यश चोपड़ा : ख़ूबसूरत लम्हों का सफ़र
फ़िरदौस ख़ान
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा के ऐसे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने अपने पचास साल के करियर में हिंदी सिनेमा को कई यादगार फ़िल्में दीं. उन्होंने तीन पीढ़ियों के साथ निर्देशन का ख़ूबसूरत सफ़र तय किया. उनकी फ़िल्में मुहब्बत और ख़ूबसूरती से लबरेज़ होती थीं. इसलिए उन्हें रोमांस का बादशाह भी कहा गया. हालांकि उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनाईं और दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ ही समाज को नई दिशा देने की कोशिश की.
यश चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर, 1932 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था. उनके परिवार के सदस्य चाहते थे कि वह इंजीनियर बनें, लेकिन उनकी दिलचस्पी फ़िल्मों में थी. उन्होंने सहायक निर्देशक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आई एस जौहर और अपने ब़डे भाई बीआर चोपड़ा के साथ काम किया. बतौर सहायक निर्देशक उनकी फ़िल्मों में एक ही रास्ता, नया दौर और साधना शामिल है. इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन करने का फ़ैसला किया. बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म धूल का फूल थी. यह 1959 की सबसे कामयाब फ़िल्म रही. अपने विषय की वजह से यह फ़िल्म चर्चाओं में भी ख़ूब रही. नायक नायिका के विवाह पूर्व मिलन में कहीं कोई ज़बरदस्ती नहीं है. नायक बदनीयत नहीं है. नायिका भी सहज ही इसे स्वीकार करती है. इस संबंध में अकेला नायक ही क़ुसूरवार नहीं है, बल्कि नायिका भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. मगर दोनों में से कोई भी अपनी भूल की सज़ा भुगतने को तैयार नहीं है. दोनों के किए की सज़ा उनकी संतान को भुगतनी पड़ती है. फ़िल्मकार यहां सवाल उठाता है कि नाजायज़ कौन है, माता-पिता या संतान? इसी तरह फ़िल्म त्रिशूल में अमिताभ बच्चन अपने नाजायज़ पिता के ख़िलाफ़ जंग लड़ता है. फिर उन्होंने 1961 में फ़िल्म धर्म पुत्र का निर्देशन किया. सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फ़िल्म को भी बेहद कामयाबी मिली. इसके बाद 1965 में उन्होंने फ़िल्म वक़्त का निर्देशन किया. यह अपने समय की सबसे महंगी और भव्य फ़िल्म थी, जिसमें कई पुराने और नए सितारों को एक साथ पेश किया गया था. इस फ़िल्म के ज़रिये भव्य सेट, आकर्षक आउटडोर, आंखों को लुभाने वाले इंद्रधनुषी शो़ख रंग, चमचमाते रेशमी लिबास, शानदार बंगले और उनमें सजा महंगी सामान, फव्वारे, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, दिल लुभाता गीत-संगीत यश चोप़डा के सिनेमा की पहचान बन गया. उन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिये मल्टीस्टारर ट्रेंड लाकर हिंदी सिनेमा को एक नई दिशा दी. उनकी बनाई मल्टीस्टारर फ़िल्म दीवार, त्रिशूल, चांदनी, पंरपरा, डर और दिल तो पागल है, ने कामयाबी की नई इबारत लिखी.
उन्होंने 1973 में यशराज फ़िल्मस की स्थापना की थी. उनके निर्देशन में बनी फ़िल्मों में धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक़्त, आदमी और इंसान, इत्तेफ़ाक़, दाग़, जोशीला, दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर, सिलसिला, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, परंपरा, डर, दिल तो पागल है, वीर ज़ारा और जब तक है जान शामिल हैं. फ़िल्म जब तक है जान उनकी मौत के बाद 12 नवंबर को प्रदर्शित हुई.
उन्होंने कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया, जिनमें दाग़, कभी-कभी, दूसरा आदमी, त्रिशूल, नूरी, काला पत्थर, ना़ख़ुदा, सवाल, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, डर, आईना, ये दिल्लगी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, मुहब्बतें, मुझसे दोस्ती करोगे, मेरे यार की शादी है, साथिया, हम तुम, वीर ज़ारा, बंटी और बब्ली, सलाम नमस्ते, नील एन निक्की, फ़ना, धूम 2, क़ाबुल एक्सप्रैस, ता रा रम रम, झूम बराबर झूम, चक दे इंडिया, लागा चुनरी में दाग़, आजा नच ले, टशन, थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक, बचना ऐ हसीनो, रोड साइड रोमियो, रब ने बना दी जो़डी, न्यू यॉर्क, दिल बोले हडिप्पा, रॉकेट सिंह : सेल्समैन ऑफ द ईयर, बैंड बाजा बारात, मुझसे फ्रेंडशिप करोगे, मेरे ब्रदर की शादी, लेडीज़ वर्सिस रॉकी बहल, इश्क़ज़ादे और एक था टाइगर शामिल हैं.
उनकी फ़िल्में रूमानी होती हैं. यश चोप़डा के प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते थे. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते थे. वह अपनी पहली फ़िल्म धूल का फूल से लेकर वीर ज़ारा तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते थे. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भाव भूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले रहे.
हिंदी सिनेमा में यश चोपड़ा को कई महत्वपूर्ण बदलावों के लिए भी याद किया जाएगा, मसलन उन्होंने
फ़िल्म़ि कभी-कभी के ज़रिये अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन से शायर बना दिया. अमिताभ बच्चन के करियर को स्थापित करने में शायद सबसे ज़्यादा योगदान यशराज बैनर का ही है. 1975 में अमिताभ बच्चन को फ़िल्म दीवार में एंग्री यंग मैन के रूप में दिखाया गया, तो 1976 में फ़िल्म कभी-कभी में यश चोपड़ा ने अमिताभ को शायर के रूप में दिखाकर दर्शकों को अमिताभ का नया रूप दिखाया. 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म त्रिशूल और 1981 में प्रदर्शित फ़िल्म सिलसिला में अमिताभ बच्चन का शानदार अभिनय देखने को मिला. शाहरुख़ ख़ान को बॉलीवुड का किंग बनाने वाले यश चोपड़ा ही थे. उन्होंने शाहरुख़ ख़ान को प्रेमी के किरदार देकर हिंदी सिनेमा में रोमांस को नए सिरे से परिभाषित किया और रोमांटिक फ़िल्मों का नया दौर शुरू किया. शाहरुख़ ख़ान दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है, मोहब्बतें, वीर ज़ारा, चक दे इंडिया, रब ने बना दी जोड़ी और फ़िल्म जब तक है जान तक यश चोपड़ा के साथ जुड़े रहे. हिंदी सिनेमा की बिना इंटरवल, बिना गाने की पहली फ़िल्म इत्तेफ़ाक़ 1969 में प्रदर्शित हुई. उनकी इस फ़िल्म में नंदा ने एक बेवफ़ा पत्नी का किरदार निभाया.
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा की मूलधारा के निर्देशक थे. उन्होंने अपनी फ़िल्मों के किरदारों के साथ ही उनके गीत-संगीत और लोकेशन भी ख़ासा ध्यान दिया. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ख़ूबसूरत दृश्य दिखाने के लिए विदेशों में शूटिंग की. 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल तो पागल है हिंदी सिनेमा की पहली फ़िल्म है, जिसकी शूटिंग जर्मनी में की गई थी. दर्शकों को लुभाने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. यश चोपड़ा को अपनी नायिकाओं के लिए चांदनी नाम बहुत प्रिय था. इसलिए उन्होंने फ़िल्म दाग़ में राखी, सिलसिला में रेखा और फ़ासले में फ़रहा, चांदनी में रेखा को यह नाम दिया.
उन्होंने हमेशा अपने वक़्त के लोकप्रिय अभिनेता अभिनेत्रियों के साथ फ़िल्में बनाईं. उनके पसंदीदा नायकों में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, शशि कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल कपूर, शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सैफ़ अली ख़ान रहे, तो नायिकाओं में सायरा बाना, माला सिन्हा, नंदा, साधना, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, राखी, परवीन बॉबी, रेखा, जया भादु़डी, श्रीदेवी, जूही चावला, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी के नाम लिए जा सकते हैं.
उन्होंने अपनी फ़िल्मों की नायिकाओं को बेहद ख़ूबसूरती और सादगी के साथ पेश किया. उन्होंने फ़िल्म वक़्त में साधना, सिलसिला में रेखा, चांदनी, लम्हे में श्रीदेवी और फ़िल्म मोहब्बतें में ऐश्वर्या राय को सफ़ेद शिफॉन की साड़ी में दिखाया. सफ़ेद साड़ी में लिपटी उनकी नायिका ज़मीन पर उतरी किसी आसमानी हूर की तरह दर्शकों पर अपनी ख़ूबसूरती का जादुई असर छोड़ जाती है. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में कहीं भी अश्लीलता का सहारा नहीं लिया. इत्तेफ़ाक़ में उन्होंने नंदा को पूरी फ़िल्म में एक ही साड़ी में दिखाने के बावजूद जिस मादकता के साथ प्रस्तुत किया, वैसा दैहिक आकर्षण नंदा की किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला.
यश चोपड़ा को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें फ़िल्म वक़्त (1965), इत्तेफ़ाक़ (1969), दाग़ (1973), दीवार (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के तौर पर फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया, जबकि फ़िल्म लम्हे (1991), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), दिल तो पागल है (1997) और वीर ज़ारा (2004)के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. इसके अलावा उन्हें फ़िल्म चांदनी, डर, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है और वीर ज़ारा के लिए सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय और मनोरंजक फ़िल्म के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिले. इसी तरह 2006, 2007 और 2008 में उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पावर अवॉर्ड दिया गया. भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया.
पिछले दिनों जब वह फ़िल्म जब तक है जान की शूटिंग में व्यस्त थे, तब उनकी तबीयत ख़राब हो गई थी. इस वजह से उन्होंने फ़िल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग रोक दी थी. इसके साथ ही उन्होंने फ़िल्म निर्माण से संन्यास लेने का ऐलान भी कर दिया था.
उन्हें इलाज के लिए मुंबई के लीलावती अस्पताल में दाख़िल कराया गया, जहां 21 अक्टूबर को डेंगू से उनकी मौत हो गई.
यशराज फ़िल्म्स की ज़िम्मेदारी उनके बेटे आदित्य चोपड़ा संभाले हुए हैं. वह भी अपने पिता की तरह बेहद प्रतिभाशाली हैं, लेकिन यश चोपड़ा की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकेगा, यह भी हक़ीक़त है.
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा के ऐसे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने अपने पचास साल के करियर में हिंदी सिनेमा को कई यादगार फ़िल्में दीं. उन्होंने तीन पीढ़ियों के साथ निर्देशन का ख़ूबसूरत सफ़र तय किया. उनकी फ़िल्में मुहब्बत और ख़ूबसूरती से लबरेज़ होती थीं. इसलिए उन्हें रोमांस का बादशाह भी कहा गया. हालांकि उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनाईं और दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ ही समाज को नई दिशा देने की कोशिश की.
यश चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर, 1932 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था. उनके परिवार के सदस्य चाहते थे कि वह इंजीनियर बनें, लेकिन उनकी दिलचस्पी फ़िल्मों में थी. उन्होंने सहायक निर्देशक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आई एस जौहर और अपने ब़डे भाई बीआर चोपड़ा के साथ काम किया. बतौर सहायक निर्देशक उनकी फ़िल्मों में एक ही रास्ता, नया दौर और साधना शामिल है. इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन करने का फ़ैसला किया. बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म धूल का फूल थी. यह 1959 की सबसे कामयाब फ़िल्म रही. अपने विषय की वजह से यह फ़िल्म चर्चाओं में भी ख़ूब रही. नायक नायिका के विवाह पूर्व मिलन में कहीं कोई ज़बरदस्ती नहीं है. नायक बदनीयत नहीं है. नायिका भी सहज ही इसे स्वीकार करती है. इस संबंध में अकेला नायक ही क़ुसूरवार नहीं है, बल्कि नायिका भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. मगर दोनों में से कोई भी अपनी भूल की सज़ा भुगतने को तैयार नहीं है. दोनों के किए की सज़ा उनकी संतान को भुगतनी पड़ती है. फ़िल्मकार यहां सवाल उठाता है कि नाजायज़ कौन है, माता-पिता या संतान? इसी तरह फ़िल्म त्रिशूल में अमिताभ बच्चन अपने नाजायज़ पिता के ख़िलाफ़ जंग लड़ता है. फिर उन्होंने 1961 में फ़िल्म धर्म पुत्र का निर्देशन किया. सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फ़िल्म को भी बेहद कामयाबी मिली. इसके बाद 1965 में उन्होंने फ़िल्म वक़्त का निर्देशन किया. यह अपने समय की सबसे महंगी और भव्य फ़िल्म थी, जिसमें कई पुराने और नए सितारों को एक साथ पेश किया गया था. इस फ़िल्म के ज़रिये भव्य सेट, आकर्षक आउटडोर, आंखों को लुभाने वाले इंद्रधनुषी शो़ख रंग, चमचमाते रेशमी लिबास, शानदार बंगले और उनमें सजा महंगी सामान, फव्वारे, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, दिल लुभाता गीत-संगीत यश चोप़डा के सिनेमा की पहचान बन गया. उन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिये मल्टीस्टारर ट्रेंड लाकर हिंदी सिनेमा को एक नई दिशा दी. उनकी बनाई मल्टीस्टारर फ़िल्म दीवार, त्रिशूल, चांदनी, पंरपरा, डर और दिल तो पागल है, ने कामयाबी की नई इबारत लिखी.
उन्होंने 1973 में यशराज फ़िल्मस की स्थापना की थी. उनके निर्देशन में बनी फ़िल्मों में धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक़्त, आदमी और इंसान, इत्तेफ़ाक़, दाग़, जोशीला, दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर, सिलसिला, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, परंपरा, डर, दिल तो पागल है, वीर ज़ारा और जब तक है जान शामिल हैं. फ़िल्म जब तक है जान उनकी मौत के बाद 12 नवंबर को प्रदर्शित हुई.
उन्होंने कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया, जिनमें दाग़, कभी-कभी, दूसरा आदमी, त्रिशूल, नूरी, काला पत्थर, ना़ख़ुदा, सवाल, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, डर, आईना, ये दिल्लगी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, मुहब्बतें, मुझसे दोस्ती करोगे, मेरे यार की शादी है, साथिया, हम तुम, वीर ज़ारा, बंटी और बब्ली, सलाम नमस्ते, नील एन निक्की, फ़ना, धूम 2, क़ाबुल एक्सप्रैस, ता रा रम रम, झूम बराबर झूम, चक दे इंडिया, लागा चुनरी में दाग़, आजा नच ले, टशन, थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक, बचना ऐ हसीनो, रोड साइड रोमियो, रब ने बना दी जो़डी, न्यू यॉर्क, दिल बोले हडिप्पा, रॉकेट सिंह : सेल्समैन ऑफ द ईयर, बैंड बाजा बारात, मुझसे फ्रेंडशिप करोगे, मेरे ब्रदर की शादी, लेडीज़ वर्सिस रॉकी बहल, इश्क़ज़ादे और एक था टाइगर शामिल हैं.
उनकी फ़िल्में रूमानी होती हैं. यश चोप़डा के प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते थे. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते थे. वह अपनी पहली फ़िल्म धूल का फूल से लेकर वीर ज़ारा तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते थे. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भाव भूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले रहे.
हिंदी सिनेमा में यश चोपड़ा को कई महत्वपूर्ण बदलावों के लिए भी याद किया जाएगा, मसलन उन्होंने
फ़िल्म़ि कभी-कभी के ज़रिये अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन से शायर बना दिया. अमिताभ बच्चन के करियर को स्थापित करने में शायद सबसे ज़्यादा योगदान यशराज बैनर का ही है. 1975 में अमिताभ बच्चन को फ़िल्म दीवार में एंग्री यंग मैन के रूप में दिखाया गया, तो 1976 में फ़िल्म कभी-कभी में यश चोपड़ा ने अमिताभ को शायर के रूप में दिखाकर दर्शकों को अमिताभ का नया रूप दिखाया. 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म त्रिशूल और 1981 में प्रदर्शित फ़िल्म सिलसिला में अमिताभ बच्चन का शानदार अभिनय देखने को मिला. शाहरुख़ ख़ान को बॉलीवुड का किंग बनाने वाले यश चोपड़ा ही थे. उन्होंने शाहरुख़ ख़ान को प्रेमी के किरदार देकर हिंदी सिनेमा में रोमांस को नए सिरे से परिभाषित किया और रोमांटिक फ़िल्मों का नया दौर शुरू किया. शाहरुख़ ख़ान दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है, मोहब्बतें, वीर ज़ारा, चक दे इंडिया, रब ने बना दी जोड़ी और फ़िल्म जब तक है जान तक यश चोपड़ा के साथ जुड़े रहे. हिंदी सिनेमा की बिना इंटरवल, बिना गाने की पहली फ़िल्म इत्तेफ़ाक़ 1969 में प्रदर्शित हुई. उनकी इस फ़िल्म में नंदा ने एक बेवफ़ा पत्नी का किरदार निभाया.
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा की मूलधारा के निर्देशक थे. उन्होंने अपनी फ़िल्मों के किरदारों के साथ ही उनके गीत-संगीत और लोकेशन भी ख़ासा ध्यान दिया. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ख़ूबसूरत दृश्य दिखाने के लिए विदेशों में शूटिंग की. 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल तो पागल है हिंदी सिनेमा की पहली फ़िल्म है, जिसकी शूटिंग जर्मनी में की गई थी. दर्शकों को लुभाने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. यश चोपड़ा को अपनी नायिकाओं के लिए चांदनी नाम बहुत प्रिय था. इसलिए उन्होंने फ़िल्म दाग़ में राखी, सिलसिला में रेखा और फ़ासले में फ़रहा, चांदनी में रेखा को यह नाम दिया.
उन्होंने हमेशा अपने वक़्त के लोकप्रिय अभिनेता अभिनेत्रियों के साथ फ़िल्में बनाईं. उनके पसंदीदा नायकों में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, शशि कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल कपूर, शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सैफ़ अली ख़ान रहे, तो नायिकाओं में सायरा बाना, माला सिन्हा, नंदा, साधना, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, राखी, परवीन बॉबी, रेखा, जया भादु़डी, श्रीदेवी, जूही चावला, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी के नाम लिए जा सकते हैं.
उन्होंने अपनी फ़िल्मों की नायिकाओं को बेहद ख़ूबसूरती और सादगी के साथ पेश किया. उन्होंने फ़िल्म वक़्त में साधना, सिलसिला में रेखा, चांदनी, लम्हे में श्रीदेवी और फ़िल्म मोहब्बतें में ऐश्वर्या राय को सफ़ेद शिफॉन की साड़ी में दिखाया. सफ़ेद साड़ी में लिपटी उनकी नायिका ज़मीन पर उतरी किसी आसमानी हूर की तरह दर्शकों पर अपनी ख़ूबसूरती का जादुई असर छोड़ जाती है. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में कहीं भी अश्लीलता का सहारा नहीं लिया. इत्तेफ़ाक़ में उन्होंने नंदा को पूरी फ़िल्म में एक ही साड़ी में दिखाने के बावजूद जिस मादकता के साथ प्रस्तुत किया, वैसा दैहिक आकर्षण नंदा की किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला.
यश चोपड़ा को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें फ़िल्म वक़्त (1965), इत्तेफ़ाक़ (1969), दाग़ (1973), दीवार (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के तौर पर फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया, जबकि फ़िल्म लम्हे (1991), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), दिल तो पागल है (1997) और वीर ज़ारा (2004)के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. इसके अलावा उन्हें फ़िल्म चांदनी, डर, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है और वीर ज़ारा के लिए सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय और मनोरंजक फ़िल्म के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिले. इसी तरह 2006, 2007 और 2008 में उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पावर अवॉर्ड दिया गया. भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया.
पिछले दिनों जब वह फ़िल्म जब तक है जान की शूटिंग में व्यस्त थे, तब उनकी तबीयत ख़राब हो गई थी. इस वजह से उन्होंने फ़िल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग रोक दी थी. इसके साथ ही उन्होंने फ़िल्म निर्माण से संन्यास लेने का ऐलान भी कर दिया था.
उन्हें इलाज के लिए मुंबई के लीलावती अस्पताल में दाख़िल कराया गया, जहां 21 अक्टूबर को डेंगू से उनकी मौत हो गई.
यशराज फ़िल्म्स की ज़िम्मेदारी उनके बेटे आदित्य चोपड़ा संभाले हुए हैं. वह भी अपने पिता की तरह बेहद प्रतिभाशाली हैं, लेकिन यश चोपड़ा की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकेगा, यह भी हक़ीक़त है.
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