जिस्म की ख़्वाहिशों पर रिवायतों के पहरे हैं...
जिस्म की
ख़्वाहिशों पर
रिवायतों के पहरे हैं...
इसलिए
अज़ल से अबद तक
चलती रहती है
जिस्म और ज़मीर की जंग...
जिस्म को वास्ता है
फ़क़्त
नफ़्स की तमाम
ख़्वाहिशों को पूरा करने से...
लेकिन
ज़मीर को
लुत्फ़ आता है
हर ख़्वाहिश को
मिटाने में...
शायद
यही ज़मीर की
फ़ितरत है...
जिस्म शैतान
तो
ज़मीर फ़रिश्तों से
मुतासिर है...
मगर
इंसान तो
बस इंसान है...
वह न तो मुकम्मल
शैतान है
और न ही
फ़रिश्तों जैसा...
शायद इसलिए
उम्रभर
चलती रहती है
जिस्म और ज़मीर की जंग...
-फ़िरदौस ख़ान
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