परछाइयां...


ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है...हालांकि...आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है...मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समन्दर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है... इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है...बहुत अकेला...क्योंकि भौतिकतावाद ने 'अपनापन' जैसे जज़्बे को कहीं पीछे छोड़ दिया है... शायद, इसीलिए, लोग अब परछाइयों (वर्चुअल दुनिया) में रिश्ते तलाशने लगे हैं...

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई, तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...
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विज्ञापन डराते हैं


टीवी पर दिनभर में जितने भी विज्ञापन आते हैं, उनमें ऐसे विज्ञापनों की भरमार रहती है, जिनमें लोगों को इतनी बुरी तरह डराया जाता है कि वे विज्ञापन ख़त्म होते ही उनके उत्पाद ख़रीदने के लिए दौड़ पड़ें... हाथ धोने से लेकर नहाने तक और बर्तन धोने से लेकर फ़र्श साफ़ करने तक के उत्पादों के विज्ञापनों में कीटाणुओं का डर दिखाया जाता है कि अगर फ़लां उत्पाद इस्तेमाल न किया, तो उनका बच्चा बीमार हो जाएगा...
शुक्र है कि ये विज्ञापन कीटाणुओं के संपूर्ण नाश के लिए कोई कीटनाशक पीने की सलाह नहीं देते...
यह हिंदुस्तान है, जहां धरती को मां कहकर पुकारा जाता है... गांव-देहात में आज भी चोट लगने पर बच्चे और बड़े अपने ज़ख़्म पर मिट्टी डाल लेते हैं...

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भ्रष्टाचार कहां नहीं है...

एक वाक़िया पेश है... कई साल पहले की बात है... एक राष्ट्रीय दैनिक अख़बार ने अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए इनामी योजना शुरू की... बड़े इनामों में एक कार, स्कॊलर्शिप (लाखों में), मोटरसाइकिलें और छोटे इनामों में कांच के चार गिलास शामिल थे... इस इनामी योजना की वजह से अख़बार की प्रसार संख्या काफ़ी बढ़ गई... ये इनाम जिन्हें मिलने थे, उन्हें ही मिले... यानी कार मिली अख़बार के मालिक के दामाद को... स्कॊलर्शिप मिली अख़बार के मालिक के चहेते संपादक के भतीजे को (क्योंकि तब संपादक की इकलौती संतान गोद में थी), मोटरसाइकिलें मिलीं अख़बारों के उन एजेंटों को, जो मोटी रक़म के विज्ञापन लाते थे...
अब बचे गिलास, तो कुछ गिलास अख़बार में काम करने वालों ने अपने परिचितों को दिलवा दिए... और बचे-खुचे गिलास पाठकों को इनाम के तौर पर दे दिए गए...
हर जगह यही हाल है...

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ईमानदार नेता...


कई साल पहले की बात है... हमारे मामा जान एक क़िस्सा सुना रहे थे... उनके किसी दोस्त ने उनसे कहा कि उन्हें एक सरकारी काम है और दूसरे शहर फ़लां नेता के पास जाना है... अगले रोज़ मामा जान अपने दोस्त के साथ उस नेता के घर पहुंच गए... उस नेता का घर बहुत मामूली था... घर देखकर उनके दोस्त ने मामा जान से कहा कि चलो वापस चलते हैं... मामा जान ने वजह पूछी, तो उनके दोस्त ने कहा कि यह नेता हमारा काम क्या ख़ाक कराएगा, जो अपने लिए कुछ नहीं कर पाया...
यानी नेता का घर आलीशान होना चाहिए... घर के बाहर दो-तीन शानदार गाड़ियां खड़ी होनी चाहिए...
ईमानदार नेताओं के बारे में यह है एक आम आदमी की सोच...

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मज़हब

कई साल पहले की बात है... हमारे दफ़्तर में एक लड़की आई... बहुत परेशान थी... उसकी मां सौतेली थी... उसके पास कोई काम नहीं था... हमसे उसकी जो मदद हुई, कर दी... उसे नौकरी मिल गई... उसे कभी कोई परेशानी होती, तो हमें बताती... उसके प्रेमी ने उसे धोखा दे दिया था... वह बहुत बुरी तरह टूट चुकी थी... अब वह शादी करके बस चाहती थी, ताकि अपने प्रेमी को भूल सके... अख़बारों में शादी के इश्तिहार देखा करती थी... फिर हमें बताती भी थी...
एक दिन वह हमारे पास आई और कहने लगी- डियर तुमने सॊरी कहना है...
हमने पूछा क्यों...?
कहने लगी कि मेरी दादी हमेशा कहा करती थीं कि मुसलमान बहुत ख़राब होते हैं... और मैं भी बचपन से मुसलमानों से नफ़रत करती थी... लेकिन तुमसे मिलकर मुसलमानों के प्रति मेरा नज़रिया बदल गया... तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो...
कितनी सच्चाई से उसने अपनी बात कही... हम उसकी इस बात को कभी भुला नहीं पाए...

दरअसल, कुछ लोग अपने मज़हब के नाम पर इतना ज़हर उगलते हैं कि उनके उस मज़हब से ही नफ़रत होने लगती है... शायद उसकी दादी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ हो...?

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ग़ालिब का है अंदाज़-ए बयां और


फ़िरदौस ख़ान
ग़ालिब एक ऐसे शायर हुए हैं, जो अपनी बेहतरीन शायरी के लिए सदियों तक याद किए जाते रहेंगे. उनकी शायरी में ज़िंदगी के ख़ूबसूरत रंग हैं. ग़ालिब के बिना उर्दू शायरी अधूरी है. हिन्द पॉकेट बुक्स ने एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है ग़ालिब. इस किताब में उर्दू और फ़ारसी के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के संक्षिप्त जीवन परिचय के साथ उनका चुनिंदा कलाम दिया गया है. किताब के संपादक प्रकाश पंडित ने इस किताब में फ़ारसी के शब्दों का हिंदी अनुवाद भी दिया है, जिससे पाठकों को शायरी को समझने में आसानी रहेगी. मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असद उल्लाह बेग ख़ां है. उनका जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा में मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग के घर हुआ. उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग ख़ान मध्य एशिया के समरक़ंद से अहमद शाह के शासनकाल में हिंदुस्तान आए थे. कुछ अरसे तक वह दिल्ली, लाहौर और जयपुर में रहे. लेकिन बाद में उन्होंने आगरा में बसने का फ़ैसला किया और फिर यहीं के होकर रह गए. उनके दो बेटे और तीन बेटियां थीं. उनके बेटों के नाम मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ख़ान और मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ख़ान थे. मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ने इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपनी ससुराल में रहने लगे. उन्होंने लखनऊ के नवाब और हैदराबाद के निज़ाम के पास काम किया. 1803 में अलवर में जंग के दौरान उनकी मौत हो गई. उस व़क्त ग़ालिब महज़ पांच साल के थे. उनकी परवरिश उनकी ननिहाल में हुई. उनकी तालीम उर्दू और फ़ारसी में हुई. ईरान के मशहूर विद्वान अब्दुल समद ने उन्हें फ़ारसी और अदब की तालीम दी. अब्दुल समद दो साल के लिए आगरा आए थे और वह ग़ालिब से बहुत प्रभावित थे. महज़ 13 साल की उम्र में नवाब इलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से उनका निकाह हो गया. शादी के कुछ वक़्त बाद वह दिल्ली आ गए और तमाम उम्र यहीं रहे. वह गली क़ासिमजान में रहते थे. दिल्ली में शायराना माहौल था. आए दिन शेअरों-शायरी की महफ़िलें जमा करती थीं. वह भी मुशायरों में शिरकत करते और अपने उम्दा कलाम की बदौलत मुशायरें लूटा करते. पहले वह असल उपनाम से लिखते थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपना उपनाम ग़ालिब रख लिया. उर्दू शायरी में उस्ताद-शार्गिद की परंपरा है, लेकिन वह किसी के शागिर्द नहीं थे. वह अपने आलोचक ख़ुद ही थे. ग़ालिब मशहूर शायर बेदिल से बहुत मुतासिर थे और उन्हीं से प्रभावित होकर उन्होंने तक़रीबन दो हज़ार शेअर लिख दिए.
अपनी शायरी के ख़ूबसूरत अंदाज़ की वजह से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान क़ायम की. वह ख़ुद कहते हैं-
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए बयां और

ग़ालिब के ज़माने में उर्दू शायरी इश्क़, मुहब्बत, विसाल, हिज्र और हुस्न की तारीफ़ों तक सिमटी हुई थी. उन्होंने यह सब पसंद नहीं था. इस बारे में वह कहते हैं-
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयां के लिए

उन्होंने अपनी शायरी में ज़िंदगी के दूसरे रंगों को भी शामिल किया. उनकी शायरी में फ़लस़फा है. हालांकि उस वक़्त कुछ लोगों ने उनका मज़ाक़ भी उड़ाया, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की. वह कहते हैं-
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में माने, न सही

मिर्ज़ा ग़ालिब मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी शायर भी रहे. शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद्दौला के ख़िताब से नवाज़ा. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा के ख़िताब से भी सम्मानित किया गया. वह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में महत्वपूर्ण दरबारी थे. उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के ब़डे बेटे फ़क़रुद्दीन मिर्ज़ा का शिक्षक तैनात किया गया. इसके अलावा वह म़ुगल दरबार के शाही इतिहासकार भी रहे.

उनकी ज़्यादातर ज़िंदगी मुफ़लिसी में गुज़री. वह बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे. उन्होंने अपने स्वाभिमान के आगे कभी समझौता नहीं किया. एक मिसाल पेश है. 1852 में उन्हें नौकरी का बुलावा आया. दिल्ली कॉलेज में उन्हें फ़ारसी का प्रमुख शिक्षक बनाया गया था. अपनी तंगहाली को देखते हुए उन्होंने यह प्रस्ताव मंज़ूर कर लिया. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के सचिव टॉमसन ने बुलावा भेजा था. मिर्ज़ा ग़ालिब पालकी में बैठकर उनके बंगले पर पहुंच गए. अंदर कहलवा भेजा और इंतज़ार करने लगे, लेकिन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए. इससे ग़ालिब के आत्मसम्मान को ठेंस पहुंची और उन्होंने उसी वक़्त कहारों को आदेश दिया कि पालकी वापस अपने घर लौटा ले चलो. जब टॉमसन को उनकी नाराज़गी के बारे में पता चला तो उन्होंने ग़ालिब को समझाना चाहा कि वह ख़ास मुलाक़ाती तो हैं नहीं, ताकि बाहर आकर उनका स्वागत किया जाता, वह तो नौकरी के लिए आए हैं. इस पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा कि जनाबे आली, अगर नौकरी का मतलब यह है कि इससे इज्ज़त में कमी आ जाएगी, तो ऐसी नौकरी मुझे मंज़ूर नहीं. उन्होंने आदाब बजाया और पालकी में सवार होकर लौट गए. ऐसे से मिर्ज़ा ग़ालिब. उन्होंने कई मुसीबतों का सामना किया, लेकिन कभी किसी से मदद नहीं मांगी. उन पर क़र्ज़ इतना था कि उनका घर से बाहर निकलना दुश्वार हो गया. अपनी ख़स्ता हालत में भी वह ज़िंदादिल रहे. वह कहते हैं-
क़र्ज़ की पीते थे लेकिन समझते थे कि
हां रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती इक दिन

ग़ालिब की शायरी में ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त भी है और रूहानी का जज़्बा भी. बानगी देखिए-
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाले-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान झूठ जाना
कि खु़शी से मर न जाते अगर एतबार होता

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूं सवाबे-ताअतो-ज़हद
पर तबीअत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात, जो चुप हूं
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न ची़खूं कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारागर, नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है, पर नहीं आती
काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती

मैं उन्हें छे़डू, और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते
क़हर हो या बला हो जो कुछ हो
काश कि तुम मेरे लिए होते
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब
कोई दिन और भी जिए होते

दिले नादां, तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही, ये माजरा क्या है
मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं
काश, पूछो कि मुद्दा क्या है

ग़ालिब की ज़िंदगी परेशानियों में बीती. उनके सात बच्चे हुए, लेकिन कोई भी ज़िंदा नहीं रह पाया. उनकी ज़िंदगी का आख़िरी हिस्सा भी बीमारी में गुज़रा. उन्होंने लिखा-मेरे मुहिब, मेरे महबूब तुमको मेरी ख़बर भी है? पहले नाजवां था, अब नीम जान हूं. आगे बहरा था, अब अंधा हुआ जाता हूं. जहां चार सतरें लिखीं, उंगलियां टेढ़ी हो गईं. हरूफ़ सजने से रह गए. इकहत्तर बरस जीया, बहुत जीया, अब ज़िंदगी बरसों ही नहीं, महीनों और दिनों की है. उनका लिखा सच हो गया और इस तहरीर से कुछ दिन बाद यानी 15 फ़रवरी, 1869 को वह इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख्सत हो गए.
पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाए कि हम बतलाएं क्या...

समीक्ष्य कृति : ग़ालिब
संपादक : प्रकाश पंडित 
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये

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नज़रिया...


अकसर छोटी-छोटी चीज़ें ज़िंदगी का नज़रिया बदल देती हैं... हमारी मम्मा सब्ज़ी, फलों के छिलके और सूखी रोटी कभी कूड़ेदान में नहीं डालतीं... इन्हें वह दरवाज़े के बाहर सड़क पर एक तरफ़ रखवा देती हैं... जिसे गायें खा लेती हैं... हमारे इलाक़े में बहुत-से आवारा पशु हैं, जो भूख लगने पर अकसर कूड़ा-कर्कट खाते देखे जाते हैं... सब्ज़ियों, फलों के छिलकों और सूखी रोटी को देखते ही ये खाने के लिए आ जाते हैं...
मम्मा की देखा-देखी अब गली की और महिलाएं भी ऐसा करने लगी हैं... हमारे यहां कचरा उठाने वाला हर रोज़ नहीं आता... ऐसे में सब्ज़ियों और फलों के छिलके बाहर डालने से जहां आवारा पशुओं का कुछ भला हो जाता है, वहीं छिलकों से कूड़ेदान का कूड़ा भी सड़ता नहीं है...
अब तो गली के कोने पर बिजली के खंबे के पास एक जगह बन गई है, जहां कुछ लोग हरा चारा भी लाकर डाल देते हैं...
जो चीज़ें हमारे काम की नहीं होतीं, उन्हें कूड़ेदान में फेंकने की बजाय उनका किसी ऐसी जगह इस्तेमाल किया जा सकता है, जहां उनकी ज़रूरत हो...
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ज़िंदगी और मुहब्बत...



  • ज़िंदगी का मौसम भी कभी एक जैसा नहीं रहता... बहार के बाद ख़िज़ा और... ख़िज़ा के बाद बहार आती ही है... कई बार ख़िज़ा ज़िंदगी के आंगन में अरसे तक ठहर जाया करती है... लेकिन बहार का इंतज़ार क़ायम रहता है... 
  • हर रोज़ की तरह आज फिर ज़िंदगी का एक और दिन ख़त्म हो गया... या यूं कहें कि उम्र की किताब का एक और कोरा वर्क़ ज़िन्दगी के अच्छे-बुरे वाक़ियात से भर गया... 
  • एक सुनहरे दिन के बाद स्याह रात आती है... चांदनी रातों के बाद अमावस की अंधेरी रातें आती है... यही क़ुदरत है... इसलिए उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए... 
  • तालीम उन लोगों की ज़िंदगी बदलती है, जो खुले ज़ेहन और रौशन दिमाग़ के होते हैं... वरना ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें देखकर लगता है कि उनकी पढ़ाई पर उनके वालदेन ने पैसा बस बर्बाद ही किया है... ऐसी तालीम का क्या फ़ायदा, जो इंसान को इंसानियत का सबक़ भी न पढ़ा पाए... 
  • इंसान को मालूम ही नहीं होता कि वह चाहता क्या है...? अपनी कुछ ख़्वाहिशों को पूरा करने की जद्दोजहद में वह उम्र गुज़ार देता है... फिर उसे अहसास होता है कि असल में उसे तो यह सब चाहिए ही नहीं था...
  • कई मर्तबा कितना भला लगता है किसी अनजान रास्ते पर चलते जाना, बिना यह परवाह किए कि वह कहां जा रहा है, और कहां नहीं... बस उस अनजानी राह पर चलते जाना है... 
  • जिससे मन जुड़ता है... उससे क़िस्मत क्यों नहीं जुड़ती...? 
  • हर रोज़ की तरह आज फिर ज़िंदगी का एक और दिन ख़त्म हो गया... या यूं कहें कि उम्र की किताब का एक और कोरा वर्क़ ज़िन्दगी के अच्छे-बुरे वाक़ियात से भर गया... 
  • वो सुबह कभी तो आएगी... अकसर इस इंतज़ार में ही उम्र की शाम हो जाती है... 
  • वक़्त के साथ ज़रूरतें... और ज़रूरतों के हिसाब से इंसान की पसंद-नापसंद भी बदलती रहती है... बदलाव तो क़ुदरत का दस्तूर है... 
  • हमेशा से तीन तबक़े रहे हैं... एक सही के साथ होता है... दूसरा ग़लत के साथ... और तीसरे को या तो सही-ग़लत के बारे में कुछ पता नहीं होता... या फिर उसमें इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह किसी एक तबक़े के साथ खड़ा हो सके... हमेशा से ऐसा होता रहा है... और आगे भी होता रहेगा...
  • कोई बड़े बंगले में रहता है, कोई छोटे से मकान में... कोई मिट्टी के कच्चे घर में, कोई छप्पर तले, कोई झुग्गी-झोपड़ी में, किसी को अपनी एक अदद छत तक नसीब नहीं है... तो क्या बड़े बंगले में रहने वाले को ख़ुद पर ग़ुरूर होना चाहिए... ? क्या उसे नाज़ करने का कोई हक़ नहीं, जिसके पास रहने के लिए बड़ा बंगला नहीं है... आख़िर में सभी को ख़ाक में ही मिल जाना है... फिर ग़ुरूर किस बात का... और क्यों...? 
  • ज़िंदगी तो फ़ानी है... एक दिन फ़ना हो जाएगी... हम अपनी ज़िंदगी में सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि कभी हमारे दम से किसी का अहित न हो... और जब मौत आए, तो दिल पर ये बोझ न हो कि हमने किसी का अहित किया है... बस इतना ही...जो बहुत है एक उम्र के लिए... 
  • ज़िंदगी में कोई मंज़िल हो, तो उम्र का सफ़र कट ही जाया करता है... मंज़िल मिले न मिले...
  • माज़ी अच्छा हो या बुरा... अकसर आंखें नम कर देता है...
  • बचपन से अब तक हमारी एक कैफ़ियत कभी नहीं बदली... हालांकि उम्र के साथ इंसान की बहुत-सी आदतें और पसंद-नापसंद बदलती रहती हैं...बचपन से ही जब भी हम किसी की मौत की ख़बर सुनते हैं, तो उस मरने वाले से जलन महसूस होती है... सोचते हैं कि काश ! उसकी जगह हम होते... ऐसा क्यों है, नहीं जानते... 
  • अपनी ज़िंदगी ख़ुदा को समर्पित कर दो, तो सब मुश्किलें आसान हो जाती हैं... ऐसा लगता है... जैसे बचपन लौट आया हो... क्योंकि बचपन में मांगने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती... हमारे बड़ों को पता होता है कि हमें क्या चाहिए... और किसमें हमारी भलाई है... वो हमारी ज़रूरतें पूरी करते ही हैं...
  • नेकी कर, दरिया में डाल... इंसान को हमेशा नेकी करते रहना चाहिए... यानी जब भी किसी मुफ़लिस या मज़लूम की मदद का मौक़ा मिले, उसके काम आ जाना चाहिए... ना जाने ज़िंदगी की किस मुश्किल घड़ी में उसकी दुआएं काम आ जाएं...
  • कुछ सवाल न कभी पूछे जाते हैं... और न ही कभी उनके जवाब दिए जाते हैं... फिर भी बात मुकम्मल हो जाया करती है...
  • काश ! ज़िन्दगी की राह में भी ’यू टर्न’ हुआ करते...
  • एक रोज़ ज़िन्दगी मौत की आग़ोश में सो जाएगी...
  • कांटे... कांटे ही हुआ करते हैं... वो फूलों की जगह कभी नहीं ले सकते... वो न किसी सेहरे के फूल बनते हैं...और न ही उनसे कोई सेज सजाता है...
  • इंसान जब बहुत कुछ कहना चाहता, अकसर तभी ज़ुबान ख़ामोश हुआ करती है... 
  • काश ! उसने हमें पहले ढूंढ लिया होता...
  • ज़िन्दगी के सफ़र में कोई किसी का साथ नहीं निभाता... सबको अपने-अपने हिस्से का सफ़र अकेले ही तय करना होता है...
  • रूह जाविदां है, दाइमी है... फिर भी लोग चेहरों में उलझ जाया करते हैं... जिस्मानी ख़ूबसूरती तो कुछ वक़्त के लिए ही होती है, असल ख़ूबसूरती तो दिल की हुआ करती है, रूह की हुआ करती है...
  • हर ख़्वाब की ताबीर नहीं होती, लेकिन वो आंखों में बसते तो हैं... तुम भी तो एक ख़्वाब ही हो...
  • आज कुछ टूट कर बिखर गया... टूटना बुरा होता है और बिखरना उससे भी ज़्यादा बुरा...
  • इंसान कहीं भी जाए, वापस अपने घर ही आता है... फ़िक्र तो उसकी हुआ करती है, जिसका घर नहीं होता... 
  • शायद, कुछ लोग अज़ाब झेलने के लिए ही इस दुनिया में आते हैं...
  • ज़िन्दगी में अगर मुहब्बत शामिल हो, तो इंसान को सलीब पर टंगी ज़िन्दगी भी उतनी बुरी नहीं लगती...
  • काश ! हम अपनों की सारी तकलीफ़ अपनी ऊपर ले लिया करते, तो कितना अच्छा होता...
  • कुछ लोग ऐसे हुआ करते हैं, जिनसे मिलकर ज़िंदगी ख़ुशनुमा हो जाती है...
  • इंसान मिटने के बाद ही संवरता है, जैसे जिस्मानी मौत के बाद रूहानी ज़िन्दगी मिलती है...
  • दुनिया की नज़र में इंसान सिर्फ़ एक बार मरता है, जबकि हक़ीक़त में वो कई मर्तबा मरता है...
  • ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा तकलीफ़ भी वही देता है, जिसे ये मालूम होता है कि आपकी ज़िन्दगी में उसके सिवा कुछ भी नहीं है...
  • ज़िन्दगी में मुहब्बत हो, तो ज़िन्दगी सवाब होती है... 
  • अक़ीदत और मुहब्बत के मामले में दिल की ही जीत हुआ करती है...
  • जो शख़्स ख़ुद टूटा हुआ, बिखरा हुआ है, वो किसी को क्या ख़ुशी देगा...
  • इंसान जब किसी से बहुत ज़्यादा मुहब्बत करने लगता ह, तो वो उसे खोने से डरता है... अकसर यही डर शंका की वजह बन जाया करता है...
  • लड़की डूब रही है... उसकी सांसें अब थमने लगी हैं... हर तरफ़ सिर्फ़ पानी ही पानी है... दूर-दूर तलक कहीं कोई किनारा नज़र नहीं आ रहा है... 
  • कुछ चीज़ों का वजूद शायद नामुकम्मल रहने में ही है...
  • अमूमन, हक़ीक़त में ज़िन्दगी बेरंग ही हुआ करती है... रंग-बिरंगे तो सिर्फ़ ख़्वाब ही हुआ करते हैं...
  • वो लोग ख़ूबसूरत होते हैं, जिनकी आंखों में मुहब्बत होती है, जिनकी बातों में मिठास होती हैं... और इस ख़ूबसूरती के लिए ब्यूटी पार्लर जाने की ज़रूरत नहीं...
  • कुछ लोगों को क़तरा-क़तरा भी नहीं मिलती ’ज़िन्दगी’...
  • कहते हैं- सब्र का फल मीठा होता है...लेकिन ज़्यादा सब्र करने से अकसर फल सड़ भी जाते हैं...
  • कुछ लम्हे ऐसे हुआ करते हैं, जब लगता है कि सबकुछ पा लिया... मगर अगले ही पल अहसास होता है कि कुछ मिलने से पहले ही सबकुछ खो गया...
  • जहां मुहब्बत हुआ करती है, वहां फिर किसी और चीज़ के लिए जगह ही नहीं रहती...
  • वो ख़ुदा तो नहीं, मगर उसे देखकर कलमा पढ़ने को जी चाहता है...
  • ज़िन्दगी ! तुझसे इतने बेज़ार पहले तो कभी न थे...
  • मेरी ज़िन्दगी वो गुमशुदा ख़त है, जिसका पता तुम हो...
  • ज़िन्दगी में ऐसा भी मु़क़ाम आता है, जब किसी से कोई शिकायत नहीं रहती...
  • कुछ वाक़ियात, कुछ लोग और कुछ बातें इंसान की ज़िंदगी बदल दिया करती हैं...
  • गुज़श्ता साल के साथ कई ऐसी चीज़ें घर से बाहर कर दीं, जिनसे हमेशा तकलीफ़ होती थी, चुभन होती थी... नये साल में कुछ अच्छा होगा या नहीं,  ये नहीं जानते... हां, इतना ज़रूर मालूम है कि अब पुरानी चीज़ें तकलीफ़ नहीं देंगी, चुभन नहीं देंगी...
  • कई बार मौत से मिलने को बहुत जी चाहता है... जी चाहता है कि उसकी गोद में सर रखकर सो जाएं, फिर कभी न उठने के लिए...
  • ज़िन्दगी... एक ऐसा सफ़र है, जिसकी मंज़िल ’मौत’ है...
  • कई बार मौत से मिलने को बहुत जी चाहता है... जी चाहता है कि उसकी गोद में सर रखकर सो जाएं, फिर कभी न उठने के लिए...
  • ज़िन्दगी की राह में जो लोग छूट जाते हैं, फिर वो कभी नहीं मिलते... क्योंकि ज़िन्दगी के रास्ते पर कभी यू टर्न नहीं होता...
  • सच के साथ तपते रेगिस्तान में गुज़ारे गए चंद लम्हे, झूठ के गुलिस्तां में गुज़ारी गई लम्बी उम्र से कहीं बेहतर हैं...
  • हर इंसान की अपनी अक़ीदत हुआ करती है... और हर इंसान को अपनी अक़ीदत के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने का पूरा हक़ है... हमें दूसरों की अक़ीदत की इज़्ज़त करनी चाहिए...हमने यही सीखा है... 
  • ज़िन्दगी के सफ़र में फूल और कांटे दोनों ही मिला करते हैं... फूलों को अपने दामन में समेट लेना चाहिए और कांटों को माज़ी में दफ़न कर देना चाहिए... ज़िन्दगी, मुसलसल आगे बढ़ते रहने का ही नाम है... कहीं ठहर जाने से ज़िन्दगी की रफ़्तार कम तो नहीं हो जाती... फिर क्यों ख़ुद को मज़ीद अज़ाब में झोंका जाए...
  • कुछ सफ़र ऐसे हुआ करते हैं, जिनकी कोई मंज़िल नहीं होती... इसलिए किसी भी राह पर सोच-समझकर ही क़दम बढ़ाना चाहिए... ज़िन्दगी में ऐसा भी होता है, रास्ते तो मिल जाते हैं, लेकिन मंज़िलें खो जाया करती हैं...
  • कुछ लोग भले ही जहां में रौशनी बिखेरते रहें, लेकिन उनकी अपनी ज़िन्दगी का अंधेरा कभी नहीं छंटता... 
  • उम्र की रहगुज़र में न जाने कितने बियांबान आते हैं, जिनमें अकसर ज़िन्दगियां खो जाया करती हैं... 
  • जब इंसान के नसीब में ख़ुशी न हो, तो ग़ैरों को फूल बांटने ’अपने’ भी नश्तर ही चुभोते हैं... और नेक आमाल के हामी रोज़े में भी दिल दुखाने से बाज़ नहीं आते...
  • ज़िन्दगी भी अजीब शय है... दुश्वारियां जीने नहीं देतीं और दुआएं मरने नहीं देतीं...
  • जो इंसान कमज़ोर लम्हों में किसी को अपना समझकर उसे अपनी ज़िन्दगी की महरूमियों की सच्चाइयां सौंप देता है, बाद में उसे बहुत पछताना पड़ता है...
  • कहते हैं- दुआओं से तक़दीरें बदल जाया करती हैं... काश ! हमारे लिए भी किसी ने ऐसे ही कोई दुआ की होती...
  • वो दुआएं कौन-सी हुआ करती हैं, जो आसमानों से हक़ीक़त बनकर उतर आती हैं... 
  • ज़िन्दगी में ऐसा भी मु़क़ाम आता है, जब किसी से कोई शिकायत नहीं रहती...
  • कुछ यादें जीने का सहारा हुआ करती हैं...
  • मुहब्बत न हो तो ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं... मुहब्बत क़ल्ब का सुकून है, रूह की राहत है...
  • मेरे महबूब ! तुम होते, तो ज़िन्दगी ख़ाक न होती...
  • तुम मेरी इबादतों में शामिल हो... मेरी दुआओं का मरकज़ हो...
  • ज़िन्दगी में दो तरह के लोग मिला करते हैं... पहले जो हमें ये बताते हैं कि हम उनके लिए कितने ख़ास हैं... ऐसे लोग ज़िन्दगी से मुहब्बत करना सिखाते हैं, ज़िन्दगी को भरपूर जीने का सलीक़ा बताते हैं... इनसे मिलकर ज़िन्दगी से मुहब्बत हो जाती है... दूसरी तरह के लोग हमें ये बताते हैं कि उनके पास हमसे भी ज़्यादा चाहने वाले लोग हैं... ऐसे लोग ज़िन्दगी के लिए बेरुख़ी पैदा कर देते हैं... इनसे मिलकर लगता है कि ज़िन्दगी कितनी बेमानी है...
  • कहते हैं कि ज़िन्दगी कभी किसी के लिए नहीं रुकती... लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं है, ज़ाहिरी तौर पर भले ही ज़िन्दगी मुतासिर दिखाई न दे, लेकिन हक़ीक़ी तौर पर ज़िन्दगी, ज़िन्दगी कहां रह जाती है... घर के बाहर त्यौहार की रौनक़ें हैं, लेकिन घर के अंदर वही उदासियों का डेरा है...क्या ऐसे भी कोई त्यौहार मनाता है...
  • ज़िन्दगी ज़हर से भी ज़हरीली हो सकती है, कभी सोचा न था.
  • मेरी ज़िन्दगी वो गुमशुदा ख़त है, जिसका पता तुम हो...
  • कुछ लोगों की क़िस्मत में अज़ाब... अज़ाब... और सिर्फ़ अज़ाब ही लिखा होता है...
  • ज़िन्दगी में ऐसा भी वक़्त आया करता है, जब इंसान को न किसी ख़ुशी की चाह होती है और न ही किसी ग़म का ख़ौफ़...
  • ज़िन्दगी में कुछ ख़ालीपन ऐसा भी हुआ करता है, जिसे कोई नहीं भर पाता... लफ़्फ़ाज़ी से कुछ देर के लिए दिल बहलाया तो जा सकता है, लेकिन अधूरेपन को दूर नहीं किया जा सकता...
  • ख़ुशियां सबके नसीब में नहीं हुआ करतीं... कुछ लोग ऐसे भी हुआ करते हैं, जो एक ख़ुशी तक को तरस जाते हैं...
  • इंसान इस दुनिया में ख़ाली हाथ आया था... और ख़ाली हाथ ही उसे चले जाना है... बस उम्र के इस सफ़र में उसे कुछ यादें छोड़ जानी हैं...
  • लड़की को आधी-अधूरी चीज़ें अच्छी नहीं लगती थीं... लेकिन उसे ज़िन्दगी आधी-अधूरी ही मिली...
  • ज़िन्दगी की किताब के कुछ वर्क़ उन काग़ज़ों की तरह हुआ करते हैं, जिन्हें हवा के झोंके अपने साथ उड़ाकर ले जाते हैं... न जाने किस सिफ़्त, अनजान जगहों पर... जहां के नाम पते भी बेगाने हुआ करते हैं... 
  • सुबह का सूरज ऐसा है, मानो किसी ने आसमान के माथे पर सिंदूरी बिंदिया लगा दी हो...
  • रंग ज़िन्दगी का जश्न हुआ करते हैं... फिर क्यूं न रंगों से मुहब्बत की जाए... हमें रंगों से शदीद मुहब्बत है... लाल, हरा, नीला, पीला, सफ़ेद, गुलाबी, आसमानी... और वो हर रंग जिसमें ख़ुशनुमा ज़िन्दगी का अक्स नज़र आता है, हमें ख़ूब भाता है... ऐ ज़िन्दगी ! तू हमेशा ऐसी ही रहना... रंग-बिरंगी...
  • अकसर ऐसा भी होता है कि वक़्त ठहर जाता है... न जाने किसके इंतज़ार में... 
  • आज कितना प्यारा दिन है... भरा-भरा दिन... नीला आसमान, सुनहरी धूप और चहकते परिन्दे... आज सबकुछ कितना भला लग रहा है... 



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खाना बनाना...


दिल्ली में लड़कियों से यह बात सुनने को ख़ूब मिलती है कि उन्हें चाय बनानी तक नहीं आती... ऐसा कहने वाली लड़कियों में गांव-क़स्बों और छोटे शहरों से आने वाली वे लड़कियां भी शामिल हैं, जो दिल्ली में आकर पढ़ाई या नौकरी कर रही हैं... हमें आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि इसमें गर्व करने वाली कौन-सी बात है कि उन लड़कियों को चाय बनानी तक नहीं आती...
गर्व की बात तो यह होनी चाहिए कि उन्हें कई तरह की चाय बनानी आती है, वे किसी एक सब्ज़ी को कई तरीक़े से पका सकती हैं... उन्हें पंजाबी छोले-भठूरे से लेकर इडली-डोसा तक बनाना आता है... वे जितनी लज़ीज़ पूड़ी-कचौरी बना सकती हैं, उतना ही ज़ायक़ेदार मुग़लई खाना भी बना सकती हैं... उन्हें कई तरह के अचार और चटनियां बनानी आती हैं...
आज के दौर में लड़कियों की बात तो छोड़िये, लड़के भी अच्छा खाना बनाना जानते हैं... अकसर पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में लड़कों को घर से दूर रहना पड़ता है... ऐसे में वे कब तक बाहर का खाना खाएंगे... दिल्ली में दूर-दराज़ के इलाक़ों से आने वाले ज़्यादतर लड़के ख़ुद ही खाना बनाते हैं...
वैसे, भी अपनी मां के बाद ख़ुद बनाए गए खाने का ज़ायक़ा ही सबसे अच्छा होता है... यह बात हम अपने लिए कह रहे हैं...

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मेरे घर आई एक नन्ही परी...


आज हमारी परी यानी फ़लक (भतीजी) की पहली सालगिरह है... पिछले साल आज ही के दिन वह बहार बनकर हमारे घर आई थी... कितनी तैयारियां की गई थीं उसके लिए... कपड़े, दूधदानी, बेबी सोप, बेबी पाउडर, झूला, खिलौने और न जाने क्या-क्या ख़रीदा गया था... और इस सबसे बढ़कर उसके लिए एक प्यारा-सा नाम ढूंढना था... वाक़ई बड़ी ज़िम्मेदारी का काम था अपनी परी के लिए एक प्यारा-सा नाम सोचना... कहते हैं कि नाम का इंसान की ज़िंदगी पर बहुत असर पड़ता है... घर में सब यही चाहते थे कि नाम हम ही बताएं... आख़िरकार हमने पांच-सात नाम अपनी मम्मा को बता दिए,जिनमें से उन्हें फ़लक नाम पसंद आया...
बहरहाल... हम फ़लक को परी कहकर बुलाते हैं... उसके प्यार के नाम बहुत सारे हैं... सबके अपने-अपने...
सबसे ख़ास बात हमारी परी को गीत-संगीत बहुत पसंद है... आज दोपहर संतों की एक टोली गीत गाते हुए गली से गुज़री, तो वह बाहर जाने की ज़िद करने लगी... मम्मा ने उसके हाथों कुछ पैसे संतों को दिलाए... संतों ने उसे ढेर सारी दुआएं दीं और उसके माथे पर एक नन्हा-सा तिलक भी लगा दिया...
परी गाने बहुत ध्यान से सुनती है... ख़ासकर साहिर लुधियानवी साहब का यह गीत, जिसके बोल हमें अब और भी मीठे लगने लगे हैं...

मेरे घर आई एक नन्ही परी, एक नन्ही परी
चांदनी के हसीन रथ पे सवार
मेरे घर आई...

उसकी बातों में शहद जैसी मिठास
उसकी सांसों में इतर की महकास
होंठ जैसे के भीगे-भीगे गुलाब
गाल जैसे के बहके-बहके अनार
मेरे घर आई...

उसके आने से मेरे आंगन में
खिल उठे फूल, गुनगुनायी बहार
देखकर उसको जी नहीं भरता
चाहे देखूं उसे हज़ारों बार
मेरे घर आई...

मैंने पूछा उसे के कौन है तू
हंसके बोली के मैं हूं तेरा प्यार
मैं तेरे दिल में थी हमेशा से
घर में आई हूं आज पहली बार
मेरे घर आई...

सच ! बच्चे होते ही हैं इतने प्यारे कि हमारी ज़िंदगी बन जाते हैं... उनकी एक मुस्कराहट पर दोंनों जहां की खु़शियां लुटा देने को जी चाहता है... परी हमेशा खु़श रहे... आमीन...

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मिराती से राष्ट्रपति भवन तक की गाथा


फ़िरदौस ख़ान
महापुरुषों की ज़िन्दगी एक रौशन चिराग़ की तरह होती है, जो दूसरों को रास्ता दिखाने का काम करता है. तभी तो हमारे देश में बचपन से ही बच्चों को महापुरुषों की कहानियां सुनाने की प्रथा रही है. लोककथाओं में भी महापुरुषों के अनेक क़िस्से होते हैं. इन क़िस्सों के ज़रिये नानी-दादी या घर की अन्य बुज़ुर्ग महिलाएं बच्चों को महानता का सबक़ पढ़ाती आई हैं. अमूमन सभी सभ्ताओं के बच्चे अपने देश के महापुरुषों की जीवनियां बचपन में ही सुन लेते हैं. अगर वे इनसे सीख हासिल करते हैं, तो ही जीवनियां उनकी ज़िन्दगी को बेहतरीन बनाने का काम करती हैं. प्रकाशक भी इन जीवनियों के महत्व को समझते हैं, तभी तो किसी भी व्यक्ति के किसी महान ओहदे तक पहुंचने या महानता का कार्य करने पर वे उसकी जीवनी को प्रकाशित करके जनमानस तक पहुंचाने में लग जाते हैं. इसी परंपरा को क़ायम रखते हुए डायमंड बुक्स ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ज़िन्दगी पर आधारित एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी. हालांकि प्रणब दा को अपने पदनाम से पहले महामहिम शब्द जोड़ना पसंद नहीं है. इसलिए राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने औपनिवेशिक काल के हिज़ एक्सीलेन्सी यानी महामहिम जैसे आदरसूचक शब्दों के इस्तेमाल वाले प्रोटोकॉल में बदलाव करते हुए नए प्रोटोकॉल को औपचारिक मंज़ूरी दी. इसके तहत अब राष्ट्रपति महोदय शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा. उन्होंने यह भी निर्देश दिया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए माननीय शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा और उनके नाम से पहले श्री या श्रीमती लगाने की हिंदुस्तानी परंपरा को अपनाया जाना चाहिए. राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कहा था उम्मीदों से ज़्यादा बड़ी है मेरी जीत. जिन लोगों ने पिछले पांच दशकों के दौरान मेरा साथ दिया, उन सभी का शुक्रिया. देश की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करूंगा. अलबत्ता इसकी शुरुआत उन्होंने औपनिवेशिक काल के प्रोटोकॉल को बदलने के साथ कर दी है. 

प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर, 1935 को बंगाल के वीरभूम ज़िले के गांव मिराती में हुआ. उनके पिता काम द किंकर मुखर्जी स्वतंत्रता सेनानी थे. उन्होंने देश की आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लिया और उन्हें दस साल जेल में बिताने पड़े. बाद में वह विधाक बने. प्रणब मुखर्जी को भी देशसेवा के गुण अपने पिता से विरासत में मिले. वह 13 जुलाई, 1957 को सुभम मुखर्जी के साथ प्रणय सूत्र में बंधे. उनके दो बेटे और एक बेटी है. उनके बड़े बेटे अभिजीत मुखर्जी कांग्रेस विधायक हैं. बेटी शर्मिष्ठा कत्थक नृत्यांगना है. प्रणब मुखर्जी ने इतिहास और राजनीति में एमए की डिग्री हासिल की. उन्होंने एलएलबी भी की. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत अध्यापन और पत्रकारिता से की थी. इसके बाद वह सियासत में आ गए. वह 1969 में राज्यसभा  के सांसद बने और अपने कार्यों की बदौलत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करते रहे. इंदिरा गांधी ने 1973 में उन्हें अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया. वह फ़रवरी 1973 से अक्टूबर 1974 तक केंद्र में उप मंत्री रहे. फिर वह अक्टूबर 1974 से दिसंबर 1975 तक वित्त राज्यमंत्री बनाए गए. इसके बाद दिसंबर 1975 से मार्च 1977 तक वह राजस्व और बैंकिंग मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रहे. 1978 में उन्हें कांग्रेस की सर्वोच्च कार्यकारी समिति सीडब्ल्यू में ले लिया  गया. उनके कार्यों को देखते हुए इसी साल उन्हें कांग्रेस का कोषाध्यक्ष बना दिया गया. फिर 1980 में उन्हें राज्यसभा में सदन का नेता बना दिया, जिससे उनके सियासी करियर को फ़ायदा हुआ. जनवरी 1980 से जनवरी 1982 तक वह वाणिज्य मंत्री के तौर पर कार्यरत रहे. फिर जनवरी 1982 में उन्हें वित्तमंत्री के तौर पर नियुक्त किया गया और दिसंबर 1984 तक वह इस पद पर बने रहे. उस वक़्त बनाई गई उनकी नीतियां बहुत सराही गईं.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी और प्रणब मुखर्जी के बीच दूरियां बढ़ने लगी थीं. जब कांग्रेस ने अपना नेता चुनकर प्रधानमंत्री बनाने के लिए पार्टी की बैठक बुलाई तो अन्य पार्टी नेताओं के साथ प्रणब मुखर्जी ने भी राजीव गांधी को पार्टी का नेता चुना. राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए. बाद में राजीव गांधी ने लोकसभा भंग करवाकर चुनाव करवा दिए. इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर का फ़ायदा कांग्रेस को हुआ और पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई. राजीव गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन उन्होंने प्रणब मुखर्जी को अपने मंत्रि मंडल में  जगह नहीं दी. उनके बीच तल्खी बढ़ती गई. हालत यह हो गई थी कि 1986 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस नाम से एक सियासी दल की स्थापना की. यह कांग्रेस के प्रति उनका प्रेम ही था कि उन्होंने अपनी पार्टी के नाम में कांग्रेस शब्द को शामिल किया. उन्होंने अपनी पार्टी के प्रचार-प्रसार के लिए दिन-रात एक कर दिए, लेकिन उन्हें कामयाबी  नहीं मिल सकी. कुछ वक़्त बाद 1988 में राजीव गांधी के कहने पर वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए और अपनी पार्टी का भी कांग्रेस में विलय कर लिया. इस दौरान वह राज्यसभा में बने रहे यानी 1975, 1981, 1993 और 1999 में वह राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किए गए. 1993 में जब वह राज्यसभा के सदस्य थे, तब कांग्रेस मंत्रिमंडल में उन्हें केंद्रीय मंत्री बना दिया गया. वह जनवरी 1993 से फ़रवरी 1995 तक वाणिज्य मंत्री रहे. इसी साल उन्हें विदेश मंत्रालय में ले लिया गया. वह फ़रवरी 1995 से मई 1996 तक विदेश मंत्री रहे. 

उन्होंने 2004 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. वह लोकसभा में सदन के नेता बना दिए गए. वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री बने. 2006 में उन्हें रक्षा मंत्रालय से हटाकर विदेश मंत्री बना दिया गया और मई 2009 तक वह अपने पद पर बने रहे. लेकिन विदेश मंत्रालय के काम में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जांगीपुर संसदी क्षेत्र से चुनाव जीता. उन्हें फिर से वित्त मंत्रालय का दायित्व संभालने का मौक़ा मिला. वह जून 2012 तक वित्तमंत्री रहे. प्रणब मुखर्जी ऐसे पहले वित्तमंत्री माने जाते हैं, जिन्होंने पहली बार अंतरिम बजट पेश किया. इससे पहले लोकसभा में किसी भी वित्तमंत्री ने अंतरिम बजट पेश नहीं किया था. उन्होंने 2009 में चुनाव से पहले अंतरिम बजट पेश करके नई परंपरा का आग़ाज़ किया, जो उस वक़्त की ज़रूरत थी. चुनाव हुए, कांग्रेस की सरकार बनी और नई सरकार का पहला बजट भी प्रणब मुखर्जी ने ही पेश किया. इसके अलावा वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक कोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक तथा अफ्रीकी विकास बैंक के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य भी रह चुके हैं. यहां भी उन्होंने अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाया. विभिन्न मंत्रालयों में रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किए. उन्होंने केंद्रीय वाणिज्य मंत्री रहते हुए विश्व व्यापार संगठन की सफ़ल स्थापना में विशेष योगदान दिया, जिसे वाणिज्य मंत्रालय की उपलब्धि माना गया. बतौर विदेश मंत्री उन्होंने अमेरिका के साथ असैनिक परमाणु क़रार कराने और संबंधों को सुधारने में अहम किरदार निभाया. उन्हें सरकार का संकट मोचक भी माना जाता रहा है. जब कभी भी सरकार पर संकट के बादल मंडराये, उन्होंने अपनी सूझबूझ से सरकार को उस परेशानी से उबारा. कांग्रेस ने 13 जून, 2012 को प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया. उन्होंने 22 जुलाई, 2012 को हुए चुनाव में जीत हासिल की और फिर 25 जुलाई को वह भारत के तेरहवें राष्ट्रपति बन गए. \

वह चार दशक से भी ज़्यादा वक़्त तक सक्रिय राजनीति में रहे. अपने छोटे से गांव मिराती से लेकर राष्ट्रपति भवन तक के उनके सफ़र में कई यादगार लम्हे आए. 1984 में उन्हें दुनिया भर के पांच वित्त मंत्रियों  की फ़ेहरिस्त में शामिल किया गया. 1997 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से नवाज़ा गया. 2008 में उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया. पुस्तक के संपादक सुदर्शन भाटिया ने इस किताब में प्रणब दा से जुड़ी  कई अहम जानकारियां भी दी हैं, जैसे वह दुर्गा के भक्त हैं और नवरात्र में तीन दिन पुरोहित बनकर देवी की पूजा करते रहे हैं. वह तक़रीबन 18 घंटे काम करते हैं. इतनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद वह डायरी लिखना नहीं भूलते. एक साक्षात्कार में न्होंने कहा था कि वह कभी छुट्टियां नहीं मनाते. वह चीनी नेता डेंग जिओपिन से प्रभावित हैं और उनके आदर्शों को ज़िन्दगी में ढालने की कोशिश करते हैं. लेकिन क़द छोटा होने का उन्हें अफ़सोस रहा है. उनका क़द पांच फ़ुट एक इंच है, जो उन्हें कम लगता है. उन्हें फ़ुटबॉल पसंद है और कभी उन्होंने अपने पिता के नाम पर मुर्शिदाबाद में कामद किंकर गोल्ड कप टूर्नामेंट शुरू किया था. उन्हें संगीत सुनने और किताबें पढ़ने का बहुत शौक़ है. अपनी गाड़ी में वह रवीन्द्र संगीत सुनना पसंद करते हैं. इस किताब में प्रणब मुखर्जी से जुड़े कई अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर भी रौशनी डाली गई है यानी राष्ट्रपति पद की दौ़ड़ में उनसे हारने वाले पीए संगमा के आरोपों और आपत्तियों को भी इसमें शामिल किया गया है. इसके अलावा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की किताब टर्निंग प्वाइंट ए जर्नी थ्रू चैलेंजेज में कांग्रेस एवं यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री पद ठुकराए जाने के वाक़िये का भी ज़िक्र किया गया है. किताब के आख़िरी हिस्से में प्रणब मुखर्जी के सितारों की भी बातें हैं कि किस तरह उनकी कुंडली के मज़बूत ग्रहों ने उन्हें इस देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाई.

बहरहाल, इस किताब के ज़रिये पाठक अपने राष्ट्रपति की ज़िन्दगी के कई पहलुओं से वाक़िफ़ हो जाएंगे. किताब की शैली रोचक है, जिससे पाठकों को इसे पढ़ते हुए अच्छा ही लगेगा.
समीक्ष्य कृति : महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी 
लेखक : सुदर्शन भाटिया 
प्रकाशक : डायमंड बुक्स
क़ीमत : 125 रुपये 

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वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद...


हमने वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद किया है. वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. इसकी रचना बंकिमचंद्र चटर्जी ने की थी. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और वरिष्ठ साहित्यकार मदनलाल वर्मा क्रांत ने वंदे हिन्दी में अनुवाद किया था. भाजपा नेता आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया था. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है.

वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ
ਤੂੰ ਭਰੀ ਹੈ ਮਿੱਠੇ ਪਾਣੀ ਨਾਲ਼
ਫਲ ਫੁੱਲਾਂ ਦੀ ਮਹਿਕ ਸੁਹਾਣੀ ਨਾਲ਼
ਦੱਖਣ ਦੀਆਂ ਸਰਦ ਹਵਾਵਾਂ ਨਾਲ਼
ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੀਆਂ ਸੋਹਣੀਆਂ ਫ਼ਿਜ਼ਾਵਾਂ ਨਾਲ਼
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ…

ਤੇਰੀਆਂ ਰਾਤਾਂ ਚਾਨਣ ਭਰੀਆਂ ਨੇ
ਤੇਰੀ ਰੌਣਕ ਪੈਲ਼ੀਆਂ ਹਰੀਆਂ ਨੇ
ਤੇਰਾ ਪਿਆਰ ਭਿੱਜਿਆ ਹਾਸਾ ਹੈ
ਤੇਰੀ ਬੋਲੀ ਜਿਵੇਂ ਪਤਾਸ਼ਾ ਹੈ
ਤੇਰੀ ਗੋਦ 'ਚ ਮੇਰਾ ਦਿਲਾਸਾ ਹੈ
ਤੇਰੇ ਪੈਰੀਂ ਸੁਰਗ ਦਾ ਵਾਸਾ ਹੈ
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ…
-ਫ਼ਿਰਦੌਸ ਖ਼ਾਨ  

मातरम का पंजाबी अनुवाद (देवनागरी में)
मां तैनूं सलाम…
तू भरी है मिठ्ठे पाणी नाल
फल फुल्लां दी महिक सुहाणी नाल
दक्खण दीआं सरद हवावां नाल
फ़सलां दीआं सोहणिआं फ़िज़ावां नाल
मां तैनूं सलाम…

तेरीआं रातां चानण भरीआं ने
तेरी रौणक पैलीआं हरीआं ने
तेरा पिआर भिजिआ हासा है
तेरी बोली जिवें पताशा है
तेरी गोद ’च मेरा दिलासा है
तरी पैरीं सुरग दा वासा है
मां तैनूं सलाम…
-फ़िरदौस ख़ान

वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद (रोमन में)
Ma tainu salam
Tu bhri hain mithe pani naal
Phal phulaan di mahik suhaani naal
Dakhan dian sard hawawaan naal
Faslan dian sonia fizawan naal
Ma tainu salam...

Tarian raatan chanan bharian ne
Teri raunak faslan harian ne
Tera pyaar bhijia hasa hai
Teri boli jiven patasha hai
Teri god 'ch mera dilaasa hai
Tere pairin surg da vasa hai
Ma tainu salam...
-Firdaus Khan
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तुम्हारा नाम


मेरे महबूब
कुछ नाम ऐसे होते हैं 
जिनसे 
इश्क़ हो जाता है

जो 
कभी मेहंदी से
हथेली पर महकते हैं
तो कभी 
किसी सफ़ेद रुमाल के 
कोने पर मुस्कराते हैं

सच
कुछ नाम ऐसे होते हैं 
जिनसे 
इश्क़ हो जाता है
जैसे
तुम्हारा नाम...
-फ़िरदौस ख़ान

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चांद तारे...


रात को देर तक जागना और खुली छत पर टहलते हुए देर तक तारों को निहारना भी कितना भला लगता है... अब तो तारों से अच्छी ख़ासी जान-पहचान भी हो गई है... रात के नौ बजे कौन-सा तारा कहां होगा... फिर एक घंटे बाद... दो घंटे बाद या फिर तीन घंटे बाद वह सरक कर कहां चला जाएगा... सब जान गए हैं... दिन गुज़रने के साथ-साथ आसमान में तारों में बदलाव भी देखने को मिलता रहता है... कभी आसमान में बहुत से तारे नज़र आते हैं, तो कभी बहुत कम... और चांद... चांद के तो कहने ही क्या... पहले बढ़ता चला जाता है, और जब उसकी आदत हो जाती है... तो घटने लगता है... और फिर कहीं जाकर छुप जाता है... किसी हरजाई की तरह... लेकिन तारे हमेशा रहते हैं, जब तक बादल बीच में न आएं...

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उदासी...


हर दिन उगता है
उदासियों के साथ
और फिर
उसी उदासी में
खो जाती है दोपहर
गहरी उदासियों का
बोझल सफ़र
जारी रहता है
देर शाम तक
और फिर
रात भी
इन्हीं उदासियों में
डूब जाती है...
न जाने क्यों
कई दिन से
मन बहुत उदास है
काश ! तुम पास होते...
-फ़िरदौस ख़ान

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प्यार...


फ़िरदौस ख़ान
(शादी के पहले दिन शौहर-बीवी की गुफ़्तगू)
लड़का (अपनी पत्नी से) : तुम सबसे ज़्यादा किससे प्यार करती हो ?
लड़की : अपनी मम्मा से
लड़का : मेरा मतलब है कि किस मर्द से तुम सबसे ज़्यादा प्यार करती हो ?
लड़की : ओह ! तो यह बात है. मैं सबसे ज़्यादा अपने पापा से प्यार करती हूं.
लड़का : उसके बाद?
लड़की : अपने भाइयों से.
लड़का (ग़ुस्से में ) : क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती ?
लड़की : तुम्हें मैं जानती ही कितने दिनों से हूं... सिर्फ़ तीन दिन से... तुम्हारी सूरत भी निकाह के बाद ही देखी है. क्या इतने जल्दी किसी से प्यार हो जाता है? यह बात अलग है कि पहली नज़र में भी प्यार हो जाता है... लेकिन यह ज़रूरी भी नहीं है कि पहली ही नज़र में किसी से प्यार हो जाए...

तस्वीर गूगल से साभार
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अपनी पसंद के कपड़े...


यूं तो हम टीवी सीरियल बहुत कम देखते हैं... क्योंकि इतना वक़्त ही नहीं होता... वैसे भी टीवी सीरियल भी तभी अच्छे लगते हैं, जब उन्हें लगातार देखा जाए... सास-बहू के सीरियल के बीच कुछ ऐसे सीरियल भी हैं, जो आज की युवा पीढ़ी से जुड़े हैं, जैसे ज़ी टीवी के सीरियल”सपने सुहाने लड़कपन के’ और ’क़ुबूल है’... पहले सीरियल की नायिका गुंजन कॊलेज में पढ़ती है और जींस पहनती है... हालांकि उसकी सास को उसका जींस पहनना बिल्कुल भी पसंद नहीं, लेकिन बाद में यही सास उससे कहती है- कि तुम जींस में ख़ुद को कंफ़र्टेबल फ़ील करती हो, इसलिए जींस ही पहना करो... दूसरे सीरियल की नायिका ज़ोया फ़ारूख़ी भी जींस पहनती है. कई लोगों को उसका जींस पहनना पसंद नहीं... हालांकि उसके प्रेमी और उसके प्रेमी की मां को उसके जींस पहनने से कोई ऐतराज़ नहीं है... लेकिन हर लड़की इतनी ख़ुशनसीब नहीं होती कि शादी के बाद भी अपनी पसंद के कपड़े पहन सके...

हमने भी शादी के बाद ख़ुद ही जींस पहनना छोड़ दिया था... सोचा जब अपने घर जाया करेंगे, तभी पहन लिया करेंगे... एक रोज़ हमारे शौहर ने कहा कि शाम को कहीं घूमने चलेंगे... लेकिन जब हम बाहर जाने के लिए तैयार हुए, तो उन्होंने कहा कि जींस पहन लो... हमें बहुत हैरानी हुई... हमने कहा कि आपके घरवालों ने कुछ कहा तो? कहने लगे-चादर ओढ़ लेना... और घर से कुछ दूर जाकर चादर उतार देना... उन्होंने हमारे लिए शॊपिंग भी की जींस और कुर्तों की...

समझ में नहीं आता कि जब शादी के बाद लड़कों की ज़िंदगी नहीं बदलती, तो फिर लड़कियों की ज़िंदगी क्यों इतनी बदल जाती है कि वे अपनी मर्ज़ी के कपड़े तक नहीं पहन सकतीं... 
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हिन्दुस्तान की सांझी विरासत


फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान में आज जब मुट्ठीभर ख़ुदग़र्ज़ लोग मज़हब, जात, भाषा और प्रांत के नाम पर देश को बांटने की कोशिश कर रहे हैं, तो ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदेश बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं. उन्होंने हमेशा देश की एकता और अखंडता को क़ायम रखने पर ज़ोर दिया. बक़ौल जवाहरलाल नेहरू,हिंदुस्तानी ज़िंदगी में कितनी विविधता है और उसमें अलग-अलग कितने वर्ग, क़ौमें और पंथ हैं तथा संस्कृति विकास की कितनी अलग-अलग सीढ़ियां हैं, फिर भी समझता हूं कि उसकी आत्मा एक है. भारत में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं. उनमें एकता भी है, लेकिन अनेकता बहुत है. आप असम से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक जाइए. आप कितना अंतर पाएंगे, भाषा में, खाने-पीने में, कप़डे-लत्ते पहनने में और सब बातों में, उसी के साथ आप संस्कृति की एक पक्की एकता भी पाएंगे, जो प्राचीन समय से चली आती है. भारत की जो असली संस्कृति है, वह दिमाग़ की है या मन की है, आध्यात्मिक है. इस वक़्त देश में जो सबसे ज़रूरी बुनियादी चीज़ है और जिसे हर कोई बुनियादी मानता है, वह है भारत की एकता.

हिन्द पॉकेट बुक्स ने हाल में जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों की किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां. किताब के संपादक राजवीर सिंह दार्शनिक ने विभिन्न मुद्दों पर जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों को शामिल किया है. गंगा के बारे में जवाहर लाल नेहरू कहते हैं-गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशान रही है, सदा बदलती, सदा बहती, फिर वही गंगा की गंगा. मैंने सुबह की रौशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है. और देखा है शाम के साये में उदास, काली-सी चादर ओढ़े हुए. यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर.

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता है. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्तराष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया.8 फ़रवरी, 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर, 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ,लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू 1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने अधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. जब 15 अगस्त, 1947 को देश आज़ाद हुआ तो वह आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए. जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया. 1955 में उन्हें देश की सर्वोच्च उपाधि भारत रत्न से नवाज़ा गया. मगर देश को बहुत दिनों तक उनका साथ नहीं मिला. दिल का दौरा प़डने से 27 मई, 1964 में उनकी मौत हो गई. वह देश से बेहद प्यार करते थे. इसलिए उनकी वसीयत भी यही थी-मेरी भस्म उन खेत-खलिहानों में बिखेर दी जाए, जहां भारत के किसान अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं, ताकि भस्म भारत माता की धूल और मिट्टी में मिलकर उसमें विलीन हो जाए.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा दुनिया भर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिंदुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के  रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

वह कहते हैं-यूरोप और दूसरे देशों के लोग मानते हैं कि भारत में सैक़डों भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन उनकी यह धारणा ग़लत है. भारत की भाषाएं दो परिवारों में बांटी जा सकती हैं-पहला परिवार द्रव़िड भाषा का है, जिसमें तमिल, तेलुगू,कन्ऩड और मलयालम हैं और दूसरी भारतीय आर्य जाति की भाषा है, जो मूलरूप से संस्कृत है. हिंदी, बांग्ला, गुजराती और मराठी संस्कृत से निकली हैं. हां,बोलियां सैकड़ों हो सकती हैं. वह मानते थे कि किसी क़ौम के विकास और उसके बच्चों की शिक्षा का एकमात्र साधन उसकी अपनी भाषा ही है. भारत में आज हरेक चीज़ उलट- पुलट हो रही है और हम आपस में भी अंग्रेजी बहुत ज़्यादा प्रयोग कर रहे हैं. तुम्हें (इंदिरा प्रियदर्शिनी) अंग्रजी में लिखना मेरे लिए कितनी भद्दी बात है. फिर भी मैं ऐसा कर रहा हूं. लेकिन मुझे विश्वास है कि हम लोग जल्दी ही इस आदत से छुटकारा पा लेंगे.

वह एक ज़िंदादिल इंसान थे. उनका कहना था-हमें पूरा यक़ीन है कि सफलता हमारा इंतज़ार कर रही है और कभी न कभी हम उसे ज़रूर प्राप्त कर लेंगे. यदि पार करने के लिए ये रुकावटें न होतीं और जीतने के लिए ये लड़ाइयां न होतीं,तो जीवन नीरस और बेरंग हो जाता. जब हम ज़िंदगी में वर्तमान काल में जहां कि इतनी कशमकश है और हल करने के लिए इतने मसले हैं, एक जीती-जागती क़डी न क़ायम कर सकें, तब तक हम ज़िंदगी को ज़िंदगी नहीं कह सकते. असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस ज़िंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आने वाली ज़िंदगी में नहीं. आत्मा जैसी कोई चीज़ है भी या नहीं, मैं नहीं जानता. ज़िंदगी में चाहे जितनी बुराइयां हों, आनंद और सौंदर्य भी है और हम सदा प्रकृति की मोहिनी वनभूमि में सैर कर सकते हैं.

बहरहाल, आकर्षक कवर वाली यह किताब पाठकों ख़ासकर चाचा नेहरू के प्रशंसकों और राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को बहुत पसंद आएगी. किताब में एकाध जगह दोहराव है, जो पाठकों को कुछ अखर सकता है. फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब संग्रहणीय है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां 
संपादक : राजवीर सिंह दार्शनिक
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये

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तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...


फ़िरदौस ख़ान
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
उर्दू और फ़ारसी शायरी के चमन का यह दीदावर यानी मोहम्मद अल्लामा इक़बाल 9 नवंबर, 1877 को पाकिस्तान के स्यालकोट में पैदा हुआ. उनके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे, लेकिन क़रीब तीन सौ साल पहले उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और कश्मीर से पंजाब जाकर बस गए थे. उनके पिता शे़ख नूर मुहम्मद कारोबारी थे. इक़बाल की शुरुआती तालीम मदरसे में हुई. बाद में उन्होंने मिशनरी स्कूल से प्राइमरी स्तर की शिक्षा शुरू की. लाहौर से स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया. 1905 में दर्शनशास्त्र की उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की. इसके बाद वह ईरान चले गए, जहां से लौटकर उन्होंने द डेवलपमेंट ऑफ मेटाफ़िज़िक्स इन पर्शियन नामक एक किताब भी लिखी. इसी को आधार बनाकर बाद में जर्मनी के म्युनिख विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी. इक़बाल की तालीम हासिल करने की फ़ितरत ने उन्हें चैन नहीं लेने दिया. बाद में उन्होंने वकालत की भी पढ़ाई की. वह लंदन विश्वविद्यालय में छह माह तक अरबी के शिक्षक भी रहे. 1908 में वह स्वदेश लौटे. लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में बतौर प्रोफ़ेसर उनकी नियुक्ति हो गई. इस नौकरी के साथ वह वकालत भी कर रहे थे, लेकिन कुछ वक़्त बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी, वकालत को ही अपना पेशा बना लिया.

यूं तो इक़बाल को बचपन से ही शायरी का शौक़  था और वह अपनी रचनाएं डाक के ज़रिये उर्दू के मशहूर शायर एवं उस्ताद दाग़ देहलवी को भेजा करते थे, लेकिन उनकी शायरी की विधिवत शुरुआत लाहौर आकर हुई. उस वक़्त उनकी उम्र बाईस साल थी. अपने दोस्तों के कहने पर उन्होंने वहां एक मुशायरे में अपनी ग़ज़ल पढ़ी. इस मुशायरे में मिर्ज़ा अरशद गोरगानी भी थे, जिनकी गिनती उन दिनों चोटी के शायरों में होती थी. जब इक़बाल ने ग़ज़ल का यह शेअर पढ़ा-
मोती समझ के शाने-करीमी ने चुन लिए
क़तरे जो थे मेरे अर्क़-इंफ़आल के

यह शेअर सुनकर मिर्ज़ा अरशद साहब तड़प उठे. उन्होंने इक़बाल की प्रशंसा करते हुए कहा, मियां साहबज़ादे! सुब्हान अल्लाह, इस उम्र में यह शेअर!

उसी उम्र में मिर्ज़ा दाग़ ने भी इक़बाल की रचनाएं यह कहकर वापस करनी शुरू कर दीं कि उनकी रचनाएं संशोधन की मोहताज नहीं हैं. उस वक़्त की मशहूर उर्दू पत्रिका म़खज़न के संपादक शे़ख अब्दुल क़ादिर अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम के जलसों में इक़बाल को नज़्में पढ़ते देख चुके थे और वह इक़बाल से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने इक़बाल की नज़्में मख़ज़न में प्रकाशित करनी शुरू कर दीं. मख़ज़न के अप्रैल 1901 के अंक में प्रकाशित उनकी पहली नज़्म हिमालय ने उनकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंचा दी. शेख़ अब्दुल क़ादिर इक़बाल के बारे में कहते थे, अगर मैं तनासख़ (आवागमन) का क़ायल होता तो ज़रूर कहता कि ग़ालिब को उर्दू और फ़ारसी से जो इश्क़ था, उसने उनकी रूह को अदम (परलोक) में जाकर भी चैन नहीं लेने दिया और मजबूर किया कि वह फिर किसी इंसानी जिस्म में पहुंच कर शायरी के चमन की सिंचाई करें और उन्होंने पंजाब के एक गोशे में जिसे स्यालकोट कहते हैं, दोबारा जन्म लिया और मोहम्मद इक़बाल नाम पाया.

उन्होंने उर्दू की बजाय फ़ारसी में ज़्यादा लिखा. फ़ारसी की वजह से उनका कलाम न सिर्फ़ हिंदुस्तान, बल्कि ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिस्र तक पहुंचा. 1915 में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह असरारे-ख़ुदी के अंग्रेज़ी अनुवाद ने उन्हें अमेरिका और यूरोप में भी विख्यात कर दिया. ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें सर की उपाधि से भी नवाज़ा था. रवींद्र नाथ टैगोर के बाद इक़बाल ही वह दूसरे व्यक्ति थे, जिन्हें यह उपाधि मिली.

उन्होंने अपनी क़ौम को बुलंदी का सबक़ दिया और हर उस बात का विरोध किया, जो बुलंदी की राह में रुकावट बने. वह क़िस्मत के आगे हार नहीं मानते और हालात का म़ुकाबला करने का संदेश देते हैं-
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है

उनकी शायरी इस बात की गवाह है कि वह ताउम्र अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे. उनके गीत पर सारा देश झूम उठता है और मन में देशभक्ति की भावना हिलोरें लेने लगती हैं-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा

उन्होंने प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को भी अपनी नज़्मों में जगह दी. पहाड़ों, झरनों, नदियों, लहलहाते हुए फूलों की डालियों और ज़िंदगी के हर उस रंग को उन्होंने अपने कलाम में शामिल किया, जो इंसानी ज़िंदगी को मुतासिर करता है. उनकी नज़्म आज भी स्कूलों में बच्चे गाते हैं-
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए

वह साहित्य में प्रयोगवाद के विरोधी थे. विचारों के बिना सुंदर शब्दों का कोई महत्व नहीं है. उन्होंने अपनी भाषा शैली की बजाय अपने विचारों को बेहद पुख्ता तरीक़े से पेश किया. बानगी देखिए-
अज़ान अज़ल से तेरे इश्क़ का तराना बनी
नमाज़ उसके नज़ारे का इक बहाना बनी
अदा-ए-दीदे-सरापा नयाज़ है तेरी
किसी को देखते रहना नमाज़ है

उनके कलाम में दर्शन-चिंतन मिलता है. उन पर इस्लाम का गहरा प्रभाव रहा. उन्होंने अतीत के महिमा गान के ज़रिये मुसलमानों को जागरूकता का संदेश दिया-
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरूद क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़ में
तू बचा-बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में
न कहीं जहां में अमां मिली, जो अमां मिली तो कहां मिली
मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब को तेरे उफ़्वे-ए-बंदा-नवाज़ में
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियां न वो हुस्न में रहीं शोख़ियां
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में
मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में…

उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में सांस्कृतिक एकता की भावना झलकती है-
सच कह दूं ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम क़दों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आके आख़िर मैंने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्मां से इसका कलश मिला दें
हर सुबह मिलके गाएं मंतर वो मीठे-मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ति प्रीत में है… 

वे दूसरे मज़हबों का भी सम्मान करते थे. वह कहते हैं-
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक- सरिश्त
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे-हिंद 
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तान को नाज़

अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिंद

उनके कई काव्य संग्रह हैं, जिनमें फारसी का 1917 में प्रकाशित रुमुज़े-बे़खुदी, 1923 में पयामे-मशरिक़, 1927 में ज़बूरे-अज़म, 1932 में जावेदनामा, 1936 में पास चेह बायद कर्द ए अक़वामे-शर्क़ 1938 में अरमुग़ाने-हिजाज़, 1924 में उर्दू काव्य संग्रह बांगे-दरा, 1935 में बाले-जिब्राइल और 1936 में ज़र्बे-कलीम शामिल हैं. इक़बाल मर्दे-मोमिन खुदा के मुक़ाबले में अपनी श्रेष्ठता जताने में भी गुरेज़ नहीं करते. उनकी फ़ारसी की नज़्म ख़ुदा और इंसान को ही लीजिए-
ख़ुदा इंसान से-
मैंने मिट्टी और पानी से एक संसार बनाया
तूने मिस्र, तुर्की, ईरान और तातार बना लिए
मैंने धरती की छाती से लोहा पैदा किया
तूने उससे तीर, ख़ंजर, तलवारें और नेज़े ढाल लिए
तूने हरी शा़खाएं काट डालीं और फैलते हुए पेड़ तोड़ गिराए
गाते हुए पक्षियों के लिए तूने पिंजरे बना डाले

इंसान ख़ुदा से-
तूने ऐ मेरे मालिक! रात बनाई, मैंने दीए जलाए
तूने मिट्टी पैदा की, उससे प्याले बनाए
तूने धरती को वन, पर्वत और मरुस्थल प्रदान किए
मैंने उनमें रंगीन फूल खिलाए, हंसती हुई वाटिकाएं सजाईं
मैं विष से तिरयाक़ बनाता हूं और पत्थर से आईनाश
ऐ मालिक! सच-सच बता, तू बड़ा है या मैं?

21 अप्रैल, 1938 को यह महान शायर हमारे बीच से चला गया. उनकी मौत के बाद दिल्ली की जौहर पत्रिका के इक़बाल विशेषांक में महात्मा गांधी का एक पत्र छपा था, जिसमें उन्होंने लिखा था, डॉ. इक़बाल मरहूम के बारे में क्या लिखूं, लेकिन मैं इतना तो कह सकता हूं कि जब उनकी मशहूर नज़्म हिंदोस्तां हमारा पढ़ी तो मेरा दिल भर आया और मैंने बड़ौदा जेल में तो सैकड़ों बार इस नज़्म को गाया होगा. बेशक, इक़बाल का कलाम शायरों और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करता रहेगा.
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नाम...



बहुत से परिवारों में शादी के बाद लड़की का नाम बदलने का रिवाज है... शुक्र है कि हमारे ननिहाल और ददिहाल में यह रिवाज नहीं है... जब हमारी शादी हुई, तो ससुरालवालों ने हमारा नाम बदल दिया... उनके लिए हम फ़िरदौस ख़ान नहीं, शहाना थे... शहाना नाम बुरा तो नहीं है... लेकिन हमें यह मंज़ूर नहीं था... क्योंकि जिस नाम के साथ हम बड़े हुए हैं... जो हमारी पहचान बन चुका है... उससे नाता कैसे तोड़ लें... यह नाम हमारी मम्मा ने रखा था... हमारी मम्मा का तोहफ़ा, जो हमारे वजूद का हिस्सा है... शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है, लेकिन नाम में बहुत कुछ रखा भी है... ख़ासकर उस वक़्त, जब वह आपके वजूद का हिस्सा बन जाए... अगर शेक्सपियर को रॊबर्ट कहा जाए, तो कौन पहचान पाएगा कि किसके बारे में बात हो रही है... ख़ैर, पसंद अपनी-अपनी... फ़िल्मी हस्तियां अपना नाम बदलती हैं... लेकिन जब उस नाम के साथ उनकी पहचान बन जाती है, तो फिर उम्रभर वे उसी नाम के साथ रहती हैं...

मगर कई बार नाम बदलना मजबूरी भी बन जाता है... हमारे एक परिचित हैं... उनकी मां का नाम शकीला है... जिस लड़की से उनकी शादी हुई, इत्तेफ़ाक़ से उसका नाम भी शकीला है... इसलिए वह अपनी बीवी को शबनम कहकर बुलाते हैं, लेकिन काग़ज़ात में उनकी बीवी का नाम शकीला ही है...

हम मानते हैं कि अगर कोई नाम बदलना न चाहे, तो उस पर दबाव भी नहीं डालना चाहिए...

बहरहाल, हमने अपने शौहर से कहा कि आपके घर और ख़ानदान वाले भले ही हमें शहाना कहें, लेकिन दस्तावेज़ों में हमारा नाम फ़िरदौस ख़ान ही रहेगा... एक बात और अगर आपने हमें शहाना नाम से बुलाया, तो हम भी आपको किसी और नाम से बुलाएंगे... फिर शिकायत मत करना...

नतीजतन, हम फ़िरदौस ख़ान ही हैं... 
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आग का दरिया...

तुम कहते हो-
तुम्हारी हर इक  तहरीर
आग का दरिया लगती है
जिसके हरेक लफ़्ज़ में
न जाने कौन-सी
आग समाई है...
जिसे पढ़ते-पढ़ते
मैं
उसी आग के दरिया में
डूबता चला जाता हूं...

ये कौन-सी आग है
जो मेरी रूह तक को
खु़द में
समेट लेना चाहती है
और
मैं भी ताउम्र
इस आग में
डूबे रहना चाहता हूं...

लेकिन
तुम ये नहीं जानते
मैं लफ़्ज़ लिखती ही नहीं
इन्हें जीती भी हूं...
मेरी ज़िंदगी खु़द
आग का दरिया
बनकर रह गई है...
जिसकी वजह
तुम ही तो हो...
-फ़िरदौस ख़ान

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प्रबंधन पर आधारित काव्य संग्रह


फ़िरदौस ख़ान
पाखी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित चंद्रसैन प्रबल की पुस्तक प्रबंध चेतना अपने आप में अनूठी है, क्योंकि रचनाकार ने एक प्रबंधक के नज़रिए से कविताएं रची हैं. किताब की शुरुआत मंत्रों से की गई है. इसके बाद गणेश और विद्या की देवी सरस्वती की आरती है. फिर कवि ने कविता के माध्यम से अपना परिचय दिया है. अब बारी आती है कविताओं की. कवि ने युवा निर्माण, परिवर्तन, व्यक्तित्व निर्माण, मानवीय प्रवृत्ति, व्यापार, लूटपाट, संघर्ष, देश, बिजनेस प्लानिंग, चिंता और ज़िम्मेदारी, वर्तमान परिस्थितियों, भ्रष्टाचार, प्रबंधन, टाइम मैनेजमेंट, प्रोडक्ट्‌स के स्टैंडर्ड, प्रबंधन नीति, रिश्तों, मनोबल, शेयर बाज़ार, स्कीमों की ज़रूरत, ग्राहक का तुष्टिकरण, प्रबंधन के फैक्टर्स, वाइटल फैक्टर, प्रबंधन स्ट्रैटेजी, करियर, लक्ष्य, नौकरशाहों की कारगुज़ारी आदि विषयों पर कविताएं लिखी हैं. जीवन में कामयाबी के लिए अनुशासन बहुत ज़रूरी है और बच्चों को यह गुण अपनी मां से मिलता है. वे लिखते हैं-
मां द्वारा सख़्ती करने से बच्चे अनुशासित बनते हैं
अनुशासित बच्चे जीवन में, बहुत तरक़्क़ी करते हैं
मां ममता की मूरत होती है, जो लाड़ बहुत दिखलाती है
पिता के सख़्ती करने पर, वो बच्चों को समझाती है

महिला आज जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. लिखते हैं-
जिनको पर्दे में रखते थे, आज बराबर चलती हैं
जिनको न कभी तरजीह मिली, वो आज चमत्कार करती हैं

आज जब देश में हर तरफ़ भ्रष्टाचार का बोलबाला है, ऐसे में देशप्रेम की भावना ही देश को बचा सकती है. तभी तो कवि ने कहा है-
दुष्ट लोग कितने की बढ़ जाएं, अपने प्यारे देश में
देशभक्त भी सदा रहेंगे, बलिदानी के वेश में
भारत मां की जय बोलो, भारत मां की जय
भारत मां की जय बोलो, भारत मां की जय

कवि का कहना है कि प्रबंधन की भाषा में विचारों को मन में रोकना, उचित माध्यम इस्तेमाल न कर पाना, सही लोगों या प्लेटफॉर्म तक पहुंचाने में असमर्थ होना, अथवा उनको आगे और बेहतर बनाने की कोशिश ही न करना भी हमारे प्यारे देश, संस्थान व युवाओं के विकास में न केवल रुकावट है, बल्कि प्रेरणादायी स्रोतों की कमी बनाए रखकर भारी भूल का परिचय देना है. इस पुस्तक को काव्य शास्त्र की दृष्टि से न देखकर, रचनाकार के विचारों को सराहा जा सकता है. कवि ने स्वयं स्वीकार किया है कि विज्ञान का छात्र एवं डेरी टेक्नोक्रेट होने के कारण भाषा शैली और छंद शास्त्र में उनकी पकड़ कम है, लेकिन उन्होंने मां सरस्वती की कृपा से इन रचनाओं का सृजन अंतत: भलीभांति संपन्न कर ही लिया है. बहरहाल, 128 पृष्ठ वाली इस पेपरबैक्स पुस्तक की क़ीमत298 रुपये है, जो कि लगता है कि पाठकों के लिए कुछ ज़्यादा है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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यादों का ज़ख़ीरा ही तो हैं
जिस पर
हमेशा के लिए
बस जाने को
ये दिल चाहता है...
-फ़िरदौस ख़ान

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करवा चौथ और रोज़ा


हिन्दू मज़हब की एक बड़ी ख़ासियत यह है कि इस मज़हब में बहुत से त्यौहार होते हैं और सभी हर्ष और उल्लास से लबरेज़ हैं. सभी त्यौहार अपने ही मौसम में आते हैं. रंगों का पर्व होली गर्मियों की शुरुआत में आता है, तो चिराग़ों का त्यौहार  दिवाली सर्दियों के शुरू में. इसी तरह मकर संक्रांति और तीज का भी अपना ही मौसम है. कड़कड़ाती ठंड और रिमझिम बारिश का रूमानी मौसम. 
फ़िलहाल करवा चौथ की रौनक़ है. सुहागिनें अपने सुहाग, तो कुंवारी लड़कियां अपने भावी जीवनसाथी के लिए व्रत रख रही हैं. बहुत से मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं. उनका मानना है कि जब उनकी जीवनसंगिनी उनके लिए व्रत रखती हैं, तो वो भी क्यों न उनके लिए व्रत रखें. इसी को तो मुहब्बत कहते हैं.
बहरहाल, करवा चौथ का व्रत रखना आस्था का मामला है. और आस्था, तर्क-वितर्क से परे हुआ करती है. इसलिए जो इस त्यौहार को मानते हैं, उन्हें हमारी तरफ़ से दिली मुबारकबाद. वैसे, आज हमारा भी रोज़ा है, लेकिन करवा चौथ वाला नहीं. नफ़ली रोज़ा 🙂
#करवाचौथ
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समन के साये...


मेरे महबूब !
इसी तपती हुई धूप में
चलकर
आ सकते हो,
तो आ जाओ,
क्योंकि
मेरे घर की राह में
समन के घने साये नहीं मिलते...
फ़िरदौस ख़ान

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ख़ुरासान की रोचक लोक कथाएं...


फ़िरदौस ख़ान
दुनिया भर के देशों की अपनी संस्कृति और सभ्यता है. लोक कथाएं भी इसी संस्कृति और सभ्यता की प्रतीक हैं. लोक कथाओं से किसी देश, किसी समाज की संस्कृति और उनकी सभ्यता का पता चलता है. बचपन में सभी ने अपनी नानी या दादी से लोक कथाएं सुनी होंगी. लोक कथाओं में ज़िंदगी के अनुभवों का निचो़ड़ होता है. ये लोक कथाएं सीख देती हैं. लोक कथाएं कैसे और कब वजूद में आईं, यह बताना तो बेहद मुश्किल है, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इतिहास बहुत पुराना है. लोक कथाएं विभिन्न देशों में सांस्कृतिक घनिष्ठता को बढ़ाती हैं. भारत और ईरान में साहित्यिक आदान-प्रदान का दौर जारी है. लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नासिरा शर्मा की किताब क़िस्सा जाम का, ईरान के ख़ुरासान की लोक कथाओं पर आधारित है. इसमें लेखिका ने ईरान के कवि मोहसिन मोहन दोस्त की लोक कथाओं का हिंदी अनुवाद पेश किया है. अनुवाद का काम कोई आसान नहीं होता. इसमें इस बात का ख़ास ख्याल रखना होता है कि मूल तहरीर का भाव क़ायम रहे. नासिरा शर्मा ख़ुद कहती हैं कि ये सारे क़िस्से ख़ुरासानी बोली में थे. फ़ारसी जानने के बावजूद उनके इशारों और मुहावरों को समझना आसान नहीं था, क्योंकि ये चीज़ें शब्दकोष में नहीं मिलतीं. उन्हें केवल कोई ईरानी ही बता सकता है. लेकिन कोशिश यही की गई कि ये क़िस्से ज्यों के त्यों पाठकों तक पहुंचाएं जाएं, ताकि उनका अर्थ वही रहेख जो क़िस्सागो कहना चाहता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के फ़ारसी भाषा तथा साहित्य विभाग के अध्यक्ष सैय्यद अमीर आबिदी कहते हैं कि ख़ुरासान एक चौराहे की तरह है, जहां ईरान की सभ्यता तथा संस्कृति संगठित हुई और जहां से अन्य क्षेत्रों में फैली. तूस, निशापुर और मशहद के केंद्र सांस्कृतिक वैभव के प्रतीक रहे और जहां पर उमर, ख़य्याम और फ़िरदौसी जैसे चिराग़ अब भी जीवित हैं. ख़ुरासान की ये लोक कथाएं निशापुर और दमगान से निकले हुए फीरोजों की तरह भव्य और सारगर्भित हैं. इस किताब में तीन तरह के क़िस्से शामिल हैं. पहले में दर्शन का चिंतन है, दूसरे में बादशाहों के ज़रिये दुनियावी बर्ताव का ज्ञान है और तीसरे में परियों और हब्शियों के क़िस्से हैं, जो बताते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को जो ताक़त बख्शी है, वह किसी और प्राणी के पास नहीं है. इसी ताक़त की बदौलत इंसान मुश्किल से मुश्किल हालात का सामना करते हुए अपनी जीत का परचम लहराता रहा है. इस किताब में अनेक रोचक लोक कथाएं हैं, जो पाठकों को आख़िर तक बांधे रखने में सक्षम हैं. बानगी देखिए-

एक रोज़ एक व्यापारी मछलियों से भरा टब लेकर घर पहुंचा. उसकी बला सी सुंदर पत्नी ने मछलियों को देखकर अपने चेहरे को नक़ाब से छुपा लिया, ताकि टब की मछलियां उसे न देख सकें. इस तरह मुंह छुपाये रही, ताकि उसका पति उसे सती सावित्री जैसी समझे.
जब भी व्यापारी घर में रहता कभी भी वह अपना मुंह हौज़ में न धोती और कहती-नर मछलियां कहीं मेरे पाप का कारण न बन जाएं. इस लाज से भरे अपने स्वभाव के कारण वह व्यापारी के सामने कभी हौज़ के समीप न जाती. एक दिन व्यापारी अपनी स्त्री के साथ बैठा हुआ था. एक नौकर भी वहीं खड़ा था. व्यापारी की स्त्री ने पहले की ही तरह नर मछलियों की बातें कीं और ब़डी अदा से शर्माई. यह सब देखकर वह नौकर हंस प़डा.
व्यापारी ने पूछा-क्यों हंसे तुम?
कुछ नहीं, यूं ही हंस दिया.

बिना कारण कैसी हंसी? सुनकर नौकर कुछा नहीं बोला, ख़ामोश ख़डा रहा. यह देखकर व्यापारी चिढ़ गया. उसका क्रोध देखकर नौकर डर गया और बोला-आपकी सुंदर स्त्री आपके ही घर के तहख़ाने में चालीस जवानों को बंद किए है. जब आप शिकार को चले जाते हैं तो वह उनके साथ रंगरेलियां मनाती है. यह सुनते ही व्यापारी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और वह बोला-मैं सच्चाई जानकर ही दम लूंगा. कल शिकार पर जा रहा हूं, परंतु लौटकर तुम्हारे ही घर आऊंगा. फिर सोचूंगा कि मुझे क्या करना है. दूसरे दिन व्यापारी दोबारा शिकार को चला गया और लौटकर उसी नौकर के घर पहुंचा और बोला-मुझे गधे पर रखे ख़ुरजीन (थैला) में छुपाकर वह जगह दिखाओ, जहां मेरी स्त्री चालीस जवानों के साथ गुलछर्रे उड़ाती है. इस काम के बदले में मैं तुमको सौ मन ज़ा़फ़रान दूंगा. नौकर सुनते ही राज़ी हो गया.  नौकर ने दरवेश का सा भेस बदला और ख़ुरजीन में व्यापारी को बिठाकर चल पड़ा. गली में घुसते ही दूर से ही गाने बजाने की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं. नौकर आगे बढ़ता गया और व्यापारी के पीछे जाकर दरवाज़ा खटखटाया और गाने लगा-
आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब
बिया बेनीगर इन मकरे ज़नान
हाला हाज़िर कुन सदमन ज़ा़फ़रान
अब तो दो मुझे सौ मन ज़ा़फ़रान

बार-बार वह गाता जा रहा जब तक दरवाज़ा खुल न गया. व्यापारी ने देखा सामने मह़िफल जमी थी.  गवैये बैठे गाना गा रहे थे, साज़ बजा रहे थे. चालीस जवान प्यालों में शराब पी रहे थे और व्यापारी की स्त्री मस्त-मस्त मदहोश-सी कभी इस युवक की गोद में, कभी उस युवक की गोद में जाती और दरवेश से कहती-वहीं पंक्तियां बार-बार गाओ-
आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब
अब तो दो मुझे सौ मन ज़ा़फरान
सुबह होने से पहले यह महफ़िल ख़त्म हुई. दरवेश व व्यापारी दोनों एक साथ लौटे. व्यापारी की स्त्री ने उन चालीस जवानों को एक-एक करके तह़खाने में भेजा और दरवाज़ा बंद करके मस्त, नशे में चूर, झूमती-सी बेख़बर सो गई. व्यापारी थैले से बाहर निकला और नौकर को हुक्म दिया कि जब तक मैं सोकर न उठूं, इसको संदूक़ में बंद करके एक किनारे रख दो. सुबह जब स्त्री की आंख खुली तो वह सबकुछ समझ गई. उसको संदूक़ से निकालकर व्यापारी के हुक्म से घो़डे की दुम से बांधकर जंगल की ओर भेज दिया गया. व्यापारी ने उन चालीस जवानों को आज़ाद किया और तह़खाने से ऊपर बुलाकर पूछा-असली माजरा क्या था?

वे बोले- संध्या के समय जब हम इधर से गुज़रे तो छत पर खड़ी आपकी स्त्री को देखते ही हम उसके रूप-लावण्य की चमक से बेहोश हो जाते. जब होश आता तो अपने को तह़खाने में पाते. जब आप शिकार पर चले जाते तो हमारे बंध खोले जाते और हम रंगरेलियां मनाते.

किताब में प्रस्तुत लोक कथाएं पाठक को ईरान की संस्कृति और सभ्यता से परिचित कराती हैं. नासिरा शर्मा की यह कोशिश सराहनीय है. इससे हिंदुस्तान के लोगों को ईरानी सभ्यता को जानने का मौक़ा मिलेगा. दरअसल, इस तरह की कोशिशें विभिन्न देशों के बीच रिश्तों को और बेहतर बनाने का काम करती हैं. आज के दौर में ऐसे कार्यों की बेहद ज़रूरत है. साहित्य देश की सरहदों को नहीं मानता. वह तो उन हवाओं की तरह है, जो जहां से गुज़रती हैं, माहौल को ख़ुशनुमा बना देती हैं.

किताब रोचक है, लेकिन कई जगह भाषा की अशुद्धियां हैं. उर्दू शब्दों को ग़लत तरीक़े से लिखा गया है. हिंदी में उर्दू के शब्द लिखते वक़्त अकसर नुक्ता ग़लत लगा दिया जाता है, जिससे उर्दू जानने वालों को वे शब्द काफ़ी अखरते हैं. बेहतर हो नु़क्ता लगाया ही न जाए. बहरहाल, किताब रोचकता से सराबोर है, जिसे पाठक पढ़ना पसंद करेंगे. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : क़िस्सा जाम का    
लेखिका : नासिरा शर्मा
प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन        
क़ीमत : 225 रुपये

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यश चोपड़ा : ख़ूबसूरत लम्हों का सफ़र

फ़िरदौस ख़ान
यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा के ऐसे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने अपने पचास साल के करियर में हिंदी सिनेमा को कई यादगार फ़िल्में दीं. उन्होंने तीन पीढ़ियों के साथ निर्देशन का ख़ूबसूरत सफ़र तय किया. उनकी फ़िल्में मुहब्बत और ख़ूबसूरती से लबरेज़ होती थीं. इसलिए उन्हें रोमांस का बादशाह भी कहा गया. हालांकि उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनाईं और दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ ही समाज को नई दिशा देने की कोशिश की.
यश चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर, 1932 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था. उनके परिवार के सदस्य चाहते थे कि वह इंजीनियर बनें, लेकिन उनकी दिलचस्पी फ़िल्मों में थी. उन्होंने सहायक निर्देशक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आई एस जौहर और अपने ब़डे भाई बीआर चोपड़ा के साथ काम किया. बतौर सहायक निर्देशक उनकी फ़िल्मों में एक ही रास्ता, नया दौर और साधना शामिल है. इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन करने का फ़ैसला किया. बतौर निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म धूल का फूल थी. यह 1959 की सबसे कामयाब फ़िल्म रही. अपने विषय की वजह से यह फ़िल्म चर्चाओं में भी ख़ूब रही. नायक नायिका के विवाह पूर्व मिलन में कहीं कोई ज़बरदस्ती नहीं है. नायक बदनीयत नहीं है. नायिका भी सहज ही इसे स्वीकार करती है. इस संबंध में अकेला नायक ही क़ुसूरवार नहीं है, बल्कि नायिका भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. मगर दोनों में से कोई भी अपनी भूल की सज़ा भुगतने को तैयार नहीं है. दोनों के किए की सज़ा उनकी संतान को भुगतनी पड़ती है. फ़िल्मकार यहां सवाल उठाता है कि नाजायज़ कौन है, माता-पिता या संतान? इसी तरह फ़िल्म त्रिशूल में अमिताभ बच्चन अपने नाजायज़ पिता के ख़िलाफ़ जंग लड़ता है. फिर उन्होंने 1961 में फ़िल्म धर्म पुत्र का निर्देशन किया. सामाजिक मुद्दे पर बनी इस फ़िल्म को भी बेहद कामयाबी मिली. इसके बाद 1965 में उन्होंने फ़िल्म वक़्त का निर्देशन किया. यह अपने समय की सबसे महंगी और भव्य फ़िल्म थी, जिसमें कई पुराने और नए सितारों को एक साथ पेश किया गया था. इस फ़िल्म के ज़रिये भव्य सेट, आकर्षक आउटडोर, आंखों को लुभाने वाले इंद्रधनुषी शो़ख रंग, चमचमाते रेशमी लिबास, शानदार बंगले और उनमें सजा महंगी सामान, फव्वारे, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, दिल लुभाता गीत-संगीत यश चोप़डा के सिनेमा की पहचान बन गया. उन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिये मल्टीस्टारर ट्रेंड लाकर हिंदी सिनेमा को एक नई दिशा दी. उनकी बनाई मल्टीस्टारर फ़िल्म दीवार, त्रिशूल, चांदनी, पंरपरा, डर और दिल तो पागल है, ने कामयाबी की नई इबारत लिखी.

उन्होंने 1973 में यशराज फ़िल्मस की स्थापना की थी. उनके निर्देशन में बनी फ़िल्मों में धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक़्त, आदमी और इंसान, इत्तेफ़ाक़, दाग़, जोशीला, दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर,  सिलसिला, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, परंपरा, डर, दिल तो पागल है, वीर ज़ारा और जब तक है जान शामिल हैं. फ़िल्म जब तक है जान उनकी मौत के बाद 12 नवंबर को प्रदर्शित हुई.
उन्होंने कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया, जिनमें दाग़, कभी-कभी, दूसरा आदमी, त्रिशूल, नूरी, काला पत्थर, ना़ख़ुदा, सवाल, मशाल, फ़ासले, विजय, चांदनी, लम्हे, डर, आईना, ये दिल्लगी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, मुहब्बतें, मुझसे दोस्ती करोगे, मेरे यार की शादी है, साथिया, हम तुम, वीर ज़ारा, बंटी और बब्ली, सलाम नमस्ते, नील एन निक्की, फ़ना, धूम 2, क़ाबुल एक्सप्रैस, ता रा रम रम, झूम बराबर झूम, चक दे इंडिया, लागा चुनरी में दाग़, आजा नच ले, टशन, थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक, बचना ऐ हसीनो, रोड साइड रोमियो, रब ने बना दी जो़डी, न्यू यॉर्क, दिल बोले हडिप्पा, रॉकेट सिंह : सेल्समैन ऑफ द ईयर, बैंड बाजा बारात, मुझसे फ्रेंडशिप करोगे, मेरे ब्रदर की शादी, लेडीज़ वर्सिस रॉकी बहल, इश्क़ज़ादे और एक था टाइगर शामिल हैं.

उनकी फ़िल्में रूमानी होती हैं. यश चोप़डा के प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते थे. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते थे. वह अपनी पहली फ़िल्म धूल का फूल से लेकर वीर ज़ारा तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते थे. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भाव भूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले रहे.

हिंदी सिनेमा में यश चोपड़ा को कई महत्वपूर्ण बदलावों के लिए भी याद किया जाएगा, मसलन उन्होंने
फ़िल्म़ि कभी-कभी के ज़रिये अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन से शायर बना दिया. अमिताभ बच्चन के करियर को स्थापित करने में शायद सबसे ज़्यादा योगदान यशराज बैनर का ही है. 1975 में अमिताभ बच्चन को फ़िल्म दीवार में एंग्री यंग मैन के रूप में दिखाया गया, तो 1976 में फ़िल्म कभी-कभी में यश चोपड़ा ने अमिताभ को शायर के रूप में दिखाकर दर्शकों को अमिताभ का नया रूप दिखाया. 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म त्रिशूल और 1981 में प्रदर्शित फ़िल्म सिलसिला में अमिताभ बच्चन का शानदार अभिनय देखने को मिला. शाहरुख़ ख़ान को बॉलीवुड का किंग बनाने वाले यश चोपड़ा ही थे. उन्होंने शाहरुख़ ख़ान को प्रेमी के किरदार देकर हिंदी सिनेमा में रोमांस को नए सिरे से परिभाषित किया और रोमांटिक फ़िल्मों का नया दौर शुरू किया. शाहरुख़ ख़ान दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है, मोहब्बतें, वीर ज़ारा, चक दे इंडिया, रब ने बना दी जोड़ी और फ़िल्म जब तक है जान तक यश चोपड़ा के साथ जुड़े रहे. हिंदी सिनेमा की बिना इंटरवल, बिना गाने की पहली फ़िल्म इत्तेफ़ाक़ 1969 में प्रदर्शित हुई. उनकी इस फ़िल्म में नंदा ने एक बेवफ़ा पत्नी का किरदार निभाया.

यश चोपड़ा हिंदी सिनेमा की मूलधारा के निर्देशक थे. उन्होंने अपनी फ़िल्मों के किरदारों के साथ ही उनके गीत-संगीत और लोकेशन भी ख़ासा ध्यान दिया. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ख़ूबसूरत दृश्य दिखाने के लिए विदेशों में शूटिंग की. 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल तो पागल है हिंदी सिनेमा की पहली फ़िल्म है, जिसकी शूटिंग जर्मनी में की गई थी. दर्शकों को लुभाने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. यश चोपड़ा को अपनी नायिकाओं के लिए चांदनी नाम बहुत प्रिय था. इसलिए उन्होंने फ़िल्म दाग़ में राखी, सिलसिला में रेखा और फ़ासले में फ़रहा, चांदनी में रेखा को यह नाम दिया.

उन्होंने हमेशा अपने वक़्त के लोकप्रिय अभिनेता अभिनेत्रियों के साथ फ़िल्में बनाईं. उनके पसंदीदा नायकों में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, शशि कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल कपूर, शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सैफ़ अली ख़ान रहे, तो नायिकाओं में सायरा बाना, माला सिन्हा, नंदा, साधना, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, राखी, परवीन बॉबी, रेखा, जया भादु़डी, श्रीदेवी, जूही चावला, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी के नाम लिए जा सकते हैं.

उन्होंने अपनी फ़िल्मों की नायिकाओं को बेहद ख़ूबसूरती और सादगी के साथ पेश किया. उन्होंने फ़िल्म वक़्त में साधना, सिलसिला में रेखा, चांदनी, लम्हे में श्रीदेवी और फ़िल्म मोहब्बतें में ऐश्वर्या राय को सफ़ेद शिफॉन की साड़ी में दिखाया. सफ़ेद साड़ी में लिपटी उनकी नायिका ज़मीन पर उतरी किसी आसमानी हूर की तरह दर्शकों पर अपनी ख़ूबसूरती का जादुई असर छोड़  जाती है. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में कहीं भी अश्लीलता का सहारा नहीं लिया. इत्तेफ़ाक़ में उन्होंने नंदा को पूरी फ़िल्म में एक ही साड़ी में दिखाने के बावजूद जिस मादकता के साथ प्रस्तुत किया, वैसा दैहिक आकर्षण नंदा की किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला.

यश चोपड़ा को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया. उन्हें फ़िल्म वक़्त (1965), इत्तेफ़ाक़ (1969), दाग़ (1973), दीवार (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के तौर पर फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया, जबकि फ़िल्म लम्हे (1991), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), दिल तो पागल है (1997) और वीर ज़ारा (2004)के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. इसके अलावा उन्हें फ़िल्म चांदनी, डर, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, दिल तो पागल है और वीर ज़ारा के लिए सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय और मनोरंजक फ़िल्म के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिले. इसी तरह 2006, 2007 और 2008 में उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पावर अवॉर्ड दिया गया. भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया.

पिछले दिनों जब वह फ़िल्म जब तक है जान की शूटिंग में व्यस्त थे, तब उनकी तबीयत ख़राब हो गई थी. इस वजह से उन्होंने फ़िल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग रोक दी थी. इसके साथ ही उन्होंने फ़िल्म निर्माण से संन्यास लेने का ऐलान भी कर दिया था.
उन्हें इलाज के लिए मुंबई के लीलावती अस्पताल में दाख़िल कराया गया, जहां 21 अक्टूबर को डेंगू से उनकी मौत हो गई.

यशराज फ़िल्म्स की ज़िम्मेदारी उनके बेटे आदित्य चोपड़ा संभाले हुए हैं. वह भी अपने पिता की तरह बेहद प्रतिभाशाली हैं, लेकिन यश चोपड़ा की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकेगा, यह भी हक़ीक़त है.


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