जब हम आठवीं जमात में पढ़ते थे, तब हमने इंग्लिश और हिन्दी की टाइपिंग सीखी थी. उस वक़्त हमारे लिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जो बाद में बहुत काम आई.
नौवीं जमात में हमने एक वयोवृद्ध होम्योपैथिक चिकित्सक के साथ कई साल तक काम किया है. स्कूल से आने के बाद खाना खाते और फिर क्लीनिक चले जाते. इसके साथ ही चश्मे बनाने का काम भी वहीं सीखा. अपनी अम्मी की आंखें ख़ुद टेस्ट कीं. ख़ुद नम्बर देखा और ख़ुद ही उनका चश्मा बनाया. चश्मे का फ़्रेम उनकी पसंद का लिया. हमने शीशे को काटा और उसे फ़्रेम में फ़िट किया. अम्मी बहुत ख़ुश थीं.
जब कोई मरीज़ आता, तो डॉक्टर अंकल उसका हाल पूछते और दवा हम ख़ुद देते. मरीज़ के जाने के बाद अंकल कहते- क़ाबिल हो. बहुत जल्दी सीख जाती हो. कुछ साल बाद हम चिकित्सा शिविरों में भी जाने लगे. ये अल्लाह का बहुत बड़ा करम है कि सीनियर डॉक्टर भी हमारी तारीफ़ करते. एक मेडिकल इंस्टीट्यूट ने हमें Diploma of biochemic medicine की मानद उपाधि से सम्मानित किया. हमें एक जगह से नौकरी का भी प्रस्ताव मिला. लेकिन हमें शायद कुछ और ही करना था. इसलिए उसे आदर सहित मना कर दिया.
हमें अपने ख़ानदान के बुज़ुर्गों से भी बहुत कुछ सीखने को मिला. हमारी दादी जान को दवाओं का अच्छा इल्म था. हमें पढ़ने और मुख़्तलिफ़ चीज़ों का इल्म हासिल करने में बहुत दिलचस्पी है. ख़ासकर रूहानी इल्म. इस बारे में हम लिखते ही रहते हैं.
ख़ैर हम उन्हीं मर्ज़ के घरेलू इलाज के बारे में लिखते हैं, जिनसे हमने अपने आसपास लोगों को फ़ैज़ हासिल करते हुए देखा है. इंशा अल्लाह जल्द ही एक ऐसे मर्ज़ के इलाज के बारे में लिखेंगे, जिससे बहुत लोग परेशान हैं.