सावन के झूले पड़े...


बंगले में इमारत के पीछे शीशम के कई पेड़ थे... हम बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में उसमें झूला डलवा लिया करते थे... हम बहन-भाई और हमारी सहेलियां भी उस पर ख़ूब झूलती थीं... तीज पर इतनी रौनक़ होती कि दिल बाग़-बाग़ हो जाता...सारा दिन चहकते फिरते... ये बच्चों के अपने त्यौहार हुआ करते हैं... आज न वो बंगला है, न शीशम का वो पेड़, और न ही कोई झूला... बस यादें ही रह गई हैं...
हां, अब तीज पर या यूं कहें कि सावन के बारिश वाले मौसम में ये गीत बहुत याद आता है...
सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ
तुम चले आओ, तुम चले आओ
आंचल ना छोड़े मेरा, पागल हुई है पवन
अब क्या करूं मैं जतन, धड़के जिया जैसे पंछी उड़े
दिल ने पुकारा तुम्हे, यादों के परदेस से
आती है जो देश से, हम उस डगर पे हैं कब से खड़े...

बहरहाल, आप सबको हरियाली तीज की मुबारकबाद

(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार
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