नीले और सुनहरे रंग का स्वेटर...

फ़िरदौस ख़ान
जाड़ो का मौसम शुरू हो चुका था. हम उनके लिए स्वेटर बुनना चाहते थे. बाज़ार गए और नीले और सुनहरे रंग की ऊन ख़रीदी. सलाइयां तो घर में रहती ही थीं. पतली सलाइयां, मोटी सलाइयां और दरमियानी सिलाइयां. अम्मी हमारे और बहन-भाइयों के लिए स्वेटर बुना करती थीं. इसलिए घर में तरह-तरह की सलाइयां थीं. 
हम ऊन तो ले आए, लेकिन अब सवाल ये था कि स्वेटर में डिज़ाइन कौन-सा बुना जाए. कई डिज़ाइन देखे. आसपास जितनी भी हमसाई स्वेटर बुन रही थीं, सबके डिज़ाइन खंगाल डाले. आख़िर में एक डिज़ाइन पसंद आया. उसमें नाज़ुक सी बेल थी. डिज़ाइन को अच्छे से समझ लिया और फिर शुरू हुआ स्वेटर बुनने का काम. रात में देर तक जागकर स्वेटर बुनते. चन्द रोज़ में स्वेटर बुनकर तैयार हो गया. 
हमने उन्हें स्वेटर भिजवा दिया. हम सोचते थे कि पता नहीं, वह हाथ का बुना स्वेटर पहनेंगे भी या नहीं. उनके पास एक से बढ़कर एक क़ीमती स्वेटर हैं, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से देशों से ख़रीदे होंगे. काफ़ी दिन बीत गए, एक दिन हमने उन्हें वही स्वेटर पहने देखा. उस वक़्त हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. हमने कहा कि तुमने इसे पहन लिया. उन्होंने एक शोख़ मुस्कराहट के साथ कहा- कैसे न पहनता. इसमें मुहब्बत जो बसी है.
इस एक पल में हमने जो ख़ुशी महसूस की, उसे अल्फ़ाज़ में बयां नहीं किया जा सकता. कुछ अहसास ऐसे हुआ करते हैं, जिन्हें सिर्फ़ आंखें ही बयां कर सकती हैं, उन्हें सिर्फ़ महसूस किया जाता है, उन्हें लिखा नहीं जाता. शायद लिखने से ये अहसास पराये हो जाते हैं.
हम अकसर ख़ामोश रहते हैं, वह भी बहुत कम बोलते हैं. उन्हे बोलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती, क्योंकि उनकी आंखें वह सब कह देती हैं, जिसे हम सुनना चाहते हैं. वह भी हमारे बिना कुछ कहे, ये समझ लेते हैं कि हम उनसे क्या कहना चाहते हैं. रूह के रिश्ते ऐसे ही हुआ करते हैं. 
उनकी दादी भी उनके लिए स्वेटर बुना करती थीं.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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ये इक़रार है मुहब्बत का


दिल चाहता है कि महबूब को अपना बना लें. ये इक़रार है मुहब्बत का यानी कलमा. 
दिल चाहता है कि महबूब से ख़ूब बातें करें. ये गुफ़्तगू है मुहब्बत की यानी नमाज़. 
दिल चाहता है कि महबूब की बातें सुनें. ये चाहत है मुहब्बत की यानी क़ुरआन की तिलावत.  
दिल चाहता है कि महबूब की याद में खाना-पीना छोड़ दें. ये शिद्दत है मुहब्बत की यानी रोज़ा.
दिल चाहता है कि महबूब के लिए माल ख़र्च करें. ये कैफ़ियत है मुहब्बत की यानी ज़कात-ख़ैरात .
दिल चाहता है कि महबूब के घर के चक्कर लगाएं. ये दीवानगी है मुहब्बत की यानी हज.
दिल चाहता है कि महबूब पर जान निसार कर दें. ये इन्तेहा है मुहब्बत की यानी जिहाद.  
फ़िरदौस ख़ान
        
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लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी : रवीश कुमार

सम्मानीय रवीश जी !
आप हमेशा से ही हमारे लिए आदर्श रहे हैं. हमें इस बात का हमेशा फ़ख़्र रहेगा कि हम उस दौर में हैं, जब आप हैं.पत्रकारिता भी आप पर नाज़ करती होगी. आपने साबित कर दिया कि इंसान के लिए ईमान सबसे क़ीमती चीज़ है. आपको याद होगा कि आपने हमारे बारे में एक तहरीर लिखी थी, जो दैनिक हिन्दुस्तान में 26 मई 2010 को शाया हुई थी. आज उस पर नज़र पड़ी, तो सोचा कि इसके लिए एक बार फिर से आपको शुक्रिया कहें. आपके ये शब्द 'लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी' हमारे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं हैं.इसके लिए हम हमेशा आपके तहेदिल से शुक्रगुज़ार रहेंगे.    
-फ़िरदौस ख़ान  


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