मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है...हालांकि...आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है...मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समन्दर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है...इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है...बहुत अकेला...क्योंकि भौतिकतावाद ने 'अपनापन' जैसे जज़्बे को कहीं पीछे छोड़ दिया है...
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मेरे रात और दिन


नज़्म
मेरे
रात और दिन
काली डोरियों में पिरे
सुनहरे तावीज़ों की तरह हैं
जिनके
दूधिया काग़ज़ पर
जाफ़रानी धूप ने
रफ़ाक़तों से भीगे मौसम के
कितने ही नगमें लिख छोड़े हैं
और
इस तहरीर का
हर इक लफ्ज़
पल-दर-पल
यादों की किश्ती में बिठाकर
मुझे
मेरे माज़ी के जज़ीरे पर
ले चलता है
और मैं
उन गुज़श्ता लम्हों को
अपने मुस्तक़बिल की किताब में
संजोने के सपने देखने लगती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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वो जुस्तजू, वो मोड़, वो जंगल नहीं रहा



जूड़े में फूल आंखों में काजल नहीं रहा
मुझसा कोई भी आपका पागल नहीं रहा

ताज़ा हवाओं ने मेरी ज़ुल्फ़ें तराश दीं
शानों पे झूमता था वो बादल नहीं रहा

मुट्ठी में क़ैद करने को जुगनू कहां से लाऊं
नज़दीक-ओ-दूर कोई भी जंगल नहीं रहा

दीमक ने चुपके-चुपके वो अल्बम ही चाट ली
महफूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा

मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा

'फ़िरदौस' मैं यक़ीं से सोना कहूं जिसे
ऐसा कोई भी मुझसा क़ायल नहीं रहा
-फ़िरदौस ख़ान
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जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में...


किसी को दुख नहीं होता, कहीं मातम नहीं होता
बिछड़ जाने का इस दुनिया को कोई ग़म नहीं होता

जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में
हर इक क़तरा मेरी जां क़तरा-ए-शबनम नहीं होता

हम इस सुनसान रस्ते में अकेले वो मुसाफिर हैं
हमारा अपना साया भी जहां हमदम नहीं होता

चरागे-दिल जला रखा है हमने उसकी चाहत में
हज़ारों आंधियां आएं, उजाला कम नहीं होता

हर इक लड़की यहां शर्मो-हया का एक पुतला है
मेरी धरती पे नीचा प्यार का परचम नहीं होता

हमारी ज़िन्दगी में वो अगर होता नहीं शामिल
तो ज़ालिम वक़्त शायद हम पे यूं बारहम नहीं होता

अजब है वाक़ई 'फ़िरदौस' अपने दिल का काग़ज़ भी
कभी मैला नहीं होता, कभी भी नम नहीं होता
-फ़िरदौस ख़ान
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ये चांद की बातें, वो रफ़ाक़त की कहानी


हर बात यहां ख़्वाब दिखाने के लिए है
तस्वीर हकीक़त की छुपाने के लिए है

महके हुए फूलों में मुहब्बत है किसी की
ये बात महज़ उनको बताने के लिए है

चाहत के उजालों में रहे हम भी अकेले
बस साथ निभाना तो निभाने के लिए है

माज़ी के जज़ीरे का मुक़द्दर है अंधेरा
गुज़रा हुआ लम्हा तो रुलाने के लिए है

ये चांद की बातें, वो रफ़ाक़त की कहानी
आंगन में सितारों को बुलाने के लिए है

चाहत, ये मरासिम, ये रफ़ाक़त, ये इनायत
इक दिल में किसी को ये बसाने के लिए हैं

'फ़िरदौस' शनासा हैं बहारों की रुतें भी
मौसम ये ख़िज़ां का तो ज़माने के लिए है
-फ़िरदौस ख़ान
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गुलमोहर के दहकते फूल

सुलगती दोपहरी में
खिड़की से झांकते
गुलमोहर के
दहकते फूल
कितने अपने से
लगते हैं...
बिल्कुल
हथेलियों पर लिखे
'नाम' की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरा महबूब

नाम : बहारों का मौसम
तअरुफ़ : मेरा महबूब
ज़बान : शहद से शीरी
लहजा : झड़ते फूल
पता : फूलों की वादियां
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तन्हाई का मौसम...

जब
ज़िन्दगी की वादियों में
तन्हाई का मौसम हो
और
अरमान
पलाश से दहकते हों...
तब
निगाहें
तुम्हें तलाशती हैं...
और
हर सांस
तुमसे मिलने की दुआ करती है
-फ़िरदौस ख़ान
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नाम अपना आइना रख लूंगी मैं...


ज़िन्दगी को ज़िन्दगी समझूंगी मैं
आप कहते हैं तो फिर जी लूंगी मैं

जब सर तस्लीम खुम कर दिया
ना नहीं, हां बोलूंगी मैं

गर नहीं है आपको जूड़ा पसंद
इन घटाओं को खुला रखूंगी मैं

आप अगर यूं ही मुझे तकते रहे
नाम अपना आइना रख लूंगी मैं

लब हिलने की ज़रूरत ही नहीं रही
आपके चहरे से सब पढ़ लूंगी मैं

मैंने जो चाहा हासिल तो किया
और क्या 'फ़िरदौस' अब चाहूंगी मैं
-फ़िरदौस ख़ान
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तू मेरे गोकुल का कान्हा...

तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
-फ़िरदौस ख़ान
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चाहत का गुलाल

फागुन की मादक बेला में
सुर्ख़ पलाश दहकता है...
और
ज़िन्दगी के रुख्सारों पर
चाहत का गुलाल
महकता है...
-फ़िरदौस ख़ान
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