पलायन


एक बादशाह था. उसके दो बेटे थे, जो अपने वालिद से बहुत प्यार करते थे. बादशाह का बर्ताव अपने दोनों के बेटों के साथ बहुत अलग था. बड़े बेटे को हर तरह की आज़ादी थी, उसके लिए ऐशो-इशरत का हर सामान था. वह जहां चाहे, वहां घूमता. बादशाह की सल्तनत बहुत बड़ी थी, उसमें हरी घास के बड़े-बड़े मैदान थे, घने जंगल थे, अनाज और सब्ज़ियों के खेत थे, फलों-मेवों के बाग़ थे, रंग-बिरंगे फूलों से महकते चमन थे, नदियां थीं, झरने थे और दूर-दूर तक फैला समन्दर था. बड़े बेटे की ज़िन्दगी बहुत ख़ुशहाल थी.
छोटे बेटे को महल से बाहर जाने तक की सख़्त मनाही थी. कभी वह महल की छत पर चला जाता या झरोखे से बाहर झांक भी लेता, तो उसे इसके लिए सज़ा दी जाती थी. छोटे बेटे की ज़िन्दगी अज़ाब बन चुकी थी. वह भी अपने बड़े भाई की तरह महल से बाहर की दुनिया देखना चाहता था, लेकिन वो एक क़ैदी था, महल का क़ैदी. एक दिन ऐलान हुआ कि बादशाह की मौत के बाद बड़े बेटे को बादशाह बना दिया जाएगा और छोटे बेटे को क़ैदख़ाने में डलवा दिया जाएगा.
छोटे बेटे ने ये बात सुनी, तो उसकी रूह कांप गई. वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे किस बात की सज़ा मिल रही है. एक दिन उसने महल की एक बूढ़ी औरत से इस बारे में पूछा, तो उसने बताया कि बादशाह का यही उसूल है. बड़े बेटे को शाही ज़िन्दगी दी जाती है और छोटे बेटे को क़ैदी वाली ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है. छोटे बेटे ने कहा कि यह तो सरासर नाइंसाफ़ी है. वह इस बारे में बादशाह से बात करेगा. बूढ़ी औरत ने कहा कि ऐसा कभी मत करना, क्योंकि अगर तुमने ऐसा क्या तो तुम्हें बाग़ी माना जाएगा और फिर मौत की सज़ा दे दी जाएगी. बादशाह की हर बात सही होती है, उसके ख़िलाफ़ जाने वाले को अपनी ज़िन्दगी से भी हाथ धोना पड़ता है.
छोटा बेटा बहुत परेशान था. वह सोचने लगा कि जब उसके वालिद को छोटे बेटे के साथ ऐसा ही बर्ताव करना था, जो उसे पैदा ही न करते. अपनी ही औलाद से इतनी नफ़रत. अब उसके पास एक ही रास्ता था कि वह ये सल्तनत छोड़ कर चला जाए. ऐसी सल्तनत में क्या रहना, जहां वह चैन का एक पल भी न गुज़ार सके.
-फ़िरदौस ख़ान
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जाड़ो की दस्तक


अल सुबह से ठंडी हवाएं चल रही हैं... गोया जाड़ो ने हौले से दस्तक दी हो और गर्मियों के मौसम से चुपके से कहा हो-
गर्मी के मौसम ! अब विदा लो और कुछ देर हमें भी ठहरने दो... तुम फिर आ जाना, वैसे भी तुम ही ज़्यादा डेरा डाले रहते हो... बरसात के मौसम में भी तुम्हारा ही जलवा क़ायम रहता है... मगर अब हम आ गए हैं, दिवाली की रौनक़ लेकर, क्रिसमस के तोहफ़े लेकर और नये साल की सौग़ात लेकर...
विदा गर्मियो के प्यारे मौसम ! अगले साल फिर मिलेंगे... उदास मत होना, बस कुछ ही माह की बात है, फ़रवरी तक का ही तो इंतज़ार है... मार्च में फिर तुम्हारे साथ होंगे..
-फ़िरदौस ख़ान
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ईमान...


-फ़िरदौस ख़ान
हमारी एक आशनाई हैं... उन्हें बात-बात पर क़सम खाने की आदत है... हर बात पर कहती हैं कि अगर वे झूठ बोलें, तो उन्हें मरते वक़्त ईमान नसीब न हो... ’ईमान से’ तो उनका तकिया कलाम है...
हमने उनसे कई बार कहा कि इस तरह बात-बात पर क़सम न खाया करें... जिसे आपकी बात पर यक़ीन करना होगा, वो बिना क़सम के भी कर लेगा और जिसे यक़ीन नहीं करना होगा, वो यक़ीन नहीं करेगा, भले ही आप कितनी ही क़सम क्यों न खाएं... लेकिन उन्होंने अपनी आदत नहीं छोड़ी...
कुछ रोज़ पहले जब वह हमसे बात करते हुए क़सम खाने लगीं, तो हमने उनसे पूछा कि ईमान क्या है?
वह सकपका गईं और कहने लगीं कि ईमान, ईमान होता है... और क्या होता है...
हमने कहा कि ये बात तो हम भी जानते हैं कि ईमान, ईमान होता है, जैसे सूरज, सूरज होता है, पर आख़िर ईमान होता क्या है?
अब उन्हें ग़ुस्सा आ गया और कहने लगीं कि उन्हें नहीं पता कि ईमान क्या होता है... बस उन्होंने बचपन से सुना है कि ईमान होता है...
हमने कहा कि जब आपको ये ही नहीं पता कि ईमान होता क्या है, तो आप यूं ही ईमान की क़सम खाती रहती हैं...
हमने यही सवाल एक और शख़्स से किया तो, उन्होंने जवाब दिया कि जिसका ईमान कमज़ोर होता है, वही ऐसे सवाल करता है...

बहरहाल, जब तक इंसान को ये ही नहीं पता होगा कि ईमान आख़िर है क्या, तो वो ईमान की क्या ख़ाक हिफ़ाज़त करेगा...

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ततैया...


-फ़िरदौस ख़ान
उन्सियत किसी से भी हो सकती है, एक ततैये से भी... हम परिन्दों के लिए मिट्टी के कूंडे में पानी रखते हैं... सुबह कूंडे में पाने डालने के लिए आंगन में जाते, तो देखते कि एक ततैया कूंडे के किनारे पर बैठा पानी पी रहा है... हम उसे देखकर पीछे हट जाते कि कहीं वह हमें देखकर उड़ न जाए, कहीं प्यासा न रह जाए... आए-दिन ऐसा होता है...
एक सुबह हम पानी डालने के लिए गए, तो देखा कि कूंडे के पास एक ततैया पड़ा है... हमने उसे छुआ तो, मालूम हुआ कि वह मर चुका है... उसे देखकर दुख हुआ... हमने उसे गमले की मिट्टी में दबा दिया... उस दिन न जाने क्यूं दिल उदास रहा... पूरा दिन काम में दिल नहीं लगा... शाम को चिड़ियों के लिए दाना डालने गए, तो देखा कि एक ततैया कूंडे के किनारे बैठा पानी पी रहा है... उसे देख कर इतनी ख़ुशी हुई, मानो बरसों की कोई मुराद पूरी हो गई हो... हमारी उदासी अब ख़ुशी में बदल चुकी थी...
अब कई ततैये पानी पीने आते हैं, उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता है... हम कभी ततैयों को उड़ाते नहीं हैं. उन्होंने कभी हमें नुक़सान नहीं पहुंचाया... शायद वे भी हमसे उन्सियत रखते हैं...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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इतना सुंदर समय ना खोओ...


ज़िंदगी भी कैसे-कैसे मोड़ लेती है... माहौल कब, कैसे बदल जाए, पता ही नहीं चलता... हमारे घर सब सुबह जल्दी उठते हैं... मम्मा तो तहज्जुद की नमाज़ के लिए रात में दो बजे ही उठ जाती हैं और फिर नमाज़ के बाद क़ुरआन की सूरतें पढ़ती है... और इस तरह फ़ज्र की नमाज़ पढ़कर ही जानमाज़ से उठती हैं...
लेकिन यहां दिल्ली का माहौल अलग है... रात के दो बजे बच्चे छत पर खेल रहे होते हैं...लोग दस-ग्यारह बजे सोकर उठते हैं... बारह बजे के आसपास नाश्ता होता है... दोपहर का खाना  तीन बजे के बाद होता है... और इसी तरह रात का खाना ग्यारह बजे के बाद होता है... यानी लोग आधा दिन सोकर गुज़ारते हैं... सुबह की फ़िज़ा कैसी होती है, ये लोग जानते ही नहीं... लेकिन हमारी आज भी वही आदत है सुबह जल्दी उठने की...
अपना घर बहुत याद आता है... और बचपन के दिन भी... गर्मियों में सुबह सवा छह बजे स्कूल शुरू होता था... जाड़ो में पौने आठ बजे... इसलिए बचपन से सुबह जल्दी उठने की आदत है... सुबह-सुबह परिंदों के लिए दाना डालते थे, और कूंडे का पानी भी बदलते थे... तबीयत ख़राब होने पर कभी सुबह उठने में देर हो जाती, तो चिड़ियां चीं-चीं करती हुई कमरे तक आ जातीं... कितनी प्यारा लगता था, सुबह-सुबह चहकती चिड़ियों को देखकर, उनकी चहचहाहट सुनकर... वाक़ई सुबह बेहद ख़ुशनुमा हो जाया करती थी...
सुबह जल्दी उठना बहुत अच्छा लगता है... सुबह की ताज़ा हवा, चिड़ियों की चहचहाहट से जहां दिन की शुरुआत अच्छी होती है, वहीं जल्दी उठने से सेहत भी अच्छी रहती है...
उत्तर प्रदेश में बच्चों के कोर्स की किताब में सोहनलाल द्विवेदी की कविता हुआ करती थी (शायद अब भी हो), जिसे ख़ूब पढ़ा करते थे-
उठो लाल अब आंखें खोलो
पानी लाई हूं मुंह धो लो
बीती रात कमल-दल फूले
उनके ऊपर भौंरे झूले
चिड़ियां चहक उठीं पेड़ों पर
बहने लगी हवा अति सुंदर
नभ में न्यारी लाली छाई 
धरती ने प्यारी छवि पाई 
भोर हुआ सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया
नन्‍हीं नन्‍हीं किरणें आईं
फूल खिले कलियां मुस्काईं
इतना सुंदर समय ना खोओ
मेरे प्‍यारे अब मत सोओ...

काश ! बचपन वापस लौटकर आ सकता...

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रौशनी


लोग अपने घरों में ख़ूब रौशनी करते हैं, लेकिन अपने ज़ेहन को रौशन नहीं करते... अपने घरों को बड़ा करते हैं, लेकिन अपने दिल को वसीह नहीं करते...
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रूहानी तोहफ़ा


किसी अपने को देने के लिए रूहानी तोहफ़ा सबसे अच्छा होता है, क्योंकि इसमें इबादत शामिल हुआ करती है, अक़ीदत शामिल होती है, रफ़ाक़त शामिल होती है... उन्हें हमेशा ऐसा ही तोहफ़ा देना चाहते हैं, जो दुआओंं से लबरेज़ हुआ करता है...

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इल्मे-सीना


इल्म दो तरह के हैं... पहला क़ुरआन है, जिसे इल्मे-सफ़ीना (किताबी इल्म) कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है... और दूसरा इल्मे-सीना (छुपा इल्म) है, जो सूफ़ियों के लिए है... उनका यह इल्म पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है... हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इल्म का शहर और हज़रत अली को इल्म का दरवाज़ा कहा जाता है...
इल्मे-सीना किताबों में नहीं मिलता... हम इल्मे-सीना के तालिबे-इल्म हैं... कुछ अरसा पहले हमने इल्मे-सीना से मुताल्लिक़ फ़ेसबुक पर एक पूछा था, लेकिन किसी ने उस सवाल का जवाब नहीं दिया... जो लोग ख़ुद को बड़ा आलिम मानते हैं, उनसे भी हमने इनबॊक्स में पूछा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में कोई इल्म नहीं है...
हमें अपनी ग़लती का अहसास हुआ कि हमने सवाल पोस्ट करके ग़लत किया... हमने फ़ौरन वो पोस्ट डिलीट कर दी...
 हमारी डायरी से
  • हवा, पानी और खाना जिस्म की ग़िज़ा है, किताबें और इल्म ज़ेहन की ग़िज़ा है, मुहब्बत और इबादत रूह की ग़िज़ा है...
  • सबसे आसान होता है, दूसरों के बनाए रास्तों पर चलना... लेकिन अपनी मंज़िल को पाने के लिए अपनी राह भी ख़ुद ही बनानी होगी... रूह एक मालूम मंज़िल की चाह में नामालूम सफ़र पर है... अंजाम ख़ुदा जाने क्या होगा...



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उसने ख़त में फूल भेजा है...

नज़्म
उसने ख़त में फूल भेजा है
मुहब्बत से लबरेज़ ख़त के
एक-एक लफ़्ज़ में
उन गरम सांसों की
दिलनवाज़ खुशबू है

आज फिर मेरी रूह
मुहब्बत से मुअत्तर है
ज़िन्दगी के आंगन में
चांदनी बिखरी है...

मगर बेक़रार दिल
ये कहता है
इन ख़ुशगवार लम्हों में
काश वो ख़ुद आ जाता...
-फ़िरदौस ख़ान
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यक़ीन...


यक़ीन एक ऐसी चीज़ है, अगर डाकू पर कर लिया जाए, तो वो भी मुहाफ़िज़ नज़र आता है... और यक़ीन न हो, तो मुहाफ़िज़ पर भी शुबा होता है...
बच्चे को हवा में उछालो, तो वो चीख़ने-चिल्लाने की बजाय खिलखिलाकर हंसता है, क्योंकि उसे यक़ीन होता है कि उसे उछालने वाला उसे गिरने नहीं देगा, उसे थाम लेगा...
इंसान की बातें यक़ीन पैदा करती हैं, और यक़ीन को ख़त्म भी कर देती हैं... किसी के दिल में अपने लिए यक़ीन पैदा करना बड़ी बात है...
(हमारी एक कहानी से)

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बेघर


बहुत ख़ुशनसीब हैं वो लोग, जिनके घर हुआ करते हैं... दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनके घर नहीं है... और करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो खुले आसमान के नीचे ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं...
इनके लिए कोई मौसम सुहावना नहीं होता... कभी गर्मी की शिद्दत से बेहाल ये लोग अपने लिए छांव तलाशते फिरते हैं, तो कभी जाड़ो में ख़ून जमा देने वाली सर्द हवाओं के क़हर से बचने के लिए दीवाल-कौलों का सहारा लेते हैं... बारिश के मौसम में ख़ुद को बचाने के लिए इन्हें एक अदद छत की तलाश रहती है...कभी किसी पेड़ के नीचे, तो कभी किसी छज्जे के नीचे ये लोग सिमट कर बैठ जाते हैं...
कल World homelessness day है... अपना घर हरेक का ख़्वाब है, हरेक का हक़ है... उनका ये ख़्वाब पूरा हो, उन्हें उनका घर मिले... बस, यही दुआ है हमारी उन सबके लिए, जिनके अपने घर नहीं हैं...
-फ़िरदौस ख़ान


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क्रांतिकारी लेखक थे मुंशी प्रेमचंद


फ़िरदौस ख़ान
मुंशी प्रेमचंद क्रांतिकारी रचनाकर थे. वह समाज सुधारक और विचारक भी थे. उनके लेखन का मक़सद सिर्फ़ मनोरंजन कराना ही नहीं, बल्कि सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकर्षित कराना भी था. वह सामाजिक क्रांति में विश्वास करते थे. वह कहते थे कि समाज में ज़िंदा रहने में जितनी मुश्किलों का सामना लोग करेंगे, उतना ही वहां गुनाह होगा. अगर समाज में लोग खु़शहाल होंगे, तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा. मुंशी प्रेमचंद ने शोषित वर्ग के लोगों को उठाने की हर मुमकिन कोशिश की. उन्होंने आवाज़ लगाई- ऐ लोगों, जब तुम्हें संसार में रहना है, तो ज़िंदा लोगों की तरह रहो, मुर्दों की तरह रहने से क्या फ़ायदा.

मुंशी प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के गांव लमही में हुआ था. उनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल और माता का नाम आनंदी देवी था. उनका बचपन गांव में बीता. उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा हासिल की. 1818 में उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी. वह एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करने लगे और कई पदोन्नतियों के बाद वह डिप्टी इंस्पेक्टर बन गए. उच्च शिक्षा उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की. उन्होंने अंग्रेज़ी सहित फ़ारसी और इतिहास विषयों में स्नातक किया था. बाद में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में योगदान देते हुए उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की नौकरी छोड़ दी.

प्रेमचंद ने पारिवारिक जीवन में कई दुख झेले. उनकी मां के निधन के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह किया. लेकिन उन्हें अपनी विमाता से मां की ममता नहीं मिली. इसलिए उन्होंने हमेशा मां की कमी महसूस की. उनके वैवाहिक जीवन में भी अनेक कड़वाहटें आईं. उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ था. यह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था. उनके लिए यह विवाह दुखदाई रहा और आख़िर टूट गया. इसके बाद उन्होंने फ़ैसला किया कि वह दूसरा विवाह किसी विधवा से ही करेंगे. 1905 में उन्होंने बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह कर लिया. शिवरानी के पिता ज़मींदार थे और बेटी का पुनर्विवाह करना चाहते थे.  उस वक़्त एक पिता के लिए यह बात सोचना एक क्रांतिकारी क़दम था. यह विवाह उनके लिए सुखदायी रहा और उनकी माली हालत भी सुधर गई. वह लेखन पर ध्यान देने लगे. उनका कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ, जिसे ख़ासा सराहा गया.

उन्होंने जब कहानी लिखनी शुरू की, तो अपना नाम नवाब राय धनपत रख लिया. जब सरकार ने उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन ज़ब्त किया. तब उन्होंने अपना नाम नवाब राय से बदलकर प्रेमचंद कर लिया और उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुआ.  कथा लेखन के साथ उन्होंने उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए. उस समय उनके पिता गोरखपुर में डाक मुंशी के तौर पर काम कर रहे थे. गोरखपुर में ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची, जो उनके एक अविवाहित मामा से संबंधित थी. मामा को एक छोटी जाति की महिला से प्यार हो गया था. उनके मामा उन्हें बहुत डांटते थे. अपनी प्रेम कथा को नाटक के रूप में देखकर वह आगबबूला हो गए और उन्होंने पांडुलिपि को जला दिया. इसके बाद हिंदी में शेख़ सादी पर एक किताब लिखी. टॊल्सटॊय की कई कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया. उन्होंने प्रेम पचीसी की भी कई कहानियों को हिंदी में रूपांतरित किया, जो सप्त-सरोज शीर्षक से 1917 में प्रकाशित हुईं. इनमें बड़े घर की बेटी, सौत, सज्जनता का दंड, पंच परमेश्वर, नमक का दरोग़ा, उपदेश, परीक्षा शामिल हैं. प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इनकी गणना होती है. उनके उपन्यासों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, वरदान, निर्मला, ग़बन, कर्मभूमि, कृष्णा, प्रतिज्ञा, प्रतापचंद्र, श्यामा और गोदान शामिल है. गोदान उनकी कालजयी रचना मानी जाती है. बीमारी के दौरान ही उन्होंने एक उपन्यास मंगलसूत्र लिखना शुरू किया, लेकिन उनकी मौत की वजह से वह अधूरा ही रह गया. उनकी कई रचनाएं उनकी स्मृतियों पर भी आधारित हैं. उनकी कहानी कज़ाकी उनके बचपन की स्मृतियों से जुड़ी है. कज़ाकी नामक व्यक्ति डाक विभाग का हरकारा था और लंबी यात्राओं पर दूर-दूर जाता था. वापसी में वह प्रेमचंद के लिए कुछ न कुछ लाता था. कहानी ढपोरशंख में वह एक कपटी साहित्यकार द्वारा ठगे जाने का मार्मिक वर्णन करते हैं.

उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में ज़िंदगी की हक़ीक़त को पेश किया. गांवों को अपने लेखन का प्रमुख केंद्रबिंदु रखते हुए उन्हें चित्रित किया. उनके उपन्यासों में देहात के निम्न-मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन मिलता है. उन्होंने सांप्रदायिक सदभाव पर भी ख़ास ज़ोर दिया. प्रेमचंद को उर्दू लघुकथाओं का जनक कहा जाता है. उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख और संस्मरण आदि विधाओं में साहित्य की रचना की, लेकिन प्रसिद्ध हुए कहानीकार के रूप में. उन्हें अपनी ज़िंदगी में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गई. उन्होंने 15 उपन्यास, तीन सौ से ज़्यादा कहानियां, तीन नाटक और सात बाल पुस्तकें लिखीं. इसके अलावा लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र लिखे और अनुवाद किए. उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. उनकी कहानियों में अंधेर, अनाथ लड़की, अपनी करनी, अमृत, अलग्योझा, आख़िरी तोहफ़ा, आख़िरी मंज़िल, आत्म-संगीत, आत्माराम, आधार, आल्हा, इज़्ज़त का ख़ून, इस्तीफ़ा, ईदगाह, ईश्वरीय न्याय, उद्धार, एक आंच की कसर, एक्ट्रेस, कप्तान साहब, कफ़न, कर्मों का फल, कवच, क़ातिल, काशी में आगमन, कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो, कौशल, क्रिकेट मैच, ख़ुदी, ख़ुदाई फ़ौजदार, ग़ैरत की कटार, गुल्ली डंडा, घमंड का पुतला, घरजमाई, जुर्माना, जुलूस, जेल, ज्योति,झांकी, ठाकुर का कुआं, डिप्टी श्यामचरण, तांगेवाले की बड़, तिरसूल तेंतर, त्रिया चरित्र, दिल की रानी, दुनिया का सबसे अनमोल रतन, दुर्गा का मंदिर, दूसरी शादी, दो बैलों की कथा, नबी का नीति-निर्वाह, नरक का मार्ग, नशा, नसीहतों का दफ़्तर, नाग पूजा, नादान दोस्त, निर्वासन, नेउर, नेकी, नैराश्य लीला, पंच परमेश्वर, पत्नी से पति, परीक्षा, पर्वत-यात्रा, पुत्र- प्रेम, पूस की रात, प्रतिशोध, प्रायश्चित, प्रेम-सूत्र, प्रेम का स्वप्न, बड़े घर की बेटी,  बड़े बाबू, बड़े भाई साहब,  बंद दरवाज़ा, बांका ज़मींदार, बूढ़ी काकी, बेटों वाली विधवा, बैंक का दिवाला, बोहनी, मंत्र, मंदिर और मस्जिद, मतवाली योगिनी, मनावन, मनोवृति, ममता, मां, माता का हृदय, माधवी, मिलाप, मिस पद्मा, मुबारक बीमारी, मैकू, मोटेराम जी शास्त्री, राजहठ, राजा हरदैल, रामलीला, राष्ट्र का सेवक, स्वर्ग की देवी, लेखक, लैला, वफ़ा का ख़ंजर, वरदान, वासना की कड़ियां, विक्रमादित्य का तेगा, विजय, विदाई, विदुषी वृजरानी, विश्वास, वैराग्य, शंखनाद, शतरंज के खिलाड़ी, शराब की दुकान, शांति, शादी की वजह, शूद्र, शेख़ मख़गूर, शोक का पुरस्कार, सभ्यता का रहस्य, समर यात्रा, समस्या, सांसारिक प्रेम और देशप्रेम, सिर्फ़ एक आवाज़, सैलानी,  बंदर, सोहाग का शव, सौत, स्त्री और पुरुष, स्वर्ग की देवी, स्वांग, स्वामिनी, हिंसा परमो धर्म और होली की छुट्टी आदि शामिल हैं. साल 1936 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधित किया था. उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन का घोषणा-पत्र का आधार बना. प्रेमचंद अपनी महान रचनाओं की रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे. इसके बाद उन्हें उर्दू या हिंदी में अनुदित कर विस्तारित करते थे.

प्रेमचंद सिनेमा के सबसे ज़्यादा लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं. उनकी मौत के दो साल बाद के सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई. प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे सत्यजीत राय की फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी. प्रेमचंद ने मज़दूर फ़िल्म के लिए संवाद लिखे थे. फ़िल्म में एक देशप्रेमी मिल मालिक की कहानी थी, लेकिन सेंसर बोर्ड को यह पसंद नहीं आई. हालांकि दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब में यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई. फ़िल्म का मज़दूरों पर ऐसा असर पड़ा कि पुलिस बुलानी पड़ गई. आख़िर में फ़िल्म के प्रदर्शन पर सरकार ने रोक लगा दी. इस फ़िल्म में प्रेमचंद को भी दिखाया गया था. वह मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में पंच की भूमिका में थे. 1977  में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय प्रुरस्कार मिला. 1963 में गोदान और  1966 में ग़बन उपन्यास पर फ़िल्में बनीं, जिन्हें ख़ूब पसंद किया गया. 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था.

8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से मुंशी प्रेमचंद की मौत हो गई. उनकी स्मृति में भारतीय डाक विभाग ने 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के मौक़े पर  30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया. इसके अलावा गोरखपुर के जिस स्कूल में वह शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई. यहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है. प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी. उनके बेटे अमृत राय ने भी क़लम का सिपाही नाम से उनकी जीवनी लिखी.


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कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा...


फ़िरदौस ख़ान
उर्दू के मशहूर शायर और व्यंग्यकार इब्ने इंशा का असली नाम शेर मुहम्मद ख़ान था. उनका जन्म 15 जून, 1927 को पंजाब के जालंधर ज़िले के फिल्लौर में हुआ था. उनकी शुरुआती शिक्षा लुधियाना में हुई. उन्होंने 1946 में पंजाब यूनिवर्सिटी से बीए किया, लेकिन आज़ादी के बाद 1949 में उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए 1953 में कराची यूनिवर्सिटी से एमए की डिग्री हासिल की. उन्होंने रेडियो में भी काम किया. बाद में वह क़ौमी किताब घर के निदेशक बने. इब्ने इंशा इंग्लैंड स्थित पाकिस्तान दूतावास में सांस्कृतिक मंत्री और फिर पाकिस्तान में यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे.

इब्ने इंशा ने बहुत कम उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. वह अपने असली नाम की बजाय इब्ने इंशा नाम से लिखते थे और इसी नाम से उन्हें ख्याति मिली. वह उर्दू की रचनाओं में हिंदी शब्दों का ख़ासा इस्तेमाल करते थे. उन्हें यात्रा लेखक और स्तंभकार के तौर पर भी जाना जाता है. उनकी रचनाओं के कई संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें कविता संग्रह-इस बस्ती के इक कूचे में, चांद नगर, दिले-वहशी, यात्रा वृतांत-आवारा गार्ड की डायरी, दुनिया गोल है, इब्ने बबूता के ताक़ुब, चलते हों तो चीन को चलिए, नगरी-नगरी फिरा मुसा़फिर और हास्य व्यंग्य कुमार-ए-गंदम, ख़त इंशा जी के शामिल हैं. उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. कैंसर से जूझते हुए 11 जनवरी, 1978 को लंदन में उनका निधन हो गया. उनका शव पाकिस्तान लाया गया और कराची में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. इब्ने इंशा की किताब-उर्दू की आख़िरी किताब की व्यंग्य कथाएं बहुत मशहूर हुईं.

हमारा मुल्क
ईरान में कौन रहता है?
ईरान में ईरानी क़ौम रहती है.
इंगलिस्तान में कौन रहता है?
इंगलिस्तान में अंग्रेजी क़ौम रहती है.
फ्रांस में कौन रहता है?
फ्रांस में फ्रांसीसी क़ौम रहती है.
ये कौन सा मुल्क है?
ये पाकिस्तान है.
इसमें पाकिस्तानी क़ौम रहती होगी?
नहीं, इसमें पाकिस्तानी क़ौम नहीं रहती. इसमें सिंधी क़ौम रहती है, इसमें पंजाबी क़ौम रहती है, इसमें बंगाली क़ौम रहती है, इसमें यह क़ौम रहती है, इसमें वह क़ौम रहती है. लेकिन पंजाबी तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं, सिंधी तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं, फिर यह अलग मुल्क क्यों बनाया?
ग़लती हुई, माफ़ कीजिए, आइंदा नहीं बनाएंगे.

भारत
यह भारत है. गांधी जी यहीं पैदा हुए थे, यहां उनकी बड़ी इज़्ज़त होती थी, उन्हें महात्मा कहते थे. चुनांचे मारकर उन्हें यहीं दफ़न कर दिया और समाधि बना दी. दूसरे मुल्कों के बड़े लोग आते हैं तो इस पर फूल चढ़ाते हैं. अगर गांधी जी नहीं मारे जाते तो पूरे हिंदुस्तान के श्रद्धालुओं के लिए फूल चढ़ाने के लिए कोई जगह ही न थी. यह मसला हमारे यानी पाकिस्तान वालों के लिए भी था. हमें क़ायदे आज़म जिन्ना साहब का एहसानमंद होना चाहिए कि वह ख़ुद ही मर गए और टूरिस्टों के लिए फूल चढ़ाने की एक जगह पैदा कर दी, वरना शायद हमें भी उनको मारना ही पड़ता. भारत का पवित्र जानवर गाय है. भारतीय उसी का दूध पीते हैं, उसी के गोबर से लीपा करते हैं, लेकिन आदमी को भारत में पवित्र जानवर नहीं माना जाता.

कछुआ और ख़रगोश
एक था कछुआ, एक था ख़रगोश. दोनों ने आपस में शर्त लगाई. कोई कछुए से पूछे कि तूने शर्त क्यों लगाई, क्या सोचकर लगाई? बहरहाल, तय यह हुआ कि जो पहले नीम वाले टीले पर पहुंचेगा, उसे हक़ होगा कि दूसरे के कान काट ले. दौड़ शुरू हुई तो कछुआ रह गया और ख़रगोश तो यह जा कि वह जा. कछुआ अपनी परंपरागत रफ्तार से चलता रहा. कुछ देर चला तो ख्याल आया कि थोड़ा आराम कर लिया जाए, बहुत चल लिए. आराम करते-करते नींद आ गई. न जाने कितना ज़माना सोते रहे. आंख खुली तो सुस्ती बाक़ी थी. बोले, अभी क्या जल्दी है. इस ख़रगोश के बच्चे की क्या औक़ात कि मुझसे जीत सके. वाह भाई वाह, मेरे क्या कहने. काफ़ी ज़माना सुस्ता लिए तो फिर मंज़िल की तरफ़ चल पड़े. वहां पहुंचे तो देखा ख़रगोश न था. बेहद ख़ुश हुए. अपनी मुस्तैदी की दाद देने लगे. इतने में उनकी नज़र ख़रगोश के एक पिल्ले पर पड़ी. उससे ख़रगोश के बारे में पूछने लगे. ख़रगोश का बच्चा बोला, जनाब वह मेरे वालिद साहब थे और मुद्दतों आपका इंतज़ार करने के बाद मर गए और वसीयत कर गए कि कछुए मियां यहां आ जाएं तो उनके कान काट लेना. लिहाज़ा लाइए इधर कान…
कछुए ने फ़ौरन कान और अपना सिर खोल के अंदर कर लिया और आज तक छिपाए फिरता है.

इब्ने इंशा ने गद्य ही नहीं, पद्य में भी अच्छी खासी लोकप्रियता हासिल की. उनकी एक रचना:-
कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चांद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहीं मौजूद थे, हमसे भी सब पूछा किए
हम हंस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था पर्दा तेरा
इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटी महफ़िलें
हर शख्स तेरा नाम ले, हर शख्स दीवाना तेरा
कूचे को तेरे छोड़कर, जोगी ही बन जाएं मग़र
जंगल तेरे, पर्वत तेरे, बस्ती तेरी, सहरा तेरा
तू बे वफ़ा, तू मेहरबां, हम और तुझसे बदगुमां
हमने तो पूछा था ज़रा, ये वक़्त क्यूं ठहरा तेरा
हां, हां तेरी सूरत हसीं, लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख्स के अशआर से, शोहरा हुआ क्या-क्या तेरा
बेशक उसी का दोष है, कहता नहीं ख़ामोश है
तू आप कर ऐसी दवा, बीमार हो अच्छा तेरा
बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तेरा, रुसवा तेरा, शायर तेरा, इंशा तेरा...(स्टार न्यूज़ एजेंसी) 
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शर्म या फ़ख़्र की बात...


बाज़ दफ़ा लोग इसलिए भी अच्छे करने से दूर रहते हैं कि लोग क्या सोचेंगे ? जब कभी हम रिक्शे में जा रहे हों और ढलान आ जाए, तो रिक्शे से उतर जाते हैं... रिक्शे वाला मना करता है, लेकिन दिल नहीं मानता कि हम बैठे रहें और वो रिक्शे से उतर कर रिक्शा खींचे... कुछ लोग घूरते भी हैं, लेकिन हम परवाह नहीं करते, क्योंकि हमें ख़ुदा की परवाह करनी है, न कि लोगों की...

दिल्ली के कई बाज़ारों में सामान की ढुलाई होती है... मज़दूर ठेलों पर माल ढोते हैं... कई जगह चढ़ाई भी होती है... जब मज़दूर चढ़ाई पर मुश्किल से ठेला खींच रहा होता है, तो अकसर कई लोग उसकी मदद कर देते हैं... ट्रैफ़िक पुलिसकर्मियों को भी हमने इस तरह की मदद करते हुए देखा है.
इसी तरह रिक्शे वालों के पहिये के पास कुछ स्कूटर या बाइक सवार अपना पैर लगा देते हैं, जिससे उससे चढ़ाई में आसानी हो जाती है... अच्छा लगता है, ये सब देखकर... वाक़ई इंसानियत अभी ज़िन्दा है...
किसी की मदद करना शर्म की नहीं, बल्कि फ़ख़्र की बात है... 
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शुक्रिया


कभी किसी को बुरा नहीं कहना चाहिए... क्योंकि कई नास्तिक ख़ुदा के बंदों के लिए वो महान काम कर गए हैं, जो आस्तिक भी न कर पाए...
आज हमारी ज़िन्दगी बहुत आसान है... बिजली है, बिजली और तेल से चलने वाली तमाम सहूलियात की चीज़ें हमें मयस्सर हैं...
ज़रा सोचो, जब ये सब चीज़ें न थीं, तब इंसान की ज़िन्दगी कितनी मुश्किलात भरी रही होगी...
हम उन सभी लोगों के शुक्रगुज़ार हैं, जिनकी वजह से आज हम आराम की ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं और ये पोस्ट भी लिख पा रहे हैं...
आप जहां भी हों, आपको हमारा सलाम...
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