करूं न याद, मगर किस तरह भुलाऊं उसे...


फ़िरदौस ख़ान
अहमद फ़राज़ आधुनिक दौर के उम्दा शायरों में गिने जाते हैं. उनका जन्म 14 जनवरी, 1931 को पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के कोहाट में हुआ था. उनका असली नाम सैयद अहमद शाह था. उन्होंने पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू और फ़ारसी में एमए किया. इसके बाद यहीं प्राध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई थी. उन्हें बचपन से ही शायरी का शौक़ था. वह इक़बाल से बहुत प्रभावित थे, लेकिन बाद में उनका रुझान प्रगतिवादी कविता की तरफ़ हो गया. उनकी कई ग़ज़लों को ज़ियाउल हक़ सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत के तौर पर लिया गया और उन्हें जेल जाना पड़ा. जेल से आने के बाद वह पाकिस्तान छोड़कर चले गए. इस दौरान वह कई सालों तक संयुक्त राजशाही यानी ग्रेट ब्रिटेन, उत्तरी आयरलैंड के यूनाइटेड किंगडम और कनाडा में रहे. उन्होंने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की. 1986 में वह पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर चेयरमैन बने. 2004 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ अवॉर्ड से नवाज़ा, लेकिन 2006 में उन्होंने सरकार की नीतियों के प्रति ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए यह पुरस्कार वापस कर दिया.

अहमद फराज़ को मुहब्बत का शायर कहना ग़लत न होगा. उनके कलाम में मुहब्बत अपने शो़ख रंग में नज़र आती है:-
करूं न याद, मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे
वो ख़ार-ख़ार है शा़ख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख्म-ज़ख्म हूं फिर भी गले लगाऊं उसे...

लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूं और कहां से लाऊं उसे

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने मांगे
दिल वो बेरहम कि रोने के बहाने मांगे

अपना ये हाल के जी हार चुके, लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अंदाज़ पुराने मांगे

जिस सिम्त भी देखूं नज़र आता है कि तुम हो
ऐ जाने-ए-जहां ये कोई तुम सा है कि तुम हो
ये ख्वाब है खुशबू है कि झोंका है कि पल है
ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो...


रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-राहे दुनिया की निभाने के लिए आ...

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है
कहां वो क़ुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फिराक़ का आलम भी ख्वाब जैसा है
मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही
दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है...

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें...

उन्होंने ग़ज़लों के साथ नज़्में भी लिखीं. उनकी नज़्मों को भी वही लोकप्रियता मिली, जो उनकी ग़ज़लों को हासिल है. उनकी नज़्म ख्वाब मरते नहीं बेहद पसंद की जाती है:-
ख्वाब कभी मरते नहीं
ख्वाब दिल हैं, न आंखें, न सांसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएंगे

उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें ख़ानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी और दर्द आशोब (ग़ज़ल संग्रह) और ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में (ग़ज़ल और नज़्म संग्रह) शामिल हैं. 25 अगस्त, 2008 को किडनी फेल होने के कारण उनका निधन हो गया. वह काफ़ी वक़्त से बीमार थे और इस्लामाबाद के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. इस्लामाबाद के ही क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया.
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ताज़गी का अहसास कराती ग़ज़लें


फ़िरदौस ख़ान
ग़ज़ल अरबी साहित्य की मशहूर काव्य विधा है. पहले ग़ज़ल अरबी से फ़ारसी में आई और फिर फ़ारसी से उर्दू में. वैसे, उर्दू के बाद यह विधा हिंदी में भी ख़ूब सराही जा रही है. ग़ज़ल में एक ही बहर और वज़न के कई शेअर होते हैं. इसके पहले शेअर को मत्तला कहते हैं. जिस शेअर में शायर अपना नाम रखता है, उसे मख़ता कहा जाता है. ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेअर को शाहे वैत कहते हैं. एक ग़ज़ल में पांच से लेकर 25 शेअर हो सकते हैं. ग़ज़लों के संग्रह को दीवान कहा जाता है. उर्दू का पहला दीवान शायर कुली क़ुतुबशाह है. इसके बाद तो अनगिनत दीवान आते रहे हैं और आते भी रहेंगे.

अमूमन अरबी और फ़ारसी ग़ज़लें रवायती हुआ करती थीं. इनमें इश्क़ और महबूब से वाबस्ता बातें होती थीं. शुरू में उर्दू ग़ज़ल भी माशूक़ और आशिक़ी तक ही सिमटी हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे व़क्त गुज़रता रहा, इसमें बदलाव आता गया और ग़ज़ल में समाज और उसके मसले भी शामिल होने लगे. हिंदी ग़ज़ल ने सामाजिक विषयों को भी बख़ूबी पेश किया. हिंदी के अनेक रचनाकारों ने ग़ज़ल विधा को अपनाया. इन्हीं में से एक हैं कुलदीप सलिल. हाल में उनका ग़ज़ल संग्रह धूप के साये में आया है, जिसे प्रकाशित किया है हिन्द पॉकेट बुक्स ने. इस ग़ज़ल संग्रह की ख़ास बात यह है कि इसमें फ़ारसी लिपी और देवनागरी दोनों ही भाषाओं में ग़ज़लों को प्रकाशित किया गया है. इससे पहले उनके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें बीस साल का सफ़र, हवस के शहर में, जो कह न सके और आवाज़ का रिश्ता शामिल हैं. कुलदीप सलिल हिंदी के अलावा, अंग्रेज़ी में भी कविताएं लिखते हैं. उन्होंने ग़ालिब, इक़बाल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़ की रचनाओं का हिंदी अनुवाद भी किया है, जिसे साहित्य अकादमी और डीएवी ने पुरस्कृत किया. वे अर्थशास्त्र और अंग्रेज़ी में एमए हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवामुक्त हो चुके हैं.

उनकी शायरी में ज़िंदगी के तमाम रंग देखने को मिलते हैं. आज की भागदौड़ वाली ज़िंदगी और संचार क्रांति के दौर में भी इंसान कहीं न कहीं बेहद अकेला है. हालांकि संचार क्रांति ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है, क्योंकि आप पल भर में सात समंदर पार बैठे व्यक्ति से कभी भी बात कर सकते हैं, लेकिन बावजूद इसके व्यक्ति तन्हा होता गया. तन्हाई के इसी रंग को शब्दों में पिरोते हुए वे कहते हैं-
हंसी हंसी में दर्द कितने, जिनको लोग छिपा लेते हैं
रात-बिरात में दीवारों को दिल का हाल सुना लेते हैं

दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. सादिक़ कहते हैं कि कुलदीप सलिल की ग़ज़लों का एक मिज़ाज है. उनकी ग़ज़लें हिंदी जगत में न केवल पसंद की गईं, बल्कि क़द्र की निगाहों से देखी भी गईं. बाल स्वरूप राही ने अपने एक लेख में हिंदी ग़ज़ल की तीन धाराओं का ज़िक्र किया है. इनमें पहली धारा उर्दू-परक, दूसरी आम-फ़हम और तीसरी हिंदी-निष्ठ बताई गई है. पहली में उर्दू शब्दों का ज़्यादा इस्तेमाल होता है. दूसरी में हिंदी-उर्दू मिश्रित ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, जो दोनों भाषाओं में सहर्ष स्वीकार्य हैं. तीसरी धारा में हिंदी संस्कृत के कठिन शब्दों का इस्तेमाल मिलता है. दरअसल, कुलदीप सलिल की भाषा आम फ़हम है, जिसे उर्दू और संस्कृत न जानने वाला हिंदी का आम पाठक बहुत ही आसानी से समझ लेता है. बानगी देखिए-
खेतियां जलती रहीं, झुलसा किए इंसां मगर
एक दरिया बे़खबर जाने किधर बहता रहा 

कुलदीप सलिल खुद कहते हैं कि ग़ज़ल लिखना शायद सबसे आसान और सबसे मुश्किल काम है. आसान, अगर कवि का काम केवल क़ाफिया पैमाई करना है और मुश्किल अगर वह हर शेअर में कोई बात पैदा करना चाहता है. अगर वह चाहता है कि शेअर व्यक्ति और समाज, जीवन और जगत के किसी अन्चीन्हे पहलू को उजागर करे या कुछ नया न भी कहे, तो बात ऐसे कहे कि नई-सी लगे.
कहा बात कर तू ऐसा, कहा इस तरह से कर तू 
कि लगे नई-नई-सी, कोई छोड़े वो असर भी 

क्योंकि नई बातें दुनिया में बहुत कम हैं, इसलिए ग़ज़ल में कहने के ढंग के नयेपन, उसकी ताज़गी और कवि के अंदाज़-ए-बयां की ख़ास अहमियत है. विषय कुछ भी हो, शेअर ढला हुआ होना चाहिए. ग़ज़ल की ख़ास बात यह है कि इसका हर शेअर दिल-दिमाग़ को छूता हुआ, दो मिस्रों में पूरी बात कहता है.
इस क़दर कोई बड़ा हो, मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बंदों में ख़ुदा हो, मुझे मंज़ूर नहीं 
रोशनी छीन के घर-घर से चराग़ों की 
अगर चांद बस्ती में उगा हो, मुझे म़ंजूर नहीं 

दरअसल, ग़ज़ल के इतिहास में एक वक़्त ऐसा भी आया, जब यह धारणा आम होने लगी थी कि आज के जीवन की मुश्किलों से इंसा़फ करने के लिए ग़ज़ल बेहतर विधा नहीं है, लेकिन खास बात यह है कि न सिर्फ़ उर्दू में ग़ज़ल का वर्चस्व क़ायम रहा, बल्कि हिंदी, पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं में भी ग़ज़ल ख़ूब लोकप्रिय हो रही है. इसकी एक वजह यह है कि ग़ज़ल लोगों से सीधे बात करने में यक़ीन करती है. जनमानस के दुख-दर्द और उनकी भावनाओं को ग़ज़ल के ज़रिये पेश करने पर फ़ौरन प्रतिक्रिया मिलती है. ग़ज़ल का शेअर सीधा दिल में उतर जाता है. चंद शेअर देखिए-
कभी दीवार गिरी है, कभी दर होता है 
हर बरस ये मकां बारिश की नज़र होता है 

ज़ुबां कहने से जो डरती रही है 
क़लम ख़ामोश सब लिखती रही है 

कुलदीप सलिल, हिंदी के प्रसिद्ध ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार से काफ़ी मुतासिर हैं, तभी तो उनकी कई ग़ज़लें पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं, मिसाल के तौर पर कुलदीप सलिल की ग़ज़ल नहर कोई पत्थरों से अब निकलनी चाहिए, दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल हो गई है पीर पर्वत-सी अब पिघलनी चाहिए, की याद दिलाती है. बहरहाल, यह काव्य संग्रह हिंदी और उर्दू भाषी दोनों ही तरह के पाठकों को पसंद आएगा, क्योंकि इसके एक पेज पर देवनागरी में ग़ज़ल है, तो सामने वाले दूसरे पेज पर वही ग़ज़ल फ़ारसी लिपी में भी मौजूद है. किताब का जामुनी रंग का बेहद ख़ूबसूरत आवरण भी फूलों से सजा हुआ है, जो बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है. कुल मिलाकर यह एक बेहतर ग़ज़ल संग्रह है, जिसे पढ़कर ताज़गी का अहसास होता है. 

समीक्ष्य कृति : धूप के साये में
कृतिकार : कुलदीप सलिल
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
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अल्लाह की राह में...


एक लड़की ने कई माह पहले एक बेहद ग़रीब परिवार को उनकी ज़रूरत के वक़्त दो लाख रुपये उधार दिए... उसने सोचा कि बैंक में भी पैसे पड़े हुए हैं... अगर इन पैसों से किसी की ज़रूरत पूरी हो जाए तो अच्छा है... उस परिवार के लोगों का न तो अपना घर है और न ही इतनी आमदनी कि वो पैसे लौटा सकें... उस परिवार के कमाने वाले लड़के का कहना है कि वो हर माह पांच सौ रुपये उस लड़की के बैंक खाते में डालने की कोशिश करेगा... पहली बात उस लड़के की इतनी भी हैसियत नहीं है कि वो हर माह इतने पैसे भी लौटा सके... दूसरी बात अगर वो ये पैसे इस हिसाब से लौटाएगा, तो रक़म पूरी होने में बरसों लग जाएंगे... ऐसी हालत में पैसे लेने न लेने बराबर हैं...

लड़की चाहती है कि वो अल्लाह के नाम पर ये पैसे मुआफ़ कर दे और इसका सवाब उसके मरहूम वालिद को मिले... क्या ऐसा हो सकता है...? इसका सही तरीक़ा किया है...? इस बारे में आपको जानकारी हो तो बराये-मेहरबानी रहनुमाई कीजिएगा...
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नारी की संपूर्णता प्रेम में निहित है...


फ़िरदौस ख़ान
समय बदला, हालात बदले लेकिन नहीं बदली तो नारी की नियति. नारी सदैव प्रेम के नाम पर छली गई. उसने पुरुष से प्रेम किया, मन से, विचारों से और तन से. मगर बदले में उसे क्या मिला धोखा और स़िर्फ धोखा. पुरुष शायद प्रेम के महत्व को जानता ही नहीं, तभी तो वह नारी के साथ प्रेम में रहकर भी प्रेम से वंचित रह जाता है, जबकि नारी प्रेम में पूर्णता प्राप्त कर लेती है. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित डॉ. प्रतिभा रॉय की पुस्तक महामोह अहल्या की जीवनी में नारी जीवन के संघर्ष की इसी कथा-व्यथा को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. डॉ. प्रतिभा रॉय कहती हैं कि अहल्या एक पात्र नहीं, एक प्रतीक है. जब प्रतीक व्याख्यायित होता है, तब एक पात्र बन जाता है. जब पात्र विमोचित होता है, तब दिखने लगता है प्रतीक में छिपा अंतर्निहित तत्व. अहल्या सौंदर्य का प्रतीक है, इंद्र भोग का, गौतम अहं का प्रतीक है, तो राम त्याग एवं भाव का प्रतीक है. महामोह की अहल्या वैदिक नहीं है, पौराणिक नहीं है, ब्रह्मा की मानसपुत्री नहीं है, वह ईश्वर की कलाकृति हैं, चिरंतन मानवी हैं. वैदिक से लेकर अनंतकाल तक है उनकी यात्रा. वे अतीत में थीं, वर्तमान में हैं, भविष्य में रहेंगी. मोक्ष अहल्या की नियति नहीं, संघर्ष ही है उनकी नियति. अहल्या के माथे से कलंक का टीका नहीं मिटता. अत: अहल्या देवी नहीं है, अहल्या है मानवीय क्रांति. अहल्या का संघर्ष केवल नारी का संघर्ष नहीं है, न्याय के अधिकार के लिए मनुष्य का संघर्ष है.

अहल्या अपने द्वार पर आए इंद्र से पूछती है-क्या वरदान चाहिए प्रभु?
मैं हाथ जो़डे ख़डी थी. अपने मनोरम हाथ ब़ढाकर उन्होंने मेरी हथेली को स्पर्थ किया. स्पर्श के अहसास से ज़ड में भी जान आ जाती है. यह कैसा मधुकंपन होने लगा मेरे भीतर? अनुभूत सुख ढूंढते-ढूंढते मानो मैं परमानंद प्राप्त करने का जा रही थी. अपने हाथ का स्पर्श देने से अधिक भला मैं और क्या कर सकती थी? एक स्पर्श में ही अथाह शक्ति होती है? मेरा लौहबंधन तार-तार हो गया स्पर्श की शक्ति से. महाकाल के वक्ष पर वे अभिलाषा पूर्ण घड़ियां थीं नि:शर्त. वहां लाभ-हानि, यश-अपयश, अतीत-भविष्य, स्वर्ग-नर्क, वरदान-अभिशाप का द्वंद्व नहीं था, जबकि प्रतिश्रुति, वरदान और प्रतिदान की कठोर शय्या पर पैर रखकर उतर आई थीं वे घड़ियां देह से मनोभूमि में.

मुझे यह अनुभूति हुई कि सारी सीमाएं अनुशासित होते हुए भी मेरे भीतर ऐसा कोई नहीं था, जिसने मुझे अगम्य स्थान की ओर उड़ जाने को प्रेरित किया. उस शक्ति ने सारे बंधन और बेड़ियां तोड़ डालीं. बेड़ियां तोड़ना मनुष्य का सहज स्वभाव है. रिश्ते जब बेड़ियां बन जाते हैं, तभी वे रिश्ते टूटते हैं, बंधन टूटते हैं. बंधन टूटने के विषाद और मुक्ति के उद्‌घोष एवं विषाद-प्रफुल्लित भावावेग से वे घड़ियां थीं मधुर पी़ड़ादायी. वह घड़ी, निष्कपट समर्पण की घड़ी है. स्वयं को दूसरे के लिए उडेल देने की घड़ी. वह घड़ी थी प्रेम की घड़ी, जिस प्रेम में दूसरा पक्ष नहीं होता. लेन-देन का हिसाब नहीं होता. उस घड़ी का आकर्षण दुर्दम्य होता है कि वहां पाम-पुण्य, नीति-नियम अंधे और बहरे हो जाते हैं. उस घड़ी मेरे भीतर छल-कपट नहीं था. वह घड़ी निष्कपट, विशुद्ध प्रेम की घड़ी थी. उस समय मैं विभाजित नहीं थी. री की पूरी इंद्र की थी. वह घड़ी भ्रांति की घड़ी नहीं थी, क्रांति की घड़ी थी. उस घड़ी ने प्रलय को स्तब्ध कर दिया था.

मैं नहीं जानती, प्रेम की वह घड़ी इंद्र के लिए नि:शर्त और निष्कपट थी या नहीं, किंतु नारी के लिए प्रेम नि:शर्त होता है. देह भोग की वासना उस प्रेम की शर्त नहीं होती, किंतु क्या पुरुष के लिए देह भोग प्रेम की शर्त है? अत: प्रेम की उपलब्धि से इंद्र की अपूर्णता पूर्ण हुई या नहीं, मैं नहीं जानती. किंतु मैं पूर्ण, परिपूर्ण हो गई थी. मैं इंद्रलुब्धा नहीं थी-मैं थी इंद्रमुग्धा. मैं इंद्र से होकर उत्तरण के सोपानों पर चढ़ती जा रही थी, पृथ्वी की अतल में, आकाश से होते हुए आकाश से भी ऊंची. इंद्रिय आनंद से इंद्रानंद में-परमानंद की उपलब्धि में. इंद्रानंद सोमरस पान की तरह अपार्थिव है.

आत्म मुक्ति या जगत की मुक्ति? इस प्रश्न का उत्तर इंद्र पा चुके थे. आत्म मुक्ति के द्वार पर इंद्र सदैव बाधा उत्पन्न करते हैं. क्या गौतम के यक्ष का लक्ष्य आत्म मुक्ति था? अपरिपक्व, ज्ञान, साधना और अनुभूति के बिना उत्तरण, मुक्ति और अमरत्व की कामना करना विडंबना है. देवतागण मनुष्य की इस बुरी आकांक्षा का विरोध करते हैं. संभवत: इसलिए इंद्र ने गौतम का विरोध किया और मुझे प्रदान की सत्य की अंतरंग अनुभूतियां. स्वाहा है यक्ष की आत्मा. यक्ष के मंत्र का अंतिम और श्रेष्ठ भाग है स्वाहा. सु-आहुति स्वाहा का श्रेष्ठ गुण है. मैंने इंद्रदेव के लिए स्वयं को स्वाहा कर दिया. मेरी मिथ्या देह है सत्य की सिद्धिभूमि. मैं थी कन्या, पत्नी, गृहिणी, किंतु मैं नारी नहीं बन पाई थी. इंद्र के स्पर्श से मैं नारी बन गई. मैं पूर्ण हो गई. पूर्ण से पूर्ण निकालने की शक्ति भला किसमें है? यदि किसी में हुई तो पूर्ण से पूर्ण निकल जाने पर भी मैं पूर्ण ही रहूंगी.

हे, इंद्रदेव! मैं कृतज्ञ हूं. आपने मुझे पूर्णता का अहसास कराया. आपने मेरे जड़ बन चुके नारीत्व में फिर से प्राण फूंक दिए.
मैंने इंद्रदेव को प्रणाम किया. प्रभात हो चला था. क्या पक्षियों ने रात का महाप्रलय का सामना नहीं किया? उनके कलरव में कहीं कोई अस्वाभाविकता नहीं थी. इंद्रदेव प्रस्थान करने को उतावले थे. विदा की घड़ी आ गई. इंद्रदेव निर्लिप्त-निराकार थे. किंतु वे तृप्त थे, यह स्वीकारने में उनमें कोई झिझक नहीं थी.

अहल्या, मैं तृप्त हुआ. तुम्हारा दान अतुलनीय है. प्रेम की चिर-आराध्या देवी बनकर तुम मेरी अंतरवेदी में सदैव पूजी जाओगी. आज के इस देह-संगम की स्मृतियां, तुम्हारी देह की सारी सुरभित सुगंध मेरी देह की समस्त ग्रंथियों में सदा भाव-तरंग बनाते रहेंगे. तुम्हारे पति के पदचाप सुनाई देने लगे हैं. मैं तुम्हारा मुक्तिदाता नहीं, मैं तुम्हारा भाग्य और नियति नहीं. मैं तुम्हारी परीक्षा भी नहीं. तुम स्वयं ही अपनी परीक्षा, भाग्य और नियति हो. साधना का द्वार अब तुम्हारे लिए खुल चुका है. मुझे विदा दो और अपनी रक्षा करो.

इंद्र के विदा होते समय मुझे ठेस नहीं पहुंच रही थी, क्योंकि मैं जानती थी, मैं मर्त्य की नारी हूं. इंद्र मेरे भाग्यविधाता नहीं बन सकते. यह विदाई तय थी. किंतु मुझे ऐसी अवस्था में छोड़कर, गौतम के पहुंचने से पहले किसी लम्पट पुरुष की तरह जल्दी-जल्दी वहां से भागने लगना मुझे बहुत कष्ट दे रहा था. तो क्या इंद्र भाव के सम्राट नहीं हैं, क्या वे भोग-लम्पट हैं, एक सामान्य पुरुष? क्या मेरे क्षणभंगुर सुंदर देहभूमि पर विजय पताका फहराकर गौतम को नीचा दिखाना था इस प्रेम का लक्ष्य? तब तो यह प्रेम नहीं था, एक भ्रांति थी. क्या मैं इंद्रयोग्या नहीं थी, इंद्रभोग्या थी? यह सोचकर दुख और आत्मग्लानि से उदास हो उठी. इंद्र ने गर्व के साथ गौतम का सामना किया होता तो मैं इंद्र को परम प्रेमी के स्थान पर रखकर बाक़ी का जीवन पूर्णता से रंग लेती. प्रेम निर्भीक होता है, प्रेम निरहंकार होता है, प्रेम नि:स्वार्थ होता है, जबकि एक कामुक पुरुष की तरह अपने स्वार्थ को बड़ा करके ऋषि के कोप के भय से मुझे असहाय अवस्था में छोड़ कर वहां से खिसक लेने के कारण मेरे सच्चे अहसास पर एक काली रेखा खींच दी उन्होंने. यह प्रेम है या भ्रम, पाप है या पुण्य? उचित है या अनुचित?
किंतु मैंने जो कुछ किया, जान-बूझकर किया. जब आत्मा प्रेम के लिए समर्पित हो जाती है, तब देह अपनी सत्ता खो देती है और आत्मा के साथ देह भी समर्पित हो जाती है. इसलिए उस क्षण मुझमें ग्लानि या पापबोध नहीं हुआ. मिलन के सुख और विरह के दुख दोनों से मेरा नारीत्व आज परिपूर्ण था.
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