मुहब्बत से महकते ख़त...



ख़त...सच, कितना प्यारा लफ़्ज़ है ख़त...संदूक़ में कपड़ों की तह में छुपाकर रखे गए ख़त कितने अच्छे लगते हैं...जब भी इन्हें पढ़ो, तो हमेशा नयेपन का अहसास होता है...मानो इन्हें अभी-अभी लिखा गया हो...और पहली बार ही पढ़ा जा रहा हो... ख़तों से आती गुलाब और मोगरे की महक तो मदहोश कर देने वाली होती ही है...उससे ज़्यादा क़यामत ढहाती हैं इनकी तहरीरें... दूधिया काग़ज़ पर मुहब्बत की रौशनाई से लिखे लफ़्ज़...सीधे दिल में उतर जाते हैं...अकसर सोचती हूं कि कितना अच्छा हो कि तुम हमेशा ऐसे ही लिखते रहो...मैं हमेशा ऐसे ही पढ़ती रहूं...और फिर यूं ही उम्र बीत जाए...

कुछ रोज़ पहले तुम्हारा ख़त पढ़ा, तो तुम पर निसार होने को जी चाहा...क्योंकि उस तहरीर का एक-एक लफ़्ज़ वही था जो मैं सुनना चाहती थी, या यूं कहें कि पढ़ना चाहती थी...लगा, तुमने मेरे दिल की बात जान ली...और फिर उसे काग़ज़ पर ही टांक दिया...किसी बेल-बूटे की तरह...कितनी ही बार ख़त को पढ़ा और कभी ख़ुद पर तो कभी अपनी क़िस्मत पर नाज़ किया...कि 'तुम' मेरे हो...

एक नज़्म
तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं
क्यूंकि
तुम्हारी तहरीर का
हर इक लफ्ज़
डूबा होता है
जज़्बात के समंदर में
और मैं
जज़्बात की इस ख़ुनक को
उतार लेना चाहती हूं
अपनी रूह की गहराई में
क्यूंकि
मेरी रूह भी प्यासी है
बिल्कुल मेरी तरह
और ये प्यास
दिनों या बरसों की नहीं
बल्कि सदियों की है
तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं
क्यूंकि
तुम्हारी तहरीर का
हर इक लफ्ज़
अया होता है
उम्मीद की सुनहरी किरनों से
और मैं
इन किरनों को अपने आंचल में समेटे
चलती रहती हूं
उम्र की उस रहगुज़र पर
जो हालात की तारीकियों से दूर
बहुत दूर जाती है
सच !
तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

नजूमी


यही लम्हें तो ज़िन्दगी का हासिल हैं... साल 2016 का वाक़िया है...
गर्मियो का मौसम था... सूरज आग बरसा रहा था... एक रोज़ दोपहर के वक़्त हमें एक नजूमी मिला... उसकी बातों में सहर था... उसके बात करने का अंदाज़ बहुत दिलकश था... कुछ ऐसा कि कोई परेशान हाल शख़्स उससे बात करे, तो अपनी परेशानी भूल जाए... उसकी बातों के सहर से ख़ुद को जुदा करना मुश्किल था... 
उसने हमसे बात की... कुछ कहा, कुछ सुना... यानी सुना कम और कहा ज़्यादा... क्योंकि वह सामने वाले को बोलने का मौक़ा ही नहीं देता था... और सुनने वाला भी बस उसे सुनता ही रह जाए...
उसके बात करने का अंदाज़ कुछ ऐसा होता था कि इंसान चांद की तमन्ना करे, तो वो उसे अहसास करा दे कि चांद ख़ुद उसके आंचल में आकर सिमट जाए...
चांद तो आसमान की अमानत है, भला वह ज़मीन पर कैसे आ सकता है... ये बात सुनने वाला भी जानता है और कहने वाला भी...
लेकिन चांद को अपने आंचल में समेट लेना का कुछ पल का अहसास इंसान को वो ख़ुशी दे जाता है, जिसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता... चांद को पाने के ये लम्हे और इन लम्हों के अहसास की शिद्दत रूह की गहराइयों में उतर जाती है...
उसने हमसे चंद अल्फ़ाज़ कहे... उसकी बातें सुनकर ऐसा लगा, जैसे किसी ने हमें उदासियों की गहरी खाई से निकाल कर आसमान की बुलंदी पर पहुंचा दिया है... हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था... उस रात ख़ुशी की वजह से हम सो नहीं पाये...
किसी ने उसके बारे में कहा कि वह अव्वल दर्जे का झूठा और मक्कार है... हो सकता है कि वह नजूमी झूठा हो और मक्कार हो, लेकिन उसने हमें ख़ुशी के वो लम्हे दिए, जिसके लिए हम ताउम्र उसके शुक्रगुज़ार रहेंगे...
हमने सोचा कि हम उस नजूमी को हमेशा याद रखेंगे, जिसने हमें वो ख़ुशी दी, जिसके लिए हम न जाने कितनी सदियों से तरस रहे थे... सदियों से, हां सदियो से, क्योंकि इंतज़ार के लम्हे तो सदियों से भी भारी होते हैं... हमें जब भी नजदीक की बातें याद आतीं, हम दिल ही दिल में उसका शुक्रिया अदा करते... 
वक़्त गुज़रता गया और एक दिन नजूमी की कही बात सच हो गई... सच में आसमान का चांद ज़मीं पर उतर आया था... यूं लगा जैसे सदियों की प्यासी धरती पर झूम के सावन बरसा हो... और उसकी ख़ुनकी (ठंडक) हमारी रूह तक में उतर आई... हमारी रूह मुहब्बत से मुअत्तर हो गई...
सच! हमने ख़्वाबों को हक़ीक़त में बदलते देखा है... 
अल्लाह का जितना भी शुक्र अदा करें, कम है... 
शुक्रिया! मेरे मोहसिन नजूमी,  शुक्रिया 🌺
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

मुहब्बत का मुजस्समा


मुहब्बत क्या होती है... इसे बेशक लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता... सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है... लेकिन कुछ लम्हे ऐसे भी हुआ करते हैं, जब मुहब्बत मुजस्समा बनकर सामने आ खड़ी होती है... और हम उसे देखते ही रह जाते हैं...
कई बरस पहले की बात है... जून का गरम महीना था... तपती दोपहरी ढल रही थी... मगर सूरज अब भी आग बरसा रहा था... लड़का गांव की एक पगडंडी के पास खड़ा था... लड़की उसके पास जाकर खड़ी हो गई... उसने बात शुरू ही की थी कि अचानक लड़के ने अपना रुख़ बदल लिया... इसलिए लड़की को भी मुड़ना पड़ा... लड़के ने ऐसा क्यों किया... वो ये समझ पाती कि लड़का हल्के से मुस्करा उठा... अब उसका साया लड़की पर पड़ रहा था... उसने लड़की को अपने साये में कर लिया था... सूरज की तपती धूप से कुछ हद तक उसे बचा लिया था...
उस वक़्त लड़के की आंखों में जो चमक थी, उसे कभी बयां नहीं किया जा सकता... लड़की को लगा कि वो मुहब्बत ही तो हैं... मुहब्बत का एक मुजस्समा, जिसकी पूजा करने को जी चाहता है...
(ज़िन्दगी की कहानी का एक वर्क़)
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS