ऋतु बसंत की मादक बेला, तुझ बिन सूनी ओ हरजाई
आज बसंत पंचमी है... इस मौसम से बहुत-सी यादें वाबस्ता हैं... जैसे आज के दिन पीले कपड़े पहनना...कवि सम्मलेन आयोजित करना...और सभी से ग़ुज़ारिश करना कि वे पीले कपड़े पहनकर आएं... सभी साथी कई रोज़ पहले से ही बसंत पंचमी के लिए पीले कपड़े ख़रीदने और सिलवाने शुरू कर देते थे... हमारा एक ग्रुप हुआ करता था... सभी पत्रकार थे... उनमें कुछ कवि और कुछ साहित्य प्रेमी थे... सब दूर-दूर शहरों में जा बसे हैं...
बहरहाल, आप सभी को बसंत पंचमी की तहे-दिल से मुबारकबाद...
गीत
ऋतु बसंत की मादक बेला
तुझ बिन सूनी ओ हरजाई
मन का दर्पण बिखरा-बिखरा
जैसे अम्बर की तन्हाई...
कंगन, पायल, झूमर, झांझर
सांझ सुहानी, नदी किनारा
आकुल, आतुर, विरह-व्यथित मन
पंथ प्रिय का देख के हारा
कल की यादें बांह में ले के
मुझको सता रही अमराई...
क्षण, रैना, दिन सब ही बीते
बीत गईं कितनी सदियां
नयन मिलन की आस लिए हैं
ले भूली-बिसरी सुधियां
अंग-अंग जल उठे विरह में
ऐसी मंद चली पुरवाई...
-फ़िरदौस ख़ान
3 मई 2010 को 2:45 pm बजे
bahut badhiya
3 मई 2010 को 2:50 pm बजे
अरे वा..........................................ह.........
3 मई 2010 को 3:07 pm बजे
एक आदर्श कविता को पढ़ा अभी-अभी!मेरे मन में भी कई बार आता है कि कुछ ऐसा ही,प्रवाहमयी,भावपूर्ण लिखू,नहीं लिखा जाता!
शब्दों का बेहद सुन्दर संयोजन,अटूट प्रवाह के साथ!भाव को क्या खूब शब्द-चित्रित कर दिया है आपने!
कुंवर जी,
3 मई 2010 को 3:32 pm बजे
सुंदर गीत।
3 मई 2010 को 4:03 pm बजे
वाह्………………बहुत सुन्दर भाव पिरोये हैं।
3 मई 2010 को 4:33 pm बजे
nice
3 मई 2010 को 4:36 pm बजे
मानवीय संबेदनाओं को दिखाती उम्दा प्रस्तुती !!!!
3 मई 2010 को 6:29 pm बजे
बेहतरीन गीत.
3 मई 2010 को 7:02 pm बजे
bahut khub
bahtrin is jordar garmi me itni hariyali aap ki kavita me
bahut khub
3 मई 2010 को 7:40 pm बजे
ओह्ह इस भयंकर तपिश में भी वसंत को याद कर लेने का साहस ......? क्या बात है.....सुन्दर रचना.....जो भी प्रेरणा इस ऋतू परिवर्तन का प्रेरक तत्त्व हो वह कायम रहे कायनात की तरह ही....शुभकामना.
पंकज झा.
3 मई 2010 को 8:31 pm बजे
कविता बहुत अच्छी लगी...
3 मई 2010 को 10:46 pm बजे
हर द्रष्टिकोण से एक उच्च स्तरीय कविता - १०० में १०० - बधाई
3 मई 2010 को 10:51 pm बजे
फिरदौस जी,
आज अपने ब्लाग पर आपकी छोटी किन्तु महत्वपूर्ण टिप्पणी देखकर अच्छा लगा। एक अच्छा लिखने-पढ़ने और सुलझे विचारों वाला जब कोई इतना ही लिख जाता है कि-शानदार पोस्ट तो मन को अच्छा लगता है। लिखने-पढ़ने और उससे जीवन को बहुत करीब से देखने वालों की टिप्पणी मेरे लिए बहुत मायने रखती है। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
25 अगस्त 2010 को 2:09 pm बजे
bahut sundar blog aur rachnain
19 फ़रवरी 2011 को 7:45 pm बजे
बार-बार गुनगुना रहा हूँ .......एक जगह अटक रहा हूँ .......आपसे दरख्वास्त है -अगर "पंथ प्रिय का देख के हारा" के स्थान पर "प्रियतम बाट जोह के हारा" ...या फिर ....."प्रियतम पंथ निहार के हारा" करदें तो गुनगुनाने में प्रवाह बन जाएगा