यश चोपड़ा : ख़ूबसूरत लम्हों का सफ़र

फ़िरदौस ख़ान
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा के ऐसे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने अपने पचास साल के करियर में हिंदी सिनेमा को कई यादगार फ़िल्में दीं. उन्होंने तीन पीढ़ियों के साथ निर्देशन का ख़ूबसूरत सफ़र तय किया. उनकी फ़िल्में मुहब्बत और ख़ूबसूरती से लबरेज़ होती थीं. इसलिए उन्हें रोमांस का बादशाह भी कहा गया. हालांकि उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनाईं और दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ ही समाज को नई दिशा देने की कोशिश की.
यश चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर, 1932 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था. उनके परिवार के सदस्य चाहते थे कि वह इंजीनियर बनें, लेकिन उनकी दिलचस्पी फ़िल्मों में थी. उन्होंने सहायक निर्देशक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आई एस जौहर और अपने ब़डे भाई बीआर चोपड़ा के साथ काम किया. बतौर सहायक निर्देशक उनकी फ़िल्मों में एक ही रास्ता, नया दौर और साधना शामिल है. इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन करने का फ़ैसला किया. बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म धूल का फूल थी. यह 1959 की सबसे कामयाब फ़िल्म रही. अपने विषय की वजह से यह फ़िल्म चर्चाओं में भी ख़ूब रही. नायक नायिका के विवाह पूर्व मिलन में कहीं कोई ज़बरदस्ती नहीं है. नायक बदनीयत नहीं है. नायिका भी सहज ही इसे स्वीकार करती है. इस संबंध में अकेला नायक ही क़ुसूरवार नहीं है, बल्कि नायिका भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. मगर दोनों में से कोई भी अपनी भूल की सज़ा भुगतने को तैयार नहीं है. दोनों के किए की सज़ा उनकी संतान को भुगतनी पड़ती है. फ़िल्मकार यहां सवाल उठाता है कि नाजायज़ कौन है, माता-पिता या संतान? इसी तरह फ़िल्म त्रिशूल में अमिताभ बच्चन अपने नाजायज़ पिता के ख़िलाफ़ जंग लड़ता है. फिर उन्होंने 1961 में फ़िल्म धर्म पुत्र का निर्देशन किया. सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फ़िल्म को भी बेहद कामयाबी मिली. इसके बाद 1965 में उन्होंने फ़िल्म वक़्त का निर्देशन किया. यह अपने समय की सबसे महंगी और भव्य फ़िल्म थी, जिसमें कई पुराने और नए सितारों को एक साथ पेश किया गया था. इस फ़िल्म के ज़रिये भव्य सेट, आकर्षक आउटडोर, आंखों को लुभाने वाले इंद्रधनुषी शो़ख रंग, चमचमाते रेशमी लिबास, शानदार बंगले और उनमें सजा महंगी सामान, फव्वारे, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, दिल लुभाता गीत-संगीत यश चोप़डा के सिनेमा की पहचान बन गया. उन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिये मल्टीस्टारर ट्रेंड लाकर हिंदी सिनेमा को एक नई दिशा दी. उनकी बनाई मल्टीस्टारर फ़िल्म दीवार, त्रिशूल, चांदनी, पंरपरा, डर और दिल तो पागल है, ने कामयाबी की नई इबारत लिखी.

उन्होंने 1973 में यशराज फ़िल्मस की स्थापना की थी. उनके निर्देशन में बनी फ़िल्मों में धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक़्त, आदमी और इंसान, इत्तेफ़ाक़, दाग़, जोशीला, दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर,  सिलसिला, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, परंपरा, डर, दिल तो पागल है, वीर ज़ारा और जब तक है जान शामिल हैं. फ़िल्म जब तक है जान उनकी मौत के बाद 12 नवंबर को प्रदर्शित हुई.
उन्होंने कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया, जिनमें दाग़, कभी-कभी, दूसरा आदमी, त्रिशूल, नूरी, काला पत्थर, ना़ख़ुदा, सवाल, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, डर, आईना, ये दिल्लगी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, मुहब्बतें, मुझसे दोस्ती करोगे, मेरे यार की शादी है, साथिया, हम तुम, वीर ज़ारा, बंटी और बब्ली, सलाम नमस्ते, नील एन निक्की, फ़ना, धूम 2, क़ाबुल एक्सप्रैस, ता रा रम रम, झूम बराबर झूम, चक दे इंडिया, लागा चुनरी में दाग़, आजा नच ले, टशन, थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक, बचना ऐ हसीनो, रोड साइड रोमियो, रब ने बना दी जो़डी, न्यू यॉर्क, दिल बोले हडिप्पा, रॉकेट सिंह : सेल्समैन ऑफ द ईयर, बैंड बाजा बारात, मुझसे फ्रेंडशिप करोगे, मेरे ब्रदर की शादी, लेडीज़ वर्सिस रॉकी बहल, इश्क़ज़ादे और एक था टाइगर शामिल हैं.

उनकी फ़िल्में रूमानी होती हैं. यश चोप़डा के प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते थे. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते थे. वह अपनी पहली फ़िल्म धूल का फूल से लेकर वीर ज़ारा तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते थे. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भाव भूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले रहे.

हिंदी सिनेमा में यश चोपड़ा को कई महत्वपूर्ण बदलावों के लिए भी याद किया जाएगा, मसलन उन्होंने
फ़िल्म़ि कभी-कभी के ज़रिये अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन से शायर बना दिया. अमिताभ बच्चन के करियर को स्थापित करने में शायद सबसे ज़्यादा योगदान यशराज बैनर का ही है. 1975 में अमिताभ बच्चन को फ़िल्म दीवार में एंग्री यंग मैन के रूप में दिखाया गया, तो 1976 में फ़िल्म कभी-कभी में यश चोपड़ा ने अमिताभ को शायर के रूप में दिखाकर दर्शकों को अमिताभ का नया रूप दिखाया. 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म त्रिशूल और 1981 में प्रदर्शित फ़िल्म सिलसिला में अमिताभ बच्चन का शानदार अभिनय देखने को मिला. शाहरुख़ ख़ान को बॉलीवुड का किंग बनाने वाले यश चोपड़ा ही थे. उन्होंने शाहरुख़ ख़ान को प्रेमी के किरदार देकर हिंदी सिनेमा में रोमांस को नए सिरे से परिभाषित किया और रोमांटिक फ़िल्मों का नया दौर शुरू किया. शाहरुख़ ख़ान दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है, मोहब्बतें, वीर ज़ारा, चक दे इंडिया, रब ने बना दी जोड़ी और फ़िल्म जब तक है जान तक यश चोपड़ा के साथ जुड़े रहे. हिंदी सिनेमा की बिना इंटरवल, बिना गाने की पहली फ़िल्म इत्तेफ़ाक़ 1969 में प्रदर्शित हुई. उनकी इस फ़िल्म में नंदा ने एक बेवफ़ा पत्नी का किरदार निभाया.

यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा की मूलधारा के निर्देशक थे. उन्होंने अपनी फ़िल्मों के किरदारों के साथ ही उनके गीत-संगीत और लोकेशन भी ख़ासा ध्यान दिया. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ख़ूबसूरत दृश्य दिखाने के लिए विदेशों में शूटिंग की. 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल तो पागल है हिंदी सिनेमा की पहली फ़िल्म है, जिसकी शूटिंग जर्मनी में की गई थी. दर्शकों को लुभाने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. यश चोपड़ा को अपनी नायिकाओं के लिए चांदनी नाम बहुत प्रिय था. इसलिए उन्होंने फ़िल्म दाग़ में राखी, सिलसिला में रेखा और फ़ासले में फ़रहा, चांदनी में रेखा को यह नाम दिया.

उन्होंने हमेशा अपने वक़्त के लोकप्रिय अभिनेता अभिनेत्रियों के साथ फ़िल्में बनाईं. उनके पसंदीदा नायकों में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, शशि कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल कपूर, शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सैफ़ अली ख़ान रहे, तो नायिकाओं में सायरा बाना, माला सिन्हा, नंदा, साधना, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, राखी, परवीन बॉबी, रेखा, जया भादु़डी, श्रीदेवी, जूही चावला, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी के नाम लिए जा सकते हैं.

उन्होंने अपनी फ़िल्मों की नायिकाओं को बेहद ख़ूबसूरती और सादगी के साथ पेश किया. उन्होंने फ़िल्म वक़्त में साधना, सिलसिला में रेखा, चांदनी, लम्हे में श्रीदेवी और फ़िल्म मोहब्बतें में ऐश्वर्या राय को सफ़ेद शिफॉन की साड़ी में दिखाया. सफ़ेद साड़ी में लिपटी उनकी नायिका ज़मीन पर उतरी किसी आसमानी हूर की तरह दर्शकों पर अपनी ख़ूबसूरती का जादुई असर छोड़  जाती है. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में कहीं भी अश्लीलता का सहारा नहीं लिया. इत्तेफ़ाक़ में उन्होंने नंदा को पूरी फ़िल्म में एक ही साड़ी में दिखाने के बावजूद जिस मादकता के साथ प्रस्तुत किया, वैसा दैहिक आकर्षण नंदा की किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला.

यश चोपड़ा को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें फ़िल्म वक़्त (1965), इत्तेफ़ाक़ (1969), दाग़ (1973), दीवार (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के तौर पर फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया, जबकि फ़िल्म लम्हे (1991), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), दिल तो पागल है (1997) और वीर ज़ारा (2004)के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. इसके अलावा उन्हें फ़िल्म चांदनी, डर, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है और वीर ज़ारा के लिए सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय और मनोरंजक फ़िल्म के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिले. इसी तरह 2006, 2007 और 2008 में उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पावर अवॉर्ड दिया गया. भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया.

पिछले दिनों जब वह फ़िल्म जब तक है जान की शूटिंग में व्यस्त थे, तब उनकी तबीयत ख़राब हो गई थी. इस वजह से उन्होंने फ़िल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग रोक दी थी. इसके साथ ही उन्होंने फ़िल्म निर्माण से संन्यास लेने का ऐलान भी कर दिया था.
उन्हें इलाज के लिए मुंबई के लीलावती अस्पताल में दाख़िल कराया गया, जहां 21 अक्टूबर को डेंगू से उनकी मौत हो गई.

यशराज फ़िल्म्स की ज़िम्मेदारी उनके बेटे आदित्य चोपड़ा संभाले हुए हैं. वह भी अपने पिता की तरह बेहद प्रतिभाशाली हैं, लेकिन यश चोपड़ा की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकेगा, यह भी हक़ीक़त है.


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यश चोपड़ा : ख़ूबसूरत लम्हों का सफ़र


फ़िरदौस ख़ान
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा के ऐसे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने अपने पचास साल के करियर में हिंदी सिनेमा को कई यादगार फ़िल्में दीं. उन्होंने तीन पीढ़ियों के साथ निर्देशन का ख़ूबसूरत सफ़र तय किया. उनकी फ़िल्में मुहब्बत और ख़ूबसूरती से लबरेज़ होती थीं. इसलिए उन्हें रोमांस का बादशाह भी कहा गया. हालांकि उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनाईं और दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ ही समाज को नई दिशा देने की कोशिश की.

 यश चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर, 1932 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था. उनके परिवार के सदस्य चाहते थे कि वह इंजीनियर बनें, लेकिन उनकी दिलचस्पी फ़िल्मों में थी. उन्होंने सहायक निर्देशक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आई एस जौहर और अपने ब़डे भाई बीआर चोपड़ा के साथ काम किया. बतौर सहायक निर्देशक उनकी फ़िल्मों में एक ही रास्ता, नया दौर और साधना शामिल है. इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन करने का फ़ैसला किया. बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म धूल का फूल थी. यह 1959 की सबसे कामयाब फ़िल्म रही. अपने विषय की वजह से यह फ़िल्म चर्चाओं में भी ख़ूब रही. नायक नायिका के विवाह पूर्व मिलन में कहीं कोई ज़बरदस्ती नहीं है. नायक बदनीयत नहीं है. नायिका भी सहज ही इसे स्वीकार करती है. इस संबंध में अकेला नायक ही क़ुसूरवार नहीं है, बल्कि नायिका भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. मगर दोनों में से कोई भी अपनी भूल की सज़ा भुगतने को तैयार नहीं है. दोनों के किए की सज़ा उनकी संतान को भुगतनी पड़ती है. फ़िल्मकार यहां सवाल उठाता है कि नाजायज़ कौन है, माता-पिता या संतान? इसी तरह फ़िल्म त्रिशूल में अमिताभ बच्चन अपने नाजायज़ पिता के ख़िलाफ़ जंग लड़ता है. फिर उन्होंने 1961 में फ़िल्म धर्म पुत्र का निर्देशन किया. सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फ़िल्म को भी बेहद कामयाबी मिली. इसके बाद 1965 में उन्होंने फ़िल्म वक़्त का निर्देशन किया. यह अपने समय की सबसे महंगी और भव्य फ़िल्म थी, जिसमें कई पुराने और नए सितारों को एक साथ पेश किया गया था. इस फ़िल्म के ज़रिये भव्य सेट, आकर्षक आउटडोर, आंखों को लुभाने वाले इंद्रधनुषी शो़ख रंग, चमचमाते रेशमी लिबास, शानदार बंगले और उनमें सजा महंगी सामान, फव्वारे, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, दिल लुभाता गीत-संगीत यश चोप़डा के सिनेमा की पहचान बन गया. उन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिये मल्टीस्टारर ट्रेंड लाकर हिंदी सिनेमा को एक नई दिशा दी. उनकी बनाई मल्टीस्टारर फ़िल्म दीवार, त्रिशूल, चांदनी, पंरपरा, डर और दिल तो पागल है, ने कामयाबी की नई इबारत लिखी.

उन्होंने 1973 में यशराज फ़िल्मस की स्थापना की थी. उनके निर्देशन में बनी फ़िल्मों में धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक़्त, आदमी और इंसान, इत्तेफ़ाक़, दाग़, जोशीला, दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर,  सिलसिला, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, परंपरा, डर, दिल तो पागल है, वीर ज़ारा और जब तक है जान शामिल हैं. फ़िल्म जब तक है जान उनकी मौत के बाद 12 नवंबर को प्रदर्शित हुई. उन्होंने कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया, जिनमें दाग़, कभी-कभी, दूसरा आदमी, त्रिशूल, नूरी, काला पत्थर, ना़ख़ुदा, सवाल, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, डर, आईना, ये दिल्लगी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, मुहब्बतें, मुझसे दोस्ती करोगे, मेरे यार की शादी है, साथिया, हम तुम, वीर ज़ारा, बंटी और बब्ली, सलाम नमस्ते, नील एन निक्की, फ़ना, धूम 2, क़ाबुल एक्सप्रैस, ता रा रम रम, झूम बराबर झूम, चक दे इंडिया, लागा चुनरी में दाग़, आजा नच ले, टशन, थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक, बचना ऐ हसीनो, रोड साइड रोमियो, रब ने बना दी जो़डी, न्यू यॉर्क, दिल बोले हडिप्पा, रॉकेट सिंह : सेल्समैन ऑफ द ईयर, बैंड बाजा बारात, मुझसे फ्रेंडशिप करोगे, मेरे ब्रदर की शादी, लेडीज़ वर्सिस रॉकी बहल, इश्क़ज़ादे और एक था टाइगर शामिल हैं.


उनकी ़िफल्में रूमानी होती हैं. यश चोप़डा के प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते थे. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते थे. वह अपनी पहली फ़िल्म धूल का फूल से लेकर वीर ज़ारा तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते थे. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भाव भूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले रहे.

हिंदी सिनेमा में यश चोपड़ा को कई महत्वपूर्ण बदलावों के लिए भी याद किया जाएगा, मसलन उन्होंने
फ़िल्म़ि कभी-कभी के ज़रिये अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन से शायर बना दिया. अमिताभ बच्चन के करियर को स्थापित करने में शायद सबसे ज़्यादा योगदान यशराज बैनर का ही है. 1975 में अमिताभ बच्चन को फ़िल्म दीवार में एंग्री यंग मैन के रूप में दिखाया गया, तो 1976 में फ़िल्म कभी-कभी में यश चोपड़ा ने अमिताभ को शायर के रूप में दिखाकर दर्शकों को अमिताभ का नया रूप दिखाया. 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म त्रिशूल और 1981 में प्रदर्शित फ़िल्म सिलसिला में अमिताभ बच्चन का शानदार अभिनय देखने को मिला. शाहरुख़ ख़ान को बॉलीवुड का किंग बनाने वाले यश चोपड़ा ही थे. उन्होंने शाहरुख़ ख़ान को प्रेमी के किरदार देकर हिंदी सिनेमा में रोमांस को नए सिरे से परिभाषित किया और रोमांटिक फ़िल्मों का नया दौर शुरू किया. शाहरुख़ ख़ान दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है, मोहब्बतें, वीर ज़ारा, चक दे इंडिया, रब ने बना दी जोड़ी और फ़िल्म जब तक है जान तक यश चोपड़ा के साथ जुड़े रहे. हिंदी सिनेमा की बिना इंटरवल, बिना गाने की पहली फ़िल्म इत्तेफ़ाक़ 1969 में प्रदर्शित हुई. उनकी इस फ़िल्म में नंदा ने एक बेवफ़ा पत्नी का किरदार निभाया.

यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा की मूलधारा के निर्देशक थे. उन्होंने अपनी फ़िल्मों के किरदारों के साथ ही उनके गीत-संगीत और लोकेशन भी ख़ासा ध्यान दिया. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ख़ूबसूरत दृश्य दिखाने के लिए विदेशों में शूटिंग की. 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल तो पागल है हिंदी सिनेमा की पहली फ़िल्म है, जिसकी शूटिंग जर्मनी में की गई थी. दर्शकों को लुभाने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. यश चोपड़ा को अपनी नायिकाओं के लिए चांदनी नाम बहुत प्रिय था. इसलिए उन्होंने फ़िल्म दाग़ में राखी, सिलसिला में रेखा और फ़ासले में फ़रहा, चांदनी में रेखा को यह नाम दिया.

उन्होंने हमेशा अपने वक़्त के लोकप्रिय अभिनेता अभिनेत्रियों के साथ फ़िल्में बनाईं. उनके पसंदीदा नायकों में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, शशि कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल कपूर, शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सैफ़ अली ख़ान रहे, तो नायिकाओं में सायरा बाना, माला सिन्हा, नंदा, साधना, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, राखी, परवीन बॉबी, रेखा, जया भादु़डी, श्रीदेवी, जूही चावला, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी के नाम लिए जा सकते हैं.

उन्होंने अपनी फ़िल्मों की नायिकाओं को बेहद ख़ूबसूरती और सादगी के साथ पेश किया. उन्होंने फ़िल्म वक़्त में साधना, सिलसिला में रेखा, चांदनी, लम्हे में श्रीदेवी और फ़िल्म मोहब्बतें में ऐश्वर्या राय को सफ़ेद शिफॉन की साड़ी में दिखाया. सफ़ेद साड़ी में लिपटी उनकी नायिका ज़मीन पर उतरी किसी आसमानी हूर की तरह दर्शकों पर अपनी ख़ूबसूरती का जादुई असर छोड़  जाती है. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में कहीं भी अश्लीलता का सहारा नहीं लिया. इत्तेफ़ाक़ में उन्होंने नंदा को पूरी फ़िल्म में एक ही साड़ी में दिखाने के बावजूद जिस मादकता के साथ प्रस्तुत किया, वैसा दैहिक आकर्षण नंदा की किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला.

यश चोपड़ा को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें फ़िल्म वक़्त (1965), इत्तेफ़ाक़ (1969), दाग़ (1973), दीवार (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के तौर पर फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया, जबकि फ़िल्म लम्हे (1991), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), दिल तो पागल है (1997) और वीर ज़ारा (2004)के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. इसके अलावा उन्हें फ़िल्म चांदनी, डर, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है और वीर ज़ारा के लिए सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय और मनोरंजक फ़िल्म के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिले. इसी तरह 2006, 2007 और 2008 में उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पावर अवॉर्ड दिया गया. भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया.

पिछले दिनों जब वह फ़िल्म जब तक है जान की शूटिंग में व्यस्त थे, तब उनकी तबीयत ख़राब हो गई थी. इस वजह से उन्होंने फ़िल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग रोक दी थी. इसके साथ ही उन्होंने फ़िल्म निर्माण से संन्यास लेने का ऐलान भी कर दिया था. उन्हें इलाज के लिए मुंबई के लीलावती अस्पताल में दाख़िल कराया गया, जहां 21 अक्टूबर को डेंगू से उनकी मौत हो गई.

यशराज फ़िल्म्स की ज़िम्मेदारी उनके बेटे आदित्य चोपड़ा संभाले हुए हैं. वह भी अपने पिता की तरह बेहद प्रतिभाशाली हैं, लेकिन यश चोपड़ा की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकेगा, यह भी हक़ीक़त है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई...


फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान में अनेक भक्त कवि हुए हैं, जिन्होंने भक्ति-रस में सराबोर होकर अपनी रचनाओं से भक्ति की गंगा प्रवाहित की. इन्हीं में से एक हैं मीरा. मीरा कृष्ण की दीवानी थीं. वे कृष्ण को दिल ही दिल में अपना पति मानती थीं, क्योंकि बचपन में उनकी मां ने कृष्ण की मूर्ति की तरफ़ इशारा करते हुए उनसे कहा था, यह है तेरा वर. हालांकि उनकी मां ने बाल हठ को देखते हुए बेटी की जिज्ञासा शांत करने के मक़सद से ऐसा कहा था, लेकिन तभी से मीरा के बाल मन ने कृष्ण को अपना पति मान लिया और वे उम्र भर कृष्ण के प्रेम में आकंठ डूबी रहीं. वे भक्ति-काल की अद्‌भुत कवियित्री थीं. उनके पद जनमानस में बेहद प्रिय हैं. कृष्ण भक्त मीरा की पदावली बड़े भक्ति-भाव से गाते हैं. उन्होंने अनेक कष्ट सहे, लेकिन फिर भी कृष्ण के गुन गाती रहीं.

हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब मीरा में कृष्ण दीवानी मीरा की संक्षिप्त जीवनी के साथ उनकी प्रसिद्ध रचनाओं को शामिल किया गया है. किताब का संपादन किया है सुदर्शन चोपड़ा ने. किताब की ख़ास बात यह है कि इसमें मीरा की जीवनी अंधविश्वास पर आधारित न होकर तथ्यों के साथ आगे ब़ढती है. जैसे किताब में बताया गया है कि मीरा सागर की अथाह गहराई में समा गई थीं. ग़ौरतलब है कि तक़रीबन बारह साल की उम्र में उनका विवाह चित्तौ़ड़ के नरेश राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था. मीरा विवाह नहीं करना चाहती थीं. उन्होंने अपने मुंहबोले भाई जयमल से भी विनती की कि वे उनके परिजनों को समझाएं कि मीरा विवाह नहीं करना चाहती हैं. जयमल ने मीरा की बात परिवार के दूसरे सदस्यों तक पहुंचाई, लेकिन किसी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया. मीरा का विवाह कर दिया गया. ससुराल पहुंचने पर मीरा ने भोजराज को अपना पति मानने से इंकार कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी सास से भी कह दिया कि वे अपने कृष्ण कन्हैया के सिवा किसी अन्य देवी-देवता को नहीं मानतीं.
सीस नवै मम श्री गिरिधारिसिंह
आन न मानत, नाथ वही है
मीरा से नाराज़ होकर उनके ससुराल वालों ने उन्हें एकांतवास दिया, लेकिन मीरा को लगा कि उन्हें दंड नहीं, बल्कि वरदान मिल गया है. वे पति के संग की भावी पी़डा से छुटकारा पा गईं और अपने सांवरिया के संग एकांतवास का सुख मिल गया. व़क्त बीतता रहा. मीरा की वाणी में छंदों के बंध खुल-खुलकर बिखरने लगे. उनके सुरीले कंठ से निकलने वाले मधुर गीतों से कक्ष गूंज उठा. वह अपने सांवरे के समक्ष झूम-झूमकर नाचतीं और घर-परिवार सब भूल जातीं. बस एक वे थीं और एक था उसका सांवरिया. कृष्ण के सिवा दूसरा कोई भी उनका नहीं रह गया था. रह-रहकर उनके मुख से यह गीत फूट प़डता.
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई

भोजराज की मौत के बाद उसके शव के साथ मीरा पर सती होने के लिए दबाव डाला गया, लेकिन उन्होंने सती होने से साफ़ मना कर दिया. मीरा का कहना था-
मीरा के रंग लाग्यौ हो नाम हरि
और रंग अंटकि परी
गिरधर गास्यां सती न होस्यां
मन मोह्यो धननामी
हालांकि सास ने ख़ूब ताने मारे, ननद ने उलाहना दिया, लेकिन ससुर चुप रहे, हालांकि देवर रत्नसिंह ने मीरा का साथ दिया. जैसे-जैसे वक़्त बीतने लगा, मीरा के प्रति घरवालों की कु़ढ़न भी ब़ढती गई. कई बार मीरा की हत्या करने की कोशिश भी की गई. कभी पिटारी में सांप भेजा गया, तो कभी विष का प्याला भेजा गया, लेकिन कोई भी अंतत: मीरा का कुछ नहीं बिगा़ड़ पाया. वे साधु-संतों को एकत्र करतीं और हरि भजन गातीं-
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे
मैं तो अपने नारायण की
आपहिं हो गई दासी रे
लोग कहें मीरा भई बावरी
सासु कहे कुल नासी रे
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे
विष का प्याला राणा जी भेज्या
पीवत मीरा हांसी रे
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
सहज मिले अविनासी रे
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे

अपने ख़िलाफ़ होने वाली साज़िशों से तंग आकर आख़िरकार मीरा ने चित्तौ़ड़ छोड़ने का फ़ैसला कर लिया. अपनी बचपन की सखी ललिता के साथ पहले वे मेड़ता गईं, लेकिन वहां ज़्यादा दिन नहीं रह सकीं. ताऊ वीरमदेव और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ उन्हें अजमेर जाना प़डा. यहां भी वह एक साल ही रह पाईं. इसके बाद उन्होंने वृंदावन की राह पकड़ी. यहां वे प्रसिद्ध विद्वान और कृष्ण भक्त जीव गोस्वामी से मिलने गईं, लेकिन उन्होंने यह कहकर मीरा से मिलने से इंकार कर दिया कि उन्होंने स्त्री-मुख नहीं देखने की प्रतिज्ञा कर रखी है. इस पर मीरा ने संदेशवाहक से स्पष्ट कहा, जाकर कह दो गुस्सांईंजी से कि वृंदावन में तो मैं सबको सखी रूप में ही जानती हूं. यहां एक ही पुरुष है और वह है गिरिधर गोपाल. पर यह आज पता चला कि गिरिधर गोपाल का एक और पट्टीदार भी है यहां.

संदेश सुनकर गुस्सांईंजी बेहद शर्मसार हुए और ख़ुद बाहर आकर उन्होंने मीरा का स्वागत किया. वृंदावन में कुछ दिन रहने के बाद वे ललिता को लेकर द्वारिका चली गईं और समुद्र तट पर बने रणछोड़जी के प्रसिद्ध मंदिर में रहने लगीं. यहां आकर उन्हें लगा कि बस यही द्वार है प्रिय के उस कक्ष का, जो उनका वास्तविक गंतव्य है. लगा कि बस यही अंतिम पड़ाव है मेरी लंबी भटकन भरी यात्रा का. मीरा की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी. अकबर बादशाह भी सुर सम्राट तानसेन के साथ उनसे मिलने आए. मीरा की प्रसिद्धि की ख़बर पाकर राणा ने उन्हें वापस बुलाने के लिए राज पुरोहित के नेतृत्व में ब्राह्मणों का एक दल द्वारिका भेजा, लेकिन मीरा ने वापस जाने से इंकार कर दिया. इस पर ब्राह्मणों ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. ललिता ने मीरा को समझाया कि अगर किसी की जान चली गई, तो उनके सिर पर पाप चढ़ेगा. मगर मीरा किसी भी हालत में वापस जाने को तैयार नहीं थीं. वे मंदिर के पश्चिमी प्रांगण के अंतिम छोर पर पहुंचीं और समुद्र में छलांग लगा दी. इसके बाद ललिता भी सागर में समा गई.

क़ाबिले-ग़ौर है कि मीरा की मौत के बारे में जितने भी साक्ष्य मिलते हैं, उन सबमें यही कहा गया है कि वे द्वारिका के रणछोड़जी के मंदिर की मूर्ति में सशरीर समा गई थीं. लोकगीतों का साक्ष्य है-
जाय द्वारिका घर-घर ढूंढी मंदिर सूं न टली 

दरअसल, मीरा के युग के ही चैतन्य महाप्रभु का अंत भी जल में डूबकर ही हुआ था. उनका शव संयोग से एक मछुआरे के जाल में उलझ गया, हालांकि उसमें विकृति आ गई थी, लेकिन शिष्यों ने उसे पहचान लिया. अगर उनका शव न मिलता, तो उनके भी सशरीर परलोक-गमन की कथा बन जाती. यह हक़ीक़त है कि मीरा का शव नहीं मिला, इसलिए श्रद्धावान भक्त-हृदयों ने यह बात कहकर संतोष कर लिया कि वे रणछोड़जी में समा गई हैं.

बहरहाल, किताब की भाषा सरल है. इसका आवरण भी आकर्षक है. दरअसल, हिन्द पॉकेट बुक्स ने भक्त कवियों की एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की है. यह किताब उसी श्रृंखला का एक हिस्सा है. इस तरह श्रृंखला प्रकाशित करने से पाठकों को भक्त कवियों से संबंधित किताबें एक जगह मिल जाती हैं. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : मीरा
संपादन : सुदर्शन चोपड़ा
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 95 रुपये

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शिक्षक दिवस


ज़िंदगी में प्राइमरी स्कूल और कॊलेज का दौर ही ऐसा होता है, जो सबसे ज़्यादा याद आता है... प्राइमरी स्कूल में पढ़ते वक़्त की गई शरारतें कभी नहीं भुलाई जा सकती हैं... स्कूल के बाद भरी दोपहरी में सहेलियों के साथ खेलना... मम्मी के साथ बैठकर होमवर्क करना... फिर शाम को पापा के घर आने का इंतज़ार करना और पापा के आते ही उन्हें बाहर ले जाकर चीज़ लाना... चीज़ लाने का मक़सद सिर्फ़ पापा के साथ बाहर घूमकर आना ही हुआ करता था...
आज शिक्षक दिवस है... हमारी पहली गुरु मम्मी हैं और दूसरे पापा... इसके बाद बारी आती है हमारे स्कूल और कॊलेज के गुरुजनों की... सभी गुरुजनों को हार्दिक शुभकामनाएं... ये सब आपकी दुआओं का ही फल है कि आज हम कुछ लिख पा रहे हैं...

शिक्षक दिवस पर हम अपने उन सभी उस्तादों के मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहेंगे, जिन्होंने हमें तालीम दी है... ख़ासकर रूहानी इल्म और मौसिक़ी के उस्ताद के... जवाज़, ये है कि ये दोनों ही उस्ताद ऐसे रहे हैं, जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से, अपनी ख़ुशी से हमें तालीम दी है, बिना मेहनताने के...
आज अल सुबह हमने अपने उस्ताद को मुबारकबाद दी और आदतन उन्होंने बेशुमार दुआओं की बारिश कर दी... वाक़ई, दुआओं की बारिश में भीगना बहुत सुकून देता है...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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हिंद स्वराज का सफ़रनामा


फ़िरदौस ख़ान
हिंदुत्व की विचारधारा से ओत-प्रोत किताब हिंद स्वराज की अनंत यात्रा में लेखक अजय कुमार उपाध्याय ने हिंद स्वराज की रोशनी में महात्मा गांधी के जीवन की विराट यात्रा का संक्षिप्त विवरण दिया है, जो साधारण व्यक्ति को भी महान कार्य करने के लिए प्रेरित करता है और वह अपने आराध्य के प्रति उसी प्रकार लीन हो सकता है, जिस प्रकार महात्मा गांधी ने अंतिम क्षणों में अपने आराध्य का नाम लिया. बक़ौल लेखक, वास्तव में गांधी जी ने तो अपने जीवन भर की तैयारी को ही बोला था, जिसके संबंध में तुलसीदास जी ने भी लिखा है-जनम-जनम मुनि जतन कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं. इस तरह महात्मा गांधी ने सत्य की खोज में ही अपने मोक्ष का मार्ग ढूंढ लिया था. सत्य रूप में हिंद स्वराज के आलोक में इनके जीवन की यात्रा से निकले वचन, संदेश बनकर सारी मानवता के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुए हैं. वास्तव में इनकी यात्रा की सार्थकता जब तक पूरी नहीं होती, जब तक मुनष्यत्व की खोज पूर्ण नहीं होती. इस तरह मानवता की अनंत यात्रा में हिंद स्वराज एक प्रकाश की तरह सभी को मार्ग दिखाता रहेगा. यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना सौ वर्ष पूर्व था और आने वाली सदियों के लिए भी उतना ही प्रेरणादायी रहेगा.

किताब के अध्याय राष्ट्रीय पुनर्जागरण एवं नवचेतना, हिंद स्वराज की पृष्ठभूमि, कांग्रेस की प्रारंभिक यात्रा, बंग-भंग और राष्ट्रीय राजनीति, राष्ट्र की अवधारणा और हम, सभ्यता का सार्थक पक्ष, शिक्षा, सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयास, सविनय अवज्ञा आंदोलन, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, ऐतिहासिक वार्ता, भारत में सामाजिक क्रांति, द्वितीय विश्व युद्ध और नेहरू, स्वराज्य क्यों और कैसे, पार्लियामेंटरी स्वराज्य और विभाजन, सामाजिक सरोकार गांधी और संघ आदि में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है. मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को उनकी दयनीय दशा से उबारने के लिए संघर्षरत थे. उन्होंने 9 अक्टूबर, 1909 को लार्ड एमपीथील के नाम पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने हिंद स्वराज की आधारशिला रखी. उन्होंने लिखा कि शासकों का कर्तव्य है कि वे जन आकांक्षाओं के अनुरूप शासन करें. अगर वे अपने प्राथमिक कर्तव्यों को पूरा करने में असफल होते हैं, तो जनता को इस बात का अधिकार है कि वे उसे पहचाने व सहयोग करने से इंकार कर दे. महात्मा गांधी का अंत:करण पिछले पचास वर्षों से गूंज रहे स्वराज्य के उन उद्घोषों के प्रति जागृत था, जिसमें 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम किसी न किसी रूप में अपनी आवाज़ लिए गूंज रह था, जो महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के और पंजाब में रामसिंह कूका के नेतृत्व में देशभक्ति का भाव भर रहा था. इसी बीच 1885 में मुंबई प्रेसीडेंसी एसोसिएशन का गठन हुआ, जिसके दादाभाई नौरोजी उपसभापति चुने गए. एओ ह्यूम ने 27 दिसंबर, 1885 को कांग्रेस की स्थापना की. कांग्रेस के संबंध में गांधी जी लिखते हैं-देखिए, कांग्रेस ने अलग-अलग जगहों पर हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करके उनमें हम एक राष्ट्र हैं, ऐसा जोश पैदा किया. कांग्रेस पर सरकार की क़डी नज़र रहती थी. महसूल का हक़ प्रजा को होना चाहिए, ऐसी मांग कांग्रेस ने हमेशा की है. जैसा कनाडा में है, वैसा स्वराज्य हमें चाहिए, उससे बढ़कर इसका कोई स्वराज्य है या नहीं, यह सवाल अलग है. मुझे दिखाना तो इतना ही है कि कांग्रेस ने हिंद को स्वराज्य का रस चखाया है. इसका यश कोई और लेना चाहे तो वह ठीक न होगा, और हम भी ऐसा मानें तो बेक़दर ठहरेंगे. इतना ही नहीं, बल्कि जो मक़सद हम हासिल करना चाहते हैं, उसमें मुसीबतें पैदा होंगी.

किस तरह हिंदुत्व को खत्म करने और ईसाइयत को ब़ढावा देने के लिए लार्ड मैकाले ने शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन किए, उसे भी लेखक ने पेश किया है. मैकाले ने अंग्रेजी भाषा द्वारा अपने ईसाईयत के लक्ष्य को घोषित किया था-थो़डी सी पाश्चात्य शिक्षा से ही बंगाल में मूर्ति पूजने वाला कोई नहीं रह जाएगा. तभी तो अलैक्जेंडर डफ भारत में धर्म प्रचार के लिए आया, लेकिन सबसे अधिक प्रचार उसने अंग्रेजी का किया था. चर्चों की एक सभा में 1835 में डफ ने घोषणा की थी, जिस-जिस दिशा में पाश्चात्य शिक्षा प्रगति करेगी, उस-उस दिशा में हिंदुत्व के अंग टूटते जाएंगे और अंत में जाकर ऐसा होगा कि हिंदुत्व का कोई भी अंग साबुत नहीं रहेगा. उन्हीं लार्ड शाफ्ट ने कहा था-जो भी हिंदू ईसाई परमात्मा का ध्यान करेगा, वह ब्रह्मा और विष्णु को स्वयंमेव भूल जाएगा. लार्ड विलियम बैंटिक ने 1835 में लार्ड मैकाले की योजना की घोषणा करते हुए ऐलान किया कि भारतवर्ष में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होगी.

चूंकि लेखक दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं, इसलिए संघ की विचारधारा इस पुस्तक के हर अध्याय में प्रकट होती है. पुस्तक की प्रस्तावना संघ के सरकार्यवाह भय्याजी जोशी ने लिखी है. वह लिखते हैं-हिंद स्वराज ने पाश्चात्य सभ्यता की बुनियाद में उस समय जिन खामियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया था, वे खामियां ही पूरे पश्चिमी जगत को आज सामाजिक-आर्थिक स्तर पर संकटग्रस्त किए हुए हैं. इसलिए पश्चिम के विद्वान हिंद स्वराज की प्रासंगिकता को स्वीकारते हैं, क्योंकि हिंद स्वराज ने मानवीय पक्ष को सभ्यता का केंद्र मानते हैं. लेखक ने किताब की भूमिका में उन लोगों का आभार व्यक्त किया है, जिन्होंने इस किताब में अपना योगदान दिया है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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सूरदास का कृष्ण प्रेम


फ़िरदौस ख़ान
भक्त कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है. श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिंदी साहित्य के सूरज माने जाते हैं, जिनकी भक्ति के लबरेज़ रचनाओं से हिंदी साहित्य जगमगा उठा है. हाल में राजकमल प्रकाशन ने सूर संचयिता नामक एक किताब प्रकाशित की है, जिसमें महान कवि सूरदास के जीवनकाल पर रोशनी डालने के साथ ही उनकी चुनिंदा रचनाओं को भी शामिल किया गया है. किताब के संपादक हैं मैनेजर पाण्डेय, जिनकी इससे पहले भी सूरदास पर आधारित किताब भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य प्रकाशित हो चुकी है. सूरदास के जन्म स्थान और जन्म तिथि को लेकर अनेक मतभेद हैं. उनकी जन्मभूमि के तौर पर अब गोपाचल (ग्वालियर), मथुरा प्रांत में कोई गांव, रुनकता (आगरा), सीही (दिल्ली) और साही (आगरा) का ज़िक्र आता है. साहित्य लहरी के एक पद में उनका निवास स्थान गोपाचल बताया गया है. इसी तरह अनेक आलोचकों ने उनके जन्म और मृत्यु के समय को लेकर साहित्य लहरी के मुनि पुनि रसन के रस लेख वाले पद को स्वीकार किया है, लेकिन इस पद के इतने विरोधी अर्थ दिए गए हैं कि उनके आधार पर सूरदास की जन्म तिथि का पता लगाना मुश्किल हो जाता है. वार्ता साहित्य और सांप्रदायिक मान्यता के आधार पर यही कहा जाता है कि सूरदास वल्लभाचार्य से उम्र में दस दिन छोटे थे. वल्लाभाचार्य का जन्म संवत 1535 विक्रम की वैशाख शुक्ल 5 मंगलवार को माना जा सकता है. इसलिए डॉ. ब्रजेश्‍वर वर्मा ने उनका जन्म संवत 1535 के आसपास माना है. सूरसागर के पदों में सूरदास के सूर, सूरदास, सूरज, सूरजदास और सूर श्याम, ये पांच नाम मिलते हैं. कहीं-कहीं सुरसुजान, सूरसरस, सूरजश्याम और सूरजश्यामसुजान भी मिल जाते हैं. इनमें से सुजान, सरस आदि विशेषण ही हैं. इसलिए उनके सूर या सूरज के साथ संयुक्त होने से स्वतंत्र नाम नहीं बन सकते.

क़ाबिले-ग़ौर यह है कि क्या सूर, सूरदास, सूरज, सूरजदास और सूरश्याम ये पांचों नाम एक ही व्यक्ति के हैं या अलग-अलग पांच व्यक्तियों के नाम हैं. डॉ. ब्रजेश्‍वर शर्मा ने सूरज, सूरजदास आदि नामों को सूरदास के मूल नाम का परिवर्तित रूप न मानकर किसी दूसरे व्यक्ति का ही नाम माना है. उनके मुताबिक़, सूरदास ने विकल्प से सूरज या सूरजदास का व्यवहार नहीं किया, वरना किसी सूरजदास नामक कवि ने सूरदास के पदों में अपनी छाप लगा दी और कुछ स्वरचित पद सूरसागर में शामिल कर दिए. वह सूरदास को सूरदास ही मानते हैं. सूर निर्णय के लेखकों के मुताबिक़, सूरदास का नाम सूरज था. सूरज का लघु रूप सूर है, फिर वैष्णवता के कारण सूरजदास, सूरदास या सूरश्याम नाम पड़ गए. इसलिए सूर, सूरदास, सूरजदास और सूरश्याम, ये सभी नाम सूरदास के ही हैं. सूरदास की जाति और वंश को लेकर भी संशय बरक़रार है. दरअसल, भारत में व्यक्ति का कम और जाति का अधिक महत्व है. यहां उन भक्तों को भी जाति निर्णय के प्रपंच से गुज़रना पड़ता है, जो ख़ुद जाति भेद के विरोधी थे. भक्तों की एक ही जाति है. उनका एक ही परिचय है कि वे भक्त हैं और भगवान ही उनके सर्वस्व हैं. सूर की कविता में संप्रदाय और जाति का आग्रह नहीं है. वहां तो एक भावनात्मक धरातल पर समान अनुभूति में निमग्न संपूर्ण समाज या पूर्ण व्यक्ति है. चौरासी वैष्णव की वार्ता में ज़्यादातर भक्तों की जाति का ज़िक्र है, लेकिन सूरदास जैसे संप्रदाय के मशहूर भक्त की जाति का कोई संकेत ही नहीं है. सूरदास के पदों में भी जाति संबंधी कोई बात नहीं कही गई है, इसकी वजह से उनकी जाति या वंश का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. हालांकि आलोचकों ने अपने-अपने विचारों के मुताबिक़ उनकी जाति बताई है. ग़ौरतलब है कि सूरदास नेत्रहीन थे. वह जन्मांध थे या बाद में नेत्रहीन हुए, इस पर भी मतभेद हैं. आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने सूर संदर्भ में लिखा है कि यह कहने का साहस नहीं होता है कि सूरदास ने बिना अपनी आंखों से देखे केवल कल्पना से ये सब लिखा है, लेकिन महाकवि सूरदास में उन्होंने सूरदास को जन्मांध सिद्ध किया है, जबकि चंद्रबली पांडेय के मुताबिक़, सूरदास जन्मांध नहीं थे. हां, धीरे-धीरे अंधे ज़रूर हो गए. चौरासी वैष्णवन की वार्ता में सूरदास की जीवनी मथुरा और आगरा के मध्यवर्ती यमुना के किनारे गऊघाट नामक स्थान पर उनके निवास से शुरू होती है, जहां वल्लभाचार्य से उनकी मुलाक़ात होती है. वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षा दी और श्रीमदभागवत के दशम स्कंध की लीला की ललित झांकी भी दिखाई. इसके बाद सूरदास एकतारे पर हरि लीला का गायन करने लगे. उनकी बादशाह अकबर और गोस्वामी तुलसीदास से मुलाक़ात के व़क्त और जगह को लेकर भी विद्वानों में मतभेद हैं. इसी तरह उनकी मौत के व़क्त को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं. सूरदास के जन्मकाल की तरह ही उनका देहावसान-काल भी विवादग्रस्त है. अब तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनका देहावसान काल संवत 1640 विक्रम ही विश्वसनीय जान पड़ता है. पारसौली में उस वक़्त सूरदास को वल्लभाचार्य, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को मौजूद न पाकर जान लिया कि सूरदास का आख़िरी वक़्त क़रीब आ गया है. उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले. आरती के बाद गोसाई जी रामदास, कुंभनदास, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास के साथ सूरदास के नज़दीक पहुंचे और अचेत पड़े सूरदास को चैतन्य होते हुए देखा. सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात भगवान के रूप में अभिनंदन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की. चतुर्भुजदास ने उस व़क्त शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, लेकिन वल्लभाचार्य का यशगान क्यों नहीं किया. इस पर सूरदास ने बताया कि उनके लिए आचार्य जी और भगवान में कोई फ़र्क़ नहीं है, क्योंकि जो भगवद्यश है, वही आचार्य जी का भी यश है. उन्होंने गुरु के प्रति अपनी आस्था भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो वाला पद गाकर ज़ाहिर की. इसी पद में सूरदास ने अपने को द्विविध आन्धरो भी बताया. इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया. सूरदास ने अनेक ग्रंथों की रचना की. काशी नागरीप्रचारिणी सभा के खोज विवरण की रिपोर्ट के मुताबिक़, सूरदास के नाम से 25 ग्रंथों की सूची उपलब्ध है. इनमें सूरसारावली, सूर लहरी, सूरसागर, भगवत भाषा, दशम स्कंध भाषा, सूरसागर सार, सूर रामायण, मानलीला, राधा रसकेलि कौतूहल, गोवर्धनलीला (रास लीला), दानलीला, भंवर लीला, नाग लीला, व्याहलीला, प्राणप्यारी, दृष्टिकूट के पद, सूरशतक, सूरसाठी, सूरपचीसी, सेवाफल, सूरदास के विनय आदि के स्फुट पद, हरिवंश टीका (संस्कृत), एकादशी माहात्म्य, नल दमयंती और राम जन्म शामिल हैं. भक्त सूरदास की रचनाएं कृष्ण प्रेम से लबरेज़ हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं में कृष्ण लीला का इतना मनोहारी वर्णन किया है कि पढ़ने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है.
खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी
कटि कछनी पीतांबर बांधे, हाथ लए भौंरा, चक, डोरी
मोर मुकुट, कुंडल स्रवननि बर दसन-दमक दामिनि-छवि छोरी 
गए स्याम रवि-तनया कैं तट, अंग लसति चंदन की खोरी
औचक ही देखी तहं राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरी, अति छबि तन-गोरी
सूर स्याम देखती हीं रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी

किसी भी रचनाकार की रचनाओं में जीवन के यथार्थ और अनुभवों की अभिव्यक्ति होती है. हालांकि उन्हें भक्त कवि माना जाता है, लेकिन कृष्ण की भक्ति के अलावा उनकी रचनाओं में जीवन के विभिन्न रंगों को देखा जा सकता है. एक किसान के तौर पर वह अपने पद में खेतीबा़डी का ज़िक्र करते हैं-
प्रभु जू यौं कीन्हीं हम खेती
बंजर भूमि गाउं हर जोते, अरू जेती की तेती
काम क्रोध दोउ बैल बली मिलि, रज तामस सब कीन्हौं
अति कुबुद्धि मन हांकनहारे, माया जूआ दीन्हौं
इंद्रिय मूल किसान, महातृन अग्रज बीज बई
जन्म जन्म को विषय वासना, उपजत लाता नई
कीजै कृपादृष्टि की बरषा, जन की जाति लुनाई
सूरदास के प्रभु सो करियै, होई न कान कटाई

उन्होंने अपने पदों में किसानों की ग़रीबी, कर्मचारियों के अनाचार और सामंतों की लूट का भी ज़िक्र किया है.
अधिकारी जम लेखा मांगै, तातैं हौं आधीनौ
घर मैं गथ नहिं भजन तिहारो, जौन दिय मैं छूटौं
धर्म जमानत मिल्यों न चाहै, तातैं ठाकुर लूटौ
अहंकार पटवारी कपटी, झूठी लिखत बही
लागै धरम, बतावै अधरम, बाक़ी सबै रही
सोई करौ जु बसतै रहियै, अपनौ धरियै नाउं
अपने नाम की बैरख बांधौ, सुबस बसौं इहिं गाउं

उनकी रचनाओं में उर्दू फ़ारसी के शब्द भी ख़ूब मिलते हैं.
मोहरिल पांच साथ करि दीने, तिनकी बड़ी विपरीति
जिम्मैं उनके, मांगैं मोतैं, यह तौ बड़ी अनीति
पांच पचीस साथ अगवानी, सब मिलि काज बिगारे
सुनी तगीरी, बिसरि गई सुधि, मो तजि कीनौं है साफ़
सूरदास की यहै बीनती दस्तक कीजै माफ़

बहरहाल, यह किताब सूरदास के जीवनकाल और उनके जीवनकाल से संबंधित विवादों को बयान करती है. इसके साथ ही सूरदास के कई महत्वपूर्ण ग्रंथों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी मुहैया कराती है. पाठकों को, ख़ासकर हिंदी साहित्य के छात्रों के लिए यह किताब बेहद उपयोगी कही जा सकती है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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पाश्चात्य काव्य-चिंतन पर एक दस्तावेज़ 


फ़िरदौस ख़ान
कविता का जन्म कब हुआ, इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है. मगर इतना ज़रूर है कि जब से इंसान ने बोलना सीखा और वह अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कला में माहिर हुआ, तभी कविता का जन्म हुआ होगा. दुनिया की हर सभ्यता में काव्य को वह मुक़ाम हासिल है, जिसने इसे आसमान की बुलंदियों तक पहुंचा दिया. यह कहना ग़लत न होगा कि कविता भावनाओं की सबसे उत्कृष्ट कृति है.

प्राचीनकाल से ही हमें काव्य का ज्ञान मिलता है. ऋग्वेद के मंत्र भी काव्य शैली में हैं. भारतीय काव्य शास्त्र की परंपरा बेहद समृद्ध रही है. इसी की तरह पाश्चात्य काव्य-चिंतन की भी एक समृद्ध परंपरा है, जिसके विकास में पाश्चात्य विचारकों और काव्य आंदोलनों की अहम भूमिका रही है. दरअसल, पाश्चात्य काव्य चिंतन के क्षेत्र में कल्पना का वही स्थान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में प्रतिभा का है. प्लेटो ने कल्पना के लिए फैन्टेसिया शब्द का इस्तेमाल किया और एडिसन ने उसे मूर्ति विधान करने वाली शक्ति क़रार दिया.

राधाकृष्ण द्वारा प्रकाशित पुस्तक पाश्चात्य काव्य-चिंतन में लेखक करुणाशंकर उपाध्याय ने पाश्चात्य काव्य पर बारीकी से चिंतन किया है. दरअसल, लेखक ने पाश्चात्य काव्य-चिंतन के विविध आंदोलन विषय पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अध्येतावृत्ति पर शोध किया है. बक़ौल लेखक, पाश्चात्य विचारकों और आलोचकों ने अत्यंत प्राचीन काल और कलाकृतियों में निहित सौंदर्य-तत्व की विभिन्न दृष्टिकोणों से गहराई में जाकर छानबीन की है और काव्य-चिंतन के अनेक शिखर पार किए हैं. पाश्चात्य काव्य चिंतन के इस व्यापक फलक के निर्माण में विविध चिंतन सरणियों, विचारधाराओं, कवि स्वभाव, संस्कारों और देशकाल की परिस्थितियों का भी अहम योगदान रहा है. इस समीक्षा का बीजवपन प्राचीन यूनान और रोम के अंतवर्ती प्रदेशों के उन भूभागों में हुआ, जहां से पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति, कलादर्शन और काव्य मीमांसा, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य तथा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों की पावन गंगोत्री प्रस्तावित हुई थी. ग़ौरतलब है कि जिस प्रकार वाल्मीकि को भारतवर्ष का आदि कवि और रामायण को आदि काव्य की प्रतिष्ठा प्राप्त है, उसी प्रकार यूरोप में होमर को प्रथम कवि और इलियड और ओडिसी नामक उनकी कृतियों को आदि काव्यों का गौरव हासिल है. इन काव्य ग्रंथों के विशाल आकार में निहित काव्यात्मकता, मानवीय भावानुभूति की सच्ची संपन्नता, संवेदनशील मन की अभिव्यक्तिगत विदग्धता, कलात्मकता, कल्पनात्मक छवियों का समारोह, युग विशेष की अपूर्व झांकियां, मनुष्य की सार्वभौम शाश्वत प्रवृत्तियों का निदर्शन तथा अलंकारों की समुचित योजना को देखकर ऐसा विश्वास ही नहीं होता कि ये श्रेष्ठ सर्जना की आरंभिक कृतियां हैं. महाकवि होमर ने अपना सृजन कला की अधिष्ठात्री देवी म्यूज के प्रति अपनी स्तुति से शुरू किया है. इस स्तुति का स्वरूप प्रेरणा से संबंध है, क्योंकि उसका विश्वास था कि उचित ईश्वरीय प्रेरणा के अभाव में काव्य-सृजन संभव ही नहीं होता. वस्तुत: प्रेरणा के इसी स्वरूप के साथ काव्य-चिंतन का सैद्धांतिक विवेचन शुरू होता है. अगर पाश्चात्य काव्य-चिंतन का बीजवपन होमर की कृतियों की झमकती हुई वर्षा में हुआ, तो उसका अंकुरण हेसिओद, सोलाने, सिमोनाइड, अरिस्तोफेनीस, पिंडार इत्यादि के सौम्य विचारों के प्रभातकालीन आलोक में हुआ.

आभिजात्यवाद से लेकर उत्तरआधुनिकतावाद तक के काव्य आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि पाश्चात्य काव्यशास्त्र इस नज़रिये से कितना समृद्ध और विविधतापूर्ण है. पाश्चात्य काव्य-चिंतन के काव्य आंदोलनों को ऐतिहासिक क्रम में कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, जिनमें आभिजात्यवाद युग, अंधकार युग, पुनर्जागरण युग, नवआभिजात्यवाद, स्वच्छंदतावाद, कलावाद, मार्क्सवाद, प्रतीकवाद, बिम्बवाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, नई समीक्षा, संरचनावाद और उत्तरआधुनिकतावाद शामिल है. स्वच्छंदतावाद बौद्धिक ज्ञान की अपेक्षा भाव सौंदर्य को विशेष महत्व देता है. विंकिलमैन, लेसिंग, शिलर, गेटे आदि जर्मनी में स्वच्छंदतावाद के प्रमुख पोषक हुए हैं. जर्मनी से स्वच्छंदतावाद इंग्लैंड और फ्रांस पहुंचा. इंग्लैंड में उसने उपलब्धियों के अनेक शिखर पार किए. यह अंग्रेज़ी कविता का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन माना जाता है. इंग्लैंड में वड्‌र्सवर्थ, कॉलरिज, बायरन, शेली और लेहंट इसके उन्नायक हुए. ये सब कवि और विचारक दोनों थे. इसलिए इन्होंने सिद्धांत और व्यवहार दोनों में स्वच्छंदतावाद का स्वरूप स्पष्ट किया है.
कविवर डब्ल्यू यूए लैंडर की कविता दर्शनीय है-
न किसी से मैंने स्पर्धा की, स्पर्धा के योग्य न था कोई
प्रकृति से मैंने प्यार किया, प्रकृति के बाद कला हो ली
सेंके हैं जी भर, जीवन-ज्वाला से हाथ मैंने दोनों
अब वह मद्धम होती जाती, प्रस्थान हेतु प्रस्तुत मैं भी 

इसी तरह प्रतीकवाद फ्रांसीसी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक है, जिसने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में फ्रांस के साहित्य और कला के सभी अंगों-उपांगों को प्रभावित किया. इसे यथार्थवाद का विरोधी आंदोलन माना जाता है. हालांकि उन्नीसवीं शताब्दी को फ्रांसीसी काव्य आंदोलनों की शताब्दी माना जा सकता है, क्योंकि इस शताब्दी के शुरू में नवआभिजात्यवाद अपने प्रकर्ष पर था, जिसकी प्रतिक्रिया में स्वच्छंदतावाद का अभ्युदय हुआ. स्वच्छंदतावाद का स्वाभाविक विकास कलावाद में हुआ, जिसने यथार्थवाद के आविर्भाव के लिए ज़मीन तैयार की. यथार्थवाद की स्वाभाविक परिणति प्रकृतवाद में हुई. प्रकृतवाद अपनी ज़डें मज़बूत करने का प्रयास कर ही रहा था कि प्रतीकवाद का ज्वार आ गया. प्रतीकवाद इस सदी का अंतिम साहित्यिक और कलात्मक विवर्तन था. कतिपय विद्वानों की दृष्टि में प्रतीकवाद स्वच्छंदतावाद की अत्युन्नत एवं विकसित शाखा है, जिसमें प्रतीकों का सचेत प्रयोग किया गया. वैसे तो प्रतीकवादी काव्य-धारा का प्रवर्तन फ्रांसीसी रचनाकारों बॉदलेयर, वर्लेन, मलार्मे, रिम्बो, क्लाउडेल और पॉल वालेरी द्वारा हुआ, लेकिन इसका प्रभाव जर्मन कवि रिल्के, रूसी लेखक ब्लोक, आयरिश कवि यीट्‌स, अमेरिकन कवि हत्थॉर्न और वाल्ट व्हिटमैन आदि पर भी प़डा. मलार्मे ने लिखा है, प्रेम का चित्रण प्रेमी या प्रेमिका के मिलन या विरह का चित्रण नहीं होता, उसे बराबर उन सूक्ष्म भंगिमाओं का चित्रण होना चाहिए, जो प्रेम के साथ अदृश्य रूप से लिपटी होती हैं-
चांद का चेहरा उदास था
कामदेव की आंखों में आंसू और स्वप्न
वह हाथ में धनुष धरे
उफनाते हुए फूलों की शांति में खड़ा
प्रियमाण वीणा से
उजली सिसकियां खींच रहा था
उजली सिसकियां, जो फूलों के
नील दलों में समा रही थी
यह तुम्हारे चुंबन का प्रथम दिन था
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रतीकों के माध्यम से सूक्ष्म भावनात्मक प्रभाव उत्पन्न कर देना मलार्मे की कविता का मक़सद था.

मार्क्स ने जिस मूल्य-सिद्धांत की बात की थी, मार्क्सवादी उसके आधार पर साहित्य की विचारधारा, शिल्प और मूल्य-चेतना पर विचार करते हैं. अधिकांश विद्वान, जो इस विचारधारा के समर्थक हैं, वे साहित्य का अध्ययन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांतों की सहायता से करते हैं. इस सिद्धांत के अनुयाइयों का मानना है कि सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों में आर्थिक व्यवस्था, वर्ग-संघर्ष का विशेष हाथ होता है. वे मानते हैं कि साहित्य रूप या सृजन की साहित्यिक पृष्ठभूमि का अध्ययन, दोनों को आर्थिक-सामाजिक प्रवृत्तियों के आधार पर ही समझा जा सकता है.
मार्क्सवाद उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी की सबसे शक्तिशाली विचारधाराओं में से एक है. मार्क्सवाद साहित्य को भी समाज के परिवर्तन के एक टूल के रूप में मानता है. उसका मानना है कि लोगों में जागरण साहित्य द्वारा पैदा किया जा सकता है. मार्क्सवाद विचारधारा के समर्थक कहते हैं कि साहित्य का उद्देश्य कृति की मूल्य-व्यवस्था पर ध्यान देना है, क्योंकि संघर्षपरक, समाज-सापेक्ष, लोकमंगलकारी मूल्य मानव-समाज को आगे बढ़ाते हैं. इस सिद्धांत के मानने वालों के अनुसार आनंदवादी, रीतिवादी मूल्य मानव को विकृत करते हैं. साहित्य का वास्तविक प्रयोजन तो जीवन-यथार्थ का वास्तविक उद्‌घाटन है.
काडवेल से लेकर जार्ज लूकाच तक सभी मार्क्सवादी चिंतक काव्य का प्रयोजन मानव-कल्याण की भावना की अभिव्यक्ति मानते रहे हैं. किसी भी रचना के मूल्य और मूल्यांकन में ही उसका प्रयोजन निहित रहता है. इस प्रकार हम देखते हैं कि मार्क्सवाद चिंतन में कलावादी मूल्यों से अधिक मानववादी, मानवतावादी, नैतिक उपयोगितावादी या यूं कहें कि सामाजिक मूल्यों का अधिक महत्व दिया गया है.

दरअसल, अलग-अलग कालखंडों में काव्य के अलग-अलग रूप देखने को मिले हैं. काव्य आंदोलनों का यह सफ़र आगे भी बदस्तूर जारी रहेगा. बहरहाल, यह किताब पाश्चात्य काव्य-चिंतन पर आधारित एक बेहतरीन दस्तावेज़ है, जिससे विभिन्न पाश्चात्य देशों के काव्य को बेहद क़रीब से जानने का मौक़ा मिलता है. चूंकि यह किताब शोधग्रंथ पर आधारित है, इसलिए इसकी भाषा थो़डी संस्कृतनुमा है, जिससे आम पाठकों को इसे समझने में थोड़ी परेशानी हो सकती है. कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन और उपयोगी किताब है.  (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : पाश्चात्य काव्य चिंतन
लेखक:  करुणाशंकर उपाध्याय 
प्रकाशक : राधाकृष्ण
क़ीमत : 450 रुपये

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सरल शब्दों में जीवन की अभिव्यक्ति


फ़िरदौस ख़ान
हाल में आरोही प्रकाशन ने रेणु हुसैन की कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित किए हैं. पहला कविता संग्रह है पानी-प्यार और दूसरे कविता संग्रह का नाम है जैसे. अंग्रेज़ी की वरिष्ठ अध्यापिका रेणु हुसैन स्कूल के वक़्त से ही कविताएं लिख रही हैं. वह बताती हैं कि स्कूल में उनकी एक सहेली कविताएं लिखा करती थी. उसे कविताएं लिखते देख और उसकी कविताएं प़ढकर उन्हें बहुत अच्छा लगता था. उनकी सहेली ने उनसे कविता लिखने को कहा और तब से उन्होंने भी अपनी भावनाओं को शब्दों में ढालना शुरू कर दिया. इन्हीं शब्दों ने कविता का रूप धारण कर लिया. वह कहती हैं कि कोई सहज मानवीय भावना होती थी, जो बार-बार अंतर में हिलोरें मारती थी और कहती थी कि मुझे बोल दो, मुझे अभिव्यक्ति दो. उस वक़्त यही कोशिश रहती थी कि ज़्यादा से ज़्यादा भारी भरकम और सुंदर दिखने वाले शब्दों में कविता लिखी जाए. शब्दों का चयन करने में बहुत मेहनत करनी प़डती थी. तब कविता लिखने के मक़सद छोटे-छोटे हुआ करते थे. मसलन, स्कूल की किसी कविता प्रतियोगिता में पुरस्कार जीतना, अध्यापकों की शाबाशी हासिल करना और अपनी कविता सुनाकर दोस्तों से तारीफें सुनना. कविता लिखकर एक अजीब-सी ख़ुशी और सुकून मिलता था. यह मालूम ही नहीं पड़ा कि कब कविता लिखना ज़िंदगी का शग़ल बन गया. बहुत-सी सहानुभूतियां, बहुत-सी घटनाएं, बहुत-सी चाहतें और टीसें कविता लिखने के लिए मजबूर करती रहीं. जब कोई नाउम्मीदी आ घेरती या कोई खंडित भावना मन में टीस पैदा करती या फिर अचानक मिल जाने वाली कोई ख़ुशी दामन में रौशनी भर देती तो एक कविता लिखी जाती. धीरे-धीरे सब सहज होता गया. शब्दों का बनावटीपन पीछे छूटता गया और भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति पास आती चली गई. यह सच है कि पहले कविता अपने लिए ही लिखी जाती है, लेकिन अपनी अंतिम परिणति में कविता व्यक्तिगत नहीं रहती. कहा जा सकता है कि कविता व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक होती है. कविता लिखना एक सामाजिक कार्य बन जाता है. रेणु हुसैन की कविता अहसास उनकी भावनाओं को दर्शाती है :-
अपनी कविता में
पाती हूं
एक सुख अहसास
अपनी कविता में होती हूं
द के कितने पास

दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज के वरिष्ठ प्राध्यापक मुकेश मानस लिखते हैं, रेणु हुसैन की सीधी और सरल लगने वाली कविताओं के भीतर समकालीन मनुष्य के जीवन की तमाम जटिलताएं छिपी हुई हैं. अक्सर कहा जाता है कि स्त्री जब लिखना शुरू करती है तो वह अपनी संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति करती है. वह खुद से खुद ही बात करती है. स्त्री लेखन के संदर्भ में यह अप्रासंगिक भी नहीं है. स्त्री लेखन के बारे में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के महान लेखन के बारे में यह बात उतनी ही सच है. इन कविताओं के बारे में यह कहना एकदम सही होगा कि इन कविताओं की भाव-भूमि में प्रवेश करते ही हमारी भेंट एक साधारण स्त्री के व्यापक रचना संसार से होती है. इन कविताओं के भीतर एक स्त्री का पूरा का पूरा अनुभूत संसार सांस ले रहा है. इन कविताओं के रचना संसार के भीतर उतरने पर हमें पता चलता है कि उसमें एक स्त्री की कोमल और गंभीर संवेदनाएं हैं. इन कविताओं में उसकी आशा-निराशा, उसकी घुटन-बेचैनियां स्वतंत्रता के अहसाससे भरी सुबहों की कामना, जटिल जीवन परिस्थितियों में सहज मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखने की जद्दोजहद झलकती है. यूं तो प्रेम इन कविताओं की मूल भाव-भूमि है. प्रेम स्त्री के लिए सबकुछ है. यह प्रेम ही उसे बचाए रखता है. उसका सारा संघर्ष इसी प्रेम को बचाए रख पाने के लिए है. प्रेम हर युग में और हर मायने में मानवता के लिए ज़रूरी है. ये कविताएं कवयित्री के वैयक्तिक प्रेम और उसकी अनुभूतियों को बचाए रखने के उसके संघर्ष से आगे चलती हुई उसके सहज व्यापक मानवीय प्रेम की भावनाओं तक हमें पहुंचाती हैं. वर्तमान जीवन की परिस्थितियों में सहजता के लिए जगह कम ही रह गई है. जीवन की भागदौ़ड और बद से बदतर होती परिस्थितियों में इन्हें बचाए रख पाना एक बेहद मानवीय और साहसिक कार्य है. एक रचनाकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती है. सहज मानवीय संवेदनाओं की सरल अभिव्यक्ति ही इन कविताओं की ताक़त है. इन कविताओं में शाब्दिक बनावट में कृत्रिमता नहीं है. पंडिताऊ शब्दों की भरमार नहीं है. सरल भाषाई गठन इन कविताओं की विशिष्टता है.

काव्य संग्रह पानी प्यार उन्होंने अपने पिता और अपने पति शाहनवाज़ हुसैन को समर्पित किया है. शाहनवाज़ हुसैन भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं. इस काव्य संग्रह में शामिल उनकी कविताएं जीवन के विभिन्न रंगों को बख़ूबी दर्शाती हैं. उन्होंने प्यार की तुलना पानी से की है, क्योंकि पानी की तरह ही प्यार भी अपने रास्ते, अपनी जगह ख़ुद बना लेता है. अपनी कविता पानी प्यार में उन्होंने इसे ख़ूबसूरती से पेश किया है-
हसीन कोई लम्हा होता है
प्यारा-सा कोई मौसम
धरती के उजले आंचल से
चांदनी की हल्की फुहार-सा
जब फूट निकलता है पानी
सुंदर सपने-सा होता है
झरने, नदियां और समंदर
सब पानी से बनते हैं
सब सीमाएं ढह जाती हैं
सब बंधन खुल जाते हैं
पानी गर बह निकले तो
रास्ते खुद बन जाते हैं
आगे ब़ढता जाता है
पानी बहता जाता है
पानी की फितरत है बहना
राह के पत्थर
पाप जहां के
पानी में सबकुछ बह जाए
प्यार है पानी
पानी-प्यार
जैसे बहता रहता है पानी
वैसे बहता रहता प्यार

उनकी कविताओं में कहीं कोई बनावटीपन नज़र नहीं आता. सरल शब्दों में मन के भावों की अभिव्यक्ति ही उनकी खासियत है, उनकी कविता सुबह को ही लीजिए-
चांदनी-सी चाहत तुम्हारी
महक बनकर
फैल जाती है मेरे चारों ओर
रात होती है
तो बस जाती है आंखों में
जागते हुए एक ख्वाब-सा
देखती हूं
तुम्हारी यादों की महक में
डूब जाती है मेरी नींद
ओस पड़ जाती है
मेरे चेहरे पर
इस तरह मेरी ज़िंदगी में
चाहत के झरने से निकलकर
चुपके-चुपके
सुबह आती है

उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार किया है. उनकी कविता एक दिन बुरक़ा प्रथा के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं की हालत को बयां करती है-
उसने जन्म लिया
उसने बुरक़ा पहना
उसने सीमा बांधी
एक दिन
उसकी शादी हो गई
उसने बात मानी
उसने घर बनाया
फिर एक दिन
जाने क्या हुआ
जाने क्यूं
उसे मिल गई दुनिया से मुक्ति

उनके काव्य संग्रह जैसे में संग्रहित कविताएं भी मानवीय संबंधों और उनसे जु़डी भावनाओं की अभिव्यक्ति हैं. यह कविता संग्रह उन्होंने अपनी मां को समर्पित किया है. उन्होंने अपनी कविता औरत की ज़िंदगी में स्त्री जीवन के स़फर को बख़ूबी पेश किया है-
एक ही धरती पर
एक ही आसमान के नीचे
एक से दो घर
इन्हीं दो घरों में
एक औरत करती है सफ़र 
एक घर में खिलती है
फैल जाती है
दूसरे में क़ैद होकर सिमट जाती है
एक औरत की ज़िंदगी
इन्हीं के दरम्यां कट जाती है

बहरहाल, दोनों कविता संग्रह पठनीय हैं और काव्य प्रेमियों को रेणु हुसैन की कविताएं पढ़कर सुकून का अहसास होगा.
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औरतें, प्रेम, वासना और किंवदंतियां


फ़िरदौस ख़ान
हिन्द पॉकेट बुक्स ने खुशवंत सिंह की अंग्रेज़ी में प्रकाशित नेशनल बेस्ट सेलर पुस्तक को औरतें, सेक्स, लव और लस्ट नाम से प्रकाशित किया है. खुशवंत सिंह के बारे में एक बड़े अख़बार के संपादक ने कहा था-आपने बुलशिट को भी आर्ट में बदल दिया. खुशवंत सिंह कहते हैं कि लोग बुलशिट को भी पढ़ना पसंद करते हैं. इस विचारोत्तेजक पुस्तक को उन्होंने खुलकर बेबाक ढंग से लिखा है. उन्होंने अश्लीलता, पोर्नोग्राफ़ी और इरोटिका में फ़र्क़ बताते हुए इनका विश्लेषण भी किया है. अंदाज़ उनका वही है, बोल्ड. लेखक ने इस विषय पर भारतीय ही नहीं, विदेशी मिथक और किंवदंतियों को शामिल किया है. इसके साथ ही उन्होंने कहानियों और कविताओं का भी सहारा लिया है, जिससे किताब की रोचकता बढ़ गई है.

प्रेम के बारे में खुशवंत सिंह लिखते हैं-पूरे संसार की सभी भाषाओं में केवल प्यार ही एक ऐसा विषय है, जिस पर दिल खोल कर लिखा गया है. कोई भी दूसरा विषय इसके मुक़ाबले नहीं ठहरता, लेकिन फिर भी इसकी परिभाषाएं बहुत ही भ्रामक हैं, क्योंकि यह अपने भीतर इतने भावों को संजोए रहता है, जो अपने आप में एक-दूसरे से अलग होते हैं. एक मनुष्य का अपने बच्चे के लिए स्नेह, बच्चे का मां से लगाव, एक मनुष्य का अपने प्रभु, गुरु और देश से प्रेम, यह सब उस प्रेम से पूरी तरह अलग हैं, जो एक औरत और मर्द को एक-दूसरे का साथ पाने और शारीरिक तौर पर एकाकार होने के लिए लालायित कर देता है. यह आयु, जाति, धन, विद्या और रंग-रूप आदि सभी तरह के मतभेदों को नकार देता है. प्यार में किसी तरह का जोड़-तोड़ नहीं होता, न ही सामाजिक क़ायदे-क़ानूनों और नतीजों से कोई लेना-देना होता है. वास्तविक जीवन में इसकी पूर्ति शारीरिक और भावात्मक संबंध से होती है. तेरहवीं सदी के फ़ारसी कवि जलालुद्दीन रूमी ने कहा है-प्रेम इच्छा रखता है कि उसके रहस्य को प्रकट कर दिया जाए. यदि कोई दर्पण कोई प्रतिबिंब ही नहीं दिखाता, तो उसका लाभ क्या है? प्रेम जीवन का सबसे प्रसन्नतादायक अनुभव है. पंद्रहवीं सदी के रहस्यवादी सू़फ़ी नूरुद्दीन ज़ामी कहते हैं-जिस दिल में प्यार का दर्द नहीं बसता, वह दिल नहीं है. जिस शरीर में प्यार की तड़प नहीं है, वह केवल नींबू और पानी है. यह तत्व ही तो पूरे ब्रह्मांड को गतिशील बनाए रखता है, इसी के नशे में तो सारी दुनिया झूमती है.

पश्चिम के लिए मनुष्य की हेलेन के प्रति इच्छा ही प्रेम का प्रतीक है. पूर्व में यही इच्छा लैला-मजनू की अमर कथा से दर्शाई जाती है. एक दिन मजनू बैठा हाथ से रेत उलीच रहा था. पूछा गया-इन रेत के कणों में क्या तलाशते हो? उसने कहा- मैं लैला को खोजता हूं. तो तुम्हें क्या लगता है कि इस तरह लैला को पा लोगे? उससे पूछा गया. मैं उसे हर जगह, इस उम्मीद में खोजता हूं कि एक न एक दिन, कहीं न कहीं तो पा ही लूंगा.

जब किसी को इश्क़ का रोग लग जाता है, तो उसका सबसे पहला लक्षण यही होता है कि वह बार-बार अपने प्रिय या प्रिया का नाम लेना चाहता है. नाम चाहे कितना भी सामान्य क्यों न हो, प्यार उसे एक जादुई विशेषता दे देता है और व्यक्ति उसे मंत्र की तरह जपना चाहता है. प्रेम के बारे में सबसे यादगार पंक्तियां बाइबिल से मिलती हैं. रूथ की प्रार्थना पर ध्यान दें-मुझे स्वयं से अलग मत होने दो. जहां तुम जाओगे, मैं जाऊंगी. जहां तुम रहोगे, वहीं रहूंगी. तुम्हारे लोग, मेरे लोग होंगे और तुम्हारा ईश्वर, मेरा ईश्वर होगा. जहां तुम मरोगे, वहीं मैं भी मर जाऊंगी और दफ़नाई जाऊंगी. हे ईश्वर, मेरी इतनी विनती सुन लेना और हो सके तो मृत्यु तक मुझे स्वयं से अलग मत होने देना. अंग्रेज़ी में जहां प्रेम को लेकर सुंदर कविताएं रची गईं, वहीं उर्दू में भी ख़ूबसूरत शेअर लिखे गए. मीर तुक़ी मीर कहते हैं-
जैसे नसीम, हर सहर
तेरी ही करूं जुस्तजू
ख़ाना-ब-ख़ाना, दर-ब-दर
शहर-ब-शहर, कूबा-ब-कू
यानी हर सुबह हवा की तरह मैं तुम्हें खोजने निकलता हूं. एक घर से दूसरे घर, एक दर से दूसरे दर, एक शहर से दूसरे शहर और एक गली से दूसरी गली.

प्रेम में लीन प्रेमियों के लिए यह वह समय होता है, जब प्रेमियों को ऐसा लगता है कि वे जीवन से बस यही तो चाहते थे और ईश्वर से मांगने के लिए कुछ बचा ही नहीं. आग़ा हश्र कश्मीरी  के शब्दों में-
सब कुछ ख़ुदा से मांग लिया
तुझ को मांग कर
उठते नहीं हैं मेरे हाथ
इस दुआ के बाद
शायर अपने दिल की दुआ क़ुबूल होने पर, न केवल ख़ुदा बल्कि अपनी माशूक़ा का भी शुक्रिया अदा करता है. मजरूह सुल्तानपुरी कहते हैं-
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें
ये हवा के रु़ख बदल गए
तेरा हाथ, हाथ में आ गया
के चिराग़ राहों में जल गए

इसी तरह क्रिस्तो़फ़र मार्लो अपनी प्रेमिका को याद करते हुए लिखते हैं-
तुम्हारा रूप संध्या की बयार से भी मनोहर है
और हज़ारों सितारों की सुंदरता में लिपटा है
सच ही तो है. जब आप प्यार में होते हैं, तो अपने प्रिय के अलावा कुछ सोच तक नहीं पाते हैं. यह एक जुनून बन जाता है और आप अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते. अपने एक सॉनेट में एडमंड स्पेंसर लिखते हैं- एक दिन मैंने उसका नाम रेत पर लिखा, पर एक लहर आई और बहा ले गई. मैंने फिर से उसका नाम लिखा, पर वही हश्र हुआ. ज्वार आया और मेरी मेहनत पर पानी फेर दिया. उसने कहा कि मनुष्य व्यर्थ है. इस तरह किसी नश्वर चीज़ को अमर नहीं बना सकते. मैं तो स्वयं ऐसा ही क्षय चाहूंगी और चाहूंगी कि मेरा नाम भी इसी तरह मिट जाए. मैंने कहा कि ऐसा नहीं होगा. धूल में मिलने के बावजूद तुम्हारा नाम अमर रहेगा. मेरी कविता तुम्हारे गुणों को अमर बना देगी और स्वर्ग तक तुम्हारी कीर्ति होगी. भले ही मौत सारी दुनिया पर क़ब्ज़ा कर ले, किंतु हमारा प्रेम जीवित रहेगा और बाद में जीवन फिर से नवीन होगा.

संस्कृत काव्य में भी लौकिक प्रेम पाया जाता है. रामायण से हमें संदर्भ मिलता है कि प्रेमी इस तथ्य से आनंदित है कि वह उसी हवा में सांस ले रहा है, जिसमें उसकी प्रिया सांस लेती है-
ऐ पवन, तू वहां तक बह कर जा. जहां मेरी प्रिया है. उसे स्पर्श करके आ और फिर मुझे स्पर्श कर. मैं  तेरे माध्यम से उसके कोमल स्पर्श का अनुभव करूंगा और चंद्रमा के प्रकाश में उसका सौंदर्य देखूंगा. ये सब एक प्रेमी के लिए बहुत मायने रखता है. एक व्यक्ति इन्हीं के सहारे जीवित रह सकता है कि वह और उसकी प्रिया एक सी वायु में सांस लेते हैं और एक ही धरती पर वास करते हैं.

भृतहरि स्वीकार करते हैं-
जब कोई युवती अपने दीपक जैसे काले नेत्रों से उसे ढांप देती है, तो पुरुष की विवेचन-क्षमता की उज्जवल ज्वाला दम तोड़ देती है.
यह वास्तव में एक अद्‌भुत-सा एहसास है. यह प्रत्येक आयु के मनुष्य पर कभी न कभी अपना असर दिखाता ही है. प्यार की कोई परिभाषा दे पाना आसान नहीं होता. आप इसे वर्णित करना भी चाहें तो केवल यही कह सकते हैं कि आपको महसूस हो रहा है, आप जिस भावना को अनुभव करने जा रहे हैं, उसे आपने कभी महसूस नहीं किया. यह कोई बहुत सहायक नहीं जान पड़ती तो हम इसके प्रारंभिक लक्षणों पर ध्यान देते हैं. इसका पहला लक्षण यही है कि आप किसी ख़ास इंसान की सोहबत में रहना चाहते हैं. इसके बाद उस व्यक्ति के साथ रहने की इच्छा, उस पर निर्भरता में बदल जाती है. उसके साथ ख़ुशी मिलती है और उसके साथ न होने पर ख़ालीपन का अहसास होता है. निर्भरता की यह अवस्था निश्चित रूप से चाहने वाले की स्थिति बदल देती है. प्रेमी जन अपने प्रेमपात्र की सेवा करने को तत्पर रहते हैं, क्योंकि इस संसार में प्रिय से अधिक प्रिय कोई नहीं होता. बर्नाड शॉ ने इसी भाव को एक प्रेमी और आम आदमी का अंतर कहा है. प्रेमी जन अपनी मर्यादा की परवाह नहीं करते और न ही उन्हें समाज की कोई परवाह होती है. प्यार में दूसरे के साथ लगातार वचनबद्धता निभाने का तत्व शामिल होता है, जिसमें आने वाले ख़तरों की भी गणना नहीं की जाती. प्यार कभी भी, कहीं से भी जीवन में सेंध लगा सकता है. यह धन, राष्ट्रीयता, धर्म और आयु के अंतर को फलांग कर विपरीत जान पड़ते संबंधों में भी हो सकता है. दो लोग एक-दूसरे के लिए खिंचाव क्यों महसूस करते हैं, यह आज तक पहेली बनी हुई है.

बहरहाल, इस किताब में औरत और मर्द की भावनाओं से जु़डी कुछ ऐसी सच्चाइयों के बारे में जानकारी मिलती है, जिन्हें हम जानना नहीं चाहते या फिर उससे मुंह मोड़ लेते हैं. लेकिन हमारे ऐसा करने से हक़ीक़त बदल तो नहीं जाती है. इसलिए ज़रूरी है कि हम इन सच्चाइयों को जानें और उन पर एक बार विचार ज़रूर करें. रिश्तों को बेहतर तरीक़े से निभाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी भी है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


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मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है


फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है. फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी है. क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं. बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है. इसलिए भी मातृभाषा हमें सबसे ज़्यादा प्रिय है. लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िंदगी बसर करते हैं यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को तुच्छ समझते हैं. बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग़्रेजी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं. हिंदी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है. वे लोग जिनके पूर्वज अंग्रेज़ी की एबीसी तक नहीं जानते थे, वे लोग भी हिंदी को गरियाते हुए मिल जाएंगे. अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है. इंसान को अंग्ऱेजी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए. इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है. यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है. हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है. पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे. क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं.

रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है. एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है-अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे. अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हो. नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों. मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता. पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी. रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जु़डे हैं. कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है. मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए मेरा दाग़िस्तान में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं. मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं. इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए. हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए. मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं. मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है.

एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था. अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया. उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा. बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा. इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया. लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की. लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका. चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा. तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी. अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा. तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो. इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं. बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था. अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है. महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए. वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं.

अबूतालिब एक बार मास्को में थे. सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई. शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया. इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं. मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है.

अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा. अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की. आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए. एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है. अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते. समझे न? समझ रहा हूं. अबूतालिब ने जवाब दिया. मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?

रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई. क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा. पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था. वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही. मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है. इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया. एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद. चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी. वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक्काशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी. पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं. पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं. मैं कुहासा ही हूं. दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा. झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी. पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी. चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है.

किस किंवदंती के आधार पर?

एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया. बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं. पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुंदर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे. तो मैं इस परिंदे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है. इस तरह वह मुझे उस अद्‌भुत देश का रास्ता दिखा देगा. उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया. दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा. इस झा़डी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था. अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं. चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की.

तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है. कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था. अब मैं उसे सिर्फ़ बूढी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है. अपनी एक कविता में वह कहते हैं:-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
बेशक लोग कहें, कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है
बड़े समारोहों में इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं
मगर मुझे तो मिली दूध में मां के, वह तो बड़ी सबल है
प्यार मुझे बेहद जीवन से, प्यार मुझे सारी पृथ्वी से
उसका कोना-कोना प्यारा, प्यारा उसका साया-छाया
फिर भी सोवियत देश अनूठा, मुझको सबसे ज़्यादा प्यारा
अपनी भाषा में उसका ही, मैंने जी भर गौरव गाया
बाल्टिक से ले, सख़ालीन तक इस स्वतंत्र खिलती धरती का
हर कोना मुझको प्यारा है, हर कोना ही मन भरमाये
इसके हित हंसते-हंसते ही, दे दूंगा मैं प्राण कहीं भी
पर मेरे ही जन्म गांव में, बस मुझको दफ़नाया जाए
ताकि गांव के लोग कभी आके, करें क़ब्र पर चर्चा मेरी
कहें हमारी भाषा में यह, यहां रसूल अपना सोता है
अपनी भाषा में ही जिसने, अपने मन-भावों को गाया है
त्सादा के हमज़ात सुकवि का, अरे वही बेटा होता है ... (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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