अकेलापन...


अगर इंसान अपने लिए कोई ख़ुशी तलाश ले, तो ज़िंदगी कुछ आसान हो जाती है... हमारी एक दोस्त ने घर को संवारने में ही अपनी खु़शी तलाश ली है... दिन में पांच से सात घंटे वह घर की झाड़-पोंछ और उसे संवारने में ही लगा देती है... पहले हमें यह सब बहुत अजीब लगता था... लेकिन जब उसके साथ रहे, तो जान गए कि यह सब उसके लिए कितना ज़रूरी है... अकेलेपन का अहसास वाक़ई बहुत तकलीफ़देह होता है...

तस्वीर : गूगल से साभार

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कला, साहित्य और संस्कृति को समर्पित एक पत्रिका


फ़िरदौस ख़ान
कला, साहित्य और संस्कृति किसी भी देश और समाज की पहचान हुआ करती हैं. इसके बिना कोई भी समाज अपने वजूद का तसव्वुर तक नहीं कर सकता. भले ही आज बाज़ार का दौर है. हर चीज़ पर बाज़ार का असर दिखता है, वो चाहे अख़बार हों या पत्रिकाएं. लेकिन ये ख़ुशनुमा बात है कि बाज़ारवाद के माहौल में भी  कला, साहित्य और संस्कृति में रची-बसी पत्रिकाएं शाया हो रही हैं. कला, साहित्य और संस्कृति को समर्पित ऐसी ही एक पत्रिका है ’मानव संस्कृति’, जो तहज़ीब की सरज़मीं लखनऊ से शाया हो रही है. पिछले साल दिसंबर में शुरू हुई इस पत्रिका के दो अंक शाया हो चुके हैं और तीसरा अंक ‘सृजन शक्ति विशेषांक’ आने वाला है, जो भारतीय महिला कलाकारों पर केंद्रित है. क़ाबिले-ग़ौर है कि इस पत्रिका के प्रकाशन से कलाकार दम्पति का जुड़ाव है. शीला शर्मा फ़ुट आर्टिस्ट हैं और सुधीर शर्मा मूर्तिकार, चित्रकार व कला समीक्षक हैं. शीला शर्मा प्रकाशक होने के साथ-साथ पत्रिका की संपादक भी हैं.

पत्रिका के वजूद में आने की दास्तां बयां करते हुए राजीव शर्मा जी कहते हैं, काफ़ी समय से हम सभी हिन्दी भाषा में दृश्यकलाओं पर एक ऐसी पत्रिका की ज़रूरत महसूस कर रहे थे, जिसमें समकालीन और परंपरागत, दोनों ही कलारूपों का समुचित समावेश हो. साथ ही साथ रंगमंच, संगीत, नृत्य और साहित्य भी उस पत्रिका का ज़रूरी हिस्से के रूप में स्थापित दिखे. आज के दौर में ऐसी पत्रिका के तमाम फ़ायदे हैं. इसमें जहां एक ओर सभी समकालीन कला विधाओं को एक स्थान पर प्राप्त होने की सहूलियत पाठकों को मिल सकती है, वहीं दूसरी ओर अलग-अलग विधाओं से जुड़े रचनाकारों के लिए दूसरी विधाओं के रचनाकारों के परिचय को गाढ़ा करने का आधार भी बन सकती है. बात यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती. यह एक ऐसी शुरुआत भी बन सकती है, जिसमें अपने फ़न के उस्ताद और शागिर्द दोनों ही, निःसंकोच बराबर आ जा सकें. यदि दूसरी विधाओं में उनकी यह आवाजाही एक-दूसरे के सृजन को समझने, परखने और उस पर निःसंकोच अपने सकारात्मक विचार व्यक्त करने का कारक बनती है, तो सृजनात्मक मूल्यों के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में यह कार्य महत्वपूर्ण माना जा सकता है. इस कार्यों का मूल उद्देश्य सृजनशीलता से भी है. अंततः यह कलाओं की अंतर्सम्बधता को ही प्रकट करेगा. इन विचारों के क्रम में ही इस पत्रिका ‘मानव संस्कृति’ का ख़ाका तैयार किया गया है.
‘मानव संस्कृति’ पत्रिका को कुछ मामूली लोगों के द्वारा किया जा रहा एक मामूली-सा प्रयास भर माना जाना चाहिए. हमारा उद्देश्य सरल है, सीधा है. कला साहित्य और अन्य सांस्कृतिक विधाओं के जानकारों और इन विषयों में रुचि रखने वाले पाठकों को एक मंच पर लाना. उन्हें कला विषयक ज़रूरी पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराना तथा निरंतर सभी की राय शामिल करते हुए पत्रिका में अपेक्षित सुधार करना और अंततः पाठकों का दिल जीतना. दरअसल, हमारे लिए भी यह सीखने की प्रक्रिया से जुड़ा कार्य है. हम सभी को मिलकर एकसाथ कार्य करना है, एक साथ सीखना है. यह पत्रिका लोगों का दिल जीतने की कोशिश होगी, यही एकमात्रा हमारी मंशा है.
‘मानव संस्कृति’ पत्रिका कला, साहित्य और संस्कृति की धरोहर बने इस विचार एवं संकल्प के साथ इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया जा रहा है. हमारा प्रयास है कि अपने प्रारंभ से ही पत्रिका कला के उन सभी रूपों को एकजुट कर एक साथ उनकी प्रस्तुति संभव कर सके, जिससे कि उनकी अंतर्सम्बधता प्रकट हो, उनके विचार साझा हों और उनके बीच सृजनात्मक आवा-जाही सुनिश्चित हो. इस प्रवेशांक के ज़रिये इस रिश्ते का आग़ाज़ किया जा रहा है.

फ़ुट आर्टिस्ट शीला शर्मा 
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जंगली फूल...


-फ़िरदौस ख़ान
एक जंगली फूल था. महकता गुलाब का गुलाबी फूल. जंगल उसका घर था. जंगली हवाएं उसे झूला झुलाती थीं. ओस के क़तरे उसे भिगोते थे. सूरज की सुनहरी किरने उसे संवारती थीं. जो भी उसे एक बार देखता, बस देखता रह जाता. राहगीर रुक-रुक कर उसे देखते, उसकी तारीफ़ करते और आगे बढ़ जाते. उसे अपनी क़िस्मत पर नाज़ था.
उस फूल के दिल में बहुत से अरमान थे. वो सुर्ख़ हो जाना चाहता था. वो सोचा करता था, जिस रोज़ उसे किसी की मुहब्बत मिल जाएगी, उसकी मुहब्बत में रंग कर वो सुर्ख़ हो जाएगा. लेकिन क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था. वक़्त बदला. एक रोज़ एक मुसाफ़िर ने उसे तोड़ लिया. फूल का नया सफ़र शुरू हुआ. मुसाफ़िर ने उसे अपने कमरे के एक छोटे से गुलदान में सजा दिया. वो गुलदान में पानी डालना भूल गया या उसने जानबूझ कर ऐसा किया, ये तो मुसाफ़िर ही बेहतर जाने. मुसाफ़िर रोज़ सुबह चला जाता और जब रात ख़त्म होने लगती तब आता. एक दिन मुसाफ़िर परदेस चला गया है. बंद कमरे में फूल क़ैद होकर रह गया. कमरे में कोई खिड़की नहीं थी, बस एक छोटा-सा रौशनदान था, जिसमें से हल्की रौशनी आती थी. इसी से पता चलता था कि कब दिन उगा और कब रात घिर आई. फूल दिन रात तन्हा और उदास रहता. उसका दम घुटने लगा था. उसे न पानी मिलता था, न हवा और न ही भरपूर रौशनी. दिनोदिन वो मुरझाने लगा. उसे दिन रात ज़ारो-क़तार रोता रहता. उसकी सिसकियां कमरे की दीवारों से टकराकर रह जातीं.
एक रोज़ उसे किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी. शायद किसी ने उसकी आवाज़ सुन ली थी. फूल को लगा कि वो इस क़ैद से निजात पा सकता है. उसकी आंखों में उम्मीद की एक किरन चमकी. बाहर कोई राहगीर था. फूल ने उसे पुकारा. राहगीर रुक गया. वो देखने लगा कि आवाज़ कहां से आ रही है. घर को बंद पाकर राहगीर ने रौशनदान से झांका, उसे फूल दिखाई दिया. फूल ने उसे अपनी आपबीती सुनाई. राहगीर ने उससे कहा कि वो मजबूर है. वो उसे इस अपने साथ नहीं ले जा सकता है. हां, इतना ज़रूर कर सकता है कि वो ऊपर से ही गुलदान में थोड़ा-सा पानी डाल दे. और उसे जब भी वक़्त मिलेगा वो गुलदान में पानी डाल दिया करेगा, ताकि फूल को पानी मिल सके और वो ज़िन्दा रह सके. राहगीर को फूल से मुहब्बत हो गई थी. लेकिन ये भी सच है कि मजबूरियां मुहब्बत को पनपने नहीं देतीं.
राहगीर पानी लेने चला गया. फूल सोचने लगा. उसे सिर्फ़ पानी ही तो नहीं चाहिए. ज़िन्दा रहने के लिए हवा और रौशनी की भी ज़रूरत हुआ करती है. ऐसी ज़िन्दगी का क्या हासिल, जिसमें न उसका प्यारा जंगल हो, न जंगली हवाएं हों, न ओस के क़तरे हों, न सूरज की सुनहरी किरने हों. उसकी सारी उम्मीदें दम तोड़ चुकी थीं.
उसने अब अपनी ज़िन्दगी से समझौता कर लिया था. वो चाहता था कि वो पंखुड़ी-पंखुड़ी होकर बिखरने की बजाय एक बार ही बिखर जाए, फ़ना हो जाए. लेकिन एक बार वो अपने उस मसीहा से मिलना चाहता था, जिसने कम से कम एक लम्हे के लिए ही सही उसकी आंखों में उम्मीद की चमक पैदा की, उसके दिल में फिर से जी लेने की ख़्वाहिश को जगाया तो सही.
अब वो अपने प्यारे राहगीर के लिए दुआएं कर रहा था.

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मेरी ख़ुशी...


मुझसे बिछड़ते वक़्त
उसने कहा-
ख़ुश रहो...

मैं सोचती रही
क्या वो नहीं जानता था
कि मेरी ख़ुशी तो उसके साथ है...
-फ़िरदौस ख़ान


तस्वीर : गूगल से साभार

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रिश्तेदार...


दुनिया में अहमियत सिर्फ़ ख़ूनी और काग़ज़ी रिश्तों की ही हुआ करती है, भले ही वो कितने ख़राब और तकलीफ़ देने वाले ही क्यों न हों...
एक अमीर शख़्स था... उसकी बीवी थी, बेटी थी... अमीर शख़्स की ज़िन्दगी में एक बुरा दौर आया, बहुत ही बुरा दौर... उस वक़्त उसकी बीवी और उसकी बेटी उसके पास नहीं थी... तब उसकी दोस्त उसके साथ थी... बरसों तक उस दोस्त ने उसकी ख़िदमत की, उसका साथ दिया...
जब अमीर शख़्स का आख़िरी वक़्त आया, तो जायदाद के लिए उसकी बीवी, बेटी और दामाद उसके पास आ गए... घर में डेरा डाल लिया... अमीर शख़्स मर गया... उसकी बीवी, बेटी और दामाद ने उस दोस्त को घर से निकाल दिया... वो कहने लगी कि मैंने अपनी ज़िन्दगी के बहुत साल अमीर शख़्स की देखभाल करते हुए, उसके साथ बिताए. अब इस उम्र में कहां जाऊंगी... मुझ पर रहम करो, मेरे सर से छत तो मत छीनो... इस पर अमीर शख़्स की बेटी ने कहा- जायदाद पर रिश्तेदारों का हक़ होता है, दोस्त का नहीं...

कितना सच कहा उस अमीर शख़्स की बेटी ने... वाक़ई इंसान की हर चीज़ पर उसके रिश्तेदारों का ही हक़ हुआ करता है... दोस्त तो सिर्फ़ दोस्त ही हुआ करते हैं... वैसे भी इंसान कमाता किसके लिए है, रिश्तेदारों के लिए ही न... अपनी बीवी के लिए, अपने बच्चों के लिए, अपने घर-परिवार के लिए... दोस्त तो टाइम पास ही होते हैं, शायद...

तस्वीर : गूगल से साभार
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महाभारत के पात्र आसपास बिखरे हैं


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय समाज में प्राचीन काल से लेकर आज तक सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है. उस वक़्त भी ताक़तवर व्यक्ति अपने फ़ायदे के लिए कमज़ोर व्यक्ति का इस्तेमाल करता था, और आज भी ऐसा ही हो रहा है. उस दौर में भी लोग सत्ता के लिए अपनों के ख़ून के प्यासे हो जाते थे और साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने में कोई गुरेज़ नहीं करते थे, उसी तरह मौजूदा दौर में भी नेतागण येन-केन-प्रकारेण कुर्सी हासिल कर लेना चाहते हैं. हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब सतगुरु हमसों यों कहियो में महाभारत के पात्रों के बहाने वर्तमान परिस्थितियों को बयां किया गया है.

किताब की लेखिका डॉ. पुष्पम कहती हैं, जीवन एक रणक्षेत्र की तरह है, जिसमें सतत संघर्ष की स्थिति बनी रहती है. यह संघर्ष व्यक्तिगत, जातिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो सकता है. जीवन से जु़डा एक रोचक तथ्य यह भी है कि शांति और अहिंसा जैसी धारणाओं को आदर्श तो माना जाता है, सार्वभौमिक सौहार्द्र या वसुधैव कुटुंबकम जैसी कल्पना भी अच्छी लगती है, लेकिन यह परस्पर सद्‌भाव के बिना संभव नहीं होती है. आदर्श और यथार्थ, स्वप्न और वास्तविकता के बीच खींचतान चलती रहती है. हर व्यक्ति आवश्यक या अनावश्यक रूप से किसी न किसी स्तर पर अपने स्वार्थ-साधन में लगा रहता है. जिस क्षण उसकी स्वार्थ पूर्ति में व्यवधान पड़ता है, वह लड़ने की मुद्रा में खड़ा हो जाता है. तब शांति एवं सद्‌भाव के उपदेश कोरे शब्दों के जाल प्रतीत होने लगते हैं. ग्रंथ के रूप में महाभारत को घर में रखने की मनाही थी, बल्कि अभी भी है. कहा जाता है कि यह जिस घर में रहता है, वहां महाभारत छिड़ जाता है. लेकिन इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि आम आदमी इस इतिहास के मर्म को समझ ले तो घर-घर में होने वाले छोटे-बड़े झगड़े संभवत: नहीं होंगे.

हज़ारों वर्ष पूर्व के ऐतिहासिक पात्रों और वर्तमान युग में चलते-फिरते मनुष्यों की प्रवृत्तियों एवं मनोवृत्तियों में जो आश्चर्यजनक साम्य है, वह विशेष रूप से आकर्षित करता है. इतने लंबे अंतराल के बाद भी युगों के मानवों की मानसिकता में विद्यमान समानता महाभारत के उन पौराणिक पात्रों के व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने के लिए प्रेरित करती है. यदि मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो महाभारत के पात्र गांवों, नगरों, गलियों में, स़डकों पर जहां-तहां दिख जाएंगे. उनमें धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बहुसंख्यक मालूम पड़ते हैं. शायद धर्म ने अपने पुत्र को पुन: मानव-देह धारण करने के कष्ट से मुक्त कर दिया है. इसलिए युधिष्ठिर कहीं नज़र नहीं आते हैं. इक्के-दुक्के अर्जुन गीता के उपदेशों की सार्थकता ढूंढते इधर-उधर भटकते हुए भले ही मिल जाएं. भीम अपनी संवेदनाओं और पराक्रम को समेटे कहीं एकांतवास में हैं. और नकुल-सहदेव अपने-अपने विशेष गुणों से लैस वर्तमान परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में लगे हुए हैं. गांधारी आज भी आंखों पर पट्टी बांधे किसी न किसी के सहारे चलने का प्रयास कर रही है. कुंती अपनी परिस्थितियों से जूझती हुई आगे बढ़ने के रास्ते तलाश रही है. द्रौपदी को निर्वस्त्र हो जाने का भय आज भी बना हुआ है. लेकिन अबला द्रौपदी धीरे-धीरे रूपांतरित होती हुई सबला बनती जा रही है. उसे रूपांतरण की प्रक्रिया में अनेक विषमताओं का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन उसने अपने अंदर सकारात्मक परिवर्तन लाने का जो दॄढ संकल्प कर लिया है, उससे उसे विमुख करना आसान नहीं है. महाभारत की द्रौपदी की मानसिकता अपमान का बदला लेने तक ही सीमित थी, लेकिन वर्तमान युग की द्रौपदी व्यक्तिगत स्तर पर ही जीवनरूपी युद्ध क्षेत्र को जीतकर स्वयं को सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास कर रही है. द्रौपदी को अपमानित करने वाला आज का दुर्याधन पहले से कहीं अधिक पतित हो चुका है. बदले की आग में जलता हुआ दिग्भ्रमित अश्वत्थामा आज भी दुर्याधन की ही छत्र-छाया में पल रहा है. भीष्म एवं आचार्य द्रोण के महत्व को कौरवों ने अपनी स्वार्थपूर्ति तक ही सीमित कर रखा था. भारतीय संस्कृति को गरिमा प्रदान करने वाली उन दोनों विभूतियों को वर्तमान परिस्थिति में तो पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया गया है. विदुर रूपी धर्म के लिए प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र और दंभी दुर्योधन की हठता को पुन: झेलना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने पूरी तरह पृथ्वी का त्याग कर दिया है और अपनी नीतियों के साथ प्रयाण कर गए हैं. इसलिए निकट भविष्य में उस रूप में धर्म के पुन: दृष्टिगोचर होने की संभावना दिखाई नहीं देती है. और कृष्ण? शायद वह पृथ्वी से धर्म के पूर्णत: विलुप्त होने तक क्षीर सागर में शेष-शय्या पर अगले अवतरण की प्रतीक्षा में योगनिद्रा के आनंद में निमग्न हैं. इधर, इंद्र से पराजित होकर पातालवासी हुए दिति और दनु के पुत्रों ने पृथ्वी पर पुन : अपनी पताका फहरा ली है. और अपनी विवशताओं की सलीब पर लटका हुआ सामान्य मानव पुनर्जीवन प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षारत है. इस प्रकार विधाता द्वारा रचे गए सभी पात्र अपनी-अपनी भूमिकाओं में व्यस्त हैं. दरअसल, भारतीय संस्कृति की विरासत के रूप में महाभारत एक बहुरूपदर्शी की भांति है, जिसके हर कोण से एक नई आकृति दिखाई देती है.

प्राचीन काल से ही भारत में महिलाओं की स्थिति दयनीय रही है. किताब में प्राचीन काल की अनेक मिसालें देकर यह बताया गया है कि किस तरह उस वक़्त की महिलाएं भी बेबस और लाचार थीं. बानगी देखिए, एक दो अपवादों को छोड़कर प्राचीन काल से ही भारतीय समाज पितृ-सत्तात्मक रहा है और उसकी संरचना में भी कोई परिवर्तन नहीं आया है. पितृ-सत्तात्मक समाज के परिवारों में सभी पुरुष मूलत: अपने पिता के परिवार से जु़डे हुए होते हैं. पीढ़ी के अनुसार ये विभिन्न श्रेणियों (पितामह, पिता, पुत्र, पौत्र इत्यादि) में आजीवन उस परिवार का सदस्य रहते हैं, जिसमें उनका जन्म होता है. इस प्रकार सभी पुरुषों को एक ही समूह का सदस्य माना जा सकता है. लेकिन उस परिवार की स्त्रियों के दो समूह होते हैं, एक समूह उन स्त्रियों का होता है, जिनका जन्म उस परिवार में हुआ है और दूसरे समूह की स्त्रियां वे हैं, जो विवाह के उपरांत उस परिवार में लाई जाती हैं. ठीक इसी प्रकार जिन स्त्रियों का जन्म एक परिवार में होता है, वे वैवाहिक रीतियों द्वारा दूसरे परिवार में चली जाती हैं. जिस प्रकार पुरुषों के लिए कुछ नियम होते हैं और उनसे विशेष आचरण की अपेक्षा रखी जाती है, उसी प्रकार दोनों समूहों की स्त्रियों के लिए भी भिन्न-भिन्न नियम निर्धारित किए गए हैं और उनसे तदनुरूप आचरण अपेक्षित होते हैं.

प्राचीन समय में सामान्यत: राजकन्याओं का विवाह किसी विशेष कुल या वंश में करने का कोई न कोई विशेष कारण होता था, जैसे कभी प्रगा़ढ मैत्री के कारण, कभी राजनीतिक संबंध बनाने के लिए या कभी किसी अन्य कारण से. राजा दशरथ ने अपनी कन्या शांता का विवाह अपने मित्र लोमपाद से कर दिया था. राजा शर्याति ने च्यवन ऋृषि को प्रसन्न करने के लिए उनसे अपनी पुत्री सुकन्या को ब्याह दिया. ययाति की पुत्री माधवी का उपाख्यान मन को क्षुब्ध कर देता है. एक बार गालव ऋषि ने ययाति से इतने घो़डे मांगे जितने उसके पास नहीं थे. इसलिए उसने क्षतिपूर्ति के रूप में ऋषि को अपनी कन्या को ही दान में दे दिया. यह कथा स्त्रियों के प्रति संवेदनहीनता के कटुतम उदाहरणों में से एक है. काशीराज की तीन राजकुमारियों में अम्बा सबसे ब़डी थी और उसने मन ही मन शाल्व को अपना पति मान लिया था, लेकिन भीष्म ने अपने सौतेले भाई विचित्रवीर्य के लिए स्वयंवर से ही उन तीनों का हरण कर लिया था. दो छोटी बहनों का विवाह तो विचित्रवीर्य से हो गया, लेकिन अम्बा का भविष्य अधर में लटक गया. अंधे धृतराष्ट्र से गांधारी का विवाह निश्चित किया गया, तो गांधारी इस संबंध को अस्वीकार तो नहीं कर पाई, अपने भावी पति के प्रति सहानुभूति में जीवन भर के लिए उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली. पांडु से माद्री के विवाह के लिए मद्र नरेश ने भीष्म से अपार धन प्राप्त किया था. मद्र देश में पुत्री के बदले धन लेने की प्रथा थी. राजा द्रुपद अपनी पुत्री का विवाह ऐसे दक्ष धनुर्धर से करना चाहते थे, जो द्रोण से उनके अपमान का बदला ले सके.

ये सभी दृष्टांत इस तऱफ इशारा करते हैं कि प्राचीन काल में स्त्रियों को किस प्रकार जीवन के अन्य महत्वपूर्ण कार्यों में निर्णय लेने का अधिकार नहीं था, उसी प्रकार वे विवाह संबंधी निर्णय लेने के अधिकार से भी वंचित थीं. पत्नी पर पति का पूरा अधिकार होता था. स्त्रियों का पतिव्रता होना उनका विशेष गुण माना जाता था. एक रोचक तथ्य पातिव्रत्य से जु़डा हुआ है. पति के आदेश पर पत्नी नियोग विधि से संतान उत्पन्न कर सकती थी. अन्य पुरुष के संसर्ग में आने पर भी उस स्त्री का सतीत्व भंग नहीं होता. पति के जीवित नहीं रहने पर उसकी मां या यानी सास भी ऐसी आज्ञा दे सकती थी. महाभारत की सत्यवती इसी श्रेणी की सास थी.

इतना ही नहीं, उस व़क्त महिलओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था. इसलिए जीवन के हर क्षेत्र में उनकी पहचान स़िर्फ अपने परिवार के पुरुषों के संबंधों पर आधारित थी, मसलन किसी की बेटी, किसी की बहन और किसी की पुत्री. इसके अलावा उनका अपना कोई वजूद नहीं था. यह किताब महाभारत के विभिन्न पात्रों के चरित्र को बहुत ही अच्छे तरीक़े से पेश करती है. इस किताब को एक बार हाथ में लेने पर, इसे पूरा पढ़े बिना रखना मुश्किल है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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समकालीन गीतिकाव्य पर बेहतरीन शोध ग्रंथ


फ़िरदौस ख़ान
अनंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित समकालीन गीतिकाव्य : संवेदना और शिल्प में लेखक डॉ. रामस्नेही लाल शर्मा यायावर ने हिंदी काव्य में 70 के दशक के बाद हुए संवेदनात्मक और शैल्पिक परिवर्तनों की आहट को पहचानने की कोशिश की है. नवगीतकारों को हमेशा यह शिकायत रही है कि उन्हें उतने समर्थ आलोचक नहीं मिले, जितने कविता को मिले हैं. दरअसल, समकालीन आद्यावधि गीत पर काम करने का ख़तरा तो बहुत कम लोग उठाना चाहते हैं. डॉ. यायावर साढ़े तीन दशकों से भी ज़्यादा वक़्त से गीत सृजन का कार्य ब ख़ूबी कर रहे हैं. उन्होंने अपने वक़्त के गीति काव्य के परिवर्तनों को अच्छी तरह देखा और परखा है. इसलिए वह गीति काव्य के संवेदनात्मक और शिल्प में हुए बदलाव को बेहतर तरीक़े से पेश कर सकते हैं. इस दौर में गीत ने अपने पंख संवेदना के असीमित आकाश में फैलाए. मूल्यों की टूटन, अस्तित्व का संकट, आस्थाहीन मानवीय स्थितियां, युद्धों की विभीषिकाएं, जीवनगत विसंगतियां, विषम परिस्थितियों में जूझती मानवीय जिजीविषा आदि युग बोध की सभी संवेदनाएं गीत में रूपायित हुई हैं. आधुनिक बोध की हर खुरदरी संवेदना को गीत ने अपने भीतर ढाल लिया है. इस अभिनव संवेदना-संसार को वाणी देने के लिए उसे नया शिल्प, नया कलेवर, अभिनव प्रतीक-योजना और नया बिम्ब-विधान अपनाना पड़ा है. भाषा में विचलनपरक प्रयोग बढ़े हैं.

गीत रूमानी अनुभूतियों का प्रकाशन है, उसमें लिजलिजी भावुकता है, उसमें वर्तमान काल की उत्तप्त रश्मियों का ताप झेलने का सामर्थ्य नहीं है. हिंदी गीत ने ऐसे आरोपों का बीसवीं सदी के छठे दशक से ही रचनात्मक उत्तर देना शुरू कर दिया था. डॉ. रामस्नेही लाल शर्मा ख़ुद एक समर्थ गीतकार हैं. इस ग्रंथ के अलावा उनकी कई कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें मन-पलाशवन और दहकती संध्या (गीत-ग़ज़ल), गलियारे गंध के (प्रणय परक नवगीत), पांखुरी-पांखुरी (मुक्तक), सीप में समन्दर (हिंदी ग़ज़ल), मेले में यायावर (गीत), आंसू का अनुनाद (दोहा), अहिंसा परमो धर्म: (दोहा), अंधा हुआ समय का दर्पण (नवगीत संग्रह), संस्कृति और साहित्य संबंधों के अंत: सूत्र तथा जनक नए युग का जनक शामिल हैं. डॉ. यायावर को समकालीन गीतिकाव्य: संवेदना और शिल्प पर आगरा के डॉ. बीआरए विश्वविद्यालय ने डी लिट की उपाधि प्रदान की है. यह शोध प्रबंध अपनी परिधि में संपूर्ण गीति काव्य को पूरी समग्रता में समेटे हुए है. संवेदना और शिल्प के अंत: संबंध, गीति काव्य में संवेदना और शिल्प का स्वरूप, समकालीन गीति काव्य का स्वरूप, समकालीन गीत में लौकिक-अलौकिक संवेदनाएं, गीत की भाषा-संरचना एवं छंद विधान तथा शिल्प जैसे तत्वों पर गंभीर चिंतन करते हुए लेखक ने इस कृति को गीत पर सर्वांगपूर्ण समीक्षा का रूप दे दिया है. शोध ग्रंथ में सात अध्याय हैं. समकालीन गीत का कोई भी पक्ष लेखक की दृष्टि से छूटने नहीं पाया है. समकालीन जीवन की जटिलताएं, युगीन विसंगतियां, मूल्य-विघटन, युग बोध, प्रतीकों का स्वरूप, विषय-विधान और शिल्प के अन्य तत्व किस तरह बदले हैं और गीत ने काल की बदलती इच्छाओं, आकांक्षाओं के साथ किस तरह तालमेल बिठाया है, यह सब लेखक ने भलीभांति प्रस्तुत किया है. यह शोध प्रबंध समकालीन गीत को उन चिंताओं और अपेक्षाओं के अनुरूप पाता है, जो समकालीन हिंदी कविता की चिंताएं और अपेक्षाएं हैं. यह गीत के संबंध में उठे तमाम सवालों का समाधान पेश करता है.

ग्रंथ में काव्य के विभिन्न रूपों को बहुत ही खूबसूरती के साथ पेश किया गया है. गीत का ज़िक्र करते हुए कहा गया है कि गीत किसी कथात्मकता का मोहताज नहीं होता. वह भाव केंद्रित होता है. उसकी गेयता संगीतमय भी होती है और संगीत रहित भी. वह प्रसंग निरपेक्ष स्वत: पूर्ण, भाव प्रवण, टेक आधारित, वैयक्तिक, युगीन यथार्थ से प्रभावित तथा अनेक उपरूपों में बुना हुआ होता है. गीति में संगीत, अनुभूति और रस का संगम रहता है. यह एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें गीत, अनुगीत, समगीत, प्रगीत, गीतिका, अगीत आदि समाये होते हैं. कुछ विद्वानों ने गीति और गीत को एक मानकर भ्रमात्मकता उपन्न कर दी है. गीत के विषय आधारित कई भेद हैं-खुसरू शैली के गीत, रहस्यवादी शांत रस के गीत, सगुण, सगुण शक्ति के श्रृंगार परक गीत, वीर रस के गीत, करुणासिक्त गीत, देश प्रेम के गीत, छायावादी रहस्यवाद के गीत, निराशा, हीनता, क्षणभंगुरता के गीत, प्रगतिशील गीत, स्वातंत्र्य विजयोल्लास के गीत, युद्ध गीत आदि. गीत की जीवन में व्याप्ति सर्वाधिक है. अनेक अवरोधों के बाद भी गीत आज तक अपनी चमक दिखा रहा है. गीत अपने आप को सुनाने के लिए भी होता है. यह मुक्त छंद की तरह विस्तारवादी नहीं होता. गीत का श्रृंगार है-शालीनता और संक्षिप्तता. ध्रुव पद पर कड़ियों का आधारित होना इसकी रचना की विशेषता है.

शब्दकोश में प्रगीत का अर्थ है गीति काव्य. नाम के नयेपन की ललक में कुछ लोग गीत को प्रगीत कहते हैं. गीत से नवगीत ने जो अभिव्यक्ति परक भिन्नता अर्जित की है, वह प्रगीत ने नहीं की. नवगीत के कई रचनाकार टाइप्ड प्रतीत होते हैं, प्रगीतकारों में यह स्थिति नहीं है. भ्रमवश गीत और प्रगीत में अंतर नहीं माना जाता. प्रगीत में लयात्मकता शब्दों से आती है और इसमें वाद्यों के बिना ही संगीत फूटता है. प्रगीत में सौंदर्य शब्दों के विविध तत्वों से आता है, जबकि गीत में यह संगीत की शास्त्रीयता से पैदा होता है. सांस्कृतिक प्रगीत और नवगीत परस्पर विरोधी धाराएं हैं. प्रगीत गीत के जितना क़रीब है, उतना नवगीत के नहीं. प्रगीत युग बोध पर आत्मानुभूति और वैयक्तिकता को वरीयता देता है. प्रगीत में आशावाद और राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक चेतना का सौंदर्य होता है. वह टेक, अंतरा आदि का कट्‌टर अनुयायी नहीं होता. अनुगीत के समर्थकों का कोई वर्ग नहीं बना है. कलेवर और संरचना की दृष्टि से यह ग़ज़ल के क़रीब है. ग़ज़ल से इसकी भिन्नता यही है कि यह एक भाव पर केंद्रित होता है, जबकि ग़ज़ल की द्विपदियों के लिए यह ज़रूरी नहीं है. नवगीत गीतिकाव्य की सर्वाधिक चर्चित विधा है. नवगीत ने वैयक्तिक एवं रागात्मक प्रसंगों के आकाश को चीरकर लोक चेतना को कथ्य का केंद्र बनाया.

बक़ौल लेखक, समकालीन गीति काव्य में संवेदना और शिल्प की भूमिका सर्वोपरि है. संवेदना हमारे मन की चेतना की वह कूटस्थ अवस्था है, जिसमें हमें विश्व की वस्तु विशेष का बोध न होकर उसके गुणों का बोध होता है. काव्य में संवेदना करुण भावों को अधिक महत्व देती है. संवेदना युक्त कविता कृष्ण की बांसुरी जैसी है, जिसमें समाज का दिल और दर्द बजता है. संवेदना का जागृत होना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं होता. कोशीय धरातल पर संवेदना के तीन भेद हैं. पहला विशिष्ट संवेदना, दूसरा अंतरावयव संवेदना और तीसरा स्नायविक संवेदना. संवेदना कविता का प्राण है. संवेदना के त्रिआयामी सिद्धांत से तनाव-शिथिलता, उत्तेजना- तथा सुख-वेदना में परिवर्तनशील है. समाज की क्रांतिकारी स्थितियां संवेदना को आंदोलित करती हैं तथा इतिहास को मो़ड देती हैं. चेतना के तीनों स्तर, एन्द्रिक, सांवेगिक और बौद्घिक संवेदना को मुखरित करते हैं. एको रस: करुण एव निमित भेदात के अनुसार, रस एक ही है-करुण. यह संवेदना का प्रमाणीकरण है. कवि की संवेदना का धरातल वैयक्तिक नहीं होता. युग परिवर्तन हो जाने से संवेदना नहीं बदलती. सामान्य भाषा संवेदना को काव्य भाषा के समान रूपायित नहीं कर पाती. संवेदना और अनुभूति का उद्‌गम स्थल मानव मन है. शैल्पिक उपादान संवेदना के प्रक्षेपण का कार्य करते हैं.

इस शोध ग्रंथ में लेखक ने 252 हिंदी, एक दर्जन अंग्रेजी, 20 संस्कृत, 22 कोशों और 53 पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से प्रस्तुत तथ्यों को प्रमाणित किया है. संदर्भ ग्रंथों की सूची लेखक के विराट अध्ययन का प्रमाण है. ग्रंथ की भाषा परिमार्जित और आलोच्य विषय को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ है. बहरहाल, यह कृति गीत समीक्षा के लिए आलोक स्तंभ साबित होगी. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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प्रकृति से जुडी है हमारी संस्कृति


फ़िरदौस ख़ान
इंसान ही नहीं दुनिया की कोई भी नस्ल जल, जंगल और ज़मीन के बिना ज़िंदा नहीं रह सकती. ये तीनों हमारे जीवन का आधार हैं. यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि उसने प्रकृति को विशेष महत्व दिया है. पहले जंगल पूज्य थे, श्रद्धेय थे. इसलिए उनकी पवित्रता को बनाए रखने के लिए मंत्रों का सहारा लिया गया. मगर गुज़रते व़क्त के साथ जंगल से जु़डी भावनाएं और संवेदनाएं भी बदल गई हैं. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक बादलों के रंग हवाओं के संग में लेखक अमरेंद्र किशोर ने जल, जंगल और ज़मीन के मुद्दे को बेहद प्रभावशाली तरीक़े से उठाया है. पुस्तक के छह अध्याय हैं, जिनमें वन-उपवन, बूंदों की बातें, पंचवटी की छांह में, जंगल का मंगल-लोक, बादलों के रंग हवाओं के संग और परंपराओं के सच्चे साधक शामिल है. किताब में इंसान के लिए जल, जंगल और ज़मीन के महत्व पर रौशनी डाली गई है. इसके साथ ही लेखक ने प्रकृति के साथ मनव के संबंध और प्रकृति के विनाश में मानव की भूमिका का ज़िक्र करते हुए इसे बचाने का आह्वान किया है. लेखक का कहना है कि सभ्यता के एक खास दौर में जब पशुपालन के साथ बस्तियां अस्तित्व में आईं तो इंसान जंगल की सभ्यता के बेहद क़रीब हो चुका था. आदिवासी और ग़ैर आदिवासी समाज के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध बन चुके थे, क्योंकि जंगलों में जाकर तपस्या करना, आश्रम बनाना और ज़रूरत प़डने पर आदिवासियों से संपर्क साधकर उनसे मदद लेने के ढेरों प्रसंग और आख्यान प्राचीन धर्मग्रंथों में पढ़ने को मिलते हैं. यह बात तो स्पष्ट है कि जिन पेड़ों की पूजा आदिवासी सदियों से करते चले आ रहे थे, उन्हीं पेड़ों को हिंदू धर्म में भी विशेष स्थान मिला. यदि वनवासी समाज की मान्यता है कि पेड़ों पर उनके देवता बोंगा रहते हैं तो वैदिक काल से हिंदू धर्म ने इसी तथ्य को खास तर्क के साथ पूजनीय साबित किया. हर पेड़ को किसी न किसी देवी-देवता के साथ संबंधित किया गया. आदिवासियों के बीच बहुसंख्यक देवी-देवता नहीं होते. वे प्राकृतिक संसाधनों को पूजते हैं. नदी, पहाड़, जंगल, पत्थर और जीव-जंतु, इन सबकी आराधना करते हैं, जबकि हिंदुओं के 33 करोड़ देवी-देवताओं के अलावा अपने पूजन के लिए, आराधना के लिए पेड़-पौधों से लेकर नदी-पहाड़ के साथ संबंध जोड़ते गए. मगर इसके मूल में कहीं किसी धर्म समुदाय को पीछे छो़ड़ देने जैसी बातें नहीं थीं. हिंदुओं के साथ आदिवासियों तक सौहार्द्रपूर्ण रिश्ते रहे. यह बात दूसरी है कि विकास के दौर में आदिवासी पीछे रह गए.

ज़माना बदला. जंगल कभी सबके लिए होते थे. समाज के लिए, परिवार के लिए और इंसान के लिए. व्यक्तिगत ज़रूरतों के लिए, सामुदायिक ज़रूरतों के लिए, धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर भरण-पोषण के लिए. लेकिन प्रकृति की सुंदरता को, जंगलों की सघनता और इंसान की शालीनता को लील गई आधुनिक जीवन शैली. क़ुदरती सौंदर्य से लदे जंगलों और पहाड़ों से जुड़े साहित्य के प्रसंग आज सपने हो गए या परी-लोक के आख्यान लगने लगे. इतना ही नहीं, जंगलों की महत्ता समझाने वैसे लोग हमारे पास आ धमके जो समूचे विश्व में नियमों की आ़ड में वनों का नाश कर रहे थे. जंगल बचाने और ब़ढाने की तरकीबें बताने वैसे लोग सामने आए जो पूरे विश्व में जैव संपदाओं की तबाही मचा चुके थे. कमाल की बात है कि ऐसे लोग ब़डी सहजता से सरकार और सत्ता में अपनी पैठ जमाने में सफल रहे. मतलब वनों को बचाने और ब़ढाने का गुणगान करने वाली हमारी संस्कृति उनके विचारों और तर्कों से बेमानी और बेकार हो गई. उनकी भोगवाद की संस्कृति हमारी परंपराओं और सोच पर भारी प़डी. अपनी सोच से जंगलों के प्रति बेहद संवेदनशील और परंपरा प्रिय समाज आज वनों से दूर धकेला जा चुका है. उसके सामने ही समूचा देश बाज़ार बन चुका है. हम, हमारी संस्कृति, हमारे जंगल और हमारे जंगलों से जु़डी भावनाएं तथा संवेदनाएं, ये सबके सब इसी बाज़ार में बिकाऊ हो चुकी हैं, क्योंकि हमारी ज़िंदगी से जुड़े छोटे या बड़े मुद्दे जब बाज़ार और व्यापार के संसर्ग में आते हैं तो उन्हें बिकने से कोई बचा नहीं पाता. इसलिए वन्य संसाधन आज वैश्विक बाज़ार के सौदागरों के निशाने पर हैं. इस हाल में जंगल और प्रकृति से जुडी इंसानी भावनाएं एवं संवेदनाएं सौदेबाज़ों के पैरों तले रौंदी जा रही हैं. यह निष्ठुरता की पराकाष्ठा है. खेद की बात है कि हम यह सब विवशता के साथ देखने को, सहने को मजबूर हैं. हमारी तमाम वन नीतियां, उनसे जुड़े क़ायदे-क़ानून इन सबमें जंगलों को बचाने की पवित्र चिंताएं और प्रतिज्ञाएं हैं. मगर फिर भी जंगल कट रहे हैं. उन्हें बचाने की तरकीबें हमारी सोच से जुदा हैं, क्योंकि ये तरकीबें पश्चिमी सभ्यता की उपज हैं. सरकारी फाइलों के अनुसार, जंगलों के सबसे बड़े लुटेरे आदिवासी हैं. मगर सच और इस दलील के बीच कोई संबंध नहीं है. यह दावा बेहद खोखला और लिजलिजा है. वे वैसे लोग हैं, जो जंगलों के बिना अपने को, अपने धर्म को और अपनी संस्कृति को अधूरा मानते हैं. वे आदिवासी हैं. भारत के मूल बाशिंदे. मगर सबसे लाचार. समय के हाशिये पर धकेले गए श्रांत-कलांत लोग. जंगल बचाने और बढ़ाने की चिंता में जुटी सरकार ने आदिवासियों को जंगलों से दरकिनार कर दिया. उन्हें उनके टोला-टप्परों से दूर कर दिया. इतने उपायों के बावजूद जंगल फिर भी कट रहे हैं. देश की धरती से हरियाली की चादर सिकु़ड़ती जा रही है. वनों से वहां के लोग दूर धकेले जा रहे हैं. प्राचीन ग्रंथों में सामाजिक वानिकी की बातें नहीं हैं और न ही जन-वन प्रबंधन की बातें हैं, क्योंकि पुराने ख्याल ऐसे रहे हैं कि जंगल लगाए नहीं जाते, बल्कि ये क़ुदरत की देन होते हैं. इनकी सघनता किसी पादप विज्ञानी की मेहनत की उपज नहीं होती. क़ुदरती जंगल बेतरतीब होते हैं. इसलिए सुखद होते हैं. सुंदर होते हैं. वहां के पेड़ स्वयंभू होकर भी संगठित होते हैं. इंसान के हाथों उपजाए गए वन-उपवन पर्यावरण के अनुरूप नहीं होते. हम व्यापार और बाज़ार की ज़रूरत को ध्यान में रखकर वन रोपण करते हैं.

अध्याय बूंदों की बातें में लेखक ने पानी के महत्व को ब़खूबी पेश किया है. सभ्यताएं पानी की देन हैं. संस्कृतियां नदियों से पनपी हैं. नदियों से पोषित हुई हैं. नदियां ही संस्कृतियों की पालनहार हैं. जंगलों ने जीव मंडल को जीवन दिया है. सांसें दी हैं. ताक़त दी है. इससे जंगलों से व्यापार पनपा तो साथ में समाज के नियम-विधान बने. सामाजिक व्यवस्था ग़ढी गई. संचालित की गई. जंगलों को जीवन देने वाले बादल हैं. इन बादलों में पानी है. पानी से जंगल है और जंगल से पानी है. जंगल है तो बादल आएंगे, बरसेंगे. तभी नदियों की धार जंगलों से निकलेगी. पहाड़ों से निकलेगी, झरना बनकर. नाला बनकर, जो नाला छोटी नदियों का रूप लेता है. छोटी नदियों का संजाल बड़ी नदियों में तब्दील होता है. पहाड़ों से चली पानी की मनचली धार आगे बढ़कर समुद्र में जा मिलती है.

वैदिक युग में हमारे देश में जल देवता के रूप में वरुण को पूजा जाता था. आज भी पोखरों और कुंओं को पूजने की परंपरा है. सुहागनें पोखरों को पूजती हैं. वे कुएं पूजती हैं. गांवों में तालाबों और कुंओं के विवाह होते थे. सुहागिनें गाती हैं-
राजा जनक रीसी कुइया खनावले
कुइयां के निर्मल पानी जी
ताही तर राजा हो
जइ करावले कुंड दाहा दही जस
कुंड पइसी राजा हवन करावले निकलेली कन्या कुंआर जी
कथी ये के दुधावा पइइब हो बाबा
काई धरब हमरो नाम हो
केकरा कुलवे बइहब हो बाबा
केइ होइहे स्वामी हमार
गुलरी के दुधावा पइइबो हो बेटी सिता धरणी तोहरो नाम
दशरथ कुलवे बिआहब हो बेटी स्वामी होइहन श्रीरामजी

घर के शुभ काम की शुरुआत के साथ कुएं की भी पूजा का रिवाज गांव के लोक समाज में आज भी है, चाहे विवाह या कोई और मंगल कार्य.

पर्यावरण असंतुलन पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पर्यावरणविद्‌ सुंदरलाल बहुगुणा कहते हैं, हमने हर बात और काम में यूरोप का अनुसरण किया. मगर यूरोप में क्या है. वे मिट्टी में रसायन डालते हैं. माटी एक ज़िंदा पदार्थ है, उसमें रसायन जैसी मुर्दा चीज़ वे डाल रहे हैं. अधिक उपज लेने के इरादे से हमने भी मुर्दा को अपनाया. हमने मिट्टी को अपने स्वार्थ के कारण नशेबाज़ बनाया-रासायनिक उर्वरकों से. गाय की सेवा करने वाला, पेड़ लगाने वाला और उन्हें पूजने वाला पुण्य प्राप्त करता है, ऐसा हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है. पुण्य का अलग सुख है. बात चाहे गांव बसने की हो, उसके नामकरण की हो या खेती की. पेड़ से अलग कुछ भी नहीं है. गांव के नाम पेड़ों से जुड़ जाते हैं. जहां जिन पेड़ों की बहुलता है, वहां के गांवों के नाम उन पेड़ों के नाम से जाने जाते हैं. उसी तरह पानी से जुड़े गांव के नाम, माटी के प्रकार से जुड़े गांव के नाम, कितना अद्‌भुत है अपना देश.

यह किताब प्रकृति के बेहद क़रीब रहने वाले आदिवासियों की जीवनशैली और उनकी समस्याओं पर भी रौशनी डालती है. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को उनके मूल स्थान से उजा़डना अमानवीय है, इसे रोका जाना चाहिए. यह किताब भारत के लोकज्ञान और कालातीत परंपरा का बेहतरीन दस्तावेज़ है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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ज़ात, मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा...



फ़िरदौस ख़ान
अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है…

इश्क़ वह आग है, जिससे दोज़ख़ भी पनाह मांगती है. कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है. जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो, उसे दोज़ख़ की आग का क्या खौफ़. जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है. इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना, क्योंकि इश्क़ तो उससे हुआ है. उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है. उस महबूब से जो सिर्फ़ जिस्म नहीं है. वह तो ख़ुदा के नूर का वह क़तरा है, जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है. इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है. इश्क़ में रूहानियत होती है. इश्क़, बस इश्क़ होता है. किसी इंसान से हो या ख़ुदा से. जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए तो वह ख़ुद-ब-ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है. इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है, जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है. हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ. सूफ़ियों ने इश्क़ को इबादत का दर्जा दिया है.
विसाले-हक़ हुआ. सूफ़ियों ने इश्क़ को इबादत का दर्जा दिया है.

पंजाबी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि बुल्ले शाह कहते हैं-
करम शरा दे धरम बतावन
संगल पावन पैरी
ज़ात, मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा
इश्क़ शरा दा वैरी

वह तो अल्लाह को पाना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने प्रेम के मार्ग को अपनाया, क्योंकि प्रेम किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता. बुल्ले शाह के जन्म स्थान और समय को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं, लेकिन ज़्यादातर विद्वानों ने उनका जीवनकाल 1680 ईस्वी से 1758 ईस्वी तक माना है. तारीख़े-नफ़े उल्साल्कीन के मुताबिक़, बुल्ले शाह का जन्म सिंध (पाकिस्तान) के उछ गीलानीयां गांव में सखि शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ था. उनका नाम अब्दुल्ला शाह रखा गया था. मगर सूफ़ी कवि के रूप में विख्यात होने के बाद वह बुल्ले शाह कहलाए. वह जब छह साल के थे, तब उनके पिता पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उछ गीलानीयां छोड़कर साहीवाल में मलकवाल नामक बस्ती में रहने लगे. इस दौरान चौधरी पांडो भट्टी किसी काम से तलवंडी आए थे. उन्होंने अपने एक मित्र से ज़िक्र किया कि लाहौर से 20 मील दूर बारी दोआब नदी के तट पर बसे गांव पंडोक में मस्जिद के लिए किसी अच्छे मौलवी की ज़रूरत है. इस पर उनके मित्र ने सखि शाह मुहम्मद दरवेश से बात करने की सलाह दी. अगले दिन तलवंडी के कुछ बुज़ुर्ग चौधरी पांडो भट्टी के साथ दरवेश साहब के पास गए और उनसे मस्जिद की व्यवस्था संभालने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. इस तरह बुल्ले शाह पंडोक आ गए. यहां उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की. वह अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे, मगर उन्होंने जनमानस की भाषा पंजाबी को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया. प्रसिद्ध क़िस्सा हीर-रांझा के रचयिता सैयद वारिस शाह उनके सहपाठी थे. बुल्ले शाह ने अपना सारा जीवन इबादत और लोक कल्याण में व्यतीत किया. उनकी एक बहन भी थीं, जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर ख़ुदा की इबादत की. बुल्ले शाह लाहौर के संत शाह इनायत क़ादिरी शत्तारी के मुरीद थे. इश्क़े-हक़ीक़ी के बारे में बुल्ले शाह कहते हैं-
इश्क़े-हक़ीक़ी ने मुथ्थी कु़डे
मैनूं दस्सो पिया दा देसा
कियो इश्क़ असां ते आया है
तूं आया है मैं पाया है...

यानी प्रेम के देवता ने मेरा मन चुरा लिया है. मुझे बताओ कि पिया का देश कहां है. इश्क़ मेरे पास क्यों आया है. ओ इश्क़, तू आया है और मैंने तुझे महसूस किया है.

अल्लाह का पहला वर्ण (अरबी, फ़ारसी, उर्दू) है अलिफ़ का आकार 1 के समान होता है. यह परमात्मा की अद्वैतता को इंगित करता है. चूंकि बुल्ले शाह अल्लाह से अलग नहीं होना चाहते थे. इसलिए उन्होंने कहा है-

इक्को अलिफ़ पढ़ो छुटकारा आये
यानी मुक्ति के लिए सिर्फ़ अलिफ़ पढ़ना ही काफ़ी है.

इश्क़ में वियोग भी होता है. वियोग में ही प्रेमी गिले-शिकवे करता है. यहां तक कि वह अपने प्रियतम को संगदिल और बेरहम भी कह उठता है. बुल्ले शाह कहते हैं-
कीह बेदर्दां संग यारी
रोवन अखियां ज़ारो ज़ारी
सानूं गए बेदर्दी छडके
हिजरे संग सीने विच ग़ड के
जिस्मो जिंद नू लै गए क़ढ के
इह गल कर गए हैंसयारी...

यानी बेदर्दी के साथ इश्क़ का क्या कहना. मेरी आंखें तो अविरल आंसू बहाती हैं. वह बेरहम महबूब मेरे सीने में वियोग रूपी कटार घोंपकर, मेरी जान निकालकर ले गया. उसने यह सब ब़डी बेरहमी के साथ किया. प्रेमी को दुनिया की कोई परवाह नहीं होती. वह हर तरह की निंदा सहन कर लेता है. ईश्वर वियोग में उसे तकली़फ महसूस होती है. बुल्ले शाह कहते हैं-
बिरहों आ व़डया विच वेह़डे
ज़ोरों ज़ोर देवे तन घेरे
दारू दर्द नां बझो तेरे
मैं सजनां बाझ मारीनी हां
मित्तर पियारे कारन नी
मैं लोक पियारे कारन नी
मैं लोक अलाहमे लैनी हां...

यानी विरह ने मेरे आंगन में आकर मुझे अपने प्रकोप से बेहोश कर दिया. इसके अलावा तकली़फ दूर करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मैं तो प्रियतम के बिना मर रही हूं. मैं अपने प्रिय के लिए लोगों के उलाहने सुन रही हूं. कभी-कभी प्रेमी प्रियतम के उन गहन प्रेम सपनों को देखता है, जिसमें प्रियतम पलभर के लिए दर्शन देकर ओझल हो जाता है. उस व़क्त प्रेमी पी़डा से कराह उठता है. बुल्ले शाह कहते हैं-
देखो नीं पियारा मैनूं सुफने में छल गया

प्रेमी की ज़िंदगी में एक व़क्त ऐसा भी आता है, जब वह वियोग की रात गुज़र जाती है और फिर मिलन की सुबह आती है. उस व़क्त प्रेमी खुशी से नाच उठता है. वह दूसरों से मुबारकबाद लेना चाहता है. बुल्ले शाह कहते हैं- आओ सैयो रल दियो वधाई
मैं वर पाया रांझा माही...

यानी आओ दोस्तों, सब मिलकर मुझे मुबारकबाद दो. मैंने अपने महबूब यानी अपने खुदा को पा लिया है. हीर की तरह यह रहस्यवादी भी अपने प्रियतम रांझा की तलाश में भटकता रहा. प्रियतम एक जोगी के वेश में आया और प्रेमी ख़ुद को प्रियतम की जोगन कहता है. बुल्ले शाह के शब्दों में-
रांझा जोगिण बण आया
वाह सांगी सांग रचाया
रांझा जोगी ते मैं जुगियाणीं
इस दी खातर भरसां पाणीं
ऐवें पिछली उमर विहाणी
इस हुण मैनूं भरमाया...

यानी प्रियतम योगी के रूप में आया है. बहरुपिए ने ब़डा सुंदर नाटक रचाया है. रांझा एक जोगी है और मैं उसकी जोगन. उसके लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूं. मेरा पिछला जन्म तो बेकार हो गया. उसने मुझे अब मोहित कर लिया है. बुल्ले शाह ने अन्य सूफ़ियों की तरह ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया. उनकी रचनाओं में हिंदुस्तान के विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव साफ़ नज़र आता है.

बुल्ले शाह के मुताबिक़ आत्मा ता परमात्मा की ही एक अभिन्न अंग है. परमात्मा प्रत्येक आत्मा में विराजमान है और स्वेच्छा से बोलता है. वह कहते हैं-
नाल महबूब सिरे दी बाज़ी
जिस ने कुल तबक लै साजी
मन मेरे विच जोत बिराजी
आपे ज़ाहिर हाल बताया...

यानी अपने महबूब के लिए अपने सिर की बाज़ी लगा दी है, जिसने सारी कायनात को बनाया है. मेरे दिल में वह रूहानी रौशनी मौजूद है, जो जिस्म के ज़रिये खुद को दर्शाती है. यह रूहानी रौशनी खुदा के इश्क़ से वाबस्ता है. लेकिन इसकी अपनी कोई ख्वाहिश नहीं है. यह ख़ुदा के हुक्म से ही अपने अलग-अलग रूपों में रहती है. ख़ुदा के हुक्म से ही मिट्टी की देह के रूप में नाचती है. वह कहते हैं-
मैं मेरी है ना तेरी है
एह अंत ख़ाक दी ढेरी है
एक ढेरी होई खेरी है
ढेरी नु नाच नचाई दा
हुण किस तो आप लुकाई दा...

यानी मैं यानी देह न मेरी है, न तेरी है. इसका अंत तो मिट्टी के ढेर के रूप में होता है, जो इधर-उधर बिखर जाती है. मिट्टी के इस ढेर में जब आत्मा प्रविष्ट होती है तो यह ढेर नाचता है. अब तुम ख़ुद को किससे छुपा रहे हो. बुल्ले शाह दुनिया को भ्रम या मायावी नहीं मानते. ख़ुदा ने ही इस दुनिया को बनाया है. इंसान जन्म लेता है और फिर एक रोज़ मर जाता है. यही इस सृष्टि का नियम है. वह कहते हैं-
मैं सुपना सभ जग वी सुपना
सुपना लोक बिबाणा
ख़ाकी ख़ाक सियों रल जागा
कुझ नहीं ज़ोर घीणांणा...

यानी मैं एक सपना हूं और पूरी दुनिया भी एक सपना है. सब इंसान भी एक सपना ही हैं. जो मिट्टी में जन्म लेगा, वह एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा. यह सब बिना किसी ज़ोर के ख़ुद-ब-ख़ुद ही हो जाएगा.

भले ही बुल्ले शाह की धरती अब पाकिस्तान हो, लेकिन हिंदुस्तान में भी उन्हें उतना ही माना जाता है, जितना पाकिस्तान में. उनका कलाम, उनका संदेश तो पूरी दुनिया के लिए है. दरअसल, बुल्ले शाह हिंदुस्तान और पाकिस्तान के महान सूफ़ी कवि होने के साथ इन दोनों मुल्कों की सांझी विरासत के भी प्रतीक हैं. बुल्ले शाह के बारे में कहा जाता है कि मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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चांद...


फ़िरदौस ख़ान
लड़की दिनभर बेसब्री से रात का इंतज़ार करती... एक एक पल उसे सदियों की तरह लगता... लेकिन जैसे-जैसे शाम होती और आसमान स्याह होने लगता उसके चेहरे पर रौनक़ छा जाती... लड़की दौड़ कर छत पर आती... आसमान में चमकते चांद को निहारने लगती... उसकी दूधिया चांदनी में अपना रोम-रोम भिगो लेना चाहती... वो जानती थी कि चांद उससे बहुत दूर है, इतनी दूर कि वो उस तक कभी पहुंच नहीं सकती... लेकिन इसके बावजूद उसे चांद से इश्क़ था... जितनी देर वो चांद के पास होती, उसे लगता कि वो लम्हे उसने जी लिए हैं... और वो अपनी ज़िन्दगी को भरपूर जी लेना चाहती थी...
जिस रोज़ आसमान में बादल छा जाते, वो उदास हो जाती... वो बादलों के छंटने का बेसब्री से इंतज़ार करती... दुआएं मांगती... कई मर्तबा इसी तरह रात गुज़र जाती, लेकिन लड़की जागती रहती... चांद को देखे बिना उसे नींद न आती... लेकिन चांद, तो चांद था... वो अपने वक़्त पर आता... चांदनी बिखेरता और चला जाता... ये अलग बात थी कि बादलों की वजह से न वो चांद को देख पाती और न ही उसकी चांदनी में भीग पाती...
बीच में अमावस भी आती... इस बार अमावस न जाने कितने दिन की है... चांद कब आएगा... लड़की नहीं जानती... बस हर पल उसे चांद का इंतज़ार है...

तस्वीर :गूगल से साभार
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कुंवारे सजदे



ज़िन्दगी में मुहब्बत हो, तो ज़िन्दगी सवाब होती है... और जब न हो, तो उसकी तलाश होती है... और इसी तलाश में इंसान उम्रभर भटकता रहता है...
अपनी एक ग़ज़ल में अदाकारा और शायरा मीना उम्र भर मुहब्बत को तरसती हुई औरत की तड़प बयां करते हुए कहती हैं-
ज़र्रे-ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक-एक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए कांटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा...

तस्वीर :गूगल से साभार
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चले आओ...



मेरे महबबू !
तुम चले आओ
इससे पहले
कि सांस रुकने लगे
दिल की धड़कन
ठहरने लगे
पलकें बोझल होने लगें
आंखों के आगे
अंधेरा-सा छाने लगे
रगों में बहता ख़ून
जमने लगे
और
जिस्म सर्द पड़ने लगे

मेरे हमनशीं
बस एक बार
तुम चले आओ...
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर : गूगल से साभार
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HOT

-फ़िरदौस ख़ान
एक बाअख़्लाक माशरे (सभ्य समाज) में जो चीज़ें वाहियात मानी जाती हैं... आज वही फ़ैशन बन रही हैं... एक लफ़्ज़ है HOT... आज इसका इस्तेमाल तारीफ़ के लिए ख़ूब किया जाता है... लानत है ऐसी तारीफ़ पर...
फ़ेसबुक पर HOT पेज ख़ूब पसंद किए जाते हैं... हैरत तो इस बात की होती है कि ख़ुद को मज़हबी बताने वाले लोग जहां कवर पेज पर मज़हबी तस्वीर लगाते हैं,  स्टेटस में मज़हबी बातें लिखते हैं, लेकिन पसंद उनकी भी यही HOT पेज होते हैं... :(

भाइयो!  HOT तो जहन्नुम भी है... जाना चाहोगे... नहीं न...
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क़ब्र...


मैं
ज़िन्दगी को
जीना चाहती थी
अपने लिए
एक घर चाहती थी
एक ऐसा घर
जिसकी बुनियाद
ख़ुलूस की ईंटों से बनी हो
जिसके आंगन में
बेला और मेहंदी महकती हों
जिसकी क्यारियों में
रफ़ाक़तों के फूल खिलते हों
जिसकी दीवारें
कुर्बतों की सफ़ेदी से पुती हों
जिसकी छत पर
दुआएं
चांद-सितारे बनकर चमकती हों
जिसके दालान में
हसरतें अंगड़ाइयां लेती हों
जिसके दरवाज़ों पर
उम्र की हसीन रुतें
दस्तक देती हों
जिसकी खिड़कियों में
बच्चों-सी मासूम ख़ुशियां
मुस्कराती हों
और
जिसकी मुंडेरों पर
अरमानों के परिन्दे चहकते हों...

मगर
ऐसा हो न सका
आलम ये है
कि मुझे ख़्वाब में भी
घर नहीं दिखता
अब
मेरे तसव्वुर में
बस एक क़ब्र ही रहा करती है
एक ऐसी क़ब्र
जो किसी वीरान क़ब्रिस्तान में
एक घने दरख़्त के साये तले है
मैं सोचती हूं
उस वीरान क़ब्र के बारे में
जिसमें मैं सुकून से सो सकूं...
-फ़िरदौस ख़ान

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वो वर्क़...



मेरे महबूब 
ज़िन्दगी की
किताब का
हर वो वर्क़ 
आंसुओं से भीगा मिला
जहां तुम्हारा नाम लिखा था...
-फ़िरदौस ख़ान
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वक़्त...


-फ़िरदौस ख़ान
हर चीज़ की अहमियत वक़्त पर ही हुआ करती है... वक़्त निकल जाने पर आबे-हयात भी आबे-हयात नहीं रह जाता... उस दूध की क्या अहमियत, जो बच्चे के भूख से बिलख-बिलख कर मर जाने के बाद मिले... उस दवा की क्या अहमियत, जो मरीज़ की मौत के बाद मिले... उस इंसाफ़ की क्या अहमियत जो, किसी को सूली पर चढ़ा दिए जाने के बाद मिले... उस पछतावे की क्या अहमियत, जो किसी की ज़िन्दगी तबाह और बर्बाद करने के बाद हो...
क़ुदरत ने हर चीज़ का वक़्त मुक़र्रर किया है... सूरज निकलने का अपना वक़्त है... रात आने का अपना वक़्त है... मौसम भी अपने-अपने वक़्त पर आया करते हैं... लेकिन अज़ाब से निजात का कोई वक़्त नहीं है... सारी उम्र अज़ाब में ही गुज़र गई...

(हमारी एक कहानी से)

तस्वीर : गूगल से साभार
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सुकून...


इंसान ज़िंदगी में बहुत कुछ चाहता है, जैसे दौलत, इज़्ज़त और शौहरत, लेकिन इन सबके बीच वह सुकून को भूल जाता है. जब वह दुनिया का हर सुख भोग लेता है, तब उसे सुकून की तलाश होती है. और इसी सुकून को पाने के लिए वह न जाने कहां-कहां भटकता है. मगर सुकून बाहर कहीं भी नहीं मिलता, क्योंकि इसे इंसान को अपने भीतर ही खोजना पड़ता है. दरअसल, सुकून इंसान को उसके नेक कर्मों की बदौलत ही मिलता है...

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मंज़िल की चाह में...


इंसान के भटकने का सफ़र शायद कभी ख़त्म नहीं हुआ करता... बरसों पहले इसी भटकाव पर एक नज़्म लिखी थी... 

नज़्म
मंज़िल की चाह में...

मैं
एक मुसाफ़िर थी
तपते रेगिस्तान की
बरहना सर पर
सूरज की दहकती धूप
पांव तले
सुलगते रेत के ज़र्रे
होठों पर
बरसों की प्यास
आंखों में अनदेखे सपने
दिल में अनछुआ अहसास...

मैं चली जा रही थी
ख़ुद से बेज़ार-सी
एक ऐसी मंज़िल की चाह में
जहां
मुहब्बत क़याम करती हो
अहसास का समंदर
हिलोरें लेता हो
बरसों की तिश्नगी को
बुझाने वाला
सावन बरसता हो...

तभी
तुम मुझे मिले
एक घने दरख़्त की तरह
मेरे बरहना सर को
तुम्हारे साये का
आंचल मिला
ज़ख़्मी पांव को
मुहब्बत की मेहंदी मिली...

मुझे लगा
जिसकी तलाश में
भटकती रही थी
दर-ब-दर
अब वही मंज़िल
मुझे अपनी आग़ोश में
समेटने के लिए
दोनों बांहें पसारे खड़ी है

दिल ख़ुशी से
झूम उठा
मैं ख़ुद को
संभाल नहीं पाई
और आगे बढ़ गई

तभी
मेरी रूह ने
मुझे बेदार किया
मैंने पाया
तुम वो नहीं थे
जिसके साये में
मैं ताउम्र बिता सकूं
क्यूंकि
तुम तो एक सराब थे
सराब !
हां, एक सराब
और
फिर शुरू हुआ सफ़र
भटकने का
उस मंज़िल की चाह में...
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर : गूगल से साभार
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ज़रूरत...


फ़िरदौस ख़ान
एक मासूम बच्चा भूख से बिलख रहा है. लोग देख रहे हैं. कुछ लोगों को उस पर तरस आता है. कोई उसे पुचकारता है. कोई उसे गोद में लेकर प्यार  करता है. कोई उसे झुलाता है. लेकिन बच्चा चुप नहीं होता और मुसलसल ज़ारो-क़तार रोये जा रहा है. कोई ये समझने की कोशिश नहीं करता कि बच्चा क्यों रो रहा है. किसी को इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं कि बच्चा भूखा है और उसे दूध की ज़रूरत है. कोई उसे दूध पिलाने के बारे में नहीं सोचता.
ज़िन्दगी में भी अकसर ऐसा ही होता है, हमें जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, वही नहीं मिलती. और उसके बग़ैर बाक़ी सब चीज़ें बेमानी होकर रह जाती हैं...
...

  • रोज़ा रखने से दूसरों की भूख-प्यास का अहसास होता है... रोज़े से पता चलता है कि भूख और प्यास क्या होती है... भूखा और प्यासा शख़्स ही भूख और प्यास की शिद्दत को महसूस कर सकता है... लेकिन, ज़िन्दगी में भूख-प्यास के अलावा भी बहुत सी ’महरूमियां’ हैं, उन्हें समझने के लिए क्या किया जाता है...? या क्या किया जाना चाहिए... ?
  • जिनके पास मिट्टी के घर तक नहीं, उनका दिल बहिश्त के महलों की बातों से भी नहीं बहल पाता...
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आंच न आए नाम पे तेरे...


-फ़िरदौस ख़ान
आकर्षण और मुहब्बत में बहुत फ़र्क़ हुआ करता है... आकर्षण उस ओस के क़तरे की तरह है, जो ज़रा-सी धूप की तपिश से फ़ना हो जाता है, जबकि मुहब्बत यही तपिश पाकर दहकने लगते है... इसी तरह हवस और मुहब्बत में भी ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ है... हवस ज़िन्दगी तबाह करती है, जबकि मुहब्बत ज़िन्दगी को रौशन किया करती है...

अमूमन लोग आकर्षण को मुहब्बत समझकर हवस के रास्ते पर चल पड़ते हैं, जिसका नतीजा सिर्फ़ तबाही और बर्बादी ही हुआ करता है... बानगी देखें-

महिला पुलिस थाने पहुंच जाती है और इल्ज़ाम लगाती है कि उसके प्रेमी ने उसे प्रेमजाल में फंसाकर उसकी ज़िन्दगी तबाह कर दी. उसके प्रेमी ने शादी का वादा करके उससे ताल्लुक़ात बनाए और अब उसका दिल भर गया, तो शादी से मुकर रहा है. उसका प्रेमी पहले से शादीशुदा है, उसका अपना परिवार है, बच्चे हैं. इस मामले में महिला ही नहीं, बल्कि उसके प्रेमी का भी सुख-चैन छिन गया. ग़लती दोनों की है. अगर प्रेमी ने महिला को पहले ही अपने परिवार के बारे में सबकुछ बता दिया था, तो महिला की ग़लती ज़्यादा है, क्योंकि इस तरह के मामलों में सबसे ज़्यादा नुक़सान महिलाओं का ही होता है.  

तस्वीर का दूसरा रुख़ भी देखें. किसी होटल में लड़की की लाश पड़ी है. लड़की ने ख़ुदकशी की है या उसका क़त्ल किया गया है. दोनों ही मामलों में लड़की की ज़िन्दगी ख़त्म हो गई. लड़की को किसी से प्रेम हुआ. दोनों ने क़समें-वादे किए. लड़की प्रेमी से मिलने होटल पहुंच गई. लड़के ने उससे ताल्लुक़ात बनाए और जब दिल भर गया, तो उसे अपने दोस्तों के हवाले करके चला गया. बाद में लड़की ने ख़ुदकशी कर ली या फिर वहशी दरिन्दों ने उसका क़त्ल कर दिया. इस मामले में क़ुसूरवार दोनों ही हैं, लेकिन ग़लती लड़की की ज़्यादा है, क्योंकि इस तरह के मामलों में सबसे ज़्यादा नुक़सान लड़कियों का ही होता है.  

इन दोनों ही मामलों में मुहब्बत कहीं नज़र नहीं आती... अगर मुहब्बत होती, तो न महिला प्रेमी के ख़िलाफ़ पुलिस थाने पहुंचती और न ही लड़का अपनी प्रेमिका को अपने दोस्तों के हवाले करता...

मुहब्बत तो सिर्फ़ देना ही जानती है... हम तो ये मानते हैं... बाक़ी सबके अपने-अपने ख़्याल हैं...
फ़िल्मी गीतकार इंदीवर साहब ने भी क्या ख़ूब कहा है-
आंच न आए नाम पे तेरे
ख़ाक भले ही जीवन हो
अपने जहां में आग लग लें
तेरा जहां जो रौशन हो
तेरे लिए दिल तोड़ लें हम
घर क्या जग भी छोड़ दें हम...

तस्वीर : गूगल से साभार

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हव्वा की बेटी...


एक लड़की जो जीना चाहती थी... अरमानों के पंखों के साथ आसमान में उड़ना चाहती थी, लेकिन हवस के भूखे एक वहशी दरिन्दे ने उसकी जान ले ली. एक चहकती-मुस्कराती लड़की अब क़ब्र में सो रही होगी... उसकी रूह कितनी बेचैन होगी... सोचकर ही रूह कांप जाती है... लगता है उस क़ब्र में रेहाना जब्बारी नहीं हम ख़ुद दफ़न हैं...
रेहाना ! हमें माफ़ करना... हम तुम्हारे लिए सिर्फ़ दुआ ही कर सकते हैं...
रेहाना जब्बारी को समर्पित एक नज़्म
हव्वा की बेटी...

मैं भी
तुम्हारी ही तरह
हव्वा की बेटी हूं
मैं भी जीना चाहती थी
ज़िन्दगी के हर पल को
मेरे भी सतरंगी ख़्वाब थे
मेरे सीने में भी
मुहब्बत भरा
एक दिल धड़कता था
मेरी आंखों में भी
एक चेहरा दमकता था
मेरे होठों पर भी
एक नाम मुस्कराता था
जो मेरी हथेलियों पर
हिना सा महकता था
और
कलाइयों में
चूड़ियां बनकर खनकता था
लेकिन
वक़्त की आंधी
कुछ ऐसे चली
मेरे ख़्वाब
ज़र्रा-ज़र्रा होकर बिखर गए
मेरे अहसास मर गए
मेरा वजूद ख़ाक हो गया

फ़र्क़ बस ये है
तुम ज़मीन के नीचे
दफ़न हो
और मैं ज़मीन के ऊपर...
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर : गूगल से साभार
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