झाड़ू की सींकों का घर...


जी, हां ये बात बिल्कुल सच है. जो चीज़ हमारे लिए बेकार है, उससे किसी का आशियाना भी बन सकता है.    
बहुत साल पहले की बात है. अक्टूबर का ही महीना था. हमने देखा कि कई कबूतर आंगन में सुखाने के लिए रखी झाड़ू की सींकें निकाल रहे हैं. हर कबूतर बड़ी मशक़्क़त से एक सींक खींचता और उड़ जाता. हमने सोचा कि देखें कि आख़िर ये कबूतर झाड़ू की सीकें लेकर कहां जा रहे हैं. हमने देखा कि एक कबूतर सामने के घर के छज्जे पर रखे एक कनस्तर में सींकें इकट्ठी कर रहा है और दो कबूतर दाईं तरफ़ के घर की दीवार में बने रौशनदान में एक घोंसला बना रहे हैं. कबूतरों के उड़ने के बाद हमने झाड़ू को खोल कर उसकी सींकें बिखेर दीं, ताकि वे आसानी से अपने नन्हे घर के लिए सींकें ले जा सकें. अब हमने इसे अपनी आदत में शुमार कर लिया. पुरानी छोटी झाड़ुओं को फेंकने की बजाय संभाल कर रख देते हैं. जब इस मौसम में कबूतर झाड़ू की सींके खींचने लगते हैं, तो हमें पता चल जाता है कि ये अपना घोंसला बनाने वाले हैं. गुज़श्ता दो दिनों में कबूतर हमारी दो झाड़ुओं की सींकें लेकर जा चुके हैं. 
हम चमेली व दीगर पौधों की सूखी टहनियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके पानी के कूंडों के पास बिखेर देते हैं, ताकि पानी पीने के लिए आने वाले परिन्दों इन्हें लेकर जा सकें. 

आपसे ग़ुज़ारिश है कि अगर आपके आसपास भी परिन्दे हैं, तो आप भी अपनी पुरानी झाड़ुओं की सींकें कबूतरों के लिए रख दें, ताकि इनसे उनके नन्हे आशियाने बन सकें.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत इंसान


राहुल गांधी की ये तस्वीर ख़ूब वायरल हो रही है. इस तस्वीर को लेकर राहुल गांधी की उम्र, उनके चेहरे की झुर्रियों, उनकी सफ़ेद होती दाढ़ी और सफ़ेद बालों पर ख़ूब तंज़ किए जा रहे हैं.


ये बरहक़ है कि जो पैदा हुआ है वह उम्र के मुख़्तलिफ़ मरहलों से गुज़रता है. पहले वह बच्चा होता है, फिर वह अपनी जवानी को पहुंचता है और इसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता ज़ईफ़ी की तरफ़ बढ़ता है. 
ख़ुशनसीब हैं वे लोग जो बूढ़े होते हैं, क्योंकि मौत के ज़ालिम पंजे किसी को पैदा होते ही अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं, तो किसी को बचपन में उनके अपनों से छीन लेते हैं. कितने ही लोग भरी जवानी में मौत की आग़ोश में समा जाते हैं. 

क्या बूढ़ा होना कोई गुनाह है? क्या चेहरे की झुर्रियां शर्म की बात है? क्या दाढ़ी सफ़ेद होना नदामत की बात है?
ख़ूबसूरत लोग हमेशा ख़ूबसूरत नहीं रहते, लेकिन अच्छे लोग हमेशा ख़ूबसूरत होते हैं. हमारे नज़दीक राहुल गांधी दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत इंसान हैं और हमेशा रहेंगे.
फ़िरदौस ख़ान  
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निस्बत

 हमारी बारिश की फुहारों से निस्बत यूं ही नहीं...  





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रहें न रहें हम, महका करेंगे…

फ़िरदौस ख़ान
गीत जब ज़ुबान पर चढ़ जाते हैं, तो वे सीधे दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं. यह गीत के शब्दों का ही जादू है कि वे गीतकार को अमर कर देते हैं. बानगी देखिए-      
महबूब मेरे, महबूब मेरे... 
तू है तो दुनिया कितनी हसीं है
जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं है
महबूब मेरे, महबूब मेरे... 
मुहब्बत के जज़्बे से लबरेज़ यह गीत लिखा था मशहूर शायर व गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने. फ़िल्म ‘पत्थर के सनम’ के इस गीत में जहां वह महबूब के ज़िन्दगी में होने के अहसास को शब्दों में पिरोते हैं, वहीं फ़िल्म अभिलाषा के गीत में कायनात को ख़ुद में ही समेट लेने चाहते हैं-
वादियां मेरा दामन, रास्ते मेरी बाहें
जाओ मेरे सिवा, तुम कहां जाओगे...
 
ग़ौरतलब है कि मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हसन ख़ान था. उनका जन्म एक अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में हुआ था. उनके पिता पुलिस विभाग में उपनिरीक्षक थे. मजरूह सुल्तानपुरी ने दरसे-निज़ामी का कोर्स किया. इसके बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तिब्ब कॉलेज से यूनानी पद्धति में डॉक्टरी की डिग्री हासिल की. फिर वह हकीम के तौर पर काम करने लगे, मगर उन्हें यह काम रास नहीं आया, क्योंकि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी शेअरो-शायरी में थी. जब भी मौक़ा मिलता, वह मुशायरों में शिरकत करते. उन्होंने अपना तख़ल्लुस यानी उपनाम मजरूह रख लिया. शायरी से उन्हें ख़ासी शोहरत मिली और वह मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए.
उन्होंने अपना हकीमी का काम छोड़ दिया. एक मुशायरे में उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी की हौसला अफ़ज़ाई की. साल 1945 में वे एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता एआर कारदार से हुई. कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने इससे इंकार कर दिया, क्योंकि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे. जब मजरूह सुल्तानपुरी ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी. मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया. मशहूर संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा. मजरूह सुल्तानपुरी ने उस धुन पर गेसू बिखराए, बादल आए झूम के... गीत लिखा. इससे नौशाद ख़ासे मुतासिर हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म शाहजहां के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी. मजरूह सुल्तानपुरी ने हर दौर के संगीतकारों के साथ काम किया. वह वामपंथी विचारधारा से ख़ासे प्रभावित थे. वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़ गए थे. उन्होंने 1940 के दशक में मुंबई में एक नज़्म माज़-ए-साथी जाने न पाए, पढ़ी थी. तत्कालीन सरकार ने इसे सत्ता विरोधी क़रार दिया था. सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने माफ़ी मांगने से साफ़ इंकार कर दिया. नतीजतन, उन्हें दो साल की सज़ा हुई और इस तरह उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का काफ़ी अरसा मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताना पड़ा. गुज़रते वक़्त के साथ-साथ उनके चाहने वालों की तादाद में इज़ाफ़ा होता चला गया. उनका कहना था-
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी भले ही फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे, लेकिन उनका पहला प्यार ग़ज़ल ही रही. उनकी एक ग़ज़ल देखें- 
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
वो तो हैं कहीं और मगर दिल के आसपास
फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह
सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूं ही कभी-कभी
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह
अब जाके कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनून
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह 

उन्होंने शायरी को महज़ मुहब्बत के जज़्बे तक ही महदूद न रखकर उसमें ज़िन्दगी की जद्दोजहद को भी शामिल किया. उन्होंने ज़िन्दगी को जहां एक आम आदमी की नज़र से देखा, वहीं उन्होंने ज़िन्दगी को एक दार्शनिक के नज़रिये से भी देखा. उनकी शायरी इस बात का सबूत है. जेल में रहने के दौरान साल 1949 में लिखा उनका फ़िल्मी गीत- एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल… ज़िन्दगी की सच्चाई को बयान करता है. दरअसल क़ैद की वजह से उनके परिवार की माली हालत बहुत ख़राब हो गई थी. हालांकि उनकी मदद के लिए कई लोग आगे आए, लेकिन उन्होंने किसी ने भी मदद लेना गवारा नहीं किया. उसी दौरान प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता व अभिनेता राजकपूर ने उनसे मुलाक़ात की और उनसे अपनी फ़िल्म के लिए गीत लिखने को कहा, जिस पर उन्होंने यह गीत लिखा, जो आज भी ख़ूब पसंद किया जाता है. राजकपूर इस गीत से इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने इस गीत को लिखने के लिए उन्हें एक हज़ार रुपये दिए, जो उस वक़्त एक गीत के लिए बड़ी रक़म थी.
जेल से आने के बाद उन्होंने फिर से अपना शायरी का सफ़र शुरू किया. उन्होंने जहां बेहतरीन ग़ज़लें लिखीं, वहीं फ़िल्मों के लिए भी शानदार गीत लिखे. उन्होंने फुटपाथ, आरपार, पत्थर के सनम, अभिलाषा, ममता, पाकीज़ा, सीआईडी, दोस्ती, पेइंग गेस्ट, नौ दो ग्यारह, चलती का नाम गाड़ी, सुजाता, सोलहवां साल, बंबई का बाबू, काला पानी, बात एक रात की, तीन देवियां, अभिमान, ज्वैल थीफ़, तीसरी मंज़िल, बहारों के सपने, प्यार का मौसम, कारवां, हम किसी से कम नहीं, ज़माने को दिखाना है, ऊंचे लोग, अकेले हम अकेले तुम आदि फ़िल्मों के लिए दिलकश गीत लिखकर धूम मचा दी. उनके गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गए और कामयाबी उनके क़दम चूमने लगी.  

बक़ौल बेकल उत्साही, मजरूह सुल्तानपुरी एक ऐसे शायर थे, जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्हें एक हद तक प्रयोगवादी शायर और गीतकार भी कहा जा सकता है. उन्होंने अवध के लोकगीतों का रस भी अपनी रचनाओं में घोला था. इससे पहले शायरी की किसी और रचना में ऐसा नहीं देखा गया था. उन्होंने फ़िल्मी गीतों को साहित्य की बुलंदियों पर पहुंचाने में अहम किरदार निभाया. साल 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ऊंचे लोग का यह गीत इस बात की तस्दीक करता है-
एक परी कुछ शाद सी, नाशाद-सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की
भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना
साल 1994 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे. साल 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत- चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें साल 1980 में ग़ालिब अवार्ड और साल 1992 में इक़बाल अवार्ड से समानित किया गया था. मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशकों से भी ज़्यादा अरसे तक तीन सौ से ज़्यादा फ़िल्मों के लिए चार हज़ार से ज़्यादा गीत लिखे. उन्होंने नौशाद साहब से लेकर अनु मलिक, जतिन ललित, एआर रहमान और लेस्ली लेविस तक के साथ काम किया.
मजरूह सुल्तानपुरी ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर कर दिया. फ़िल्म ‘ममता’ के लिए लिखा उनका यह गीत यह बताने के लिए काफ़ी है कि वह आज भी अपने गीतों के ज़रिये हमारे दिलों में ज़िन्दा हैं-

रहें ना रहें हम, महका करेंगे
बनके कली बनके सबा बाग़े वफ़ा में...
मौसम कोई हो इस चमन में, रंग बनके रहेंगे हम ख़िरामां  
चाहत की ख़ुशबू यूं ही ज़ुल्फ़ों से उड़ेगी, खिज़ा हों या बहारां
यूं ही झूमते, यूं ही झूमते और खिलते रहेंगे
बनके कली बनके सबा बाग़े-वफ़ा में
रहें ना रहें हम...

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अख़बारों से ग़ायब होता साहित्य

फ़िरदौस ख़ान 
हमारी ज़िंदगी में किताबों की बहुत अहमियत है... हम तो किताबों के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर तक नहीं कर सकते... उन्हें भी किताबें पढ़ने का इतना ही शौक़ है... सफ़र में जाते वक़्त सबसे पहले किताब ही बैग में रखते हैं... किताबें पढ़ना एक अच्छी आदत... जिसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए... किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं... ये हमें अज्ञान के अंधेरे से ज्ञान की रौशनी में ले जाती हैं... अख़बार में भी हम संपादकीय के बाद सबसे पहले उसका साहित्य पेज ही देखते हैं... लेकिन अकसर मायूसी ही हाथ आती है, क्योंकि अब अख़बारों से साहित्य ग़ायब होता जा रहा है...
साहित्य समाज का आईना होता है. जिस समाज में जो घटता है, वही उस समाज के साहित्य में दिखलाई देता है. साहित्य के ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद नहीं हुआ है. साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है. जिस समाज का साहित्य जितना ज़्यादा उत्कृष्ट होगा, वह समाज उतना ही ज़्यादा सुसंस्कृत और समृद्ध होगा. प्राचीन भारत की गौरवमयी संस्कृति का पता इसके साहित्य से ही चलता है. प्राचीन काल में भी यहां के लोग सुसंस्कृत और शिक्षित थे, तभी उस समय वेद-पुराणों जैसे महान ग्रंथों की रचना हो सकी. महर्षि वाल्मीकि की रामायण और श्रीमद भागवत गीता भी इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. हिंदुस्तान में संस्कृत के साथ हिंदी और स्थानीय भाषाओं का भी बेहतरीन साहित्य मौजूद है. एक ज़माने में साहित्यकारों की रचनाएं अख़बारों में ख़ूब प्रकाशित हुआ करती थीं. कई प्रसिद्ध साहित्यकार अख़बारों से सीधे रूप से जु़डे हुए थे. साहित्य पेज अख़बारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, लेकिन बदलते वक़्त के साथ-साथ अख़बारों और पत्रिकाओं से साहित्य ग़ायब होने लगा. इसकी एक बड़ी वजह अख़बारों में ग़ैर साहित्यिक लोगों का वर्चस्व भी रहा. उन्होंने साहित्य की बजाय सियासी विषयों और गॉसिप को ज़्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया. अख़बारों और पत्रिकाओं में फ़िल्मी, टीवी गपशप और नायिकाओं की शरीर दिखाऊ तस्वीरें प्रमुखता से छपने लगीं.
पिछले दिनों एक मुलाक़ात के दौरान इसी मुद्दे पर मशहूर फ़िल्म गीतकार जावेद अख्तर साहब से गुफ़्तगू हुई. इसी साल मार्च में हमने उनके ग़ज़ल और नज़्म संग्रह लावा की समीक्षा की थी... इसे राजकमल प्रकाशन ने शाया किया था... क़रीब डेढ़ दशक से ज़्यादा अरसे बाद दूसरा संग्रह आने पर जावेद साहब ने कहा था अगर मेरी सुस्ती और आलस्य को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो इस देर की एक वजह बताई जा सकती है कि मेरे ख़्याल में एक के बाद दूसरे संग्रहों का अंबार लगा देना अपने अंदर कोई कारनामा नहीं है. मैं समझता हूं कि अगर अंबार लगे तो नये-नये विचारों का लगना चाहिए. जिस विचार को रचना का रूप मिल चुका हो, जिस विचार को अभिव्यक्ति मिल चुकी हो, उसे अगर किसी कारण कहने की ज़रूरत महसूस भी हो रही हो, तो कम से कम कथन शैली में ही कोई नवीनता, कोई विशिष्टता हो, वरना पाठक और श्रोता को बिना वजह तकलीफ़ क्यों दी जाए. अगर नवीनता सिर्फ़ नयेपन के लिए है तो कोई लाख समझे कि उसकी शायरी में सुर्ख़ाब के पर लग गए हैं, मगर उन परों में उड़ने की ताक़त नहीं हो सकती. बात तो जब है कि अक़ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उसे तन्हा छोड़ दिया गया है. मैं जानता हूं कि इसमें असंगति है, मगर बेख़ुदी-ओ-शायरी, सादगी-ओ-पुरकारी, ये सब एक साथ दरकार हैं. वह कहते हैं कि दरअसल, शायरी बुद्धि और मन का मिश्रण, विचार और भावनाओं का समन्वय मांगती है. मैंने सच्चे दिल से यही कोशिश की है कि मैं शायरी की यह फ़रमाइश पूरी कर सकूं. शायद इसलिए देर लग गई. फिर भी कौन जाने यह फ़रमाइश किस हद तक पूरी हो सकी है. 
बहरहाल, जावेद साहब की किताब लावा के बारे में फिर कभी तफ़सील से बात करेंगे. इसलिए मुद्दे पर आते हैं. अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर जावेद साहब का कहना था-यह एक बहुत ही परेशानी और सोच की बात है कि हमारे समाज में ज़ुबान सिकु़ड़ रही है, सिमट रही है. हमारे यहां तालीम का जो निज़ाम है, उसमें साहित्य को, कविता को वह अहमियत हासिल नहीं है, जो होनी चाहिए थी. ऐसा लगता है कि इससे क्या होगा. वही चीज़ें काम की हैं, जिससे आगे चलकर नौकरी मिल सके, आदमी पैसा कमा सके. अब कोई संस्कृति और साहित्य से पैसा थोड़े ही कमा सकता है. पैसा कमाना बहुत ज़रूरी चीज़ है. कौन पैसा कमा रहा है और ख़र्च कैसे हो रहा है, यह भी बहुत ज़रूरी चीज़ है. यह फ़ैसला इंसान का मज़हब और तहज़ीब करते हैं कि वह जो पाएगा, उसे ख़र्च कैसे करेगा. जब तक आम लोगों ख़ासकर नई नस्ल को साहित्य के बारे में, कविता के बारे में नहीं मालूम होगा, तब तक ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो ही नहीं सकती. अगर आम इंसान को इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा तो फिर वह अख़बारों से भी ग़ायब होगा, क्योंकि अख़बार तो आम लोगों के लिए होते हैं. मैं समझता हूं कि हमें अपने अख़बारों पर नाराज़ होने और शिकायतें करने की बजाय अपनी शैक्षिक व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. हमें साहित्य को स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक महत्व देना होगा. अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी साहित्य को जगह देनी होगी. जब हम ख़ुद साहित्य की अहमियत समझेंगे तो वह किताबों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में भी झलकेगा.
वरिष्ठ साहित्यकार असग़र वज़ाहत भी अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर फ़िक्रमंद नज़र आते हैं. उनका कहना है कि अख़बार समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं. मौजूदा दौर में अख़बारों से साहित्य ग़ायब हो गया है. इसे दोबारा वापस लाया जाना चाहिए, क्योंकि आज इसकी सख्त ज़रूरत है. वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी का मानना था कि अख़बारों से साहित्य ग़ायब होने के लिए सिर्फ़ अख़बार वाले ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. पहले जो पढ़ने-लिखने जाते थे, वही लोग अख़बारों के भी पाठक होते थे. पहले जो व्यक्ति पाठक रहा होगा, उसने शेक्सपियर भी पढ़ा था. उसने रवींद्रनाथ टैगोर को भी पढ़ा था. उसने प्रेमचंद, शरतचंद्र, मार्क्स और टॉलस्टाय को भी पढ़ा था. लेकिन सरकार के साक्षरता अभियान की वजह से समाज में साक्षरता तो आ गई, लेकिन पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हो गई. नव साक्षरों की तरह ही नव पत्रकारों को भी साहित्य की ज़्यादा जानकारी नहीं है. पहले भी साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों को अख़बारों से पर्याप्त साहित्य पढ़ने को कहां मिलता था. वे साहित्य पढ़ने की शुरुआत तो अ़खबारों से करते थे, लेकिन साहित्यिक किताबों से ही उनकी पढ़ने की ललक पूरी होती थी. अब लोग अख़बार पढ़ने की बजाय टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में अख़बारों से साहित्य ग़ायब होगा ही.
माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी डॉ. सौरभ मालवीय अख़बारों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है कि वर्तमान में मीडिया समाज के लिए मज़बूत कड़ी साबित हो रहा है. अख़बारों की प्रासंगिकता हमेशा से रही है और आगे भी रहेगी. मीडिया में बदलाव युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से अख़बारों में गिरावट देखने को मिल रही है. इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में अख़बारों से साहित्य लोप हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में अख़बारों की महती भूमिका रही है. मगर आज अख़बारों ने ही ख़ुद को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है. आज ज़रूरत है कि अख़बारों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएं. युवा लेखक अमित शर्मा का कहना है कि राजेंद्र माथुर अख़बार को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे. अब न उस तरह के संपादक रहे, न अख़बारों में साहित्य के लिए स्थान. साहित्य महज़ साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्स में सिमट गया है. अब वह भी ब्रांडिंग साहित्य की भेंट च़ढ रहे हैं. पहला पेज रोचक कहानी और विज्ञापन में खप जाता है. अंतिम पेज को भी विज्ञापन और रोचक जानकारियां सरीखे कॉलम ले डूबते हैं. भीतर के पेज 2-3 में साप्ताहिक राशिफल आदि स्तंभ देने के बाद कहानी-कविता के नाम कुछ ही हिस्सा आ पाता है. ऐसे में साहित्य सिर्फ़ कहानी-कविता को मानने की भूल भी हो जाती है. निबंध, रिपोर्ताज, नाटक जैसी अन्य विधाएं तो हाशिए पर ही फेंक दी गई हैं.
इस सबके बीच अच्छी बात यह है कि आज भी चंद अख़बार साहित्य को अपने में संजोए हुए हैं... वक़्त बदलता रहता है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में अख़बारों में फिर से साहित्य पढ़ने को मिलने लगे... कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है...साहित्य प्रेमी भी अपने लिए अच्छी पत्र-पत्रिकाएं तलाश लेते हैं... बिलकुल हमारी तरह...
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