनकी बीवी आएगी, तो इसी कमरे में रहेगी... लड़की को तो एक न एक दिन ससुराल चले जाना ही है... फिर शादी के बाद उन्हें उसी कमरे में रहना होता है, जो उनके पति को मिला होता है... यहां भी उन्हें अपनी मर्ज़ी से कोई कमरा चुनने का हक़ नहीं मिलता...

लेकिन जो लड़कियां काम करती हैं... अपनी मेहनत के पैसों से एक घर ख़रीदती हैं, भले ही वह ज़्यादा बड़ा न हो... वही उनका अपना घर होता है... इस घर की एक-एक चीज़ पर उनका अपना हक़ होता है... वे दीवारों पर अपनी पसंद का रंग करा सकती हैं... दरवाज़ों और खिड़कियों पर अपनी मर्ज़ी के रं-बिरंगे पर्दे लगा सकती हैं... फ़र्श पर अपनी पसंद की चांदनी बिछा सकती हैं... मेज़ पर अपनी पसंद के फूल सजा सकती हैं... गमलों में अपनी पसंद से बेला, चमेली या गुलाब उगा सकती हैं... यानी अपनी मर्ज़ी से अपना घर सजा सकती हैं...
सच ! कितना प्यारा होता है अपना घर... काश ! हर लड़की को मिल सकता उसका अपना घर..
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नये साल का तोहफ़ा...



भारतकोश की तरफ़ से हमारे लिए नये साल का बेहतरीन तोहफ़ा... हम भारतकोश के तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हैं...

फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से जाना जाता है. वह पत्रकारशायरा और कहानीकार हैं. वह कई भाषाओं की जानकार हैं. उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं. उन्होंने अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का संपादन भी किया. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर उनके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनलों के लिए भी काम किया है. वह देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रोंपत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लिखती रही हैं. उत्कृष्ट पत्रकारिताकुशल संपादन और लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. वह कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वह शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली. उर्दूपंजाबीअंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में उनकी ख़ास दिलचस्पी है. वह मासिक पैग़ामे-मादरे-वतन की भी संपादक रही हैं और मासिक वंचित जनता में संपादकीय सलाहकार हैं. वह स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं. 'स्टार न्यूज़ एजेंसीऔर 'स्टार वेब मीडियानाम से उनके दो न्यूज़ पॉर्टल भी हैं. 

वह रूहानियत में यक़ीन रखती हैं और सूफ़ी सिलसिले से जुड़ी हैं. उन्होंने सूफ़ी-संतों के जीवन दर्शन और पर आधारित एक किताब 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूतलिखी हैजिसे साल 2009 में प्रभात प्रकाशन समूह ने प्रकाशित किया था. वह अपने पिता स्वर्गीय सत्तार अहमद ख़ान और माता श्रीमती ख़ुशनूदी ख़ान को अपना आदर्श मानती हैं. हाल में उन्होंने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद किया है. क़ाबिले-ग़ौर है कि सबसे पहले फ़िरदौस ख़ान ने ही कांग्रेस के उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी को ’शहज़ादा’ कहकर संबोधित किया था, तभी से राहुल गांधी के लिए ’शहज़ादा’ शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. 

वह बलॉग भी लिखती हैं. उनके कई बलॉग हैं. फ़िरदौस डायरी और मेरी डायरी उनके हिंदी के बलॉग है. हीर पंजाबी का बलॉग है. जहांनुमा उर्दू का बलॉग है और द पैराडाइज़ अंग्रेज़ी का बलॉग है.   

उनकी शायरी किसी को भी अपना मुरीद बना लेने की तासीर रखती है. मगर जब वह हालात पर तब्सिरा करती हैं, तो उनकी क़लम तलवार से भी ज़्यादा तेज़ हो जाती है. जहां उनकी शायरी में इश्क़, समर्पण, रूहानियत और पाकीज़गी है, वहीं लेखों में ज्वलंत सवाल मिलते है, जो पाठक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं. अपने बारे में वह कहती हैं- 
मेरे अल्फ़ाज़मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैंक्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं...फ़िरदौस ख़ान

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