चांद तारे...


रात को देर तक जागना और खुली छत पर टहलते हुए देर तक तारों को निहारना भी कितना भला लगता है... अब तो तारों से अच्छी ख़ासी जान-पहचान भी हो गई है... रात के नौ बजे कौन-सा तारा कहां होगा... फिर एक घंटे बाद... दो घंटे बाद या फिर तीन घंटे बाद वह सरक कर कहां चला जाएगा... सब जान गए हैं... दिन गुज़रने के साथ-साथ आसमान में तारों में बदलाव भी देखने को मिलता रहता है... कभी आसमान में बहुत से तारे नज़र आते हैं, तो कभी बहुत कम... और चांद... चांद के तो कहने ही क्या... पहले बढ़ता चला जाता है, और जब उसकी आदत हो जाती है... तो घटने लगता है... और फिर कहीं जाकर छुप जाता है... किसी हरजाई की तरह... लेकिन तारे हमेशा रहते हैं, जब तक बादल बीच में न आएं...

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

उदासी...


हर दिन उगता है
उदासियों के साथ
और फिर
उसी उदासी में
खो जाती है दोपहर
गहरी उदासियों का
बोझल सफ़र
जारी रहता है
देर शाम तक
और फिर
रात भी
इन्हीं उदासियों में
डूब जाती है...
न जाने क्यों
कई दिन से
मन बहुत उदास है
काश ! तुम पास होते...
-फ़िरदौस ख़ान

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

प्यार...


फ़िरदौस ख़ान
(शादी के पहले दिन शौहर-बीवी की गुफ़्तगू)
लड़का (अपनी पत्नी से) : तुम सबसे ज़्यादा किससे प्यार करती हो ?
लड़की : अपनी मम्मा से
लड़का : मेरा मतलब है कि किस मर्द से तुम सबसे ज़्यादा प्यार करती हो ?
लड़की : ओह ! तो यह बात है. मैं सबसे ज़्यादा अपने पापा से प्यार करती हूं.
लड़का : उसके बाद?
लड़की : अपने भाइयों से.
लड़का (ग़ुस्से में ) : क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती ?
लड़की : तुम्हें मैं जानती ही कितने दिनों से हूं... सिर्फ़ तीन दिन से... तुम्हारी सूरत भी निकाह के बाद ही देखी है. क्या इतने जल्दी किसी से प्यार हो जाता है? यह बात अलग है कि पहली नज़र में भी प्यार हो जाता है... लेकिन यह ज़रूरी भी नहीं है कि पहली ही नज़र में किसी से प्यार हो जाए...

तस्वीर गूगल से साभार
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

अपनी पसंद के कपड़े...


यूं तो हम टीवी सीरियल बहुत कम देखते हैं... क्योंकि इतना वक़्त ही नहीं होता... वैसे भी टीवी सीरियल भी तभी अच्छे लगते हैं, जब उन्हें लगातार देखा जाए... सास-बहू के सीरियल के बीच कुछ ऐसे सीरियल भी हैं, जो आज की युवा पीढ़ी से जुड़े हैं, जैसे ज़ी टीवी के सीरियल”सपने सुहाने लड़कपन के’ और ’क़ुबूल है’... पहले सीरियल की नायिका गुंजन कॊलेज में पढ़ती है और जींस पहनती है... हालांकि उसकी सास को उसका जींस पहनना बिल्कुल भी पसंद नहीं, लेकिन बाद में यही सास उससे कहती है- कि तुम जींस में ख़ुद को कंफ़र्टेबल फ़ील करती हो, इसलिए जींस ही पहना करो... दूसरे सीरियल की नायिका ज़ोया फ़ारूख़ी भी जींस पहनती है. कई लोगों को उसका जींस पहनना पसंद नहीं... हालांकि उसके प्रेमी और उसके प्रेमी की मां को उसके जींस पहनने से कोई ऐतराज़ नहीं है... लेकिन हर लड़की इतनी ख़ुशनसीब नहीं होती कि शादी के बाद भी अपनी पसंद के कपड़े पहन सके...

हमने भी शादी के बाद ख़ुद ही जींस पहनना छोड़ दिया था... सोचा जब अपने घर जाया करेंगे, तभी पहन लिया करेंगे... एक रोज़ हमारे शौहर ने कहा कि शाम को कहीं घूमने चलेंगे... लेकिन जब हम बाहर जाने के लिए तैयार हुए, तो उन्होंने कहा कि जींस पहन लो... हमें बहुत हैरानी हुई... हमने कहा कि आपके घरवालों ने कुछ कहा तो? कहने लगे-चादर ओढ़ लेना... और घर से कुछ दूर जाकर चादर उतार देना... उन्होंने हमारे लिए शॊपिंग भी की जींस और कुर्तों की...

समझ में नहीं आता कि जब शादी के बाद लड़कों की ज़िंदगी नहीं बदलती, तो फिर लड़कियों की ज़िंदगी क्यों इतनी बदल जाती है कि वे अपनी मर्ज़ी के कपड़े तक नहीं पहन सकतीं... 
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

हिन्दुस्तान की सांझी विरासत


फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान में आज जब मुट्ठीभर ख़ुदग़र्ज़ लोग मज़हब, जात, भाषा और प्रांत के नाम पर देश को बांटने की कोशिश कर रहे हैं, तो ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदेश बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं. उन्होंने हमेशा देश की एकता और अखंडता को क़ायम रखने पर ज़ोर दिया. बक़ौल जवाहरलाल नेहरू,हिंदुस्तानी ज़िंदगी में कितनी विविधता है और उसमें अलग-अलग कितने वर्ग, क़ौमें और पंथ हैं तथा संस्कृति विकास की कितनी अलग-अलग सीढ़ियां हैं, फिर भी समझता हूं कि उसकी आत्मा एक है. भारत में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं. उनमें एकता भी है, लेकिन अनेकता बहुत है. आप असम से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक जाइए. आप कितना अंतर पाएंगे, भाषा में, खाने-पीने में, कप़डे-लत्ते पहनने में और सब बातों में, उसी के साथ आप संस्कृति की एक पक्की एकता भी पाएंगे, जो प्राचीन समय से चली आती है. भारत की जो असली संस्कृति है, वह दिमाग़ की है या मन की है, आध्यात्मिक है. इस वक़्त देश में जो सबसे ज़रूरी बुनियादी चीज़ है और जिसे हर कोई बुनियादी मानता है, वह है भारत की एकता.

हिन्द पॉकेट बुक्स ने हाल में जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों की किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां. किताब के संपादक राजवीर सिंह दार्शनिक ने विभिन्न मुद्दों पर जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों को शामिल किया है. गंगा के बारे में जवाहर लाल नेहरू कहते हैं-गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशान रही है, सदा बदलती, सदा बहती, फिर वही गंगा की गंगा. मैंने सुबह की रौशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है. और देखा है शाम के साये में उदास, काली-सी चादर ओढ़े हुए. यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर.

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता है. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्तराष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया.8 फ़रवरी, 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर, 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ,लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू 1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने अधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. जब 15 अगस्त, 1947 को देश आज़ाद हुआ तो वह आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए. जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया. 1955 में उन्हें देश की सर्वोच्च उपाधि भारत रत्न से नवाज़ा गया. मगर देश को बहुत दिनों तक उनका साथ नहीं मिला. दिल का दौरा प़डने से 27 मई, 1964 में उनकी मौत हो गई. वह देश से बेहद प्यार करते थे. इसलिए उनकी वसीयत भी यही थी-मेरी भस्म उन खेत-खलिहानों में बिखेर दी जाए, जहां भारत के किसान अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं, ताकि भस्म भारत माता की धूल और मिट्टी में मिलकर उसमें विलीन हो जाए.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा दुनिया भर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिंदुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के  रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

वह कहते हैं-यूरोप और दूसरे देशों के लोग मानते हैं कि भारत में सैक़डों भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन उनकी यह धारणा ग़लत है. भारत की भाषाएं दो परिवारों में बांटी जा सकती हैं-पहला परिवार द्रव़िड भाषा का है, जिसमें तमिल, तेलुगू,कन्ऩड और मलयालम हैं और दूसरी भारतीय आर्य जाति की भाषा है, जो मूलरूप से संस्कृत है. हिंदी, बांग्ला, गुजराती और मराठी संस्कृत से निकली हैं. हां,बोलियां सैकड़ों हो सकती हैं. वह मानते थे कि किसी क़ौम के विकास और उसके बच्चों की शिक्षा का एकमात्र साधन उसकी अपनी भाषा ही है. भारत में आज हरेक चीज़ उलट- पुलट हो रही है और हम आपस में भी अंग्रेजी बहुत ज़्यादा प्रयोग कर रहे हैं. तुम्हें (इंदिरा प्रियदर्शिनी) अंग्रजी में लिखना मेरे लिए कितनी भद्दी बात है. फिर भी मैं ऐसा कर रहा हूं. लेकिन मुझे विश्वास है कि हम लोग जल्दी ही इस आदत से छुटकारा पा लेंगे.

वह एक ज़िंदादिल इंसान थे. उनका कहना था-हमें पूरा यक़ीन है कि सफलता हमारा इंतज़ार कर रही है और कभी न कभी हम उसे ज़रूर प्राप्त कर लेंगे. यदि पार करने के लिए ये रुकावटें न होतीं और जीतने के लिए ये लड़ाइयां न होतीं,तो जीवन नीरस और बेरंग हो जाता. जब हम ज़िंदगी में वर्तमान काल में जहां कि इतनी कशमकश है और हल करने के लिए इतने मसले हैं, एक जीती-जागती क़डी न क़ायम कर सकें, तब तक हम ज़िंदगी को ज़िंदगी नहीं कह सकते. असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस ज़िंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आने वाली ज़िंदगी में नहीं. आत्मा जैसी कोई चीज़ है भी या नहीं, मैं नहीं जानता. ज़िंदगी में चाहे जितनी बुराइयां हों, आनंद और सौंदर्य भी है और हम सदा प्रकृति की मोहिनी वनभूमि में सैर कर सकते हैं.

बहरहाल, आकर्षक कवर वाली यह किताब पाठकों ख़ासकर चाचा नेहरू के प्रशंसकों और राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को बहुत पसंद आएगी. किताब में एकाध जगह दोहराव है, जो पाठकों को कुछ अखर सकता है. फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब संग्रहणीय है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां 
संपादक : राजवीर सिंह दार्शनिक
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...


फ़िरदौस ख़ान
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
उर्दू और फ़ारसी शायरी के चमन का यह दीदावर यानी मोहम्मद अल्लामा इक़बाल 9 नवंबर, 1877 को पाकिस्तान के स्यालकोट में पैदा हुआ. उनके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे, लेकिन क़रीब तीन सौ साल पहले उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और कश्मीर से पंजाब जाकर बस गए थे. उनके पिता शे़ख नूर मुहम्मद कारोबारी थे. इक़बाल की शुरुआती तालीम मदरसे में हुई. बाद में उन्होंने मिशनरी स्कूल से प्राइमरी स्तर की शिक्षा शुरू की. लाहौर से स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया. 1905 में दर्शनशास्त्र की उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की. इसके बाद वह ईरान चले गए, जहां से लौटकर उन्होंने द डेवलपमेंट ऑफ मेटाफ़िज़िक्स इन पर्शियन नामक एक किताब भी लिखी. इसी को आधार बनाकर बाद में जर्मनी के म्युनिख विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी. इक़बाल की तालीम हासिल करने की फ़ितरत ने उन्हें चैन नहीं लेने दिया. बाद में उन्होंने वकालत की भी पढ़ाई की. वह लंदन विश्वविद्यालय में छह माह तक अरबी के शिक्षक भी रहे. 1908 में वह स्वदेश लौटे. लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में बतौर प्रोफ़ेसर उनकी नियुक्ति हो गई. इस नौकरी के साथ वह वकालत भी कर रहे थे, लेकिन कुछ वक़्त बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी, वकालत को ही अपना पेशा बना लिया.

यूं तो इक़बाल को बचपन से ही शायरी का शौक़  था और वह अपनी रचनाएं डाक के ज़रिये उर्दू के मशहूर शायर एवं उस्ताद दाग़ देहलवी को भेजा करते थे, लेकिन उनकी शायरी की विधिवत शुरुआत लाहौर आकर हुई. उस वक़्त उनकी उम्र बाईस साल थी. अपने दोस्तों के कहने पर उन्होंने वहां एक मुशायरे में अपनी ग़ज़ल पढ़ी. इस मुशायरे में मिर्ज़ा अरशद गोरगानी भी थे, जिनकी गिनती उन दिनों चोटी के शायरों में होती थी. जब इक़बाल ने ग़ज़ल का यह शेअर पढ़ा-
मोती समझ के शाने-करीमी ने चुन लिए
क़तरे जो थे मेरे अर्क़-इंफ़आल के

यह शेअर सुनकर मिर्ज़ा अरशद साहब तड़प उठे. उन्होंने इक़बाल की प्रशंसा करते हुए कहा, मियां साहबज़ादे! सुब्हान अल्लाह, इस उम्र में यह शेअर!

उसी उम्र में मिर्ज़ा दाग़ ने भी इक़बाल की रचनाएं यह कहकर वापस करनी शुरू कर दीं कि उनकी रचनाएं संशोधन की मोहताज नहीं हैं. उस वक़्त की मशहूर उर्दू पत्रिका म़खज़न के संपादक शे़ख अब्दुल क़ादिर अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम के जलसों में इक़बाल को नज़्में पढ़ते देख चुके थे और वह इक़बाल से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने इक़बाल की नज़्में मख़ज़न में प्रकाशित करनी शुरू कर दीं. मख़ज़न के अप्रैल 1901 के अंक में प्रकाशित उनकी पहली नज़्म हिमालय ने उनकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंचा दी. शेख़ अब्दुल क़ादिर इक़बाल के बारे में कहते थे, अगर मैं तनासख़ (आवागमन) का क़ायल होता तो ज़रूर कहता कि ग़ालिब को उर्दू और फ़ारसी से जो इश्क़ था, उसने उनकी रूह को अदम (परलोक) में जाकर भी चैन नहीं लेने दिया और मजबूर किया कि वह फिर किसी इंसानी जिस्म में पहुंच कर शायरी के चमन की सिंचाई करें और उन्होंने पंजाब के एक गोशे में जिसे स्यालकोट कहते हैं, दोबारा जन्म लिया और मोहम्मद इक़बाल नाम पाया.

उन्होंने उर्दू की बजाय फ़ारसी में ज़्यादा लिखा. फ़ारसी की वजह से उनका कलाम न सिर्फ़ हिंदुस्तान, बल्कि ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिस्र तक पहुंचा. 1915 में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह असरारे-ख़ुदी के अंग्रेज़ी अनुवाद ने उन्हें अमेरिका और यूरोप में भी विख्यात कर दिया. ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें सर की उपाधि से भी नवाज़ा था. रवींद्र नाथ टैगोर के बाद इक़बाल ही वह दूसरे व्यक्ति थे, जिन्हें यह उपाधि मिली.

उन्होंने अपनी क़ौम को बुलंदी का सबक़ दिया और हर उस बात का विरोध किया, जो बुलंदी की राह में रुकावट बने. वह क़िस्मत के आगे हार नहीं मानते और हालात का म़ुकाबला करने का संदेश देते हैं-
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है

उनकी शायरी इस बात की गवाह है कि वह ताउम्र अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे. उनके गीत पर सारा देश झूम उठता है और मन में देशभक्ति की भावना हिलोरें लेने लगती हैं-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा

उन्होंने प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को भी अपनी नज़्मों में जगह दी. पहाड़ों, झरनों, नदियों, लहलहाते हुए फूलों की डालियों और ज़िंदगी के हर उस रंग को उन्होंने अपने कलाम में शामिल किया, जो इंसानी ज़िंदगी को मुतासिर करता है. उनकी नज़्म आज भी स्कूलों में बच्चे गाते हैं-
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए

वह साहित्य में प्रयोगवाद के विरोधी थे. विचारों के बिना सुंदर शब्दों का कोई महत्व नहीं है. उन्होंने अपनी भाषा शैली की बजाय अपने विचारों को बेहद पुख्ता तरीक़े से पेश किया. बानगी देखिए-
अज़ान अज़ल से तेरे इश्क़ का तराना बनी
नमाज़ उसके नज़ारे का इक बहाना बनी
अदा-ए-दीदे-सरापा नयाज़ है तेरी
किसी को देखते रहना नमाज़ है

उनके कलाम में दर्शन-चिंतन मिलता है. उन पर इस्लाम का गहरा प्रभाव रहा. उन्होंने अतीत के महिमा गान के ज़रिये मुसलमानों को जागरूकता का संदेश दिया-
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरूद क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़ में
तू बचा-बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में
न कहीं जहां में अमां मिली, जो अमां मिली तो कहां मिली
मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब को तेरे उफ़्वे-ए-बंदा-नवाज़ में
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियां न वो हुस्न में रहीं शोख़ियां
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में
मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में…

उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में सांस्कृतिक एकता की भावना झलकती है-
सच कह दूं ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम क़दों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आके आख़िर मैंने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्मां से इसका कलश मिला दें
हर सुबह मिलके गाएं मंतर वो मीठे-मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ति प्रीत में है… 

वे दूसरे मज़हबों का भी सम्मान करते थे. वह कहते हैं-
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक- सरिश्त
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे-हिंद 
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तान को नाज़

अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिंद

उनके कई काव्य संग्रह हैं, जिनमें फारसी का 1917 में प्रकाशित रुमुज़े-बे़खुदी, 1923 में पयामे-मशरिक़, 1927 में ज़बूरे-अज़म, 1932 में जावेदनामा, 1936 में पास चेह बायद कर्द ए अक़वामे-शर्क़ 1938 में अरमुग़ाने-हिजाज़, 1924 में उर्दू काव्य संग्रह बांगे-दरा, 1935 में बाले-जिब्राइल और 1936 में ज़र्बे-कलीम शामिल हैं. इक़बाल मर्दे-मोमिन खुदा के मुक़ाबले में अपनी श्रेष्ठता जताने में भी गुरेज़ नहीं करते. उनकी फ़ारसी की नज़्म ख़ुदा और इंसान को ही लीजिए-
ख़ुदा इंसान से-
मैंने मिट्टी और पानी से एक संसार बनाया
तूने मिस्र, तुर्की, ईरान और तातार बना लिए
मैंने धरती की छाती से लोहा पैदा किया
तूने उससे तीर, ख़ंजर, तलवारें और नेज़े ढाल लिए
तूने हरी शा़खाएं काट डालीं और फैलते हुए पेड़ तोड़ गिराए
गाते हुए पक्षियों के लिए तूने पिंजरे बना डाले

इंसान ख़ुदा से-
तूने ऐ मेरे मालिक! रात बनाई, मैंने दीए जलाए
तूने मिट्टी पैदा की, उससे प्याले बनाए
तूने धरती को वन, पर्वत और मरुस्थल प्रदान किए
मैंने उनमें रंगीन फूल खिलाए, हंसती हुई वाटिकाएं सजाईं
मैं विष से तिरयाक़ बनाता हूं और पत्थर से आईनाश
ऐ मालिक! सच-सच बता, तू बड़ा है या मैं?

21 अप्रैल, 1938 को यह महान शायर हमारे बीच से चला गया. उनकी मौत के बाद दिल्ली की जौहर पत्रिका के इक़बाल विशेषांक में महात्मा गांधी का एक पत्र छपा था, जिसमें उन्होंने लिखा था, डॉ. इक़बाल मरहूम के बारे में क्या लिखूं, लेकिन मैं इतना तो कह सकता हूं कि जब उनकी मशहूर नज़्म हिंदोस्तां हमारा पढ़ी तो मेरा दिल भर आया और मैंने बड़ौदा जेल में तो सैकड़ों बार इस नज़्म को गाया होगा. बेशक, इक़बाल का कलाम शायरों और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करता रहेगा.
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

नाम...



बहुत से परिवारों में शादी के बाद लड़की का नाम बदलने का रिवाज है... शुक्र है कि हमारे ननिहाल और ददिहाल में यह रिवाज नहीं है... जब हमारी शादी हुई, तो ससुरालवालों ने हमारा नाम बदल दिया... उनके लिए हम फ़िरदौस ख़ान नहीं, शहाना थे... शहाना नाम बुरा तो नहीं है... लेकिन हमें यह मंज़ूर नहीं था... क्योंकि जिस नाम के साथ हम बड़े हुए हैं... जो हमारी पहचान बन चुका है... उससे नाता कैसे तोड़ लें... यह नाम हमारी मम्मा ने रखा था... हमारी मम्मा का तोहफ़ा, जो हमारे वजूद का हिस्सा है... शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है, लेकिन नाम में बहुत कुछ रखा भी है... ख़ासकर उस वक़्त, जब वह आपके वजूद का हिस्सा बन जाए... अगर शेक्सपियर को रॊबर्ट कहा जाए, तो कौन पहचान पाएगा कि किसके बारे में बात हो रही है... ख़ैर, पसंद अपनी-अपनी... फ़िल्मी हस्तियां अपना नाम बदलती हैं... लेकिन जब उस नाम के साथ उनकी पहचान बन जाती है, तो फिर उम्रभर वे उसी नाम के साथ रहती हैं...

मगर कई बार नाम बदलना मजबूरी भी बन जाता है... हमारे एक परिचित हैं... उनकी मां का नाम शकीला है... जिस लड़की से उनकी शादी हुई, इत्तेफ़ाक़ से उसका नाम भी शकीला है... इसलिए वह अपनी बीवी को शबनम कहकर बुलाते हैं, लेकिन काग़ज़ात में उनकी बीवी का नाम शकीला ही है...

हम मानते हैं कि अगर कोई नाम बदलना न चाहे, तो उस पर दबाव भी नहीं डालना चाहिए...

बहरहाल, हमने अपने शौहर से कहा कि आपके घर और ख़ानदान वाले भले ही हमें शहाना कहें, लेकिन दस्तावेज़ों में हमारा नाम फ़िरदौस ख़ान ही रहेगा... एक बात और अगर आपने हमें शहाना नाम से बुलाया, तो हम भी आपको किसी और नाम से बुलाएंगे... फिर शिकायत मत करना...

नतीजतन, हम फ़िरदौस ख़ान ही हैं... 
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

आग का दरिया...

तुम कहते हो-
तुम्हारी हर इक  तहरीर
आग का दरिया लगती है
जिसके हरेक लफ़्ज़ में
न जाने कौन-सी
आग समाई है...
जिसे पढ़ते-पढ़ते
मैं
उसी आग के दरिया में
डूबता चला जाता हूं...

ये कौन-सी आग है
जो मेरी रूह तक को
खु़द में
समेट लेना चाहती है
और
मैं भी ताउम्र
इस आग में
डूबे रहना चाहता हूं...

लेकिन
तुम ये नहीं जानते
मैं लफ़्ज़ लिखती ही नहीं
इन्हें जीती भी हूं...
मेरी ज़िंदगी खु़द
आग का दरिया
बनकर रह गई है...
जिसकी वजह
तुम ही तो हो...
-फ़िरदौस ख़ान

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

प्रबंधन पर आधारित काव्य संग्रह


फ़िरदौस ख़ान
पाखी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित चंद्रसैन प्रबल की पुस्तक प्रबंध चेतना अपने आप में अनूठी है, क्योंकि रचनाकार ने एक प्रबंधक के नज़रिए से कविताएं रची हैं. किताब की शुरुआत मंत्रों से की गई है. इसके बाद गणेश और विद्या की देवी सरस्वती की आरती है. फिर कवि ने कविता के माध्यम से अपना परिचय दिया है. अब बारी आती है कविताओं की. कवि ने युवा निर्माण, परिवर्तन, व्यक्तित्व निर्माण, मानवीय प्रवृत्ति, व्यापार, लूटपाट, संघर्ष, देश, बिजनेस प्लानिंग, चिंता और ज़िम्मेदारी, वर्तमान परिस्थितियों, भ्रष्टाचार, प्रबंधन, टाइम मैनेजमेंट, प्रोडक्ट्‌स के स्टैंडर्ड, प्रबंधन नीति, रिश्तों, मनोबल, शेयर बाज़ार, स्कीमों की ज़रूरत, ग्राहक का तुष्टिकरण, प्रबंधन के फैक्टर्स, वाइटल फैक्टर, प्रबंधन स्ट्रैटेजी, करियर, लक्ष्य, नौकरशाहों की कारगुज़ारी आदि विषयों पर कविताएं लिखी हैं. जीवन में कामयाबी के लिए अनुशासन बहुत ज़रूरी है और बच्चों को यह गुण अपनी मां से मिलता है. वे लिखते हैं-
मां द्वारा सख़्ती करने से बच्चे अनुशासित बनते हैं
अनुशासित बच्चे जीवन में, बहुत तरक़्क़ी करते हैं
मां ममता की मूरत होती है, जो लाड़ बहुत दिखलाती है
पिता के सख़्ती करने पर, वो बच्चों को समझाती है

महिला आज जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. लिखते हैं-
जिनको पर्दे में रखते थे, आज बराबर चलती हैं
जिनको न कभी तरजीह मिली, वो आज चमत्कार करती हैं

आज जब देश में हर तरफ़ भ्रष्टाचार का बोलबाला है, ऐसे में देशप्रेम की भावना ही देश को बचा सकती है. तभी तो कवि ने कहा है-
दुष्ट लोग कितने की बढ़ जाएं, अपने प्यारे देश में
देशभक्त भी सदा रहेंगे, बलिदानी के वेश में
भारत मां की जय बोलो, भारत मां की जय
भारत मां की जय बोलो, भारत मां की जय

कवि का कहना है कि प्रबंधन की भाषा में विचारों को मन में रोकना, उचित माध्यम इस्तेमाल न कर पाना, सही लोगों या प्लेटफॉर्म तक पहुंचाने में असमर्थ होना, अथवा उनको आगे और बेहतर बनाने की कोशिश ही न करना भी हमारे प्यारे देश, संस्थान व युवाओं के विकास में न केवल रुकावट है, बल्कि प्रेरणादायी स्रोतों की कमी बनाए रखकर भारी भूल का परिचय देना है. इस पुस्तक को काव्य शास्त्र की दृष्टि से न देखकर, रचनाकार के विचारों को सराहा जा सकता है. कवि ने स्वयं स्वीकार किया है कि विज्ञान का छात्र एवं डेरी टेक्नोक्रेट होने के कारण भाषा शैली और छंद शास्त्र में उनकी पकड़ कम है, लेकिन उन्होंने मां सरस्वती की कृपा से इन रचनाओं का सृजन अंतत: भलीभांति संपन्न कर ही लिया है. बहरहाल, 128 पृष्ठ वाली इस पेपरबैक्स पुस्तक की क़ीमत298 रुपये है, जो कि लगता है कि पाठकों के लिए कुछ ज़्यादा है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS