ग़ज़ल
घर में अर्शे-आज़म से, रहमतें उतर आईं
सरवरे-दो आलम को, मैंने जब पुकारा है
मन्नतों के धागों को बांध के महब्बत से
औलिया की चौखट पर हाथ भी पसारा है
ग़म नहीं, ख़ज़ां भी हो, या बहार का मौसम
साथ हमसफ़र है तो, ख़ुल्द का नज़ारा है
मैं ज़मीं प्यासी, तुम भीगता हुआ सावन
ज़िन्दगी के गुलशन को तुमने ही निखारा है
तुम फ़िरौन हो तो क्या, ज़ालिमों ये मत भूलो
जो ख़ुदा तुम्हारा है, वह ख़ुदा हमारा है
शुक्रे-ख़ुदा में फ़िरदौस अब, सर को रख के सजदे में
हर घड़ी ये कहती हैं, ख़ूब ही संवारा है
-फ़िरदौस ख़ान
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