फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेज़ी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेज़ी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।
अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेज़ी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।
देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।
हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।
ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।
देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।
संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।
भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।
ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।
संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।
हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए।
रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।
एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।
अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।
अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?
रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।
किस किंवदंती के आधार पर?
एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।
तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।