पूनम की रात...


आज
पूनम की रात है
और चांद
आसमान में
मुस्करा रहा है
तारे भी
खिलखिला रहे हैं

सच
कितनी भली है
पूनम की ये चांदनी रात
दिल चाहता है
इसे सहेज कर
रख लूं

क्या ख़बर
ज़िन्दगी की
कोई अंधियारी रात
इसकी यादों से ही
रौशन हो जाए
और
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर
उजाला बिखर जाए...
-फ़िरदौस ख़ान
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फूल पलाश के...


फूल पलाश के
वक़्त के समन्दर में
यादों का जज़ीरा हैं
जिसके हर ज़र्रे में  
ख़्वाबों की धनक फूटती है
फ़िज़ाओं में
चाहत के गुलाब महकते हैं
जिसकी हवायें 
रूमानी नग़में गुनगुनाती हैं
जिसके जाड़ों पर
क़ुर्बतों का कोहरा छाया होता है
जिसकी गर्मियों में
तमन्नायें अंगड़ाइयां लेती हैं
जिसकी बरसात
रफ़ाक़तों से भीगी होती है
फूल पलाश के
इक उम्र का
हसीन सरमाया ही तो हैं...
-फ़िरदौस ख़ान

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तुम एक ख़्वाब लगते हो...




कभी
मैं सोचती
ज़ुल्फ़ों की घनी, महकी, नरम छांव में
तुम्हें बिठाकर
वो सभी जज़्बात से सराबोर अल्फ़ाज़ 
जो मैंने बरसों से
अपने दिल की गहराइयों में
छुपाकर रखे
तुम्हारे सामने बिखेर दूं
और तुम
मेरे जज़्बात, मेरे अहसासात पढ़ लो
लेकिन
मेरा ज़हन
मेरा साथ नहीं देता
क्यूंकि
मेरी रूह, मेरे ख्यालात
कहते हैं-
कहीं ये एक ख़्वाब ही न हो
और
ये तसव्वुर करके
मेरा वजूद सहम जाता है
बस, ख़्वाब के टूटने के खौफ़ से
पता नहीं क्यूं
तुम एक ख़्वाब लगते हो
और मैं
उम्र की रहगुज़ारों में
भटकती रहती हूं
बस इक ख़्वाब को अपने हमराह लिए
जो मेरा अपना है...
-फ़िरदौस ख़ान

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किताबें…


तस्वीरें और ख़त
यादों का ज़ख़ीरा ही तो हैं
जिस पर
हमेशा के लिए
बस जाने को
दिल चाहता है...
-फ़िरदौस ख़ान

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तब झूठा लगता है हर लफ़्ज़ मुहब्बत का...




हर रोज़ की तरह
जब
सुबह का सूरज
दस्तक देता है
ज़िन्दगी के
नये दिन की चौखट पर
और
फिर से शुरू होता है
तन्हाई का
एक और मुश्किल सफ़र...

जब
उम्र की तपती दोपहरी में
जिस्म तरसता है
ठंडी छांव को...

जब
सुरमई शाम को
बिखरते ख़्वाबों की किरचें
लहू-लुहान करती हैं
अरमानों के पांव को...

जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
अंगारों से...

तब, वाक़ई
झूठा लगता है
हर लफ़्ज़ मुहब्बत का...
-फ़िरदौस ख़ान
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वो नज़्म...


वो नज़्म
जो कभी
तुमने मुझ पर लिखी थी
एक प्यार भरे रिश्ते से
आज बरसों बाद भी
उस पर नज़र पड़ती है तो
यूं लगता है
जैसे
फिर से वही लम्हें लौट आए हैं
वही मुहब्बत का मौसम
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी होती थीं
जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी तेज़ धूप से
सराबोर होती थीं
जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ होती थीं
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती थी
सच !
कितनी कशिश है
तुम्हारे चंद लफ़्जों में
जो आज भी
मेरी उंगली थामकर
मुझे मेरे माज़ी की तरफ़
ले चलते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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तुम समझ लेना, मैं तुम्हें याद करती हूं...

जब सुबह सूरज की
चंचल किरनें
पेशानी को चूमें
और शोख़ हवायें 
बालों को सहलायें
तब
तुम समझ लेना
मैं तुम्हें याद करती हूं...

जब
ज़मीन पर
चांदनी की चादर
बिछ जाए
और फूल
अपनी भीनी-भीनी महक से
माहौल को
रूमानी कर दें
हर सिम्त
मुहब्बत का मौसम
अंगड़ाइयां लेने लगे
तब
तुम समझ लेना
मैं तुम्हें याद करती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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कितना भला लगता है पतझड़ भी कभी-कभी


कितना लुभावना होता है
पतझड़ भी कभी-कभी
बाग़ों में
ज़मीं पे बिखरे
सूखे ज़र्द पत्तों पर
चलना
कितना भला लगता है कभी-कभी

माहौल को रूमानी बनातीं
दरख़्तों की, वीरान शाख़ों पर
चहकते परिन्दों की आवाज़ें
कितनी भली लगती हैं कभी-कभी

क्यारियों में लगे
गेंदे और गुलाब के
खिलते फूलों की
भीनी-भीनी ख़ुशबू
आंगन में कच्ची दीवारों पर, चढ़ती धूप
कितनी भली लगती है, कभी-कभी

सच! पतझड़ का भी
अपना ही रंग
बसंत और बरसात की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
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मन्नतों के पीले धागे


बस्ती से दूर
किसी ख़ामोश मक़ाम पर
बने दूधिया मज़ारों के पास खड़े
दरख़्त की शाख़ों पर बंधे
मन्नतों के पीले धागे
कितने बीते लम्हों की
याद दिला जाते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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सुलगते अहसास...


ज़िन्दगी के आंगन में
मुहब्बत की चांदनी बिखरी है
हसरतों की क्यारी में
सतरंगी ख़्वाबों के फूल खिले हैं
ख़्वाहिशों के बिस्तर पर
सुलगते अहसास की चादर है
इंतज़ार की चौखट पर
बेचैन निगाहों के पर्दे हैं
माज़ी के जज़ीरे पर
यादों की पुरवाई है
फिर भी
ज़िन्दगी के आंगन में
मुहब्बत की चांदनी बिखरी है...
-फ़िरदौस ख़ान 
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कितने वर्क़ पुरानी यादों के...


ज़िन्दगी की किताब में
कितने वर्क़ पुरानी यादों के
आज भी
मैंने सहेजकर रखे हैं...

कुछ वर्क़
क़ुर्बतों की खुशबू से सराबोर हैं
हथेलियों पर सजी
गीली मेहंदी की
भीनी-भीनी महक की तरह...

और
कुछ वर्क़
हिज्र की स्याह रातों से वाबस्ता हैं
जाड़ों की कोहरे से ढकी
उदास शाम की तरह...

मैंने
आज भी सहेजकर रखा है
पुरानी यादों को
कच्चे ताक़ में रखी
पाक किताबों की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरे महबूब...


आज उनकी सालगिरह है, जिनके क़दमों में हम अपनी अक़ीदत के फूल चढ़ाते हैं... इस मुबारक मौक़े पर उन्हें समर्पित एक नज़्म ’मेरे महबूब’ पेश-ख़िदमत है...
मेरे महबूब !
तुम्हारा चेहरा
मेरा क़ुरआन है
जिसे मैं
अज़ल से अबद तक
पढ़ते रहना चाहती हूं…

तुम्हारा ज़िक्र
मेरी नमाज़ है
जिसे मैं
रोज़े-हश्र तक
अदा करते रहना चाहती हूं…

तुम्हारा हर लफ़्ज़
मेरे लिए
कलामे-इलाही की मानिन्द है
तुम्हारी हर बात पर
लब्बैक कहना चाहती हूं...

मेरे महबूब !
तुमसे मिलने की चाह में
दोज़ख़ से भी गुज़र हो तो
गुज़र जाना चाहती हूं…

तुम्हारी मुहब्बत ही
मेरी रूह की तस्कीन है
तुम्हारे इश्क़ में
फ़ना होना चाहती हूं…
-फ़िरदौस ख़ान


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मुहब्बत के फूल...


मेरे महबूब !
उम्र की रहगुज़र में 
हर क़दम पर मिले 
तुम्हारी मुहब्बत के फूल...
अहसास की शिद्दत से दहकते 
जैसे सुर्ख़ गुलाब के फूल...

उम्र की तपती दोपहरी में 
घनी ठंडी छांव से 
जैसे पीले अमलतास के फूल...

आंखों में इन्द्रधनुषी सपने संजोये
गोरी हथेलियों पर सजे 
जैसे ख़ुशरंग मेहंदी के फूल...  

दूधिया चांदनी रात में 
ख़्वाहिशों के बिस्तर पर बिछे 
जैसे महकते बेला के फूल...

मेरे महबूब 
मुझे हर क़दम पर मिले 
तुम्हारी मुहब्बत के फूल...
-फ़िरदौस ख़ान  

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