नूर का क़तरा


मेरे महबूब !
इश्क़ के नूर का
एक क़तरा
मेरी रूह में समा गया
और
ज़िन्दगी मुकम्मल हो गई...
-फ़िरदौस ख़ान
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न दैन्यम न पलायनम...


फ़िरदौस ख़ान
ज़िन्दगी सिर्फ़ ख़ुशहाली का ही नाम नहीं है... ज़िन्दगी में मुश्किलें भी आती हैं... अम्मी ने हमेशा यही सिखाया कि मुश्किलों से कभी डरना नहीं चाहिए... और न ही उनसे कभी भागना चाहिए, बल्कि हिम्मत के साथ उनका मुक़ाबला करना चाहिए... हिम्मत वाले लोग मुश्किल से मुश्किल हालात में भी अपना वजूद बनाए रखते हैं...

बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो ज़रा-ज़रा सी मुश्किल से भी घबरा जाते हैं और बुज़दिलों की तरह भाग खड़े होते हैं...
ज़िन्दगी में कभी भी बुज़दिलों पर यक़ीन नहीं करना चाहिए...

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ख़ुशनसीब औरतें


बहुत कम ही ऐसी ख़ुशनसीब औरतें होती हैं, जिनके शौहर उनकी पसंद के होते हैं... ज़्यादातर के शौहर उनके परिवार वालों की पसंद के ही होते हैं... कुछ औरतें उन्हें अपनी पसंद का बनाने की कोशिश करती हैं... कुछ उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देती हैं और इसे क़िस्मत का लिखा मानकर सब्र कर लेती हैं...
ठीक यही बात मर्दों पर भी लागू होती है... 
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कहानी जनवरी की...


फ़िरदौस ख़ान
रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर साल के पहले महीने जनवरी का नाम रखा गया. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं. एक से वह आगे और दूसरे से पीछे देखता है. इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं. एक से वह बीते हुए साल को देखता है और दूसरे से अगले साल को. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया. जेनस बाद में जेनुअरी बना, फिर हिन्दी में जनवरी हो गया.
जनवरी का महीना बहुत ख़ास होता है... मौसम के हिसाब से भी और त्यौहारों के लिहाज़ से भी. इस महीने में कई त्यौहार आते हैं. मकर संक्रान्ति का पावन पर्व इसी माह में आता है. इसी महीने में यानी पौष मास में सूर्य मकर राशि में दाख़िल होता है. मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति शुरू हो जाती है.
देश के अलग-अलग प्रदेशों में इसे अपने-अपने तरीक़े से मनाया जाता है. हरियाणा-पंजाब में मकर संक्रांति से एक दिन पहले यानी 13 जनवरी को लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है. गुजरात में पतंग उत्सव का आयोजन होता है. उत्तर प्रदेश में माघ मेला लगता है. तमिलनाडु में पोंगल और असम में माघ बिहू की धूम रहती है. ये सभी त्यौहार 13 से 24 जनवरी के बीच मनाए जाते हैं. फिर 26 जनवरी को आता है राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस...
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हज़रत जुनैद बग़दादी


फ़िरदौस ख़ान
जुनैद बग़दादी प्रसिध्द सूफ़ी संत हैं. वे संत हज़रत सक्ती क़े भांजे और शिष्य थे. उन्हें शिक्षा और अमल का उद्गम माना जाता है. ईश्वर भक्ति और त्याग के प्रतीक संत जुनैद बग़दादी ने लोगों को कर्तव्य पालन और लोककल्याण का संदेश दिया. इसके बावजूद उनके विरोधी उन्हें अधर्मी और काफ़िर कहकर पुकारते थे.

बचपन में जब एक दिन वे मदरसे से आ रहे थे तो उन्होंने रास्ते में अपने पिता को रोते हुए देखा. उन्होंने इसका कारण पूछा तो उनके पिता ने बताया कि आज मैंने कुछ दिरहम (मुद्रा) तुम्हारे मामा हज़रत सक्ती को भेजे थे, लेकिन उन्होंने इन्हें लेने से साफ़ इंकार कर दिया. जब ईश्वर के भक्तों को मेरे कडे परिश्रम की कमाई पसंद नहीं तो फिर मेरा जीवन भी व्यर्थ है. जुनैद बग़दादी पिता से दिरहम लेकर अपने मामा की कुटिया पर पहुंचे. हज़रत सक्ती ने पूछा कौन है? उन्होंने जवाब दिया कि मैं जुनैद हूं और अपने पिता की ओर से भेंट लेकर आया हूं, इसे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए. मगर जब जुनैद ने इसे लेने से साफ़ इंकार कर दिया तो उन्होंने कहा कि आपको उस ईश्वर का वास्ता जिसने आप को संत बनाया और मेरे पिता को सांसारिक व्यक्ति बनाकर दोनों के साथ ही न्याय किया है. मेरे पिता ने अपना कर्तव्य पूरा किया और अब आप अपने नैतिक दायित्व का पालन करें. उनकी यह बात सुनकर हज़रत सक्ती ने दरवाज़ा खोल दिया और उन्हें गले से लगा लिया. उसी दिन हज़रत सक्ती ने जुनैद को अपना शिष्य बना लिया.

सात साल की छोटी उम्र में वे अपने पीर हज़रत सक्ती के साथ मक्का की यात्रा पर गए थे. तभी वहां सूफियों में आभार की परिभाषा पर चर्चा हो रही थी. सबने अपने-अपने विचार रखे. हज़रत सक्ती ने उनसे भी अपने विचार व्यक्त करने को कहा. गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने कहा कि आभार की परिभाषा यह है, जब ईश्वर सुख-एश्वर्य दे तो इसे लेने वाला इसके कारण अल्लाह की अवज्ञा न करे. मक्का से वापस आकर उन्होंने शीशों की दुकान खोली, मगर दुकानदारी में उनका ज़रा भी मन नहीं लगा. वे कहते हैं कि मनुष्य को नैतिक शिक्षा अपने आसपास के वातावरण से ही मिल जाती है. निष्ठा की शिक्षा उन्होंने एक हज्जाम से प्राप्त की थी. एक बार मक्का में वे एक हज्जाम के पास गए तो देखा कि वे किसी धनवान की हजामत बना रहा है. उन्होंने उससे आग्रह किया कि वह ईश्वर के लिए उनकी भी हजामत बना दे. यह सुनकर हज्जाम ने धनवान की हजामत छोड़कर उनके बाल काटने शुरू कर दिए. बाल काटने के बाद हज्जाम ने उनके हाथ में एक पुडिया दी, जिसमें कुछ रेज़गारी लिपटी हुई थी और कहा कि इसे अपने काम में ख़र्च कर लेना. पुडिया लेकर उन्होंने संकल्प लिया कि उन्हें जो कुछ मिलेगा उसे वे इस हज्जाम को दे देंगे. कुछ समय बाद बसरा में एक व्यक्ति ने अशर्फियों से भरी थैली उन्हें भेंट की. वे उस थैली को लेकर हज्जाम के पास गए. थैली देखकर हज्जाम ने कहा कि उसने तो उनकी सेवा केवल अल्लाह के लिए की थी, इसलिए वह इसे स्वीकार नहीं कर सकता.

जुनैद बग़दादी कहते हैं कि अल्लाह के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी भी किसी पर उपकार करके अहसान नहीं जताता और न ही उसके बदले में उससे कुछ चाहता है. वे लोगों को नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलने की सीख देते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को सीमित साधनों में ही प्रसन्न रहना चाहिए. सुख-दुख जीवन के दो पहलू हैं. जिस अल्लाह ने सुख दिया है, दुख भी उसी की देन है. इसलिए मनुष्य को दुखों से घबराने की बजाय सदा अपने कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए. वे स्वयं भी रूखी-सूखी रोटी खाकर गुज़ारा करते थे. अमीर उन्हें बहुमूल्य रत्न और वस्तुएं भेंट करते थे, लेकिन वे इन्हें लेने से साफ इंकार कर देते थे. वे कहते थे कि सूफियों को धन की ज़रूरत नहीं है. अगर कोई उन्हें कुछ देना ही चाहता है तो वे ज़रूरतमंदों की मदद करे, जिससे ईश्वर भी उससे प्रसन्न रहे. वे अपने साथ बुरा बर्ताव करने वाले लोगों को उनकी गलती के लिए माफ करके उनकी भी मदद करते थे. एक बार चोर ने उनका कुर्ता चुरा लिया और दूसरे दिन जब बाज़ार में उन्होंने चोर को कुर्ता बेचते देखा. ख़रीदने वाला चोर से कह रहा था कि अगर कोई गवाही दे दे कि यह माल तेरा ही है तो मैं ख़रीद सकता हूं. उन्होंने कहा कि मैं वाकिफ़ हूं. यह सुनकर ख़रीदार ने कुर्ता ख़रीद लिया.

उनका कहना था कि तकलीफ़ पर शिकायत न करते हुए सब्र करना बंदगी की बेहतर अलामत है. सच्चा बंदा वही है जो न तो हाथ फैलाए और न ही झगड़े. तवक्कुल सब्र का नाम है जैसा कि अल्लाह फ़रमाता है कि वे लोग जो सब्र करते हैं और अपने मालिक पर भरोसा करते हैं. सब्र की परिभाषा यह है कि जो लोगों से दूर करके अल्लाह के करीब कर दे. तवक्कुल का मतलब यह है कि तुम अल्लाह के ऐसे बंदे बन जाओ जैसे आदिकाल में थे. फ़रमाया कि यकीन नाम है इल्म का, दिल में इस तरह बस जाने का जिसमें बदलाव न हो सके. यकीन का मतलब यह है कि गुरूर को छोड़कर दुनिया से बे नियाज़ हो जाओ. उनका यह भी कहना था कि जिसकी ज़िन्दगी रूह पर निर्भर हो वह रूह निकलते ही मर जाता है और जिसकी ज़िन्दगी का आधार ख़ुदा पर हो वह कभी नहीं मरता, बल्कि भौतिक जिन्दगी से वास्तविक ज़िन्दगी हासिल कर लेता है. फरमाया अल्लाह की रचना से प्रेरणा हासिल न करने वाली आंख का अंधा होना ही अच्छा है और जो जबान अल्लाह के गुणगान से महरूम हो उसका बंद होना ही बेहतर है. जो कान हक़ की बात सुनने से मजबूर हो उसका बहरा होना अच्छा है और जो जिस्म इबादत से महरूम हो उसका मुर्दा होना ही बेहतर है.

वे भाईचारे और आपसी सद्भाव में विश्वास रखते थे. एक बार किसी ने उनसे कहा कि आज के दौर में दीनी भाइयों की कमी है. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि तुम्हारे विचार में दीनी भाई केवल वे हैं जो तुम्हारी परेशानियों को हल कर सकें तब तो निश्चित ही वे कम हैं और अगर तुम वास्तविक दीनी भाइयों की कमी समझते हो तो तुम झूठे हो, क्योंकि दीनी भाई का वास्तविक अर्थ यह है कि जिनकी मुश्किलों का हल तुम्हारे पास हो और सारे मामलों को हल करने में तुम्हारी मदद शामिल हो जाए और ऐसे दीनी भाइयों की कमी नहीं है. जुनैद बग़दादी की यह बात आज भी समाज के लिए बेहद प्रासंगिक है.

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हिन्दू शायर ने लिखा था पाक का क़ौमी तराना


फ़िरदौस ख़ान
पाकिस्तान में इन दिनों वहां के पहले क़ौमी तराने (राष्ट्रगान) बहस का मुद्दा बना हुआ है. पाक के अंग्रेजी अखबार ‘डान’ में सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका बीना सरवर ने इस बारे में लिखा है, ‘जिन्ना के विचारों से पीछा छुड़ाने की सोच के तहत ही आज़ाद की नज़्म को तुच्छ मान लिया गया था, लेकिन अपने प्रतीकों की वजह से वह नज़्म क़ाबिले-गौर है. इसे फिर से स्थापित किया जाए और कम से कम राष्ट्रीय गीत का दर्जा देकर सम्मान दिया जाए, ताकि हमारे बच्चे इससे सीख सकें. क्योंकि भारतीय बच्चे इक़बाल की कृति... सारे जहां से अच्छा... से सीख रहे हैं.’

ग़ौरतलब है कि 1950 में हाफ़िज़ जालंधरी की नज़्म को क़ौमी तराने का दर्जा देने से पहले जिस शायर को यह सम्मान दिया गया था उनका नाम था जगन्नाथ आज़ाद. पाकिस्तान के क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्नाह ने लाहौर में रहने वाले उर्दू के शायर तिलोक चंद के बेटे जगन्नाथ आज़ाद को 1947 में देश के रूप में अलग होने से कुछ ही दिनों पहले पाकिस्तान का राष्ट्रगान लिखने का ज़िम्मा सौंपा था.

नया देश बनने के साथ ही देश के लिए विभिन्न चिन्ह और प्रतीक चुनने का काम भी शुरू हुआ. देश का झंडा पहले ही तैयार हो चुका था, लेकिन क़ौमी तराना नहीं बना था. आज़ादी के वक़्त पाकिस्तान के पास कोई क़ौमी तराना नहीं था. इसलिए जब भी परचम फहराया जाता तो " पाकिस्तान ज़िन्दाबाद, आज़ादी पैन्दाबाद" के नारे लगते थे.

क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्नाह को यह मंज़ूर नही था. वे चाहते थे कि पाकिस्तान के क़ौमी तराने को रचने का काम जल्द से जल्द पूरा हो. उनके सलाहकारों ने उन्हें कई जानेमाने उर्दू शायरों के नामों पर गौर करने को कहा, लेकिन जो बेहतरीन क़ौमी तराना रच सकते थे, लेकिन जिन्नाह दुनिया के सामने पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष छवि स्थापित करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने लाहौर के उर्दू शायर जगन्नाथ आज़ाद से कहा ''मैं आपको पांच दिन का ही वक़्त दे सकता हूं, आप पाकिस्तान के लिए क़ौमी तराना लिखें". हालांकि पाकिस्तान के कई नेताओं को इससे जिन्नाह का यह क़दम अच्छा नहीं लगा, लेकिन जिन्नाह की मर्ज़ी के सामने किसी का नहीं चली. वे बेबस थे.

आखिरकार जगन्नाथ आज़ाद ने पांच दिनों के अंदर क़ौमी तराना तैयार कर लिया जो जिन्नाह को बहुत पसंद आया. क़ौमी तराना के बोल थे-

ऐ सरज़मीं ए पाक ज़र्रे तेरे हैं आज सितारों से तबनक रोशन है कहकशां से कहीं आज तेरी खाक़...

जिन्नाह ने इसे क़ौमी तराने के रूप मे मान्यता दी और उनकी मौत तक यही गीत क़ौमी तराना बना रहा. सितंबर 1948 में जिन्ना की मौत के महज़ छह माह बाद ही इस क़ौमी तराने की मान्यता भी ख़त्म कर दी गई. किस्तान सरकार ने एक राष्ट्र-गीत कमेटी बनाई और जाने माने शायरों से क़ौमी तराने के नमूने मंगवाए, लेकिन कोई भी गीत क़ौमी तराने के लायक़ नहीं बन पा रहा था. आखिरकार पाकिस्तान सरकार ने 1950 मे अहमद चागला द्वारा रचित धुन को राष्ट्रीय धुन के तौर पर मान्यता दी. उसी वक़्त ईरान के शाह पाकिस्तान की यात्रा पर आए और उन्हें यह धुन बेहद पसंद आई. यह धुन पाश्चात्य ज़्यादा लगती थी, लेकिन राष्ट्र-गीत कमेटी का मानना था कि इसका यह स्वरूप पाश्चात्य समाज में ज़्यादा पसंद किया जाएगा.

सन 1954 में उर्दू के मशहूर शायर हाफ़िज़ जालंधरी ने इस धुन के आधार पर एक गीत की रचना की. यह गीत राष्ट्र-गीत कमेटी के सदस्यों को पसंद भी आया. और आखिरकार हाफ़िज़ जालंधरी का लिखा गीत पाकिस्तान का क़ौमी तराना बन गया. इस क़ौमी तराने के बोल हैं-

पाक सरज़मी शाद बाद, किश्वरे हसीँ शाद बाद, तु निशाने अज़्मे आलीशान अर्ज़े पाकिस्तान मर्कज़े हसीं शाद बाद...
हाफ़िज़ जालंधरी के इस क़ौमी तराने के बाद जगन्नाथ आज़ाद का गीत भुला दिया गया. बाद में जगन्नाथ आज़ाद बाद में भारत चले आए थे.

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हीरे की लौंग


ईद मिलादुन नबी और क्रिसमस साथ-साथ... ईद मिलादुन नबी हमारे लिए ज़ाती तौर पर भी बहुत ख़ास है... इस दिन उन्होंने हमें हीरे की लौंग दी थी... वो जानते हैं कि हमें लौंग बहुत पसंद है और हमारे पास बहुत-सी लौंगें रहती हैं... अगर लौंग गुम हो जाए, तो हम फ़ौरन दूसरी पहन लेते हैं... दो दिन पहले रात को उनकी दी हुई हीरे की लौंग हमसे खो गई... मन उदास हो गया... हम इसलिए उदास हुए हों कि वो लौंग हीरे की थी, क़ीमती थी, ऐसा नहीं था... सबसे बड़ी बात थी कि वो लौंग उन्होंने हमें दी थी... ख़ुदा का शुक्र है कि अगले दिन सुबह लौंग हमें मिल गई... उसे पाकर ऐसा लगा, न जाने हमने क्या पा लिया हो...
क्रिसमस तो है ही हमारा पसंदीदा त्यौहार... दोनों ही दिनों की ख़ास तैयारियां करनी हैं... क्रिसमस के दिन चर्च में बहुत से आशना मिल जाते हैं... बाज़ार में क्रिसमस की चीज़ों की रौनक़ है... आज बाज़ार भी जाना है...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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रिश्ते सर के बालों की तरह हुआ करते हैं


रिश्ते सर के बालों की तरह हुआ करते हैं... जब तक वो सर पर रहते हैं... आप उनकी देखभाल करते हैं, उन्हें सजाते-संवारते हैं... लेकिन जैसे ही वो सर से उतरे उनकी फ़िक्र भी ख़त्म हो जाती है... वो उड़कर कहां जाते हैं, कहां नहीं... आप उसके बारे में कभी सोचते तक नहीं...
क्या किसी ने कभी उन बालों के बारे में सोचा है, जो उसके सर से उतर चुके हों...?
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नींदें


नींदें
आंखों से
कोसों दूर
न जाने
किस वीराने में
भटकती फिरती हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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मौत के क़रीब...


फ़िरदौस ख़ान
हमने अपनी ज़िन्दगी में कई बार मौत को बहुत क़रीब से देखा है... उन लम्हों में ज़ेहन काम करना बंद कर देता था, क्योंकि सोचने का वक़्त भी नहीं होता था, लेकिन अगले ही लम्हे में हम ज़िन्दगी में होते थे... एक बार की बात है, हम दफ़्तर से लौट रहे थे... रात के क़रीब तीन बजे थे... ड्राइवर ने घबराते हुए हमें बताया कि कार के ब्रेक फ़ेल हो गए हैं और स्टेयरिंग भी काम नहीं कर रहा है... जिस वक़्त उसने ये बात बताई, उस वक़्त कार टी प्वाइंट के क़रीब थी... हमें दाहिने मुड़ना था... अब कार न तो मुड़ सकती थी और न ही रुक सकती थी... सिर्फ़ सामने की दीवार से टकरा कर चकनाचूर हो सकती थी... उसे भी इस बात का अहसास था और हमें भी... ड्राइवर ने आंखें बंद करते हुए कहा- मैम अब तो गए...
हमारी आंखों के सामने उस सर्द अंधेरी रात में स्ट्रीट लाइट की रौशनी में चमकती वो दीवार थी, जिससे गाड़ी को टकरा जाना था... अचानक आंखों के सामने धुंध छा गई... और गाड़ी एक ज़ोर के झटके के साथ रुक गई... हमने देखा कि कार हमारे घर के पास एक ख़ाली पड़े प्लॊट में लगे रेत के ढेर में घुस चुकी थी... हमने चिल्लाए- बच गए... ड्राइवर ने आंखें खोलीं... कड़ाके की ठंड के बावजूद वो पसीने से तरबतर था...
हम गाड़ी से उतरे... इतने में पापा भी आ गए और उन्होंने ड्राइवर को अंदर बुला लिया... हमने सारा वाक़िया सुनाया... अम्मी ने अल्लाह का शुक्र अदा किया...
ड्राइवर जब ज़रा संभल गया, तो उसने फ़ोन करके दूसरी गाड़ी मंगवाई... सुबह को मैकेनिक भी आ गया और उसने बताया कि गाड़ी के ब्रेक फ़ेल हैं और स्टेयरिंग भी काम नहीं कर रहा है... ड्राइवर के साथ-साथ मैकेनिक भी इस बात पर हैरान था कि कार रेत के ढेर तक कैसे पहुंची...?
हम आज तक ये नहीं समझ पाए कि जब स्टेयरिंग काम नहीं कर रहा था, तो वो कार घर तक कैसे पहुंची... क्योंकि घर तक तक आने के लिए गाड़ी को दो बार मुड़ना था.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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