वक़्त गुज़रा तो कोई ख़्वाब दिखाते गुज़रा


वक़्त गुज़रा तो कोई ख़्वाब दिखाते गुज़रा
तुझको भूलें न कभी याद दिलाते गुज़रा

ज़िन्दगी ख़्वाब नहीं, ख़्वाब का धोखा है फ़क़्त
नाम उसका ही हक़ीक़त था, बताते गुज़रा

चांदनी रोती रही, नींद न शब को आई
चांद तन्हाई का पैग़ाम सुनाते गुज़रा

वक़्त मौसम की तरह है, न भरोसा करना
कब वो ठहरा है कहीं, मिलते-मिलाते गुज़रा

ज़िन्दगी ख़ार सही, ख़ार की ज़द में रहते
ज़ख़्म ऐसा था के बस आस मिटाते गुज़रा

बारहा रोक ही लेती है रफ़ाक़त उसकी
इक मुसाफ़िर कहां ’फ़िरदौस’ से आते गुज़रा
-फ़िरदौस ख़ान

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अजनबी लोग


अकसर ऐसा होता है कि कुछ  अजनबी हमें बहुत ही अपने से लगते हैं. ऐसा लगता है कि हम उन्हें बरसों से जानते हैं, उन्हें पहचानते हैं... हमने उनसे बहुत-सी बातें की हैं... लेकिन ज़ेहन पर ज़ोर डालने के बावजूद कुछ याद नहीं आते... ये कैसे रिश्ते होते हैं, जिनसे इतनी उंसियत हो जाती है...
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नूतन : विरासत में मिला अभिनय


फ़िरदौस ख़ान 
हिंदी सिनेमा की प्रतिभाशाली अभिनेत्री नूतन को अभिनय विरासत में मिला था. उनकी मां शोभना सामर्थ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं. नूतन भी अपने अद्‌भुत अभिनय के लिए जानी जाती हैं. उनकी सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, सरस्वती चंद्र और मिलन आदि फ़िल्मों ने उन्हें भारतीय सिनेमा की महान अभिनेत्रियों के समकक्ष लाकर ख़डा कर दिया.

नूतन का जन्म 24 जून, 1936 को मुंबई में हुआ था. उनके पिता का नाम कुमारसेन सामर्थ था. घर में फ़िल्मी माहौल था. वह अपनी मां के साथ शूटिंग पर जाती थीं. रफ़्ता -रफ़्ता उनका रुझान भी फ़िल्मों की तरफ़ हो गया. वह भी बड़ी होकर अपनी मां की तरह ही मशहूर अभिनेत्री बनना चाहती थीं. उन्होंने बतौर बाल कलाकार 1950 में फ़िल्म नल दमयंती से अपने करियर की शुरुआत की. इसके साथ ही उन्होंने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. उनकी क़िस्मत के सितारे बुलंदी पर थे. नतीजतन, उन्हें मिस इंडिया का ख़िताब मिला. मगर फ़िल्मी दुनिया ने उन्हें कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी. उनकी मां शोभना सामर्थ भी उन्हें अभिनेत्री बनाना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने अपने दोस्त मोतीलाल से बात की. मोतीलाल की सिफ़ारिश पर नूतन को फ़िल्म हमारी बेटी में काम करने का मौक़ा मिल गया. इस फ़िल्म का निर्देशन शोभना सामर्थ ने किया था. इसके बाद नूतन ने फ़िल्म हमलोग, शीशम, नगीना, पर्बत, लैला मजनूं और शबाब में अभिनय किया, लेकिन इससे उन्हें वह कामयाबी नहीं मिली, जिसकी उन्हें उम्मीद थी. फिर 1950 में उनकी फ़िल्म सीमा प्रदर्शित हुई. इस फ़िल्म में उन्होंने बाग़ी नायिका का किरदार निभाया था, जो चोरी के झूठे आरोप में जेल पहुंच जाती है और सुधार गृह में क़ैदी के तौर पर रहती है. इस फ़िल्म में बलराज साहनी ने सुधार गृह के अधिकारी की भूमिका निभाई थी. फ़िल्म बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म के लिए जहां नूतन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर हासिल किया, वहीं हिंदी सिनेमा में अपने लिए एक ख़ास मुक़ाम भी बना लिया. यह फ़िल्म उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाती है. वह हर तरह की भूमिकाएं बड़ी सहजता से कर लेती थीं. 1956 में प्रदर्शित फ़िल्म बारिश में उन्होंने काफ़ी बोल्ड सीन दिए. इसके बाद 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल्ली का ठग में उन्होंने स्विमिंग कॉस्ट्यूम पहनकर सबको चौंका दिया. इसकी वजह से उनकी बहुत आलोचना हुई. इससे वह थो़डी परेशान भी हुईं, मगर वह जानती थीं कि अभिनय क्षमता के दम पर ही वह इस फ़िल्मी दुनिया में टिकी हुई हैं. उन्होंने अपना अभिनय स़फर जारी रखा. फिर 1958 में उनकी फ़िल्म सोने की चिड़िया प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही और नूतन हिंदी सिनेमा में छा गईं. अगले ही साल 1959 में प्रदर्शित उनकी फ़िल्म सुजाता में उनके मार्मिक अभिनय ने उनकी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया. सुजाता में उन्होंने अछूत कन्या का किरदार निभाया. इसके लिए भी उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शामिल है. नूतन ने इस फ़िल्म में जितना सशक्त अभिनय किया है, वैसा अभिनय किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला. यह हिंदी सिनेमा की उन सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है, जिसके बिना हिंदी सिनेमा का इतिहास अधूरा है. इस फ़िल्म के लिए भी नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. ऐसा नहीं है कि नूतन ने सिर्फ़ संजीदा अभिनय ही किया है. उन्होंने रूमानी और हंसमुख किरदार भी निभाए हैं. फ़िल्म छलिया और सूरत में उनके निभाए किरदार इस बात का सबूत हैं कि वह किसी भी तरह की भूमिका को ब़खूबी निभा सकती थीं.
1967 में प्रदर्शित फ़िल्म मिलन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह फ़िल्म पूर्व जन्म की कहानी पर आधारित थी. इस फ़िल्म में उनके नायक सुनील दत्त थे. कहानी की शुरुआत नूतन और सुनील दत्त के विवाह से होती है. दोनों विवाह के बाद नाव से जा रहे हैं और अचानक नायक चीख़ उठता है कि आगे पानी में भंवर है. वह नाविक से नाव को वापस पीछे लेने को कहता है, तभी नाविक कहता है कि यह तो बीते ज़माने की बात है. यहां बांध बन चुका है. नायिका नाविक से नाव दूसरी तरफ़ मोड़ने को कहती है और फिर दोनों एक गांव में पहुंच जाते हैं. नायक को बीते जन्म की बातें याद आ रही हैं और दोनों गांव में बनी दो समाधियों पर पहुंच जाते हैं. यहीं से नायक और नायिका के पिछले जन्म की कहानी शुरू होती है.

1968 में प्रदर्शित फ़िल्म सरस्वती चंद्र की कामयाबी ने उन्हें फ़िल्म दुनिया की बुलंदी पर पहुंचा दिया. इसके बाद 1973 में आई फ़िल्म सौदागार में भी उन्होंने यादगार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. सुधेंदु रॉय द्वारा निर्देशित फ़िल्म में नायिक की भूमिका अमिताभ बच्चन ने निभाई थी. इसमें उनके किरदार का नाम मोती है, जो बाज़ार में गुड़ बेचता है. वह गांव की ही एक औरत महजबी यानी नूतन के पास खजूर का रस ले जाता है, जो इससे गु़ड बनाती है. मोती एक लड़की से प्यार करता है, लेकिन उसके पिता मोती से शादी के लिए पैसे की मांग करते हैं. मोती के पास इतने पैसे नहीं होते, इसलिए वह महजबी से निकाह करने का फ़ैसला करता है, ताकि उसका गुड़ मुफ्त में बन जाए और महजबी को दिए जाने वाले पैसे जमा करके वह अपनी प्रेमिका से शादी कर सके. कुछ वक़्त बाद मोती ढेर सारा पैसा कमाता है और महजबी पर बदचलनी का इल्ज़ाम लगाकर उसे तलाक़ दे देता है. इसके बाद वह अपनी प्रेमिका से विवाह कर लेता है. लेकिन इसी विवाह के साथ उसकी परेशानियां शुरू हो जाती हैं और उसे रह रहकर महजबी की याद आती है, जो किसी और से विवाह कर चुकी है. आख़िर में हारा हुआ परेशान मोती आंखों में आंसू लिए हुए महजबी के दरवाज़े पर पहुंच जाता है.

सत्तर के दशक तक नूतन का फ़िल्मी करियर चढ़ाव पर रहा, जबकि अस्सी के दशक में उन्होंने चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं. ख़ास बात यह रही कि उनके अभिनय का जलवा बरक़रार रहा. फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की और मेरी जंग में सशक्त अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला. फ़िल्म कर्मा में भी उनके अभिनय को सराहा गया. इस फ़िल्म में उनके साथ अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे. उन्होंने अपने वक़्त के तक़रीबन सभी नामी अभिनेताओं के साथ काम किया. फ़िल्म अना़डी में उनके नायक राज कपूर थे तो फ़िल्म बंदिनी में अशोक कुमार. फ़िल्म पेइंग गेस्ट में देवानंद उनके नायक बने.

हिंदी सिनेमा में कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंची नूतन कभी मां से मुक़ाबला नहीं करना चाहती थीं. यही वजह थी कि उन्होंने फ़िल्म रामराज्य के रीमेक में सीता की भूमिका निभाने से साफ़ इंकार कर दिया था. प्रकाश पिक्चर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म राम राज्य में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई थी. निर्देशक विजय भट्ट इस फ़िल्म का रीमेक बनाना चाहते थे. उस वक़्त वह शोभना सामार्थ को नायिका सीता की भूमिका में नहीं ले सकते थे, क्योंकि वह उम्र की ढलान पर थीं. वह चाहते थे कि कोई कुशल अभिनेत्री इस किरदार को निभाए. विजय भट्ट को लगा कि नूतन सीता की भूमिका बेहतर तरीक़े से निभा सकती हैं. उन्होंने नूतन से मुलाक़ात की और अपना प्रस्ताव रखा, लेकिन नूतन ने इसे नामंज़ूर कर दिया. वह मानती थीं कि चूंकि पहली फ़िल्म में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई है, इसलिए उनके लिए यह किरदार सही नहीं रहेगा, क्योंकि लोग दोनों के अभिनय की तुलना करने लगेंगे और ऐसा करना मुनासिब नहीं होगा. आख़िरकार बीना राय को सीता की भूमिका दी गई. मगर फ़िल्म फ्लॉप हो गई.
उनकी फ़िल्मों में हमारी बेटी, नगीना, हमलोग, शीशम, पर्बत, लैला मजनूं, शबाब, सीमा, हीर, बारिश, पेइंग गेस्ट, ज़िंदगी या तूफ़ान, चंदन, दिल्ली का ठग, कभी अंधेरा कभी उजाला, सोने की चिड़िया, आख़िरी दाव, अना़डी, कन्हैया, सुजाता, बसंत, छबीली, छलिया, मंज़िल, सूरत और सीरत, बंदिनी, दिल ही तो है, तेरे घर के सामने, चांदी की दीवार, रिश्ते नाते, छोटा भाई, दिल ने फिर याद किया, दुल्हन एक रात की, लाट साहब, मिलन, गौरी, सरस्वती चंद्र, भाई बहन, मां और ममता, देवी, महाराजा, यादगार, अनुराग, ग्रहण, सौदागर, एक बाप छह बेटे, मैं तुलसी तेरे आंगन की, साजन बिना सुहागन, साजन की सहेली, जियो और जीने दो, रिश्ता काग़ज़ का, यह कैसा फ़र्ज़, युद्ध, पैसा ये पैसा, मेरी जंग, सजना साथ निभाना, कर्मा, नाम, मैं तेरे लिए, क़ानून अपना अपना, मुजरिम, नसीबवाला और इंसानियत आदि शामिल है.

नूतन सादगी और सौंदर्य का अद्भुत संगम थीं. उन्होंने 19 अक्टूबर, 1959 को लेफ्टिनेंट कमांडर रजनीश बहल से विवाह कर लिया. उनके बेटे मोहनीश बहल भी अभिनेता हैं और हिंदी फ़िल्मों में काम करते हैं. नूतन की बहन तनुजा और भतीजी काजोल भी हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्रियों में शामिल हैं. 21 फ़रवरी, 1991 को कैंसर से नूतन की मौत हो गई. मीना कुमारी की तरह नूतन को भी साहित्य में दिलचस्पी थी. वह कविताएं भी लिखा करती थीं. भले ही आज वह हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के लिए वह हमेशा याद की जाएंगी. (स्टार न्यूज़ एजेंसी) 
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पापा की तस्बीह


कुछ चीज़ें ऐसी हुआ करती हैं, जिन्हें इंसान बहुत संभालकर रखता है. इन चीज़ों से इंसान की यादें वाबस्ता होती हैं, उसके जज़्बात जुड़े होते हैं.
हमारे पास भी ऐसी कई चीज़ें हैं, जैसे पीतल-तांबे के बहुत से बर्तन जो अम्मी ने हमें दिए. वो बर्तन अम्मी को उनकी अम्मी ने दिए थे. फ़िलहाल बात तस्बीह की करते हैं. एक तस्बीह जो हमें बहुत अज़ीज़ है. ये वो तस्बीह है, जो अकसर पापा के हाथ में हुआ करती थी. और पापा क़ुरैशिये से बनी टोपी ओढ़कर तस्बीह पर कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे. ये टोपी हमने उस वक़्त बुनी थी, जब हम छठी जमात में पढ़ते थे. पापा को इस टोपी से बहुत प्यार था. ख़्वाब में पापा नज़र आते हैं, तो यही टोपी पहने होते हैं.
पापा के जाने के बाद पापा की ख़ास चीज़ें हम भाई-बहनों ने आपस में बांट लीं. जैसे टोपी, तस्बीह, शिनाख़्ती कार्ड वग़ैरह. हमारे हिस्से में तस्बीह आई. हमने अपनी तस्बीह छोड़कर इस तस्बीह पर पढ़ना शुरू किया. क़रीब साल भर पहले की बात है, तस्बीह खो गई. यूं लगा जैसे किसी ने हमारी रूह को जिस्म से अलग कर दिया है. हम बदहवास होकर तस्बीह ढूंढने लगे. हम सफ़र में अकसर तस्बीह पढ़ते रहते हैं. एक मर्तबा लगा कि शायद तस्बीह बस में छूट गई, ये सोच कर जान हल्कान होने लगी. हमने दरूद शरीफ़ पढ़ते हुए तस्बीह तलाशनी शुरू की. कहा जाता है कि कोई चीज़ गुम हो जाए, तो दरूद शरीफ़ पढ़ते हुए उसे ढूंढो, चीज़ फ़ौरन नज़र के सामने आ जाएगी. अल्लाह का शुक्र कि तस्बीह हमें मिल गई.
हमने तस्बीह संभालकर रख दी. उस ताक़ में जहां कलाम पाक, दीगर किताबें और इत्र वग़ैरह रखा रहता है. हम अब उस तस्बीह पर नहीं पढ़ते. ख़ौफ़ आता है कि कहीं फिर से वो गुम न हो जाए. पापा की तस्बीह हमें बहुत अज़ीज़ है. उसके हर दाने में पापा की अंगुलियों ला लम्स (छुअन) है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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महबूब की परस्तिश...


बुज़ुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना... शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते... उन्हें दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है... जब हम अपने महबूब से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?
हमारी एक नज़्म पर बाज़ अफ़राद (कुछ लोगों ) ने कहा था कि अपनी नज़्म में 'परस्तिश' लफ्ज़ हटा दो, वरना तुम्हें भारी गुनाह होगा...
आज अपनी पसंद की वही नज़्म पोस्ट कर रही हूं...

नज़्म
मेरे महबूब !
उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख़्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख़्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश की है...
-फ़िरदौस ख़ान
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तू मेरे गोकुल का कान्हा, मैं हूं तेरी राधा रानी...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...


अगर इंसान अल्लाह या ईश्वर से इश्क़ करे तो... फिर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी मस्जिद में नमाज़ पढ़कर उसकी इबादत की है... या फिर किसी मन्दिर में पूजा करके उसे याद किया है...
 
एक गीत
तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
-फ़िरदौस ख़ान

अर्चना चावजी की आवाज़ में गीत

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करूं न याद अगर किस तरह भुलाऊं उसे


फ़िरदौस ख़ान
अहमद फ़राज़ आधुनिक दौर के उम्दा शायरों में गिने जाते हैं. उनका जन्म 14 जनवरी, 1931 को पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के कोहाट में हुआ था. उनका असली नाम सैयद अहमद शाह था. उन्होंने पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू और फ़ारसी में एमए किया. इसके बाद यहीं प्राध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई थी. उन्हें बचपन से ही शायरी का शौक़ था. वह इक़बाल से बहुत प्रभावित थे, लेकिन बाद में उनका रुझान प्रगतिवादी कविता की तरफ़ हो गया. उनकी कई ग़ज़लों को ज़ियाउल हक़ सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत के तौर पर लिया गया और उन्हें जेल जाना पड़ा. जेल से आने के बाद वह पाकिस्तान छोड़कर चले गए. इस दौरान वह कई सालों तक संयुक्त राजशाही यानी ग्रेट ब्रिटेन, उत्तरी आयरलैंड के यूनाइटेड किंगडम और कनाडा में रहे. उन्होंने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की. 1986 में वह पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर चेयरमैन बने. 2004 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ अवॉर्ड से नवाज़ा, लेकिन 2006 में उन्होंने सरकार की नीतियों के प्रति ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए यह पुरस्कार वापस कर दिया.

अहमद फ़राज़ को मुहब्बत का शायर कहना ग़लत न होगा. उनके कलाम में मुहब्बत अपने शो़ख रंग में नज़र आती है-
करूं न याद अगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे
वो ख़ार-ख़ार है शा़ख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूं फिर भी गले लगाऊं उसे...
लोग तज़किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूं और कहां से लाऊं उसे

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने मांगे
दिल वो बेरहम कि रोने के बहाने मांगे

अपना ये हाल के जी हार चुके, लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अंदाज़ पुराने मांगे

जिस सिम्त भी देखूं नज़र आता है कि तुम हो
ऐ जाने-ए-जहां ये कोई तुम सा है कि तुम हो
ये ख़्वाब है ख़ुशबू है कि झोंका है कि पल है
ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो...

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-राहे दुनिया की निभाने के लिए आ...

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है
कहां वो क़ुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फिराक़ का आलम भी ख़्वाब जैसा है
मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही
दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है...

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें...

उन्होंने ग़ज़लों के साथ नज़्में भी लिखीं. उनकी नज़्मों को भी वही लोकप्रियता मिली, जो उनकी ग़ज़लों को हासिल है. उनकी नज़्म ख़्वाब मरते नहीं बेहद पसंद की जाती है-
ख़्वाब कभी मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं, न आंखें, न सांसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएंगे

उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें ख़ानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी और दर्द आशोब (ग़ज़ल संग्रह) और ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में (ग़ज़ल और नज़्म संग्रह) शामिल हैं. 25 अगस्त, 2008 को किडनी फेल होने के कारण उनका निधन हो गया. वह काफ़ी वक़्त से बीमार थे और इस्लामाबाद के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. इस्लामाबाद के ही क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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वेलेंटाइन डे... मनाएं या न मनाएं


कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जो हमें बिल्कुल भी पसंद नहीं होतीं... लेकिन हम उन्हें मिटा तो नहीं सकते, उनसे नफ़रत तो नहीं कर सकते... उन्हें बदल तो नहीं सकते... हो सकता है कि वो चीज़ें दूसरों को अच्छी लगती हों...

फ़िलहाल बात वेलेंटाइन डे की है... बहुत से लोगों को ये दिन बिल्कुल भी पसंद नहीं... इस दिन को नापसंद करने के लिए उनकी अपनी दलीलें हैं...
बहुत से लोगों को वेलेंटाइन अच्छा लगता है... वो इसे जज़्बात से जोड़ कर देखते हैं... कुछ लोगों के लिए ये दिन अपनी मुहब्बत के इक़रार करने का दिन है... कुछ लोगों के लिए ये दिन अपने परिवार के साथ कहीं बाहर घूम-फिर कर रोज़मर्रा की दुश्वारियों का तनाव दूर कर लेने का दिन है...

बहरहाल, वेलेंटाइन डे आप मनाएं या न मनाएं, या किस तरह मनाएं... आप अपने महबूब के साथ इसे मनाएं, अपने दोस्तों के साथ मनाएं, अपने वालदेन के साथ मनाएं, अपने भाई-बहनों के साथ मनाएं या फिर अपने बच्चों के साथ मनाएं... ये आपकी अपनी मर्ज़ी है...
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अब्राहम लिंकन : इंसानियत की मिसाल


फ़िरदौस ख़ान
आज अब्राहम लिंकन की सालगिरह है.
अब्राहम लिंकन को अमेरिका के प्रभावशाली राष्ट्रपतियों में गिना जाता है. उनकी ज़िन्दगी बड़ी जद्दोजहद के बाद मिली कामयाबी की दास्तान बयान करती है. उनका कार्यकाल 1861 से 1865 तक था. उन्होंने अमेरिका को उसके सबसे बड़े संकट यानी गृहयुद्ध से पार लगाया. अमेरिका में अमानवीय दास प्रथा को ख़त्म करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

अब्राहम लिंकन का जन्म 12 फ़रवरी 1809 को अमेरिका के हार्डिन केंटकी में एक अश्वेत परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम थॉमस और मां का नाम नैंसी हैंक्स लिंकन था. उनकी दो ही संतानें थीं, बेटी सारा और बेटा अब्राहम. उनके पिता को कारोबार में नुक़सान हुआ और वह रोज़गार की तलाश में इंडियाना के पेरी काउंटी में आ गए और फिर यहीं बस गए. अब्राहम लिंकन जब सिर्फ़ नौ साल के थे, उनकी मां की मौत हो गई. उनके पिता ने विधवा सारा बुश जॉनसन से शादी कर ली और उसके तीन बच्चों के सौतेले पिता बन गए. अब्राहम को सौतेली मां ने उन्हें सगी मां की ही तरह प्यार दिया.

अब्राहम लिंकन का परिवार बहुत ग़रीब था. उनकी पढ़ाई बहुत ही मुश्किल से हुई. किताबें ख़रीदने के लिए उन्हें दिन-रात मेहनत करनी पड़ती थी. साल 1830 में वह परिवार के साथ इलिनोइस आ गए. उन्होंने यहां भी ख़ूब मेहनत की. खेतों में काम किया, दुकान पर काम किया, पोस्ट मास्टर का काम किया और भी न जाने कितने ही काम किए.  वह जल्द ही सियासत में आ गए और 25  साल की उम्र में इलिनोइस विधानमंडल में एक सीट जीती. वह इलिनोइस राज्य विधानमंडल के लिए कई बार चुने गए.  इस दौरान उन्होंने वकालत की पढ़ाई की और बतौर वकील काम भी शुरू कर दिया.

अब्राहम लिंकन ने साल 1842 में  मैरी टोड से विवाह किया. उनके चार बेटे हुए, जिनमें से 1843 में जन्मा रॉबर्ट टोड वयस्कता तक पहुंच सका, बाक़ी सभी बच्चों की मौत हो गई. अब्राहम लिंकन ने साल 1845 में अमेरिकी कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ा. वह चुनाव जीते और एक कार्यकाल के लिए एक कांग्रेसी नेता के तौर पर काम किया. फिर उन्होंने अमेरिकी सीनेट के लिए चुनाव लड़ा. वह चुनाव हार गए, लेकिन बहस के दौरान ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ अपने तर्क से राष्ट्रीय स्तर पर एक ख़ास पहचान हासिल कर ली. उन्होंने साल 1860 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए चुनाव लड़ा. वह न्यू रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य थे, जिसने दक्षिणी राज्यों में से किसी को भी अलग करने की अनुमति का सख़्ती से विरोध किया. रिपब्लिकन भी ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ थे. अब्राहम लिंकन चुनाव जीत गए और 1861 के मार्च में राष्ट्रपति बने.
दक्षिणी राज्य नहीं चाहते थे कि अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बनें, इसलिए उनके ख़िलाफ़ दक्षिण कैरोलिना सहित छह राज्यों ने साथ मिलकर एक नया महासंघ बना लिया. अब्राहम लिंकन के राष्ट्रपति का दायित्व संभालने के महज़ एक महीने बाद ही 12 अप्रैल 1861 को  दक्षिण कैरोलिना में फ़ोर्ट सम्टर में गृह युद्ध शुरू हो गया. अब्राहम लिंकन ने राज्यों के ’संघ’ को बनाए रखना तय किया हुआ था. अमेरिका में चार साल गृहयुद्ध चला, लेकिन अपनी कुशलता से वह देश को एकजुट रखने में कामयाब रहे. आख़िर 9 अप्रैल 1865 को गृह युद्ध ख़त्म हो गया. मगर एक नये ख़ुशहाल अमेरिका को देखने के लिए वह ज़िन्दा न रहे. वह 14 अप्रैल 1865 फ़ोर्ड थियेटर में एक नाटक देख रहे थे, तभी जॉन विल्केस बूथ नाम के एक अभिनेता ने उन्हें गोली मार दी और अगले दिन 15 अप्रैल 1865 को उनकी मौत हो गई.

अब्राहम लिंकन ने 1 जनवरी, 1863 को अमेरिका को ग़ुलाम प्रथा से आज़ाद करने का ऐलान किया. यह संघीय राज्यों में ग़ुलामों को आज़ाद करने का एक आदेश था. हालांकि सभी ग़ुलाम फ़ौरन आज़ाद नहीं हुए थे. इसने 13 वें संशोधन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जिसके तहत संयुक्त राज्य अमेरिका में कुछ साल बाद सभी ग़ुलाम आज़ाद होंगे. अब्राहम लिंकन 1 नवंबर, 1863 को गेटिसबर्ग में दिए अपने एक संक्षिप्त भाषण के लिए याद किए जाते हैं. यह गेटिसबर्ग उद्बोधन कहलाता है. यह छोटा ज़रूर था, लेकिन यह अमेरिकी इतिहास में महान भाषणों में से एक माना जाता है.

अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से पहले अब्राहम लिंकन ने बीस साल तक वकालत की. इस दौरान उन्होंने दौलत भले ही नहीं कमाई हो, लेकिन उन्हें लोगों का बहुत मान-सम्मान मिला. उनके वकालत के दिनों के सैंकड़ों क़िस्से उनकी दरियादिली ईमानदारी की गवाही देते हैं.  लिंकन अपने ग़रीब मुवक्किलों से ज़्यादा फ़ीस नहीं लेते थे. एक बार उनके एक मुवक्किल ने उन्हें पच्चीस डॉलर भेजे, तो उन्होंने उसमें से दस डॉलर यह कहकर लौटा दिए कि पंद्रह डॉलर काफ़ी हैं. अमूमन वह अपने मुवक्किलों को अदालत के बाहर ही राज़ीनामा करके मामला निपटा लेने की सलाह देते थे, ताकि दोनों पक्षों का वक़्त और पैसे मुक़दमेबाज़ी में बर्बाद होने से बच जाएं. हालांकि ऐसा करने से उन्हें नुक़सान ही होता था और उन्हें न के बराबर ही फ़ीस मिलती थी. एक शहीद सैनिक की विधवा को उसकी पेंशन के 400 डॉलर दिलाने के लिए एक पेंशन एजेंट 200 डॉलर फ़ीस में मांग रहा था. लिंकन ने उस महिला के लिए न सिर्फ़ मुफ़्त में वकालत की, बल्कि उसके होटल में रहने का ख़र्च और घर वापसी का किराया भी ख़ुद ही दिया. एक बार लिंकन और उनके सहयोगी वकील ने एक मानसिक रोगी महिला की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने वाले व्यक्ति को अदालत से सज़ा दिलवाई. मामला अदालत में सिर्फ़ पंद्रह मिनट ही चला. मुक़दमा जीतने के बाद फ़ीस बटवारे को लेकर उन्होंने अपने सहयोगी वकील को डांटा. सहयोगी वकील का कहना था कि उस महिला के भाई ने पूरी फ़ीस चुका दी थी और सभी अदालत के फ़ैसले से ख़ुश थे, मगर लिंकन का कहना था कि वह ख़ुश नहीं हैं. वह पैसा एक बेचारी मरीज़ महिला का है और वह ऐसा पैसा लेने की बजाय भूखे मरना पसंद करेंगे. इसलिए उनके हिस्से की फ़ीस की रक़म महिला के भाई को वापस कर दी जाए.

वह मानवता को सर्वोपरि मानते थे. मज़हब के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने अपने एक दोस्त को जवाब दिया था- “बहुत पहले मैं इंडियाना में एक बूढ़े आदमी से मिला, जो यह कहता था ‘जब मैं कुछ अच्छा करता हूं, तो अच्छा महसूस करता हूं और जब बुरा करता हूं तो बुरा महसूस करता हूं’. यही मेरा मज़हब है’.

अब्राहम लिंकन ने यह पत्र अपने बेटे के स्कूल प्रिंसिपल को लिखा था. लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं, जो वह अपने बेटे को सिखाना चाहते थे.
सम्माननीय महोदय,
मैं जानता हूं कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं. यह बात मेरे बेटे को भी सीखनी होगी, लेकिन मैं चाहता हूं कि आप उसे यह बताएं कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा दिल होता है. हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा रहनुमा बनने की क्षमता होती है. मैं चाहता हूं कि आप उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है. ये बातें सीखने में उसे वक़्त लगेगा, मैं जानता हूं. लेकिन पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पांच रुपये के नोट से ज़्यादा क़ीमती होता है.

आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाए. साथ ही यह भी कि खुलकर हंसते हुए भी शालीनता बरतना कितना ज़रूरी है. मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएंगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्‍छी बात नहीं है. यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए.

आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को धूप, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा. मैं समझता हूं कि ये बातें उसके लिए ज़्यादा काम की हैं.
मैं मानता हूं कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखनी होगी कि नक़ल करके पास होने से फ़ेल होना अच्‍छा है. किसी बात पर चाहे दूसरे उसे ग़लत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर क़ायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए. दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख़्ती से पेश आना चाहिए. दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीज़ों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा.
आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी को किस तरह ख़ुशी में बदला जा सकता है. और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे, तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे. मेरा सोचना है कि उसे ख़ुद पर यक़ीन होना चाहिए और दूसरों पर भी, तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा.

ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी, लेकिन आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएं उतना उसके लिए अच्छा होगा. फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी.
आपका
अब्राहम लिंकन

बहरहाल, अब्राहम लिंकन की ज़िन्दगी एक ऐसी मिसाल है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है. 
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मुहब्बत का मीम


इंसान में जब तक ’मैं’ है, तब तक वह न तो अपने मिज़ाजी महबूब को पा सकता है और न ही हक़ीक़ी महबूब को... मुहब्बत में पहले ख़ुद को मिटाना पड़ता है, तब कहीं जाकर इंसान मुहब्बत का मीम ही सीख पाता है...
बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब-
न था कुछ तो, ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
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1 फ़रवरी 2016


1 फ़रवरी 2016... एक यादगार तारीख़... कभी न भूलने वाली तारीख़... हमारी ज़िन्दगी में एक अदद की बहुत अहमियत रही है... हमारी सालगिरह एक तारीख़ को है... उनकी सालगिरह में भी एक अदद आता है... ये एक हसीन इत्तेफ़ाक़ है कि हमारी ज़िन्दगी के बहुत ख़ुशनुमा और यादगार दिनों में एक अदद शामिल रहा है...
हर चीज़ की शुरुआत ही एक अदद से होती है... ख़ुदा भी एक ही है... 
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कहानी फ़रवरी की


फ़रवरी...  इस महीने का ताल्लुक़ लैटिन के फ़ैबरा से है, जिसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत'... पहले इसी माह में 15 तारीख़ को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे...   कुछ लोग फ़रवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फ़ेबरुएरिया से भी मानते हैं, जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है... इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं...
 फ़रवरी माह में मौसम सुहाना होने लगता है... इसी महीने में बसंत पंचमी मनाई जाती है... पीले रंग की बहार होती है... खेतों में सरसों को फूल इठलाते हैं... लगता है, ज़मीन ने पीला आंचल ओढ़ लिया है... मुहब्बत करने वालों का त्यौहार वेलेंटाइन डे भी इसी महीने में आता है... इस महीने में देशभर में कई तरह के मेलों का आयोजन किया जाता है...

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