मिट्टी के दिये
बचपन से ही दिवाली का त्यौहार मन को बहुत भाता है. दादी जान दिवाली की रात में मिट्टी के दीये जलाया करती थीं. घर का कोई कोना ऐसा नहीं होता था, जहां दियों की रौशनी न हो. हम भाई-बहन आतिशबाज़ी ख़रीद कर लाते, पटाख़े, अनार, फुलझड़ियां वग़ैरह-वग़ैरह. घर में खील, बताशे और मिठाइयां भी ख़ूब आतीं.
वक़्त गुज़रता गया. आतिशबाज़ी का मोह जाता रहा, लेकिन दियों से रिश्ता क़ायम रहा. हर बरस हम दिवाली पर बाज़ार से मिट्टी के दिये लाते हैं. दिन में उनमें पानी भरकर रख देते हैं. शाम में उनमें सरसों का तेल भरकर उन्हें रौशन करते हैं. अपनी दादी जान की ही तरह हम भी घर के हर गोशे में दिये रखते हैं. पहला दीया घर की चौखट पर रखते हैं. फिर आंगन में, कमरों में, ज़ीने पर, छत पर और मुंडेरों पर दिये रखते हैं.
अमावस की रात में आसमान में तारे टिमटिमा रहे होते हैं, और ज़मीन पर मिट्टी के नन्हे दिये रौशनी बिखेर रहे होते हैं.
मिट्टी के इन नन्हे दियों के साथ हमने अपनी अक़ीदत का भी एक दिया रौशन किया है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
वक़्त गुज़रता गया. आतिशबाज़ी का मोह जाता रहा, लेकिन दियों से रिश्ता क़ायम रहा. हर बरस हम दिवाली पर बाज़ार से मिट्टी के दिये लाते हैं. दिन में उनमें पानी भरकर रख देते हैं. शाम में उनमें सरसों का तेल भरकर उन्हें रौशन करते हैं. अपनी दादी जान की ही तरह हम भी घर के हर गोशे में दिये रखते हैं. पहला दीया घर की चौखट पर रखते हैं. फिर आंगन में, कमरों में, ज़ीने पर, छत पर और मुंडेरों पर दिये रखते हैं.
अमावस की रात में आसमान में तारे टिमटिमा रहे होते हैं, और ज़मीन पर मिट्टी के नन्हे दिये रौशनी बिखेर रहे होते हैं.
मिट्टी के इन नन्हे दियों के साथ हमने अपनी अक़ीदत का भी एक दिया रौशन किया है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
Read Users' Comments (0)