करूं न याद, मगर किस तरह भुलाऊं उसे...
फ़िरदौस ख़ान
अहमद फ़राज़ आधुनिक दौर के उम्दा शायरों में गिने जाते हैं. उनका जन्म 14 जनवरी, 1931 को पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के कोहाट में हुआ था. उनका असली नाम सैयद अहमद शाह था. उन्होंने पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू और फ़ारसी में एमए किया. इसके बाद यहीं प्राध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई थी. उन्हें बचपन से ही शायरी का शौक़ था. वह इक़बाल से बहुत प्रभावित थे, लेकिन बाद में उनका रुझान प्रगतिवादी कविता की तरफ़ हो गया. उनकी कई ग़ज़लों को ज़ियाउल हक़ सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत के तौर पर लिया गया और उन्हें जेल जाना पड़ा. जेल से आने के बाद वह पाकिस्तान छोड़कर चले गए. इस दौरान वह कई सालों तक संयुक्त राजशाही यानी ग्रेट ब्रिटेन, उत्तरी आयरलैंड के यूनाइटेड किंगडम और कनाडा में रहे. उन्होंने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की. 1986 में वह पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर चेयरमैन बने. 2004 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ अवॉर्ड से नवाज़ा, लेकिन 2006 में उन्होंने सरकार की नीतियों के प्रति ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए यह पुरस्कार वापस कर दिया.
अहमद फराज़ को मुहब्बत का शायर कहना ग़लत न होगा. उनके कलाम में मुहब्बत अपने शो़ख रंग में नज़र आती है:-
करूं न याद, मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे
वो ख़ार-ख़ार है शा़ख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख्म-ज़ख्म हूं फिर भी गले लगाऊं उसे...
लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूं और कहां से लाऊं उसे
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने मांगे
दिल वो बेरहम कि रोने के बहाने मांगे
अपना ये हाल के जी हार चुके, लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अंदाज़ पुराने मांगे
जिस सिम्त भी देखूं नज़र आता है कि तुम हो
ऐ जाने-ए-जहां ये कोई तुम सा है कि तुम हो
ये ख्वाब है खुशबू है कि झोंका है कि पल है
ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो...
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-राहे दुनिया की निभाने के लिए आ...
बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है
कहां वो क़ुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फिराक़ का आलम भी ख्वाब जैसा है
मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही
दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है...
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें...
उन्होंने ग़ज़लों के साथ नज़्में भी लिखीं. उनकी नज़्मों को भी वही लोकप्रियता मिली, जो उनकी ग़ज़लों को हासिल है. उनकी नज़्म ख्वाब मरते नहीं बेहद पसंद की जाती है:-
ख्वाब कभी मरते नहीं
ख्वाब दिल हैं, न आंखें, न सांसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएंगे
उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें ख़ानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी और दर्द आशोब (ग़ज़ल संग्रह) और ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में (ग़ज़ल और नज़्म संग्रह) शामिल हैं. 25 अगस्त, 2008 को किडनी फेल होने के कारण उनका निधन हो गया. वह काफ़ी वक़्त से बीमार थे और इस्लामाबाद के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. इस्लामाबाद के ही क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया.
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