नामवर सिंह की कविताई विशेषताएं
फ़िरदौस ख़ान
नामवर सिंह हिंदी के प्रसिद्ध कवि और प्रमुख समकालीन आलोचक हैं. 26 जुलाई, 1926 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के गांव जीयनपुर में जन्मे नामवर सिंह ने साहित्यिक जीवन की शुरुआत काव्य लेखन से की थी. उन्होंने पहली कविता 1938 में लिखी. पहले वह ब्रजभाषा में कवित्त और सवैया लिखते थे. 1941 में अध्ययन के लिए वह बनारस आए और यहां उनकी मुलाक़ात त्रिलोचन शास्त्री से हुई. त्रिलोचन ने उन्हें खड़ी बोली में लिखने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने दो बार अपनी कविताओं की किताब प्रकाशित कराने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. इसके बाद वह गद्य लेखन करने लगे. 1951 में उनका निबंध संग्रह बक़लम ख़ुद प्रकाशित हुआ. इसका पुस्तक परिचय त्रिलोचन शास्त्री ने कुछ यूं लिखा, बक़लम ख़ुद में 17 व्यक्ति व्यंजक निबंध हैं. व्यंजना तो इस प्रकार की है कि पुस्तक की बजाय यह ज़िंदादिल आदमी ही लगेगी. बक़लम ख़ुद जनता की जय का उद्घोष, संघर्ष की प्रेरणा और अभियान की आकांक्षा है. निरुद्देश्य मज़ाक़ नहीं, यह सोद्देश्य संजीदगी है, जो सत्य को सुपाच्य रूप देती है. नामवर सिंह की कृतियों में क़लम ख़ुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृथ्वीराज रासो की भाषा, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, छायावाद और इतिहास और आलोचना शामिल हैं. उन्हें उत्कृष्ट रचनाओं के लिए हिंदी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान भी मिला.
हाल में राजकमल प्रकाशन ने नामवर सिंह की प्रारंभिक रचनाओं की एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है प्रारम्भिक रचनाएं नामवर सिंह. इसके पहले खंड में कविताएं, दूसरे में विविध विधाओं की गद्य रचनाएं और तीसरे में बक़लम ख़ुद के निबंधों को शामिल किया गया है. उनकी कविताओं में भाव भी है, ग़ज़ब का प्रवाह भी. देखिए-
नभ के नीले सूनेपन में
हैं टूट रहे बरसे बादर
जाने क्यों टूट रहा है तन
बन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर
जाने क्यों टूट रहा है मन
घर के बरतन की खन-खन में
हैं टूट रहे दुपहर के स्वर
जाने कैसा लगता जीवन
नामवर सिंह सबसे पहले कवि हैं. शुरुआती साहित्य जीवन में उन्होंने कविताएं ही ज़्यादा रचीं, लेकिन बहुत कम कविताएं ही प्रकाशित हो पाईं. ख़ास बात यह है कि उनकी छंद पर अच्छी पक़ड थी. उनकी कविता नहीं बीतती सांझ की कुछ पंक्तियां देखिए-
दिन बीता, पर नहीं बीतती, नहीं बीतती सांझ
नहीं बीतती, नहीं बीतती, नहीं बीतती सांझ
ढलता-ढलता दिन दृग की कोरों से ढुलक न पाए
मुक्त कुंतले! व्योम मौन मुझ पर तुम-सा ही छाया
मन में निशि है किंतु नयन से नहीं बीतती सांझ
उन्हें प्रकृति से भी बेहद प्रेम है, इसलिए उनकी रचनाओं में प्रकृति के कई मनोहारी रूप देखने को मिलते हैं. उनकी कविता हरित फौवारों सरीखे धान को लीजिए, जो उन्होंने धान के खेत को देखकर रची.
हरित फौवारों सरीखे धान
हाशिये-सी विंध्य-मालाएं
नम्र कंधों पर झुकीं तुम प्राण
सप्तवर्णी कैश फैलाए
जोत का जल पोंछती-सी छांह
धूप में रह-रहकर उभर आए
स्वप्न के चिथ़डे नयन-तल आह
इस तरह क्यों पोंछते जाएं?
उनकी कविताओं में एक अलग तरह का आकर्षण है. पाठकों को वे इसलिए भी पसंद आती हैं, क्योंकि इनमें कहीं न कहीं उनकी ख़ुद की अनुभूतियों की झलक होती है. किताब के संपादक भारत यायावर भूमिका में लिखते हैं कि नामवर सिंह की भाषा में सफ़ाई और निखार होते हुए भी जहां-तहां छायावादी झलक है. क्लिष्ट-कल्पनाओं को भी उनकी कविताओं में देखा जा सकता है. त्रिलोचन शास्त्री ने जिस भाषा-शैली और अनोखे अंदाज़ में नामवर सिंह की रचनाओं की कविताई विशेषताओं को रेखांकित किया है, वह अपूर्व है, बेमिसाल है. काव्य की तरह गद्य लेखन में भी नामवर सिंह अपनी अलग ही छाप छोड़ते हैं. उनकी प्रारंभिक रचनाओं में कहानी की कहानी भी है, जिसमें उन्होंने खरपत्तू नामक चरित्र का प्रभावी शब्द चरित्र पेश किया है. इसी तरह दार्जिलिंग की एक झलक में उन्होंने काव्यात्मक भाषा का इस्तेमाल किया है. दरअसल, नामवर सिंह की प्रारंभिक रचनाओं का अपना अलग ही महत्व है. उनकी रचनाओं में कच्चापन नहीं मिलता. इसका कारण यह है कि विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने सघन साहित्य-साधना की थी. उनकी स्मरणशक्ति लाजवाब थी. बौद्धिक ओजस्विता से वह भरे हुए थे. इसीलिए बहुत कम उम्र में ही वह एक बौद्घिक ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं. बहरहाल, यह किताब नामवर जी के कृतित्व को पेश करती है. हिंदी साहित्य के शोधार्थियों के लिए यह बेहद उपयोगी किताब है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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