फ़िरदौस ख़ान
भारतीय सिनेमा में कई ऐसी हस्तियां हुई हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. इन्हीं में से एक हैं गुलज़ार. गीतकार से लेकर, पटकथा लेखन, संवाद लेखन और फिल्म निर्देशन तक के अपने लंबे स़फर में उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की. मृदुभाषी और सादगी पसंद गुलज़ार का व्यक्तित्व उनके लेखन में सा़फ झलकता है. आज वह जिस मुक़ाम पर हैं, उस तक पहुंचने के लिए उन्हें संघर्ष के कई पड़ावों को पार करना पड़ा.
गुलज़ार का असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है. उनका जन्म 18 अगस्त, 1936 को पाकिस्तान के झेलम ज़िले के दीना में हुआ. उन्होंने देश के विभाजन की त्रासदी को झेला. उनके परिवार को हिंदुस्तान आना प़डा. उनका बचपन दिल्ली की सब्ज़ी मंडी में बीता. उनके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी. उनके आठ भाई-बहन थे. उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने से इंकार कर दिया, लेकिन वह पढ़ना चाहते थे. पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए उन्होंने पेट्रोल पंप पर नौकरी कर ली. इसी दौरान उन्होंने अपने ख्यालात और अपने जज़्बात को शब्दों में ढालना भी शुरू कर दिया. उन्होंने कई भाषाएं सीखीं, जिनमें उर्दू, फ़ारसी और बांग्ला शामिल थी. फिर उन्होंने अनुवाद का काम शुरू कर दिया. वह रवींद्रनाथ ठाकुर और शरत चंद्र की रचनाओं का उर्दू अनुवाद करने लगे. बाद में वह मुंबई चले आए. उनका यहां शायरों, साहित्यकारों और नाटककारों की महफ़िल में उठना-बैठना शुरू हो गया. एक दिन वह गीतकार शैलेंद्र के पास गए और उनसे काम के सिलसिले में बातचीत की. उन दिनों संगीतकार सचिनदेव बर्मन फ़िल्म बंदिनी के गीतों को सुरबद्ध कर रहे थे. शैलेंद्र की सिफ़ारिश पर सचिन दा ने गुलज़ार को एक गीत लिखने को कहा. गुलज़ार ने उन्हें गीत लिखकर दिया, जिसके बोल थे-मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे. सचिन दा को गीत बहुत पसंद आया. उन्होंने अपनी आवाज़ में गाकर बिमल राय को सुनाया. गुलज़ार के बांग्ला ज्ञान से मुतासिर होकर बिमल राय ने उनके सामने अपने होम प्रोडक्शन में स्थायी तौर पर काम करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने इसे विनम्रता से अस्वीकार कर दिया. गुलज़ार की मंज़िल इससे आगे थी, बहुत आगे. उन्हें महज़ एक गीतकार बनकर रहना मंज़ूर नहीं था. उन्होंने आगे चलकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा भी किया.
हुआ यूं कि बिमल राय की मौत के बाद संगीतकार हेमंत कुमार ने उनकी यूनिट के काफ़ी लोगों को अपने प्रोडक्शन में नौकरी पर रख लिया. गुलज़ार ने हेमंत कुमार की फिल्म बीवी और मकान, राहगीर और ख़ामोशी के लिए गीत लिखे थे. ऋषिकेश मुखर्जी ने बिमल राय की फिल्म का संपादन और सह-निर्देशन किया था. वह भी स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशक बन गए और आशीर्वाद फ़िल्म के संवाद के साथ-साथ गीत भी गुलज़ार को ही लिखने पड़े, क्योंकि उन दिनों शैलेंद्र के पास बहुत काम था. गुलज़ार ने बिमल दा के साथ आनंद, गुड्डी, बावर्ची और नमक हराम जैसी कामयाब फ़िल्मों में काम किया. गुलज़ार के फ़िल्म निर्माता एनसी सिप्पी से भी अच्छे रिश्ते बन गए. नतीजतन, सिप्पी-गुलज़ार ने मिलकर कई बेहतरीन फ़िल्में बनाईं. गुलज़ार के मीना कुमारी से भी अच्छे रिश्ते थे. मीना कुमारी ने मौत से पहले अपनी तमाम नज़्में उन्हें सौंप दी थीं, जिन्हें बाद में उन्होंने शाया कराया. जब गुलज़ार स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बने तो उन्होंने फ़िल्म मेरे अपने की मुख्य भूमिका मीना को ही थी. 1971 में बनी यह फ़िल्म मीना कुमारी की मौत के बाद रिलीज़ हुई थी. इसके बाद गुलज़ार ने एक से बढ़कर एक कई फ़िल्में बनाईं. बतौर निर्देशक गुलज़ार ने 1971 में मेरे अपने, 1972 में परिचय और कोशिश, 1973 में अचानक, 1974 में ख़ुशबू, 1975 में आंधी, 1976 में मौसम, 1977 में किनारा, 1978 में किताब, 1980 में अंगूर, 1981 में नमकीन और मीरा, 1986 में इजाज़त, 1990 में लेकिन, 1993 में लिबास, 1996 में माचिस और 1999 में हु तू तू बनाई. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को बख़ूबी पेश किया, भले ही वह रंग दुख का हो या फिर इंद्रधनुषी सपनों को समेटे ख़ुशियों का रंग हो. फ़िल्म आंधी में इंदिरा गांधी की झलक मिलती है. इसलिए इसे इंदिरा गांधी की ज़िंदगी पर आधारित बताया जाता है.
आपातकाल के दौरान इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया. यह फ़िल्म आपातकाल के बाद ही रिलीज़ हो सकी. दरअसल, कमलेश्वर द्वारा लिखी गई इस फ़िल्म की नायिका की ज़िंदगी इंदिरा गांधी की ज़िंदगी से मिलती जुलती है. नायिका आरती एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ की बेटी है. वह होटल व्यवसायी जेके से प्रेम करती है. उसके पिता अपनी आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा की वजह से बेटी को भी इसी राह पर ले जाना चाहते हैं. आरती और जेके की शादी हो जाती है, लेकिन पिता के दबाव और अपनी महत्वकांक्षा की वजह से वह सियासत में आ जाती है. वह पति का घर छोड़कर पिता के पास लौट आती है. बरसों बाद दोनों फिर मिलते हैं. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों को फिर से अलग होना पड़ता है. गुलज़ार ने छोटे पर्दे के दर्शकों के लिए 1988 में मिर्ज़ा ग़ालिब और 1993 में किरदार नामक टीवी धारावाहिक बनाए, जिन्हें बहुत पसंद किया गया. इसके अलावा उन्हें 1983 में आरडी बर्मन और आशा भोसले के साथ दिल पड़ोसी है नामक एलबम निकाली. इसके बाद 1999 में जगजीत सिंह की आवाज़ में मरासिम, 2001 में ग़ुलाम अली की आवाज़ में विसाल और फिर 2003 में आबिदा सिंग्स कबीर एल्बम निकाली. फ़िल्म मौसम में दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन जैसे गीत लिखने वाले गुलज़ार आज भी कजरारे-कजरारे जैसे गीत लिख रहे हैं, जिन पर क़दम ख़ुद ब ख़ुद थिरकने लगते हैं. गुलज़ार त्रिवेणी छंद के सृजक हैं. उनके दो त्रिवेणी संग्रह त्रिवेणी और पुखराज नाम से प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य कृतियों में चौरस रात, एक बूंद चांद, रावी पार, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, ख़राशें, कुछ और नज़्में, छैंया-छैंया, मेरा कुछ सामान और यार जुलाहे शामिल हैं. गुलज़ार को 2002 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 2004 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 19 फिल्म फेयर पुरस्कारों सहित अन्य कई और पुरस्कार भी मिल चुके हैं. गुलज़ार की निजी ज़िंदगी में कई उतार- चढ़ाव आए. 1973 में उन्होंने अभिनेत्री राखी से शादी की. वह नहीं चाहते थे कि राखी फ़िल्मों में काम करें. उनका रिश्ता लंबे अरसे तक नहीं चला. जब उनकी बेटी मेघना डेढ़ साल की थी, तभी वे अलग हो गए. मगर उन्होंने तलाक़ नहीं लिया. गुलज़ार मानते हैं कि कोई भी रिश्ता न तो कभी ख़त्म होता है, और न मरता है. शायद इसलिए ही उनका रिश्ता आज भी क़ायम है. वह कहते हैं:-
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते…
राखी ने अपनी ज़िंदगी का ख़ालीपन भरने के लिए फ़िल्मों में काम शुरू कर दिया और गुलज़ार अपने काम में मसरूफ़ हो गए. गुलज़ार मानते हैं कि ज़िंदगी बरसों से नहीं, बल्कि लम्हों से बनती है. इसलिए इंसान को अपनी ज़िंदगी के हर लम्हे को भरपूर जीना चाहिए. उन्हें अपने अकेलेपन से भी कभी कोई शिकवा नहीं रहा. वह कहते हैं:-
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो…