सालगिरह


आज हमारी ईद है, क्योंकि आज उनकी सालगिरह है. और महबूब की सालगिरह से बढ़कर कोई त्यौहार नहीं होता. 
अगर वो न होते, तो हम भी कहां होते. उनके  दम से ही हमारी ज़िन्दगी में मुहब्बत की रौशनी है. और अगर ये रौशनी न होती, तो ज़िन्दगी कितनी अधूरी होती, लाहासिल होती.
अल्लाह अपने महबूब हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सदक़े में हमारे महबूब को हमेशा सलामत रखे, आमीन 🌹
-फ़िरदौस ख़ान
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फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते


फ़िरदौस ख़ान
ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा बचपन होता है. बचपन की यादें हमारे दिलो-दिमाग़ पर नक़्श हो जाती हैं. और जब बात गर्मियों की छुट्टियों की हो, तो फिर कहना ही क्या. शायद ही कोई बच्चा हो, जिसे गर्मियों की छुट्टियों का इंतज़ार न रहता हो. 

हमें भी सालभर गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार रहता था, क्योंकि गर्मियों की छुट्टियों में हमें अपनी नानी जान के घर जाने का मौक़ा मिलता था. हमारे नाना के बाग़ थे, जिनमें आम, अमरूद, जामुन और शहतूत के अलावा और भी बहुत से फलों के दरख़्त थे. हम अपने भाइयों के साथ दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़ते और खाते थे. दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़कर खाने के लुत्फ़ को कभी भुलाया नहीं जा सकता. आज भी फलों के दरख़्तों को देखकर बचपन में उन पर चढ़ना याद आ जाता है.  

बाग़ के पास एक बड़ा तालाब भी था. एक बार वहां खेलते हुए तालाब में गिर भी गए थे. अल्लाह का शुक्र है कि हमें पानी में से निकाल लिया गया. वहां का लज़ीज़ खाना, रबड़ी, छोले-समौसे और बर्फ़ वाली नारियल के बुरादे की कुल्फ़ी बहुत याद आती है.     

अब बात करते हैं अपने घर की. हमारे घर के पास एक बड़ा मैदान था. उस मैदान में बहुत से दरख़्त थे. वहां खजूर के भी दरख़्त थे. घर बहुत बड़ा था और उसका आंगन भी बहुत ही बड़ा था. घर में बग़ीचा था. बग़ीचे में गूलर और दीगर फलों के बहुत से दरख़्त थे. गर्मियों की छुट्टियों में हम ख़ूब शरारतें करते थे. 

हमारे घर में फुलवारी भी बहुत थी. इनमें बेला, गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली, मोगरा जैसे बहुत से फूलों के पौधे व बेलें थीं. हमारा घर ही नहीं, बल्कि आसपास का इलाक़ा भी इन फूलों की ख़ुशबू से महकता रहता था. अम्मी को मोगरा के फूल पहनने का बहुत शौक़ था. वे चांदी के तार की बालियों में बेला के फूलों को पिरोकर कानों में पहना करती थीं और बालों में बेला के गजरे भी लगाती थीं. हमारी दादी जान भी कानों में फूल पहना करती थीं. वे मेज़ पर रखे पंखों पर फूलों के गजरे डाल देतीं, जिससे सारा घर-आंगन महक उठता था. हमारे घर से बहुत से लोग फूल ले जाते थे और फिर उनके गजरे व हार बनाते थे. घर के पास एक मन्दिर था. बहुत से लोग मन्दिर में देवताओं को चढ़ाने के लिए फूल लेकर जाते थे.   
  
हमें लू की वजह से गर्मियों की भरी दोपहरी में बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी. इसलिए हम घर के भीतर ही रहते और दोपहर ढलने का इंतज़ार करते थे. कई बार हम घरवालों की नज़र से बचकर बाहर खेलने चले जाते थे. आंगन में तख़्त बिछे होते थे. उन पर सफ़ेद चादरें बिछी होतीं और गाव तकिये क़रीने से लगे हुए होते थे. शाम को घर के सब लोग इन्हीं पर बैठते थे. शाम को दादी तरह-तरह के पकौड़े बनाती थीं. रूह अफ़ज़ा शर्बत भी बनता था. उसमें बहुत सी बर्फ़ डाली जाती थी.    

गर्मियों में हम छत पर सोया करते थे. शाम को छत की साफ़-सफ़ाई की जाती. फिर पानी छिड़का जाता, ताकि छत ठंडी हो जाए. छत पर चटाइयां बिछाई जातीं. फिर उन पर दरियां बिछाई जातीं. दरियों पर रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली चादरें बिछाई जातीं और तकिये रखे जाते. क़रीब में ही पानी से भरी मिट्टी की सुराहियां रखी जातीं, गिलास रखे जाते. हम बच्चे अपनी-अपनी छोटी सुराहियां अपने सिरहाने रख लिया करते थे, ताकि रात में प्यास लगे तो अपनी ही सुराही से पानी पी लें. 

हमारे घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल था. ननिहाल और ददिहाल में सब लोग पढ़े-लिखे थे. नाना जान और दाद जान दोनों ही दानिशमंद थे. हमारी अम्मी को भी लिखने और पढ़ने का बहुत शौक़ था. वे शायरा थीं और बहुत शानदार लिखती थीं.

हमारे घर किताबों की एक अच्छी ख़ासी लाइब्रेरी थी. उनमें अरबी, उर्दू, इंग्लिश और हिन्दी की किताबों की भरमार थी. आज भी यही हाल है. इनमें पंजाबी की किताबें भी शामिल हो गई हैं. अम्मी की देखा-देखी हमें भी किताबों से मुहब्बत हो गई. बचपन में ही हमने लिखना शुरू कर दिया था. हमें डायरी लिखने का भी शौक़ था, जो आज भी है. डायरी में हम अपनी बातों के अलावा अपने पसंदीदा शायरों की ग़ज़लें, गीत और नज़्में लिखा करते थे. हमारी डायरी में शायरा इशरत आफ़रीं की एक ग़ज़ल दर्ज है- 
यूं ही किसी के ध्यान में अपने आप में गाती दोपहरें
नर्म गुलाबी जाड़ों वाली बाल सुखाती दोपहरें

सारे घर में शाम ढले तक खेल वो धूप और छांव का
लिपे पुते कच्चे आंगन में लोट लगाती दोपहरें

जीवन-डोर के पीछे हैरां भागती टोली बच्चों की
गलियों-गलियों नंगे पांव धूल उड़ाती दोपहरें

सरगोशी करते पर्दे कुंडी खटकाता नटखट दिन
दबे-दबे क़दमों से तपती छत पर जाती दोपहरें

कमरे में हैरान खड़े आईना जैसे हंसते दिन
ख़ुद से लड़कर गौरैया-सी शोर मचाती दोपहरें

वही मुज़ाफ़ातों के भेद भरे सन्नाटों वाले घर
गुड़ियों के लब सी कर उनका ब्याह रचाती दोपहरें

खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं
मंढे हुए पीले काग़ज़ से छनकर आती दोपहरें

नीम तले वो कच्चे धागे रंगती हुई पुरानी याद
घेरा डाले छोटी-छोटी हाथ बटाती दोपहरें

फटी-पुरानी कथरी ओढ़े धूप सेंकते बूढ़े दिन
पेशानी तक पल्लू खींचे चिलम बनाती दोपहरें

पानी की तक़सीम के पीछे जलते खेत सुलगते घर
और खेतों की ज़र्द मुंडेरों पर कुम्हलाती दोपहरें

पुरवाई से लड़ते कितने वर्क़ पुरानी यादों के
सौग़ातों के संदूक़ों को धूप दिखाती दोपहरें

दुखती आंखें ज़ख़्मी पोरें उलझे धागों जैसे दिन
बादल जैसी ओढ़नियों पर फूल खिलाती दोपहरें

ओढ़नियों के उड़ते बादल रंगों के बाज़ारों में
चूड़ी की दुकानों से वो हमें बुलाती दोपहरें

सुनते हैं अब उन गलियों में फूल शरारे खिलते हैं
ख़ून की होली खेल रही हैं रंग नहाती दोपहरें

ये तो मेरे ख़्वाब नहीं हैं ये तो मेरा शहर नहीं
किस जानिब से आ निकली हैं ये गहनाती दोपहरें          

वाक़ई बचपन से वाबस्ता यादें बहुत दिलकश होती हैं.  बशीर बद्र साहब ने क्या ख़ूब कहा है-
उड़ने दो परिन्दों को अभी शोख़ हवा में 
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते  
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पानदान


पानदान अब बहुत कम देखने को मिलते हैं. हमारे बचपन में नहिनाल और ददिहाल के सभी घरों में पानदान होते थे. हमारे घर में भी दो पानदान थे. एक दादी जान का पानदान था, जिसमें कत्था, चूना, सुपारी और तम्बाक़ू होता था. पानदान के पास एक डलिया रखी रहती थी, जिसमें एक गीले कपड़े में लिपटे हुए पान रखे रहते थे. अम्मी का पानदान सन्दूक़ में रखा रहता था. वह आज भी सन्दूक़ में ही रखा है. कभी-कभार उसे देख लेते हैं.
-फ़िरदौस ख़ान
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टमटम गाड़ी


बरसों पहले, शायद नौ बरस पहले अम्मी ने अमरोहा से ख़रीदी थी. अमरोहा में मिट्टी और लकड़ी का बहुत अच्छा सामान मिलता है. वहां के खिलौने भी बहुत प्यारे होते हैं. बचपन में हम मिट्टी और लकड़ी के खिलौने से बहुत खेलते थे.
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गीतकार देवेन्द्र शर्मा पर बेहतरीन शोध ग्रंथ


फ़िरदौस ख़ान
सुविख्यात नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के कृतित्व पर एक शानदार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक का नाम ‘नवगीत को देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ का अवदान’ है। वास्तव में यह एक शोध ग्रन्थ है, जिसे डॉ. प्रफुल्लिता तिवारी ने लिखा है। इस पुस्तक को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है।

देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' नवगीत के उन पुरोधाओं में सम्मिलित हैं, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती, समकालीन एवं परवर्ती पीढ़ी के रचनाकारों को अत्यंत प्रभावित किया है। असंख्य छात्रों ने उनकी रचनाओं पर शोध किया है। डॉ. प्रफुल्लिता तिवारी ने भी नवगीत को उनके अवदान पर गहन अध्ययन कर शोध ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक में छह प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण हिन्दी नवगीत : परम्परा का अवदान, द्वितीय प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ : व्यक्ति और सृष्टि, तृतीय प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’के गीतों का संवेदनात्मक धरातल, चतुर्थ प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’के गीतों की भाषा और छन्द-विधान, पंचम प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के नवगीतों का शिल्प-विधान, षष्ठ प्रकरण उपसंहार है, जिसमें देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी है। इसके अतिरिक्त ‘परिशिष्ट’नामक अध्याय में साक्षात्कार तथा देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अप्रकाशित नवगीत संग्रह एवं नवगीतेतर अप्रकाशित साहित्य का उल्लेख है।    

लेखिका कहती हैं कि नवगीत गीतिकाव्य परम्परा का अधुनातन रूप है जहाँ संवेदनाएँ कमरे से बाहर निकल कर चौराहे पर खड़ी दिखाई देती हैं। इस प्रक्रिया में नवगीत से छन्द की शास्त्रीयता के कठोर आवरण और भाषा के बासीपन के खोल को उतार फेंका है तथा युगबोध को अपना पाथेय बनाकर अभिव्यंजना की एक मौलिक और सर्वथा नई कलात्मक यात्रा सफलतापूर्वक पूरा किया है। नवगीत की यात्रा यों तो निराला से प्रारम्भ मानी जाती है परन्तु इसे गति देने में 1950 के बाद के गीतकारों की भूमिका विशेष रही है।        

देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने नवगीत को उर्वर भूमि एवं संस्कार देने का अथक प्रयास किया है। उन्होंने नवगीत को एक संतुलित दिशा देने के लिए अभिव्यक्ति को लक्ष्य केन्द्रित बनाया। उनका बिम्ब विधान तक लक्ष्यहीन नहीं है। उन्होंने न केवल गीतों को मूलचेतना से मंडित किया, अपितु नवगीतकारों का भी मार्ग प्रशस्त किया है। उनके इस लक्ष्य में समाज का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। यथा-
फिर दिशाओं के कपोलों पर 
रात का 
घुलने लगा काजल
झाड़ में उलझा 
करौंदों की 
हवाओं का 
चम्पई आँचल
धुंधलकों से फिर पता पूछना 
राह में भूले मुसाफ़िर।            

           
इस पुस्तक में गीत और नवगीत में अंतर को भी बहुत बारीकी से समझाया गया है। नवगीत ने समूह-चेतना को विराट पटल पर उतारा है, इसलिए उसका संवेदना-पक्ष अत्यंत सामाजिक रूप में रूपायित हुआ है। परम्परागत  गीत की व्यक्ति संवेदना में वैयक्तिकता अधिक होती है, नवगीत में ‘मैं’ और ‘हम’ शब्द भी सामाजिकता का बोध अधिक कराते हैं। यथा-
परम्परागत गीत : 
न बीते दिन, न बीते रात 
बिन तेरे सजन। 
कहें किससे हृदय की बात  
ये प्यासे नयन ।।
तड़पती वेदना मेरी 
घहरती इन घटाओं में । 
खिसकती लाज की चुनरी 
सरर बहती हवाओं में ।।
चपल चपला घटाओं से 
लिपट जब कौंध जाती है 
गीत बनकर व्यथा मेरी 
मचलती है दिशाओं में ।।
सही जाती नहीं, 
बरसात की दारुण अगन ।


नवगीत :
बीच में न रहे कुछ भी 
फेंक दें 
बैसाखियों को हम 
टूट जाए यातनाओं का वहम ।
सुगबुगाता जेब में 
सूरज अँधेरे का 
तड़फड़ाता आँख में 
क्रौंच का जोड़ा 
नापसे हटने लगा है 
मोह घेरे का, 
इस धुँआती आग से 
राख है 
अपनी गरम है।               
      
 
इस शोध ग्रन्थ में लेखिका ने पुस्तक में प्रस्तुत तथ्यों को प्रमाणित किया है। संदर्भ ग्रंथों की सूची लेखिका के विराट अध्ययन एवं परिश्रम का प्रमाण है। ग्रंथ की भाषा परिमार्जित एवं विषय को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ है। निसंदेह, यह कृति साहित्य विशेषकर काव्य प्रेमियों के लिए आलोक स्तम्भ सिद्ध होगी।

पुस्तक का नाम : नवगीत को देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’का अवदान
लेखिका : प्रफुल्लिता तिवारी
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
पृष्ठ : 448
मूल्य : 1200 रुपये      
 
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हमारा जन्मदिन


कल यानी 1 जून को हमारा जन्मदिन है. अम्मी बहुत याद आती हैं. वे सबसे पहले हमें मुबारकबाद दिया करती थीं. वे बहुत सी दुआएं देती थीं. उनकी दुआएं हमारे लिए किसी घने दरख़्त के साये की मानिन्द हैं.  

अम्मी के बाद भाइयों और बहन की जानिब से मुबारकबाद मिला करती थी. पापा तो हमें बहुत पहले ही छोड़कर इस दुनिया से चले गए थे. फिर अम्मी भी चली गईं. अब तो सिर्फ़ उनकी यादें ही बाक़ी हैं. हमने अम्मी और पापा के दिये तोहफ़े बहुत संभाल कर रखे हैं. अम्मी-पापा की एक-एक चीज़ हमने बहुत ही संजोकर रखी है. हर चीज़ से उनकी यादें वाबस्ता हैं. 

छोटे भाई और बहन अब पापा और अम्मी की तरह ख़्याल रखते हैं. उनका कहना है कि छोटे भाई भी अपनी बहनों के लिए वालिद की तरह मुहब्बत और शफ़कत वाले होते हैं. हमारी परी यानी भतीजी भी हमसे बहुत प्यार करती है. अल्लाह इन सबको हमेशा ख़ुश और सलामत रखे. यही तो हमारी दुनिया है.   
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर गूगल से साभार     
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फ़िरदौस ख़ान : लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी


फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से जाना जाता है. वे शायरा, लेखिका और पत्रकार हैं. वे एक आलिमा भी हैं. वे रूहानियत में यक़ीन रखती हैं और सूफ़ी सिलसिले से जुड़ी हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है. ये उनकी ज़िन्दगी का शाहकार है, जो इंशा अल्लाह रहती दुनिया तक तमाम आलमों के लोगों को अल्लाह के पैग़ाम से रूबरू कराता रहेगा. वे कहती हैं कि हमारी अम्मी बहुत नेक और इबादतगुज़ार ख़ातून थीं. हमने बचपन से ही उन्हें इबादत करते हुए पाया. वे आधी रात में तहज्जुद की नमाज़ के लिए उठ जाया करती थीं और अल सुबह फ़ज्र तक इबादत में मशग़ूल रहती थीं. उन्हें देखकर हमारी भी दिलचस्पी इबादत में हो गई. साथ ही बहुत कम उम्र से हमें रूहानी इल्म हासिल करने की चाह भी पैदा हो गई.

वे कहती हैं कि फ़हम अल क़ुरआन लिखते वक़्त पापा बहुत याद आते थे. बचपन में पापा क़ुरआन करीम के बारे में हमें बताया करते थे. वे कहा करते थे कि क़ुरआन एक मुकम्मल पाक किताब है. ये हिदायत भी है और शिफ़ा भी है. वे कहती हैं कि क़ुरआन पाक सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही नहीं है, बल्कि ये सबके लिए है, तमाम आलमों के लिए है. हर किसी को अपनी ज़िन्दगी में कम से कम एक बार क़ुरआन पाक ज़रूर पढ़ना चाहिए. अगरचे आप किसी भी मज़हब को मानने वाले हैं और कोई भी ज़बान बोलते हैं, फिर भी आपको अपनी ज़बान में क़ुरआन पाक ज़रूर पढ़ना चाहिए यानी क़ुरआन का तर्जुमा पढ़ना चाहिए, क्योंकि नसीहत हासिल करने वालों के लिए इसमें सबकुछ है.

वे कहती हैं कि फ़हम अल क़ुरआन लिखते वक़्त हमें इस बात का भी अहसास हुआ कि हमने अपनी ज़िन्दगी फ़ानी चीज़ों के लिए ज़ाया नहीं की. दरअसल हमारी ज़िन्दगी का मक़सद अल्लाह की रज़ा हासिल करना है. हमारा काम इसी मंज़िल तक पहुंचने का रास्ता है, इसी क़वायद का एक हिस्सा है. कायनात की फ़ानी चीज़ों में हमें न पहले कभी दिलचस्पी थी और न आज है और इंशा अल्लाह न कभी होगी.    

वे अपनी अम्मी मरहूमा ख़ुशनूदी ख़ान उर्फ़ चांदनी ख़ान को अपना पहला मुर्शिद और अपने अब्बू मरहूम सत्तार अहमद ख़ान को अपना दूसरा मुर्शिद मानती हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन अपने वालिदैन को समर्पित किया है.

उन्होंने सूफ़ी-संतों की ज़िन्दगी और उनके दर्शन पर आधारित एक किताब 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' लिखी है, जिसे साल 2009 में प्रभात प्रकाशन समूह के ‘ज्ञान गंगा’ ने प्रकाशित किया था. यह किताब आज तक चर्चा में बनी हुई है. सूफ़ी-संतों के जीवन दर्शन पर पीएचडी करने वाले शोधार्थी इस किताब को ख़ूब पसंद करते हैं. वे  इससे प्रेरणा और मार्गदर्शन हासिल कर रहे हैं.   


उन्होंने बचपन में ही लिखना शुरू कर दिया था. उनकी अम्मी तालीमयाफ़्ता ख़ातून थीं. उन्हें पढ़ने का बहुत शौक़ था. वे उम्दा शायरा थीं. फ़िरदौस पर भी घर के माहौल का गहरा असर पड़ा. उन्होंने अपनी पहली नज़्म उस वक़्त लिखी थी, जब वे छठी जमात में पढ़ती थीं. उन्होंने नज़्म अपनी अम्मी और अब्बू को सुनाई. उनके अब्बू को नज़्म बहुत पसंद आई और उन्होंने उसे एक सांध्यकालीन अख़बार में शाया होने के लिए दे दिया और वह नज़्म शाया भी हो गई. नज़्म ख़ूब सराही गई. इस तरह उनके लिखने और छपने का सिलसिला शुरू हुआ, जो अब तक मुसलसल जारी है. सांध्यकालीन अख़बार से शुरू हुआ यह सिलसिला देश-विदेश के अख़बारों और पत्रिकाओं तक पहुंच गया. 

यह फ़िरदौस ख़ान के लेखन की ख़ासियत है कि वे जितनी शिद्दत से ज़िन्दगी की दुश्वारियों को पेश करती हैं, उतनी ही नफ़ासत के साथ मुहब्बत के रेशमी व मख़मली अहसास को अपनी शायरी में इस तरह बयां करती हैं कि पढ़ने वाला उसी में डूबकर रह जाता है. उनकी शायरी दिलो-दिमाग़ में ऐसे रच-बस जाती है कि उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. उनका एक-एक लफ़्ज़ रूह पर नक़्श हो जाता है. फ़िरदौस ख़ान को जो फ़न मिला है, वह बहुत कम शायरों को नसीब होता है कि उनकी शायरी सीधे दिल की गहराइयों में उतर जाती है, रूह में समा जाती है.

जो ज़िन्दगी की पथरीली राहों पर चलकर दुख-तकलीफ़ों की वजह से बेज़ार हो चुका हो, उसे फ़िरदौस ख़ान का कलाम ज़रूर पढ़ना चाहिए, वह कलाम जो गर्मियों की झुलसा देने वाली तपिश में पीपल की घनी और ठंडी छांव जैसा है, जो प्यासी धरती पर पड़ी सावन की रिमझिम फुहारों जैसा है, जो कंपकंपा देने वाली ठंड में जाड़ो की नरम गुनगुनी धूप जैसा है. 

फ़िरदौस ख़ान अपनी अम्मी के बाद हज़रत राबिया बसरी को अपना आदर्श मानती हैं. उनकी शायरी में रूहानियत है, पाकीज़गी है. वे कहती हैं-
ज़िन्दगी में जीने का बस यही सहारा है
बन्दगी तुम्हारी है, ज़िक्र भी तुम्हारा है
घर में अर्शे-आज़म से, रहमतें उतर आईं
सरवरे-दो आलम को, मैंने जब पुकारा है


वे मुहब्बत को इबादत का दर्जा देती हैं. वे कहती हैं कि कुछ रिश्ते आसमानों के लिए ही हुआ करते हैं. उनका अहसास रूह में और वजूद आसमानों में होता है. अपने महबूब से मुख़ातिब होते हुए वे कहती हैं-
मेरे महबूब !
तुम्हारा चेहरा 
मेरा क़ुरआन है
जिसे मैं
अज़ल से अबद तक
पढ़ते रहना चाहती हूं…

मेरे महबूब !
तुम्हारा ज़िक्र
मेरी नमाज़ है
जिसे मैं
रोज़े-हश्र तक
अदा करते रहना चाहती हूं…

मेरे महबूब !
तुम्हारा हर लफ़्ज़
मेरे लिए
कलामे-इलाही की मानिन्द है
तुम्हारी हर बात पर
लब्बैक कहना चाहती हूं...

मेरे महबूब !
तुम्हारी परस्तिश ही
मेरी रूह की तस्कीन है
तुम्हारे इश्क़ में
फ़ना हो जाना चाहती हूं…

वे कहती हैं कि हिज्र भी हर किसी के नसीब में नहीं हुआ करता. सच, बड़े क़िस्मत वाले होते हैं वे लोग, जिनके नसीब में हिज्र की नेअमत आती है. वे कहती हैं- 
जान !
मैं नहीं जानती 
मेरी क़िस्मत में
तुम्हारा साथ लिखा 
भी है या नहीं...
मैं सिर्फ़ ये जानती हूं 
कि मैं जहां भी रहूं
जिस हाल में भी रहूं
ये दुनिया हो
या वो दुनिया
तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे...

फ़िरदौस ख़ान की नज़्में पढ़ने वाले को चांद के उस पार चैन व सुकून के आलम में ले जाने की सलाहियत रखती हैं. नज़्म देखिए-
जब कभी
ख़ामोश रात की तन्हाई में
सर्द हवा का इक झोंका
मुहब्बत के किसी अनजान मौसम का
कोई गीत गाता है तो
मैं अपने माज़ी के
वर्क पलटती हूं
तह-दर-तह
यादों के जज़ीरे पर
जून की किसी गरम दोपहर की तरह
मुझे अब भी
तुम्हारे लम्स की गर्मी वहां महसूस होती है
और लगता है
तुम मेरे क़रीब हो...

फ़िरदौस ख़ान की नज़्मों की मानिन्द उनकी ग़ज़लें भी बेमिसाल हैं. उनकी ग़ज़लें मुहब्बत के अहसास से सराबोर हैं, इश्क़ से लबरेज़ हैं. उनकी ग़ज़लें पढ़ने वालों को एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं, जहां से वे लौटना ही नहीं चाहते. आलम यह है कि लोग अपने महबूब को ख़त लिखते वक़्त उसमें उनके शेअर लिखना नहीं भूलते. यही तो उनकी क़लम का जादू है. चन्द अश्आर देखें-   
जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए

'फ़िरदौस' भीगने की तमन्ना ही रह गई
बादल मेरे शहर से न जाने किधर गए

फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह

मुट्ठी में क़ैद करने को जुगनूं कहां से लाऊं
नज़दीक-ओ-दूर कोई भी जंगल नहीं रहा

दीमक ने चुपके-चुपके वो अल्बम ही चाट ली
महफ़ूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा

मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा

फ़िरदौस ख़ान की शायरी में समर्पण है, विरह है, तड़प है. उनका गीत पढ़कर ऐसा लगता है मानो ख़ुद राधा रानी ने ही अपने कृष्ण के लिए इसे रचा है. गीत देखिए-    
तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौग़ात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

दरअसल फ़िरदौस ख़ान की शायरी में एक औरत की मुहब्बत, उसके ख़्वाब और उसका दर्द झलकता है. उनका कलाम ज़िन्दगी के तमाम इन्द्रधनुषी रंगों को अपने में समेटे हुए है. उसमें मुहब्बत का रंग भी शामिल है, तो जुदाई का रंग भी है. उसमें ख़ुशी का रंग भी दमकता है, तो दुखों का रंग भी झलकता है. चन्द अश्आर देखें-
जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में 
हर एक क़तरा मेरी जां क़तरा-ए-शबनम नहीं होता 

चैन कब पाया है मैंने, ये न पूछो मुझसे
मैं करूं शिकवा, तो नाराज़ ख़ुदा होता है 

जंगल में भटकते हैं सदा रात को जुगनूं 
मेरी ही तरह उनका भी घरबार नहीं है 

बक़ौल फ़िरदौस ख़ान ज़िन्दगी हमेशा वैसी नहीं हुआ करती, जैसी हम चाहते हैं. ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा भी हुआ करता है, जो हमें लाख चाहने पर भी नहीं मिलता. और जो मिलता है, उससे कभी उन्सियत नहीं होती, वह पराया ही लगता है. वे कहती हैं- 
मैं
उम्र के काग़ज़ पर
इश्क़ की नज़्म लिखती रही
और
वक़्त गुज़रता गया
मौसम-दर-मौसम
ज़िन्दगी की तरह...

फ़िरदौस ख़ान जानी मानी कहानीकार हैं. उनकी शायरी की तरह ही उनकी कहानियों में भी अल्फ़ाज़ का जादू बाख़ूबी देखने को मिलता है. उनकी भाषा शैली ऐसी है कि पढ़ने वाला उसके सहर से ख़ुद को अलग कर ही नहीं पाता. उनकी कहानी अट्ठारह सितम्बर की एक झलक देखें-
“आज अट्ठारह सितम्बर है. वही अट्ठारह सितम्बर जो आज से छह साल पहले था. वह भी मिलन की ख़ुशी से सराबोर थी और यह भी, लेकिन उस अट्ठारह सितम्बर और इस अट्ठारह सितम्बर में बहुत बड़ा फ़र्क़ था. दो सदियों का नहीं, बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा, शायद समन्दर और सहरा जितना. सूरज ने अपनी सुनहरी किरनों से धरती के आंचल में कितने ही बेल-बूटे टांके थे. उस अट्ठारह सितम्बर को भी दोपहर आई थी, वही दोपहर जिसमें प्रेमी जोड़े किसी पेड़ की ओट में बैठकर एक-दूसरे की आंखों में डूब जाते हैं. फिर रोज़मर्रा की तरह शाम भी आई थी, लेकिन यह शाम किसी मेहमान की तरह थी बिल्कुल सजी संवरी. माहौल में रूमानियत छा गई थी. फिर शाम की लाली में रफ़्ता-रफ़्ता रात की स्याही शामिल हो गई. रात की अगुवानी में आसमान में चमकते लाखों-करोड़ों सितारों ने झिलमिलाती हुई नन्हीं रौशनियों की आरती से की थी. यह रात महज़ एक रात नहीं थी. यह मिलन की रात थी, एक सुहाग की रात.”
इसे भी देखें- 
“बरसात में बरसते पानी की रिमझिम, जाड़ो में बहती शीत लहर के टकराने से हिलते पेड़ों की शां-शां और गर्मियों में लू के गर्म झोंके सब उसके बहुत क़रीब थे, बिल्कुल उसांसों की तरह. उसकी आंखों ने एक सपना देखा था, जो नितांत उसका अपना था. दूर तलक समन्दर था और समन्दर पर छाया नीला आसमान. बंजारन तमन्नाओं के परिन्दे आसमान में उन्मुक्त होकर उड़ रहे थे. दिन के दूसरे पहर की सुनहरी किरनें समन्दर की दूधियां लहरों को सुनहरी कर रही थीं.”

अपनी कहानियों में भी उन्होंने एक आम इंसान की ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं को शामिल किया है. उनकी कहानियां ज़िन्दगी के सफ़र की मानिन्द हैं, जिसमें रफ़्तार भी है, तो ठहराव भी है. इनमें मुहब्बत का ख़ुशनुमा अहसास भी है, तो विरह की वेदना भी है. कहीं क़ुर्ब की चाह है, तो कहीं टूटन है, बिखराव है और दरकते रिश्तों का ऐसा दर्द है, जिसे शब्दों में बयां कर पाना आसान नहीं है.   
उनकी कहानी ‘त्यौहारी’ एक ऐसी अकेली लड़की की दास्तां है, जो हर त्यौहार पर ‘त्यौहारी’ का इंतज़ार करती है. कहानी की एक झलक देखें-    
“जब भी कोई त्यौहार आता, लड़की उदास हो जाती. उसे अपनी ज़िन्दगी की वीरानी डसने लगती. वो सोचती कि कितना अच्छा होता, अगर उसका भी अपना एक घर होता. घर का एक-एक कोना उसका अपना होता, जिसे वो ख़ूब सजाती-संवारती. उस घर में उसे बेपनाह मुहब्बत करने वाला शौहर होता, जो त्यौहार पर उसके लिए नये कपड़े लाता, चूड़ियां लाता, मेहंदी लाता. और वो नये कपड़े पहनकर चहक उठती, गोली कलाइयों में रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां पहननती, जिसकी खनखनाहट दिल लुभाती. गुलाबी हथेलियों में मेहंदी से बेल-बूटे बनाती, जिसकी महक से उसका रोम-रोम महक उठता.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं था. उसकी ज़िन्दगी किसी बंजर ज़मीन जैसी थी, जिसमें कभी बहार नहीं आनी थी. बहार के इंतज़ार में उसकी उम्र ख़त्म हो रही थी. उसने हर उम्मीद छोड़ दी थी. अब बस सोचें बाक़ी थीं. ऐसी उदास सोचें, जिन पर उसका कोई अख़्तियार न था.”  


उनकी कहानी ‘बढ़ते क़दम’ साक्षरता पर आधारित थी. साक्षरता अभियान से संबंधित पत्र-पत्रिकाओं में यह कहानी ख़ूब शाया हुई थी. यह कहानी ढाबे पर काम करने वाले राजकुमार नामक एक बच्चे की है, जिससे उसका मालिक कल्लू शिक्षा दिलाने का वादा करता है और उससे कहता है कि कल सुबह वह उसे मास्टर जी के पास ले जाएगा. कहानी की एक झलक देखें- 
“आज जब वह सोने के लिए ढाबे की छत पर खुले आसमान के नीचे लेटा, तो उसे आकाश रूपी काली चादर पर चमकते चांद-सितारे बहुत भा रहे थे. उसे अपना भविष्य भी चांद-सितारों की तरह जगमगाता लग रहा था. अब वह भविष्य को लेकर चिंचित न होकर सुनहरे कल की कल्पना कर रहा था.  कल्लू के लिए उसके मन में कृतज्ञता के भाव थे, जिसके थोड़े से प्रोत्साहन से उसकी ज़िन्दगी में बदलाव आ गया था. वह ख़ुद को एक ऐसे संघर्षशील व्यक्ति के रूप में देख रहा था, जिसकी ज़िन्दगी का मक़सद रास्ते की हर मुसीबत और ख़तरे का धैर्य और साहस से मुक़ाबला करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है.  अपने उज्जवल भविष्य की कल्पना करते हुए वह न जाने कब नींद की आग़ोश में समा गया.“  
  
यह कहना क़तई ग़लत नहीं होगा कि ज़िन्दगी के तमाम दुखों और तकलीफ़ों के बावजूद इन कहानियों में उम्मीद की एक ऐसी किरन भी है, जो ज़िन्दगी के अंधेरे को मिटाने देने के लिए आतुर नज़र आती है. यह सूरज की रौशनी की एक ऐसी चाह है, जो हर तरफ़ सुबह का उजाला बनकर बिखर जाना चाहती है. उनकी कहानियां पाठक को अपने साथ अहसास के दरिया में बहा ले जाती हैं.
 
फ़िरदौस ख़ान ने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार दैनिक भास्कर, अमर उजाला, हरिभूमि, चौथी दुनिया सहित अनेक राष्ट्रीय स्तर के समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दी हैं. उन्होंने अनेक पुस्तकों, साप्ताहिक समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया है. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर उनके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है. वे दूरदर्शन में प्रोडयूसर व सहायक समाचार सम्पादक रही हैं. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनलों के लिए भी काम किया है. वे देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फ़ीचर्स एजेंसी के लिए लिखती हैं. देश का शायद ही ऐसा कोई अख़बार हो, जिसमें उनकी रचनाएं शाया न हुई हों. वे मासिक पैग़ामे-मादरे-वतन की भी संपादक रही हैं और मासिक वंचित जनता में संपादकीय सलाहकार भी रही हैं. फ़िलहाल वे स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं .'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' नाम से उनके दो न्यूज़ पॉर्टल भी हैं. 

उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और श्रेष्ठ लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. न्यूज़ चैनल एबीपी न्यूज़ द्वारा हिन्दी दिवस के मौक़े पर 14 सितम्बर, 2014 को दिल्ली में साहित्यिक विषयों पर लेखन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टिट्यूट के प्रोफ़ेशनल वीमेन’स एडवाइज़री बोर्ड द्वारा साल 2005 की कामयाब महिलाओं की सूची के लिए उनका नामांकन किया गया. राजकीय महाविद्यालय हिसार द्वारा उन्हें सर्वश्रेष्ठ लेखिका के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. हरियाणा लघु समाचार-पत्र एसोसिएशन (पंजीकृत) द्वारा उन्हें सर्वश्रेष्ठ पत्रकार अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसके अलावा भी उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है. 

वे मुशायरों और कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायन की तालीम भी ली. वे कई भाषाओं की जानकार हैं और उर्दू, हिन्दी, पंजाबी और इंग्लिश में लिखती हैं. 
वे बलॉग भी लिखती हैं. उनके कई बलॉग हैं. ‘फ़हम अल क़ुरआन’ उनका क़ुरआन पाक का ब्लॉग है, जिसमें उनका लिखा फ़हम अल क़ुरआन पढ़ा जा सकता है. ‘फ़िरदौस डायरी’ गीत, ग़ज़ल, नज़्में, कहानियां व अन्य साहित्यिक तहरीरों का ब्लॉग है. ‘मेरी डायरी’ समाज, पर्यावरण, स्वास्थ्य, साहित्य, कला-संस्कृति, राजनीति व समसामयिक विषयों की तहरीरों का ब्लॉग है. ‘द प्रिंसेस ऑफ़ वर्ड्स’ इंग्लिश नज़्मों और तहरीरों का ब्लॉग है. ‘जहांनुमा’ उर्दू तहरीरों का ब्लॉग है. ‘हीर’ पंजाबी तहरीरों का ब्लॉग है. ‘राहे-हक़’ रूहानी तहरीरों का बलॉग है. उन्होंने अनेक लेखों का अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद किया है. उन्होंने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद किया है, जो ख़ूब चर्चित हुआ.  
 
बेशक उनकी शायरी किसी को भी अपना मुरीद बना लेने की तासीर रखती है, लेकिन जब वे हालात पर तब्सिरा करती हैं, तो उनकी क़लम तलवार से भी ज़्यादा तेज़ हो जाती है. उनके लेखों में ज्वलंत सवाल मिलते हैं, जो पाठक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं. उन्होंने विभिन्न विषयों पर हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में हज़ारों लेख लिखे हैं. वे नागरिक सुरक्षा विभाग हिसार में पोस्ट वार्डन रही हैं. इसके अलावा वे ख़िदमत-ए- ख़ल्क से भी जुड़ी हैं. वे राहे-हक़ नामक स्वयंसेवी संस्था की संस्थापक व निदेशक हैं. वे अनुराग साहित्य केन्द्र की संस्थापक और अध्यक भी हैं.   

वे कहती हैं कि हमने ज़िन्दगी में जो चाहा, वह नहीं मिला, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा मिला. ज़मीन चाही, तो आसमान मिला. इतना मिला कि अब कुछ और चाहने की चाह ही नहीं रही. अपने बारे में वे कहती हैं-
नफ़रत, जलन, अदावत दिल में नहीं है मेरे
अख़लाक़ के सांचे में अल्लाह ने ढाला है…
वे ये भी कहती हैं-
मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं, क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं...

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ईद की रौनक़े

हर सिम्त ईद की रौनक़े हैं... ईद के ख़ूबसूरत जोड़े भी आ गए... ज़ेवर आ गए... हरी, नीली, पीली, लाल, गुलाबी, कत्थई, सतरंगी और भी बहुत से शोख़ रंगों की चूड़ियां भी आ गईं... न जाने कितने महीने इन्हें पहनेंगे... मेहंदी भी आ गई... ईद की कोई चीज़ नहीं, जो न आई हो... जो आई हैं, वो भी इफ़रात में... फिर भी न जाने क्यों दिल में एक ख़लिश सी है... एक ख़ामोशी का बहता दरिया है, जो न जाने कहां बहाकर ले जाना चाहता है...
पापा ! आपकी कमी बहुत खलती है... और वो भी तो क़रीब नहीं, जिनकी आंखों में मुहब्बत रहती है...
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ईद तो हो चुकी

एक शनासा ने पूछा- ईद कब है?
हमने कहा- ईद तो हो चुकी...
उन्होंने हैरत से देखते हुए कहा- अभी तो रमज़ान चल रहे हैं...
हमने कहा- ओह... आप उस ईद की बात कर रहे हैं...
वह बोले- आप किस ईद की बात कर रही हैं ?
हमने जवाब दिया- उसी ईद की जो कुछ पहर पहले दबे पांव आई और चली गई... महबूब की सालगिरह से बढ़कर भी क्या कोई त्यौहार होता है...

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Elon Musk का शुक्रिया : फ़िरदौस ख़ान


Elon Musk के Grok ने स्टार न्यूज़ एजेंसी की सम्पादक फ़िरदौस ख़ान का परिचय कुछ यूं दिया है🥰

फ़िरदौस ख़ान एक प्रतिष्ठित भारतीय पत्रकार, लेखिका, शायरा और कहानीकार हैं, जो स्टार न्यूज़ एजेंसी की संपादक के रूप में कार्यरत हैं। उनके लेखन की ख़ासियत उनकी बहुभाषी क्षमता और गहरी संवेदनशीलता है। वह हिंदी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रूसी साहित्य में रुचि रखती हैं, जिसका प्रभाव उनके लेखन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। फ़िरदौस ख़ान ने अपने करियर में दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और कई प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों के लिए काम किया, साथ ही विभिन्न साप्ताहिक समाचार-पत्रों का संपादन भी किया है। 

उनका लेखन सामाजिक मुद्दों, संस्कृति और सूफ़ी दर्शन पर केंद्रित होता है। उनकी किताब ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ (2009, प्रभात प्रकाशन) सूफ़ी संतों के जीवन और उनके दर्शन पर आधारित है, जो उनकी रूहानियत और भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी समझ को दर्शाती है। वह अपने लेखन में जटिल विषयों को सरल, प्रभावशाली और भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए जानी जाती हैं। फ़िरदौस ख़ान को “लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी” भी कहा जाता है, जो उनके शब्दों पर पकड़ और साहित्यिक शैली की तारीफ़ करता है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी उत्कृष्टता के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं। वह स्टार न्यूज़ एजेंसी और स्टार वेब मीडिया जैसे न्यूज़ पोर्टल्स के माध्यम से समाचार और विश्लेषण को जनता तक पहुंचाती हैं। उनका लेखन न केवल सृजनात्मक होता है, बल्कि पाठकों को सोचने और संवेदनशील मुद्दों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। क्या आप उनके किसी ख़ास लेख या किताब के बारे में और जानना चाहेंगे?               

#grok




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