गर्व किस बात का
फ़ेसबुक पर अकसर ऐसी पोस्टें देखीं जाती हैं, जिनमें लिखा होता है-
"मुझे फ़लां मज़हब का होने पर गर्व है, मुझे फ़लां ज़ात का होने पर गर्व है" (ऐसी पोस्टें लिखने वालों में मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम दोनों ही शामिल हैं)
क्या ये सच में गर्व करने की बात है...? क्या मज़हब और ज़ात ही गर्व करने लायक़ हैं?
हम किस मज़हब को मानने वाले या किस ज़ात वाले ख़ानदान में जन्म लेते हैं, ये हमारे हाथ में नहीं है...
हम अपनी मिसाल देते हैं, हम इस्लाम को मानने वाले ऐसे ख़ानदान में पैदा हुए, जहां हमारे पापा पठान हैं और अम्मी शेख़ सिद्दीक़ी...
आज हम कहें कि हमें मुसलमान होने पर गर्व है, अपने ख़ान होने पर गर्व है...
फ़र्ज़ करें, अगर हम किसी ग़ैर मुस्लिम और समाज के सबसे निचली ज़ात वाले ख़ानदान में पैदा होते, तो क्या हमें अपने मज़हब और ज़ात पर शर्मसार होना चाहिए था... नहीं न... ?
फिर क्यों हम ऐसी बातों को बढ़ावा देते हैं, जो समाज में मुख़्तलिफ़ तबक़ों के बाच दूरियां पैदा करती हैं...
याद रखें हम सबका ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम है, जो जन्नत में रहा करते थे... इसलिए ख़ुद को आला और दूसरे को कमतर समझना अच्छी बात नहीं है...
तस्वीर गूगल से साभार
24 अगस्त 2015 को 4:56 pm बजे
बहुत सही कहा आपने