अच्छे दिन


फ़लों की बात तो दूर सब्ज़ियों के भाव भी आसमान छू रहे हैं. सब्ज़ी वाले भी अब किलो की जगह एक पाव के दाम बता रहे हैं, ताकि सुनने वाला बेहोश न हो जाए. और तोल में भी एक-एक माशे का ख़्याल रखने लगे हैं...
हमने कहा- भैया सब्ज़ी तोल रहे हो या सोना-चांदी.
वो चिड़कर बोला- मैडम जी ! ऐसी पार्टी को और दो वोट, आ गए न अच्छे दिन...
हमने कहा- भैया! अवाम की इस बदहाली में हमारा कोई योगदान नहीं है. हम ख़ुद 69 फ़ीसद अवाम की तरह 31 फ़ीसद के किए की सज़ा भुगत रहे हैं.

तस्वीर गूगल से साभार


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रोज़ेदार


फ़िरदौस खान
अमूमन तीन तरह के रोज़ेदार हुआ करते हैं... पहली तरह के रोज़ेदारों के पास एसी हैं... ये लोग सहरी करते हैं. फ़ज्र की नमाज़ पढ़कर एसी रूम में सो जाते हैं और तीन-चार बजे उठते हैं. ज़ुहर पढ़ते हैं, असर पढ़ते हैं और फिर इफ़्तारी की तैयारी में लग जाते हैं... इनके पास इफ़्तारी में दुनिया की हर शय होती है...

दूसरी तरह के रोज़ेदारों के पास एसी तो दूर कूलर तक नहीं हैं... ये लोग रोज़े की हालत में सुबह से शाम तक काम करते हैं और शाम को थोड़ा-बहुत इफ़्तारी और सहरी का सामान लेकर घर आते हैं... इनकी औरतें रोज़े की हालत में गर्मी से बचने के लिए पानी में भीगे दुपट्टे लपेटती हैं...

तीसरी तरह के रोज़ेदारों के पास पंखे तक नहीं है... ये लोग दिनभर मेहनत करते हैं, जब कहीं जाकर इनके घरों में चूल्हे जलते हैं... इन्हें सहरी और इफ़्तारी में रोटी भी मिल जाए, तो ग़नीमत है...

अल्लाह सबके रोज़े क़ुबूल फ़रमाए, आमीन

तस्वीर गूगल से साभार
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अपना और पराया


किसी भी सवाल का जवाब ये बता देता है कि सामने वाले से आपका रिश्ता कैसा है... बानगी देखिये-
लड़की से एक लड़की पूछती है- कैसी हो ?
लड़की चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुए जवाब देती है- ठीक हूं, मज़े में हूं...
कुछ देर बाद उससे दूसरी लड़की पूछती है-कैसी हो ?
लड़की उदास होते हुए जवाब देती है- बहुत परेशान हूं... फिर वो अपनी परेशानी उसे बताती है...
लड़की ने एक सवाल के दोनों लड़कियों को अलग-अलग जवाब दिए... ज़ाहिर है, पहली लड़की से उसका कोई रिश्ता नहीं, बस जान-पहचान है... जबकि दूसरी लड़की से उसका मन का रिश्ता है... तभी उसने अपनी परेशानी उसे बताई...
अगर कोई आपको अपनी परेशानी बताए, तो उसे नाशुक्रा न कहें... बल्कि ये समझें कि वो आपको अपना मानता है, इसलिए आपको अपने मन की बात बता रहा है... वरना इस ज़माने में कौन किस पर इतना यक़ीन करता है कि उससे अपने दिल की बातें शेयर करे...

तस्वीर गूगल से साभार

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सुसाइड नोट


फ़िरदौस ख़ान
लड़की बहुत मज़लूम थी. उसकी ज़िन्दगी में ऐसा कोई नहीं था, जिसे वह अपना कह सके. मां-बाप भी सारी उम्र नहीं बैठे रहते. और भाई, भाई भी तब तक ही भाई होते हैं, जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती. शादी के बाद वो सिर्फ़ अपनी बीवी के ही बनकर रह जाते हैं. शादी के बाद वो अपने मां-बाप को नहीं पूछते, फिर बहन क्या चीज़ है.
लड़की अपनी ज़िन्दगी के अकेलेपन से परेशान थी. उसकी तकलीफ़ को समझने वाला कोई नहीं था. कोई ऐसा नहीं था, जिससे पल-दो-पल बात करके वो अपना दिल हल्का कर सके. उसकी ज़िन्दगी अज़ाब बनकर रह गई थी. आख़िर कब तक वो इस अज़ाब को झेलती. उसने फ़ैसला किया कि जब तक हिम्मत है, तब तक वो ज़िन्दगी के बोझ को अपने कंधों पर ढोएगी और जब हिम्मत जवाब दे देगी, तो इस बोझ को उतार फेंकेगी... और एक दिन उसने ऐसा ही किया. उसने ख़ुदकुशी कर ली.
ख़ुद्कुशी करने से पहले उसने बहुत सोचा, दुनिया के बारे में, रिश्तेदारों के बारे में और उन बातों के बारे में, जिनमें कहा जाता है कि ख़ुदकुशी करना जुर्म है, गुनाह है.
वो सोचती है, कोई जिये या मरे, इससे दुनिया को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. रिश्तेदारों का क्या है, जब कभी जीते जी उसकी ख़बर न ली, मरने के बाद क्या याद करेंगे. और जुर्म, क़ानून भी अब उसका क्या कर लेगा. क़ानून भी उन हालात को नहीं रोकता, जो जुर्म की वजह बनते हैं. वो तो बस आंखें मूंदकर जुर्म होने का इंतज़ार करता है. गुनाह, उसका क्या. कहते हैं कि गॊड की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता. हर चीज़ पर वो क़ादिर है, हर चीज़ उसी के अख़्तियार में है. मौत का फ़रिश्ता भी उसी की इजाज़त से ही रूह क़ब्ज़ करता है. किसकी मौत कब, कहां, कैसे होनी है, ये पहले से ही तय होता है. यानी उसकी मौत इसी तरह लिखी है, यानी ख़ुदकुशी. ये सोचकर उसके दिल से एक बोझ उतर जाता है, गुनाह का बोझ. वो सोचती है कि शायद उसकी मौत इसी तरह लिखी है, तभी ये हालात पैदा हुए कि ज़िन्दगी से बेपनाह मुहब्बत करने वाली एक लड़की आज इस तरह मौत की आग़ोश में सो जाना चाहती है.
अब उसे सबसे ज़रूरी काम करना था, आख़िरी काम. उसने अपनी डायरी उठाई और आख़िरी तहरीर लिखने बैठ गई. उसे सुसाइड नोट लिखना था. उसने लिखा-
"आज मैंने अपने पूरे होशो-हवास में अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी के बोझ को अपने कंधों से उतार फेंका है."
इसके बाद उसने बहुत-सी नींद की गोलियां खा लीं और अपनी डायरी को अपने सीने से लगाकर लेट गई. ये डायरी ही बस उसकी अपनी थी, उसके अकेलेपन में उसका सबसे बड़ा सहारा थी, जिसमें वो अपने दिल की बातें लिखा करती थी. अपने उन ख़्वाबों के बारे में लिखा करती थी, जो कभी उसने देखे थे. अपने घरबार के ख़्वाब, ज़िन्दगी को भरपूर जीने के सतरंगी ख़्वाब. वो इतनी ख़ुशनसीब नहीं थी कि उसके ख़्वाब पूरे होते. उसने कौन-सी ख़ुदायी मांगी थी, बस एक अपना घर ही तो चाहा था. उसे वो भी नसीब नहीं हुआ.

तस्वीर गूगल से साभार
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त्यौहारी...


फ़िरदौस ख़ान
जब भी कोई त्यौहार आता, लड़की उदास हो जाती. उसे अपनी ज़िन्दगी की वीरानी डसने लगती. वो सोचती कि कितना अच्छा होता, अगर उसका भी अपना एक घर होता. घर का एक-एक कोना उसका अपना होता, जिसे वो ख़ूब सजाती-संवारती. उस घर में उसे बेपनाह मुहब्बत करने वाला शौहर होता, जो त्यौहार पर उसके लिए नये कपड़े लाता, चूड़ियां लाता, मेहंदी लाता. और वो नये कपड़े पहनकर चहक उठती, गोली कलाइयों में रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां पहननती, जिसकी खनखनाहट दिल लुभाती.  गुलाबी हथेलियों में मेहंदी से बेल-बूटे बनाती, जिसकी महक से उसका रोम-रोम महक उठता.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं था. उसकी ज़िन्दगी किसी बंजर ज़मीन जैसी थी, जिसमें कभी बहार नहीं आनी थी. बहार के इंतज़ार में उसकी उम्र ख़त्म हो रही थी. उसने हर उम्मीद छोड़ दी थी. अब बस सोचें बाक़ी थीं. ऐसी उदास सोचें, जिन पर उसका कोई अख़्तियार न था.
वो बड़े शहर में नौकरी करती थी और पेइंग गेस्ट के तौर पर दूर की एक रिश्तेदार के मकान में रहती थी, जो उसकी ख़ाला लगती थीं. जब भी कोई त्यौहार आता, तो ख़ाला अपनी बेटी के लिए त्यौहारी भेजतीं. वो सोचती कि अगर वो अपनी ससुराल में होती, तो उसके मायके से उसकी भी त्यौहारी आती. और ये सोचकर वो और ज़्यादा उदास हो जाती. हालांकि वो मान चुकी थी कि उसकी क़िस्मत में त्यौहारी नहीं है, न मायके से और न ससुराल से.

तस्वीर गूगल से साभार

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ज़रूरी मोबाइल नंबर...


जब इंसान किसी मुसीबत में मुब्तला होता है, तो वो सबसे पहले उसे फ़ोन करता है, जिसे वो ’अपना’ मानता है... लेकिन जब उसका ’अपना’ उसका फ़ोन रिसीव नहीं करता, तो तब उसे बहुत तकलीफ़ होती है...

मोबाइल में एक ऐसे शख़्स का नंबर ज़रूर होना चाहिए, जिसे आप मुसीबत के वक़्त फ़ोन कर सकें और वो आपका फ़ोन रिसीव करे... हो सके, तो उस नंबर को इस तरह सेव करें कि आपकी फ़ोनबुक में वो सबसे पहले दिखाई दे...

जब किसी के साथ कोई सड़क हादसा वग़ैरह हो जाए और वो शख़्स फ़ोन करने की हालत में हो, तो वो सबसे पहले किसी अपने को ही फ़ोन करता है...
अगर वो फ़ोन करने की हालत में न हो, तो राहगीर उसके मोबाइल से उसके परिचितों को फ़ोन करते हैं...

हम कभी अपना मोबाइल स्विच ऒफ़ नहीं करते... हमेशा फ़ोन रिसीव करते हैं... अगर ऐसा नहीं कर पाए, तो फ़ौरन कॊल बैक करते हैं...
कुछ अरसा पहले आधी रात को एक परिचित लड़की ने कॊल किया, कहने लगी-मैम! तबीयत ठीक नहीं है... रूम पार्टनर अपने घर गई हुई है... हमने कहा कि ऒटो करो और हमारे घर आ जाओ... वो लड़की हमारे पास आ गई... वाक़ई उसकी तबीयत बहुत ख़राब थी... हमने उसे दवा दी... सुबह डॊक्टर को दिखाया... ठीक होने तक वो हमारे साथ रही...
अगर हमारा फ़ोन बंद होता या हम उसका फ़ोन रिसीव नहीं करते, तो वो कितनी परेशान होती... ये सोचकर ही बहुत बुरा लगता है...
जो लड़कियां अकेले रहती हैं, ख़ासकर उन्हें अपने मोबाइल में एक ऐसे शख़्स का नंबर ज़रूर रखना चाहिए, जो ज़रूरत के वक़्त उनके काम आ सके...
हमारे भाई की एक आदत हमें बहुत अच्छी लगती है... अगर आधी रात को भी उनके मोबाइल पर कोई ग़लती से फ़ोन या मिस कॊल कर देता है, तो फ़ौरन वो उसे कॊल बैक ज़रूर करते हैं... भले ही वो wrong number क्यों न हो... हमने उनसे इस बाबत पूछा, तो कहने लगे कि हो सकता है किसी को हमारी ज़रूरत हो...

हो सके, तो फ़ोन रिसीव ज़रूर करें... हो सकता है, कोई मुसीबत में हो और उसे हमारी मदद की ज़रूरत हो...

तस्वीर गूगल से साभार
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तुम्हारे लिए एक दुआ...



मेरे महबूब...
आज तुम्हारी सालगिरह है... बरसों पहले आज ही के दिन यानी 19 जून को तुम्हारी अम्मी तुम्हें पाकर कितनी ख़ुश हुई होंगी...तुम्हें पाकर उन्होंने मां का दर्जा पा लिया...वो दर्जा जिसे हर औरत पाना चाहती है...नारी की संपूर्णता तो सृष्टि में ही है न... और तुम्हारे वालिद...वो तो ख़ुशी से फूले नहीं समाये होंगे... और दादी मां... उन्हें तो एक प्यारा सा गुड्डा मिल गया होगा... सच कितना ख़ुशनुमा होगा वो समां...

मेरे महबूब... यह दिन मेरे लिए भी बहुत ख़ास है...बिलकुल ईद की तरह... क्योंकि अगर तुम न होते तो...मैं भी कहां होती... तुम्हारे दम से ही मेरी ज़िन्दगी में मुहब्बत की रौशनी है...और अगर यह रौशनी न होती तो ज़िन्दगी कितनी अधूरी होती...

तुम्हारे लिए एक दुआ... 
मेरे महबूब
तुम्हारी ज़िन्दगी में
हमेशा मुहब्बत का मौसम रहे...

मुहब्बत के मौसम के
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी हों...

जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी धूप से
सराबोर हों...

जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ हों...
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती रहे...

तुम्हारी ज़िन्दगी का हर साल
और
साल का हर दिन
और
हर दिन का हर लम्हा
मुहब्बत के नूर से रौशन रहे...

यही मेरी दुआ है
तुम्हारे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान

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समर्पण


जहां मुहब्बत होती है, वहां समर्पण होता है. अगर समर्पण न हो, तो वो मुहब्बत हो ही नहीं सकती. हां, वक़्ती तौर का आकर्षण ज़रूर हो सकता है. अकसर लोग आकर्षण को मुहब्बत समझ बैठते हैं. और जब मुहब्बत यानी आकर्षण ख़त्म होने लगता है, तो इल्ज़ाम तराशी का सिलसिला शुरू हो जाता है.
मुहब्बत करने वाला अपने महबूब के लिए अपनी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर देगा, लेकिन उसके नाम पर हर्फ़ नहीं आने देगा, यही मुहब्बत है.
फ़िल्म ’बिन फेरे हम तेरे’ का इन्दीवर का लिखा ये नग़मा समर्पण के जज़्बे से सराबोर है-
सजी नहीं बारात तो क्या
आई ना मिलन की रात तो क्या
ब्याह किया तेरी यादों से
गठबंधन तेरे वादों से
बिन फेरे हम तेरे...
तन के रिश्ते टूट भी जाएं
टूटे ना मन के बंधन
जिसने दिया मुझको अपनापन
उसी का है ये जीवन
बांध लिया मन का बंधन
जीवन है तुझ पर अर्पण
सजी...
तूने अपना मान लिया है
हम थे कहां इस क़ाबिल
जो अहसान किया जान देकर
उसको चुकाना मुश्किल
देह बनी ना दुल्हन तो क्या
पहने नहीं कंगन तो क्या
सजी...
जिसका हमें अधिकार नहीं था
उसका भी बलिदान दिया
भले बुरे को हम क्या जाने
जो भी किया तेरे लिए किया
लाख रहें हम शर्मिन्दा
मगर रहे ममता ज़िन्दा
सजी...
आंच ना आए नाम पे तेरे
ख़ाक भले ये जीवन हो
अपने जहां में आग लगा दें
तेरा जहां जो रौशन हो...
तेरे लिए दिल तोड़ लें हम
दिल तो क्या जग छोड़ दें हम
सजी...
---
ऐसे और भी गीत हैं... आपको याद हैं... ?
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ख़ूबसूरत हाथ...


बचपन में सहेलियों के साथ गिट्टे खेलते थे... अम्मी देख लेतीं, तो कहतीं, गिट्टे मत खेला कर, हाथ ख़राब हो जाएंगे... अम्मी ने कभी बर्तन और कपड़े भी नहीं धोने दिए. उनका कहना था कि इन कामों से हमारे हाथ ख़राब हो जाएंगे... अम्मी कहती थीं कि ससुराल में तो सब काम करने पड़ेंगे, लेकिन यहां तो बेटी को शहज़ादी की तरह रखो... हमने पढ़ाई के साथ बहुत से काम सीख लिए, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई... अच्छे खाने पकाने... बाद में पढ़ाई के साथ नौकरी की... इसलिए घर के कामों के लिए वक़्त नहीं मिला... अम्मी जैसा चाहती थीं, वैसा ही हुआ... हमारे हाथ सबको बहुत ख़ूबसूरत लगते हैं...
कई बरस पहले की बात है... रेलगाड़ी में सफ़र कर रहे थे... हमारे सामने वाली सीट पर एक साहब बैठे थे... उन्होंने हमसे कहा, बेटा तुम्हारा कला से गहरा रिश्ता है... हमने पूछा, आप ये कैसे कह सकते हैं. वो बोले, तुम्हारे हाथ बहुत ख़ूबसूरत हैं... बात तो सच थी... लेकिन इसका हाथों की ख़ूबसूरती से क्या ताल्लुक़ है, हम नहीं जानते...
अकसर लड़कियां पूछती हैं कि तुम हाथों पर क्या लगाती हो, जो तुम्हारे हाथ इतने ख़ूबसूरत हैं... लेकिन वो शायद ये नहीं जानती कि हाथ ख़ूबसूरत होने से कुछ नहीं होता, क़िस्मत ख़ूबसूरत होनी चाहिए...


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घर


लड़की की सहेली जब बरसों बाद उससे मिली, तो उसने लड़की से पूछा- तुम्हारा घर कहां है?
लड़की- मेरा घर नहीं है.
सहेली- और तुम्हारे महबूब का घर कहां है?
लड़की- उनका भी घर नहीं है?
सहेली- फिर तुम दोनों कहां रहते हो?
लड़की- एक-दूसरे के दिल में, क्योंकि जिनके घर नहीं होते, वो अकसर दिलों में रहा करते हैं...
मकान तो मिल जाते हैं, लेकिन घर हर किसी के नसीब में नहीं हुआ करते...

तस्वीर गूगल से साभार

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खट्टी-मीठी संतरे की फ़ांके


यादों का कोई मोल नहीं होता... यादें अनमोल हुआ करती हैं... बचपन की यादें, ताउम्र अपना वजूद बनाए रखती हैं... कभी धुंधली नहीं होतीं... घर में लाख नेअमतें होने के बावजूद खट्टी-मीठी संतरे की फ़ांके दुकान से ख़ुद ख़रीदना कितना भला लगता था... आज भी बसों में ये संतरे की फ़ांकों जैसी खट्टी-मीठी गोलियां मिलती हैं... जिन्हें देखकर बचपन के नटखट दिन याद आ जाते हैं... :)
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मुहब्बत


लड़की और उसकी सहेली की बातचीत...
सहेली : तुम अपने महबूब से कितनी मुहब्बत करती हो?
लड़की : नहीं जानती.
सहेली : तुम अपने महबूब को क्या दे सकती हो?
लड़की : अगर मुझे जन्नत मिले, तो अपने हिस्से की जन्नत उन्हें दे दूं...
सहेली : जन्नत दे दी, तो फिर क्या तुम जहन्नुम में रहोगी?
लड़की : वो जहन्नुम भी मेरे लिए जन्नत से कम न होगी... मुझे ये अहसास तो होगा कि मेरा महबूब जन्नत में है और वो महफ़ूज़ है... मैं बस उनकी सलामती चाहती हूं...



लड़की कहती है- मैं नहीं जानती कि मेरी क़िस्मत में उसका साथ लिखा भी है या नहीं... सिर्फ़ एक बात जानती हूं कि मैं जहां भी रहूं, जिस हाल में भी रहूं... वो हमेशा मेरे दिल में रहेगा...



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गूलर के पेड़...


फ़िरदौस ख़ान
शहज़ादी को गूलर से बहुत प्यार था. उनके बंगले के पीछे तीन बड़े-बड़े गूलर के पेड़ थे. वे इतने घने थे कि उसकी शाखें दूर-दूर तक फैली थी. स्कूल से आकर वह अपने छोटे भाइयों और अपनी सहेलियों के साथ गूलर के पेड़ के नीचे घंटों खेलती. उसकी दादी उसे डांटते हुए कहतीं, भरी दोपहरी में पेड़ के नीचे नहीं खेलते. पेड़ पर असरात (जिन्नात) होते हैं और वह बच्चों को गूलर के पेड़ पर असरात होने की तरह-तरह की कहानियां सुनाया करतीं. लेकिन बच्चे थे कि लाख ख़ौफ़नाक कहानियां सुनने के बाद भी डरने का नाम नहीं लेते थे. दोपहरी में जैसे ही दादी जान ज़ुहर (दोपहर) की नमाज़ पढ़ कर सो जातीं, बच्चे गूलर के पेड़ के नीचे इकट्ठे हो जाते और फिर घंटों खेलते रहते. उनकी देखा-देखी आस-पड़ौस के बच्चे भी आ जाते.
जब गूलर का मौसम आता और गूलर के पेड़ लाल फलों से लद जाते तो, शहज़ादी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. स्कूल में वह सबको बताती कि उनके गूलर के पेड़ फलों से भर गए हैं और वह सबको घर आकर गूलर खाने की दावत देती. उसकी सहेलियां घर आतीं और बच्चे गूलर के पेड़ पर चढ़कर गूलर तोड़ते. दादी जान देख लेतीं, तो खू़ब डांटती और कहतीं, गूलर की लकड़ी कमज़ोर होती है. ज़रा से बोझ से टूट जाती है.  ख़ैर, बच्चों ने पेड़ पर चढ़ना छोड़ दिया. चढ़ते भी तो नीचे तने के पास मोटी शाख़ों पर ही रहते. कोई भी ज़्यादा ऊपर नहीं चढ़ता. एक बार शहज़ादी का भाई गूलर पर चलने की कोशिश कर रहा था, और दादी आ गईं. डर की वजह से वह घबरा गया और नीचे गिर गया. उसके हाथ की एक हड्डी पर चोट आई. महीनों प्लास्तर चढ़ा रहा. इस हादसे के बाद बच्चों ने गूलर पर चढ़ना छोड़ दिया. बच्चे एक पतले बांस की मदद से गूलर तोड़ने लगे. वक़्त बदलता रहा और एक दिन उसके घर वालों ने वह बंगला बेच दिया. शहज़ादी जब कभी उस तरफ़ से गुज़रती, तो गूलर के पेड़ को नज़र भर के देख लेती. कुछ दिन बाद बंगले के नये मालिक ने गूलर के तीनों पेड़ कटवा दिए. शहज़ादी को पता चला, तो उसे बहुत दुख हुआ. उसे लगा मानो बचपन के साथी बिछड़ गए. बरसों तक या यूं कहें कि गूलर के पेड़ उसकी यादों में बस गए थे. शहज़ादी बड़ी हुई और दिल्ली में नौकरी करने लगी. एक दिन वह हज़रत शाह फ़रहाद के मज़ार पर गई. वहां उसने गूलर का पेड़ देखा. यह गूलर का पेड़ उतना घना नहीं था, जितने घने उसके बंगले में लगे पेड़ थे. पेड़ की शाख़ें काट दी गई थीं, शायद इसलिए क्योंकि आसपास बहुत से घर थे. पेड़ पर पके गूलर लगे थे और ज़मीन पर कुएं के पास भी कुछ गूलर पड़े थे. शहज़ादी ने गूलर उठाया, उसे धोया और खा लिया. मानो ये गूलर न होकर जन्नत की कोई नेमत हों. वह अकसर जुमेरात को दरगाह पर जाती और गूलर को देख कर ख़ुश होती. इस बार काफ़ी दिनों बाद उसका मज़ार पर जाना हुआ, लेकिन इस बार उसे गूलर का पेड़ नहीं मिला, क्योंकि उसे काट दिया गया था. शहज़ादी को बहुत दुख हुआ. अब वह उस मज़ार पर नहीं जाती, क्योंकि उसे गूलर याद आ जाता. किसी पेड़ का कटना उसे बहुत तकलीफ़ देता है. वह सोचती है कि काश कभी उसके पास एक ऐसा घर हो, जिसमें बड़ा सा आंगन हो और वह उसमें गूलर का पेड़ लगाए. उसका अपना गूलर का पेड़. उसे उम्मीद है कि कभी तो वह वक़्त आएगा, जब उसकी यादों में बसे गूलर के पेड़ उसके आंगन में मुस्कराएंगे.

तस्वीर गूगल से साभार

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दुआएं


कल इबादत की रात थी... घरों और मस्जिदों में रातभर इबादत की गई... ये देखकर बहुत ख़ुशी हुई कि मासूम बच्चों ने भी इबादत की... जिन लोगों ने रात भर इबादत की और आज रोज़ा रखा, अल्लाह उनकी इबादत और रोज़े को क़ुबूल फ़रमाये, आमीन...
जिन लोगों (ग़ैर मुस्लिम भी) ने हमसे दुआओं को कहा था, हमने उनका नाम लेकर उनके लिए दुआ की, अल्लाह दुआओं को क़ुबूल फ़रमाये, आमीन...
दुनिया में हर तरफ़ ख़ुशहाली हो, चैन-अमन हो, हर चेहरे पर मुस्कराहट हो, आमीन
आज भी दिल्ली में मौसम सुहाना है, कल शाम और रात बारिश हुई है, काली घटायें छाई हुई हैं और ठंडी हवायें चल रही हैं...और रुक-रुक्कर बूंदें बरस रही हैं...
अल्लाह सबकी ज़िन्दगी का मौसम भी सुहाना करे, आमीन
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शबे-बारात...


शबे-बारात... यानी इबादत की रात... आज इबादत की रात है और कल रोज़ा रखकर अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल करने का दिन...
कहते हैं कि आज रात को उन लोगों का नाम ज़िन्दा लोगों की फ़ेहरिस्त से काट दिया जाता है, जो अगली शबे-बारात से पहले मरने वाले हैं... हो सकता है कि इनमें एक नाम हमारा भी हो और हम अगली शबे-बारात न देख पाएं...
इसलिए हम आप सबसे उन सब चीज़ों के लिए मुआफ़ी चाहते हैं, जिनसे आपका दिल दुखा हो... हम इस दुनिया से किसी भी तरह का कोई बोझ लेकर नहीं जाना चाहते... बस एक ऐसी लड़की के तौर पर यादें छोड़ कर जाना चाहते हैं, जिसने जानबूझ कर कभी किसी का दिल न दुखाया हो, किसी के साथ हक़तल्फ़ी न की हो... किसी का बुरा न किया हो... बस इतना ही...
आज दूसरों से माफ़ी मांगने के साथ ही क्यों न हम भी उन सभी लोगों को दिल से मुआफ़ कर दें, जिन्होंने हमारा दिल दुखाया है, हमारे साथ बुरा किया है, हमारी हक़तल्फ़ी की है ... भले ही वो हमसे माफ़ी न मांगें... 
माफ़ी मांगने से इंसान छोटा नहीं होता, लेकिन मुआफ़ कर देने से ज़रूर बड़ा हो जाता है...
आप सबको इबादत की रात मुबारक हो..
दुआओं में याद रखना...
-फ़िरदौस ख़ान
तस्वीर गूगल से साभार
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