तुम्हें कौन-से फूल भेजूं...

फिरदौस खान
फूल…फ़िज़ा में भीनी-भीनी महक बिखेरते रंग-बिरंगे फूल किसी का भी मन मोह लेने के लिए काफ़ी हैं…सुबह का कुहासा हो या गुलाबी शाम की ठंडक…पौधों को पानी देते वक़्त कुछ लम्हे बेला, गुलाब और चंपा-चमेली के साथ बिताने का मौक़ा मिल ही जाता है…गुलाबों में तो अभी नन्हीं कोंपलें ही फूट रही हैं, जबकि चमेली और चंपा के फूल शाम को महका रहे हैं…फूलों के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर ही बेमानी लगता है… उन्हें महकते सुर्ख़ गुलाब पसंद हैं और हमें सफ़ेद फूल ही भाते हैं, चाहे वे गुलाब के हों, बेला, चमेली, चम्पा, जूही या फिर रात की रानी के...
फूल प्रेम का प्रतीक हैं…आस्था और श्रद्धा प्रकट करने के लिए भी फूलों से बेहतर और कोई सांसारिक वस्तु नहीं है…कहते हैं कि देवी-देवताओं को उनके प्रिय फूल भेंट कर प्रसन्न किया जा सकता है… श्रद्धालु अपने इष्ट देवी-देवताओं को उनके प्रिय फूल अर्पित कर मनचाही मुराद पाते हैं…
हमारे देश में ख़ासकर हिंदू धर्म में विभिन्न धार्मिक कार्यों में फूलों का विशेष महत्व है. धार्मिक अनुष्ठान, पूजा और आरती आदि फूलों के बिना पूरे ही नहीं माने जाते हैं. भगवान विष्णु को कमल, मौलसिरी, जूही, चंपा, चमेली, मालती, वासंती, वैजयंती कदम्ब, अपराजिता, केवड़ा और अशोक के फूल बहुत प्रिय हैं. भगवान विष्णु को पीला रंग प्रिय है. इसलिए उनकी पूजा में पीले रंग के फूल विशेष रूप से शामिल किए जाते हैं. भगवान श्रीकृष्ण को परिजात यानी हरसिंगार, पलाश, मालती, कुमुद, करवरी, चणक, नंदिक और वनमाला के फूल प्रिय हैं. इसलिए उन्हें ये फूल अर्पित करने की परंपरा है. कहा जाता है कि परिजात का पेड़ स्वर्ग का वृक्ष है और यह देवताओं को बहुत प्रिय है. रुक्मणि को परिजात के फूल बहुत पसंद थे, इसलिए श्रीकृष्ण परिजात को धरती पर ले आए थे. भगवान शिव को धतूरे के फूल, नागकेसर के फूल, कनेर, सूखे कमल गट्टे, कुसुम, आक, कुश और बेल-पत्र आदि प्रिय हैं. सूर्य देव को कूटज के फूल, कनेर, कमल, चंपा, पलाश, आक और अशोक आदि के फूल भी प्रिय हैं. धन और एश्वर्य की देवी लक्ष्मी को कमल सबसे प्रिय है. उन्हें लाल रंग प्रिय है. देवी दुर्गा को भी लाल रंग प्रिय है और देवी सरस्वती को सफ़ेद रंग प्रिय है. इसलिए लक्ष्मी और दुर्गा को लाल और सरस्वती को सफ़ेद रंग के फूल अर्पित किए जाते हैं. कमल का फूल सभी देवी-देवताओं को बहुत प्रिय है. इसकी पंखु़ड़ियां मनष्य के गुणों की प्रतीक हैं, जिनमें पवित्रता, दया, शांति, मंगल, सरलता और उदारता शामिल है. इसका आशय यही है कि मनुष्य जब इन गुणों को अपना लेता है तब वह भी ईश्वर को कमल के फूल की तरह ही प्रिय हो जाता है. कमल कीचड़ में उगता है और उससे ही पोषण लेता है, लेकिन हमेशा कीचड़ से अलग ही रहता है. यह इस बात का भी प्रतीक है कि सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन किस तरह गुज़ारा जाए. क़ाबिले-ग़ौर है कि किसी भी देवता के पूजन में केतकी के फूल नहीं चढ़ाए जाते. ये फूल वर्जित माने जाते हैं…जबकि गणेश जी को तुलसीदल को छोड़कर सभी प्रकार के फूल चढ़ाए जा सकते हैं. शिव जी को केतकी के साथ केवड़े के फूल चढ़ाना भी वर्जित है. देवी-देवताओं को उनके प्रिय फूल अर्पित कर उन्हें प्रसन्न करने और मनचाही मुरादें मांगने की सदियों पुरानी परंपरा है… 
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सफ़ेद फूल...


सफ़ेद फूल... सफ़ेद फूलों में हमारी रूह बसती है... सफ़ेद फूल हमें बचपन से ही बहुत पसंद हैं...
बेला, गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली, मोगरा, रात की रानी के सफ़ेद फूल खिलते हैं, तो फ़िज़ा महक उठती है... और इन सफ़ेद फूलों की भीनी-भीनी महक मन को लुभाती है... इन सफ़ेद फूलों पर हम यूं ही जां निसार नहीं करते... कुछ तो बात है इनमें...

बुज़ुर्ग औरतें कहती हैं कि सफ़ेद फूलों पर असरात होते हैं... बरसों पहले हमने कई चमेली के पौधे लगाए थे, जो बहुत फैल गए थे... कई औरतों ने कहा कि चमेली घर में लगाना ठीक नहीं है... उसके बाद से अम्मी ने चमेली के कई बड़े झाड़ हटवा दिए... चमेली का एक पौधा हमने अपने नये घर में लगाया... कुछ महीनों में चमेली ख़ूब फैल गई... छत तक ऊंची हो गई... चमेली को यूं फलते-फूलते देखकर बहुत अच्छा लगता है... आंगन में सफ़ेद फूलों के कई पौधे हैं... एक सफ़ेद रंग का सदाबहार भी लगाया हुआ है, ताकि हमारे आंगन में सफ़ेद फूल हमेशा खिलते रहें...
(ज़िन्दगी किताब का एक वर्क़)

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राजेश खन्ना : क़िस्मत से मिली कामयाबी


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के ज़रिये उन्होंने कामयाबी की जो बुलंदियां हासिल कीं, वह हर किसी को नसीब नहीं हो पाती हैं. 29 दिसंबर, 1942 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे राजेश खन्ना का असली नाम जतिन खन्ना था. उन्हें बचपन से ही अभिनय का शौक़ था. फिल्मों में उनके आने का क़िस्सा बेहद रोचक है. युनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर के बैनर तले 1965 में नए अभिनेता की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई. इसमें दस हज़ार लड़कों में से आठ लड़के फाइनल मुक़ाबले तक पहुंचे, जिनमें एक राजेश खन्ना भी थे. आख़िर में कामयाबी का सेहरा राजेश खन्ना के सिर बंधा. अगले साल ही उन्हें फिल्म आख़िरी ख़त में काम करने का मौक़ा मिल गया. इसके बाद उन्होंने राज़, बहारों के सपने, औरत के रूप आदि कई फिल्में कीं, लेकिन कामयाबी उन्हें 1969 में आई फिल्म आराधना से मिली. इसके बाद एक के बाद एक 14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिंदी फिल्मों के पहले सुपरस्टार के तौर पर अपनी पहचान क़ायम कर ली. राजेश खन्ना ने फिल्म आनंद में एक कैंसर मरीज़ के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसमें मरते व़क्त आनंद कहता है-बाबू मोशाय, आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं. इस फिल्म में राजेश खन्ना द्वारा पहने गए गुरु कुर्ते ख़ूब मशहूर हुए. लड़के उन जैसे बाल रखने लगे.

उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उस ज़माने में अभिभावकों ने अपने बेटों के नाम राजेश रखे. फिल्म जगत में उन्हें प्यार से काका कहा जाता था. जब वह सुपरस्टार थे, तब एक कहावत बड़ी मशहूर थी-ऊपर आक़ा और नीचे काका. कहा जाता है कि अपने संघर्ष के दौर में भी वह महंगी गाड़ियों में निर्माताओं से मिलने जाया करते थे. वह रूमानी अभिनेता के तौर पर मशहूर हुए. उनकी आंखें झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने थे, ख़ासकर ल़डकियां तो उन पर जान छिड़कती थीं. राजेश खन्ना लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए. लड़कियों ने उन्हें ख़ून से ख़त लिखे, उनकी तस्वीरों के साथ ब्याह रचाए, अपने हाथ पर उनका नाम गुदवा लिया. कहा जाता है कि कई लड़कियां तो अपने तकिये के नीचे उनकी तस्वीर रखा करती थीं. कहीं राजेश खन्ना की सफ़ेद रंग की कार रुकती थी, तो लड़कियां कार को चूमकर गुलाबी कर देती थीं. निर्माता-निर्देशक उनके घर के बाहर कतार लगाए खड़े रहते थे और मुंहमांगी क़ीमत पर उन्हें अपनी फिल्मों में लेना चाहते थे.

राजेश खन्ना ने तक़रीबन 163 फिल्मों में काम किया. इनमें से 128 फ़िल्मों में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई, जबकि अन्य फ़िल्मों में भी उनका किरदार बेहद अहम रहा. उन्होंने 22 फ़िल्मों में दोहरी भूमिकाएं कीं. उन्हें तीन बार फ़िल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाज़ा गया. ये पुरस्कार उन्हें फ़िल्म सच्चा झूठा (1971),  आनंद (1972) और अविष्कार (1975) में शानदार अभिनय करने के लिए दिए गए. उन्हें 2005 में फ़िल्मफ़ेयर के लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. उनकी फ़िल्मों में बहारों के सपने, आराधना, दो रास्ते, बंधन, सफ़र, कटी पतंग, आन मिलो सजना, आनंद, सच्चा झूठा, दुश्मन, अंदाज़, हाथी मेरे साथी, अमर प्रेम, दिल दौलत दुनिया, जोरू का ग़ुलाम, मालिक, शहज़ादा, बावर्ची, अपना देश, मेरे जीवन साथी, अनुराग, दाग़, नमक हराम, अविष्कार, अजनबी, प्रेम नगर, हमशक्ल, रोटी, आप की क़सम, प्रेम कहानी, महा चोर, महबूबा, त्याग, पलकों की छांव में, आशिक़ हूं बहारों का, छलिया बाबू, कर्म, अनुरोध, नौकरी, भोला भाला, जनता हवलदार, मुक़ाबला, अमर दीप, प्रेम बंधन, थोड़ी सी बेवफ़ाई, आंचल,  फिर वही रात, बंदिश, क़ुदरत, दर्द, धनवान, अशांति, जानवर, धर्म कांटा, सुराग़, राजपूत, नादान, सौतन अगर तुम न होते, अवतार, नया क़दम, आज का एमएलए राम अवतार, मक़सद, धर्म और क़ानून, आवाज़, आशा ज्योति, ऊंचे लोग, नया बकरा, मास्टर जी, दुर्गा, बेवफ़ाई, बाबू, हम दोनों, अलग-अलग, ज़माना, आख़िर क्यों, निशान, शत्रु, नसीहत, अंगारे, अनोखा रिश्ता, अमृत गोरा, आवारा, बाप, अवाम, नज़राना, विजय, पाप का अंत, मैं तेरा दुश्मन, स्वर्ग, रुपये दस करोड़, आ अब लौट चलें, प्यार ज़िंदगी है और क्या दिल ने कहा आदि शामिल हैं.

राजेश खन्ना नब्बे के दशक में राजीव गांधी के कहने पर सियासत में आ गए. उन्होंने 1991 में नई दिल्ली से कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को कड़ी चुनौती दी थी, लेकिन मामूली अंतर से हार गए. आडवाणी ने यह सीट छोड़ दी और अपनी दूसरी सीट गांधीनगर से अपना प्रतिनिधित्व बनाए रखा. सीट ख़ाली होने पर उपचुनाव में वह एक बार फिर खड़े हुए और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे फ़िल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को भारी मतों से शिकस्त दी. उन्होंने 1996 में तीसरी बार इसी सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन भाजपा नेता जगमोहन से हार गए. इसके बाद हर बार चुनाव के मौक़े पर वह कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए दिल्ली आते रहे. उन्होंने 1994 में एक बार फिर ख़ुदाई फ़िल्म से परदे पर वापसी की, लेकिन उन्हें ख़ास कामयाबी नहीं मिल पाई. इसके अलावा अपने बैनर तले उन्होंने जय शिव शंकर नामक फिल्म शुरू की थी, जिसमें उन्होंने पत्नी डिम्पल को साइन किया. फ़िल्म आधी बनने के बाद रुक गई और आज तक रिलीज नहीं हुई. कभी अक्षय कुमार भी इस फ़िल्म में काम मांगने के लिए राजेश खन्ना के पास गए थे, लेकिन राजेश खन्ना से उनकी मुलाक़ात नहीं हो पाई. बाद में वह राजेश खन्ना के दामाद बने.

राजेश खन्ना की कामयाबी में संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर का अहम योगदान रहा. उनके बनाए और राजेश पर फ़िल्माये ज़्यादातर गीत हिट हुए. किशोर कुमार ने 91 फ़िल्मों में राजेश खन्ना को आवाज़ दी, तो आरडी बर्मन ने उनकी 40 फ़िल्मों को संगीत से सजाया. राजेश खन्ना अपनी फ़िल्मों के संगीत को लेकर हमेशा सजग रहते थे. वह गाने की रिकॉर्डिंग के वक़्त स्टुडियो में रहना पसंद करते थे. मुमताज़ और शर्मिला टैगोर के साथ उनकी जो़ड़ी को बहुत पसंद किया गया. आशा पारेख और वहीदा रहमान के साथ भी उन्होंने काम किया. एक दौर ऐसा भी आया जब ज़ंजीर और शोले जैसी फ़िल्में हिट होने लगीं. दर्शक रूमानियत की बजाय एक्शन फ़िल्मों को ज़्यादा पसंद करने लगे तो राजेश खन्ना की फ़िल्में पहले जैसी कामयाबी से महरूम हो गईं. कुछ लोगों का यह भी मानना रहा कि राजेश खन्ना अपनी सुपर स्टार वाली इमेज से कभी बाहर नहीं आ पाए. वह हर वक़्त ऐसे लोगों से घिरे रहने लगे, जो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते थे. अपने अहंकार की वजह से उन्होंने कई अच्छी फ़िल्में ठुकरा दीं, जो बाद में अमिताभ बच्चन की झोली में चली गईं. उनकी आदत की वजह से मनमोहन देसाई, शक्ति सामंत, ऋषिकेश मुखर्जी और यश चोपड़ा ने उन्हें छोड़कर अमिताभ बच्चन को अपनी फ़िल्मों में लेना शुरू कर दिया.

राजेश खन्ना की निजी ज़िंदगी में भी काफ़ी उतार-च़ढाव आए. उन्होंने पहले अभिनेत्री अंजू महेन्द्रू से प्रेम किया, लेकिन उनका यह रिश्ता ज़्यादा वक़्त तक नहीं टिक पाया. बाद में अंजू ने क्रिकेट खिलाड़ी गैरी सोबर्स से सगाई कर ली. इसके बाद 1973 में उन्होंने डिम्पल कपा़डिया से प्रेम विवाह किया. डिम्पल और राजेश में ज़्यादा अच्छा रिश्ता नहीं रहा. बाद में दोनों अलग-अलग रहने लगे. उनकी दो बेटियां हैं टि्‌वंकल और रिंकी. मगर अलग होने के बावजूद डिम्पल से हमेशा राजेश खन्ना का साथ दिया. आख़िरी वक़्त में भी डिम्पल उनके साथ रहीं. टीना मुनीम भी राजेश खन्ना की ज़िंदगी में आईं. एक ज़माने में राजेश खन्ना ने कहा था कि वह और टीना एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करते हैं. वह अपनी हर फ़िल्म में टीना मुनीम को लेना चाहते थे. उन्होंने टीना मुनीम के साथ कई फ़िल्में कीं.

राजशे खन्ना ने अमृतसर के कूचा पीपल वाला की तिवाड़ियां गली में स्थित अपने पैतृक घर को मंदिर के नाम कर दिया था. उनके माता-पिता की मौत के बाद कई साल तक इस मकान में उनके चाचा भगत किशोर चंद खन्ना भी रहे, उनकी मौत के बाद से यह मकान ख़ाली पड़ा था. यहां के लोग आज भी राजेश खन्ना को बहुत याद करते हैं. राजेश खन्ना पिछले काफ़ी दिनों से बीमार चल रहे थे. 18 जुलाई,  2012 को उन्होंने आख़िरी सांस ली. राजेश खन्ना का कहना था कि वह अपनी ज़िंदगी से बेहद ख़ुश हैं. दोबारा मौक़ा मिला तो वह फिर राजेश खन्ना बनना चाहेंगे और वही ग़लतियां दोहराएंगे, जो उन्होंने की हैं. उनकी मौत से उनके प्रशंसकों को बेहद तकली़फ़ पहुंची. हिन्दुस्तान ही नहीं पाकिस्तान और अन्य देशों के बाशिंदों ने भी अपने-अपने तरीक़े से उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


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