जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बगैर कितने ज़माने गुज़र गए
फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह
मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा
आप अगर यूं ही मुझे तकते रहे
नाम अपना आइना रख लूंगी मैं
रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे
याद उस शख्स की हर रोज़ रुलाती है मुझे
देख लेना मेरी तक़दीर भी चमकेगी ज़रूर
मेरी आवाज़ से रौशन ये ज़माना होगा
जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन
हर इक क़तरा मेरी जां कतरा-ए-शबनम नहीं होता
आज अपनी पसंद के चंद अशआर पोस्ट कर रही हूं...उम्मीद करती हूं पढ़ने वालों को पसंद आएंगे...