वक़्त का दरिया


वक़्त कभी किसी के लिए नहीं ठहरता... कुछ साल ऐसे हुआ करते हैं, जो यादों के माज़ी को ख़ूबसूरत यादें देकर जाते हैं और कुछ साल अपने में दर्द समेटे होते हैं... ये साल भी जा रहा है, माज़ी को कई ख़ूबसूरत यादों की सौग़ात सौंपकर... कुछ लम्हे मुहब्बत से सराबोर हैं, तो कुछ लम्हों में दर्द समाया है...
अब बस इतना करना है कि ख़ूशनुमा लम्हों को यादों के संदूक़ में क़रीने से सहेज कर रख देना है, अहसास के मख़मली रुमाल में लपेट कर... और दर्द में भीगे लम्हों को किसी ऐसी जगह दफ़न कर देना है, जहां से कभी किसी का गुज़र तक न हो...
मुहब्बत के कुछ लम्हे अपने साथ भी रखने हैं... जिन्हें वक़्त के दरिया में बहते रहना है, ताकि ये जहां-जहां से गुज़रें.... उस धरती की फ़िज़ा को मुहब्बत से महकाते रहें... 
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साहित्य, हम और जावेद अख्तर...


फ़िरदौस ख़ान
हमारी ज़िंदगी में किताबों की बहुत अहमियत है... हम तो किताबों के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर तक नहीं कर सकते... उन्हें भी किताबें पढ़ने का इतना ही शौक़ है... सफ़र में जाते वक़्त सबसे पहले किताब ही बैग में रखते हैं... किताबें पढ़ना एक अच्छी आदत... जिसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए... किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं... ये हमें अज्ञान के अंधेरे से ज्ञान की रौशनी में ले जाती हैं... अख़बार में भी हम संपादकीय के बाद सबसे पहले उसका साहित्य पेज ही देखते हैं... लेकिन अकसर मायूसी ही हाथ आती है, क्योंकि अब अख़बारों से साहित्य ग़ायब होता जा रहा है...

साहित्य समाज का आईना होता है. जिस समाज में जो घटता है, वही उस समाज के साहित्य में दिखलाई देता है. साहित्य के ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद नहीं हुआ है. साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है. जिस समाज का साहित्य जितना ज़्यादा उत्कृष्ट होगा, वह समाज उतना ही ज़्यादा सुसंस्कृत और समृद्ध होगा. प्राचीन भारत की गौरवमयी संस्कृति का पता इसके साहित्य से ही चलता है. प्राचीन काल में भी यहां के लोग सुसंस्कृत और शिक्षित थे, तभी उस समय वेद-पुराणों जैसे महान ग्रंथों की रचना हो सकी. महर्षि वाल्मीकि की रामायण और श्रीमद भागवत गीता भी इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. हिंदुस्तान में संस्कृत के साथ हिंदी और स्थानीय भाषाओं का भी बेहतरीन साहित्य मौजूद है. एक ज़माने में साहित्यकारों की रचनाएं अख़बारों में ख़ूब प्रकाशित हुआ करती थीं. कई प्रसिद्ध साहित्यकार अख़बारों से सीधे रूप से जु़डे हुए थे. साहित्य पेज अख़बारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, लेकिन बदलते वक़्त के साथ-साथ अख़बारों और पत्रिकाओं से साहित्य ग़ायब होने लगा. इसकी एक बड़ी वजह अख़बारों में ग़ैर साहित्यिक लोगों का वर्चस्व भी रहा. उन्होंने साहित्य की बजाय सियासी विषयों और गॉसिप को ज़्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया. अख़बारों और पत्रिकाओं में फ़िल्मी, टीवी गपशप और नायिकाओं की शरीर दिखाऊ तस्वीरें प्रमुखता से छपने लगीं.

पिछले दिनों एक मुलाक़ात के दौरान इसी मुद्दे पर मशहूर फ़िल्म गीतकार जावेद अख्तर साहब से गुफ़्तगू हुई. इसी साल मार्च में हमने उनके ग़ज़ल और नज़्म संग्रह लावा की समीक्षा की थी... इसे राजकमल प्रकाशन ने शाया किया था... क़रीब डेढ़ दशक से ज़्यादा अरसे बाद दूसरा संग्रह आने पर जावेद साहब ने कहा था-अगर मेरी सुस्ती और आलस्य को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो इस देर की एक वजह बताई जा सकती है कि मेरे ख्याल में एक के बाद दूसरे संग्रहों का अंबार लगा देना अपने अंदर कोई कारनामा नहीं है. मैं समझता हूं कि अगर अंबार लगे तो नए-नए विचारों का. जिस विचार को रचना का रूप मिल चुका हो, जिस विचार को अभिव्यक्ति मिल चुकी हो, उसे अगर किसी कारण कहने की ज़रूरत महसूस भी हो रही हो, तो कम से कम कथन शैली में ही कोई नवीनता, कोई विशिष्टता हो, वरना पाठक और श्रोता को बिना वजह तकलीफ़ क्यों दी जाए. अगर नवीनता स़िर्फ नयेपन के लिए है तो कोई लाख समझे कि उसकी शायरी में सु़र्खाब के पर लग गए हैं, मगर उन परों में उड़ने की ताक़त नहीं हो सकती. बात तो जब है कि अक़ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उसे तन्हा छोड़ दिया गया है. मैं जानता हूं कि इसमें असंगति है, मगर बेख़ुदी-ओ-शायरी, सादगी-ओ-पुरकारी, ये सब एक साथ दरकार हैं. वह कहते हैं, दरअसल, शायरी बुद्धि और मन का मिश्रण, विचार और भावनाओं का समन्वय मांगती है. मैंने सच्चे दिल से यही कोशिश की है कि मैं शायरी की यह फ़रमाईश पूरी कर सकूं. शायद इसलिए देर लग गई. फिर भी कौन जाने यह फ़रमाईश किस हद तक पूरी हो सकी है. बहरहाल, जावेद साहब की किताब लावा के बारे में फिर कभी तफ़सील से बात करेंगे. इसलिए मुद्दे पर आते हैं.

अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर जावेद साहब का कहना था-यह एक बहुत ही परेशानी और सोच की बात है कि हमारे समाज में ज़ुबान सिकु़ड़ रही है, सिमट रही है. हमारे यहां तालीम का जो निज़ाम है, उसमें साहित्य को, कविता को वह अहमियत हासिल नहीं है, जो होनी चाहिए थी. ऐसा लगता है कि इससे क्या होगा. वही चीज़ें काम की हैं, जिससे आगे चलकर नौकरी मिल सके, आदमी पैसा कमा सके. अब कोई संस्कृति और साहित्य से पैसा थोड़े ही कमा सकता है. पैसा कमाना बहुत ज़रूरी चीज़ है. कौन पैसा कमा रहा है और ख़र्च कैसे हो रहा है, यह भी बहुत ज़रूरी चीज़ है. यह फ़ैसला इंसान का मज़हब और तहज़ीब करते हैं कि वह जो पाएगा, उसे ख़र्च कैसे करेगा. जब तक आम लोगों ख़ासकर नई नस्ल को साहित्य के बारे में, कविता के बारे में नहीं मालूम होगा, तब तक ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो ही नहीं सकती. अगर आम इंसान को इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा तो फिर वह अख़बारों से भी ग़ायब होगा, क्योंकि अख़बार तो आम लोगों के लिए होते हैं. मैं समझता हूं कि हमें अपने अख़बारों पर नाराज़ होने और शिकायतें करने की बजाय अपनी शैक्षिक व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. हमें साहित्य को स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक महत्व देना होगा. अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी साहित्य को जगह देनी होगी. जब हम ख़ुद साहित्य की अहमियत समझेंगे तो वह किताबों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में भी झलकेगा.

वरिष्ठ साहित्यकार असग़र वज़ाहत भी अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर फ़िक्रमंद नज़र आते हैं. उनका कहना है कि अख़बार समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं. मौजूदा दौर में अख़बारों से साहित्य ग़ायब हो गया है. इसे दोबारा वापस लाया जाना चाहिए, क्योंकि आज इसकी सख्त ज़रूरत है. वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी का मानना था कि अख़बारों से साहित्य ग़ायब होने के लिए सिर्फ़ अख़बार वाले ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. पहले जो पढ़ने-लिखने जाते थे, वही लोग अख़बारों के भी पाठक होते थे. पहले जो व्यक्ति पाठक रहा होगा, उसने शेक्सपियर भी पढ़ा था. उसने रवींद्रनाथ टैगोर को भी पढ़ा था. उसने प्रेमचंद, शरतचंद्र, मार्क्स और टॉलस्टाय को भी पढ़ा था. लेकिन सरकार के साक्षरता अभियान की वजह से समाज में साक्षरता तो आ गई, लेकिन पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हो गई. नव साक्षरों की तरह ही नव पत्रकारों को भी साहित्य की ज़्यादा जानकारी नहीं है. पहले भी साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों को अख़बारों से पर्याप्त साहित्य पढ़ने को कहां मिलता था. वे साहित्य पढ़ने की शुरुआत तो अ़खबारों से करते थे, लेकिन साहित्यिक किताबों से ही उनकी पढ़ने की ललक पूरी होती थी. अब लोग अख़बार पढ़ने की बजाय टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में अख़बारों से साहित्य ग़ायब होगा ही.

माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी डॉ. सौरभ मालवीय अख़बारों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है कि वर्तमान में मीडिया समाज के लिए मज़बूत कड़ी साबित हो रहा है. अख़बारों की प्रासंगिकता हमेशा से रही है और आगे भी रहेगी. मीडिया में बदलाव युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से अख़बारों में गिरावट देखने को मिल रही है. इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में अख़बारों से साहित्य लोप हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में अख़बारों की महती भूमिका रही है. मगर आज अख़बारों ने ही ख़ुद को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है. आज ज़रूरत है कि अख़बारों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएं. युवा लेखक अमित शर्मा का कहना है कि राजेंद्र माथुर अख़बार को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे. अब न उस तरह के संपादक रहे, न अख़बारों में साहित्य के लिए स्थान. साहित्य महज़ साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्‌स में सिमट गया है. अब वह भी ब्रांडिंग साहित्य की भेंट च़ढ रहे हैं. पहला पेज रोचक कहानी और विज्ञापन में खप जाता है. अंतिम पेज को भी विज्ञापन और रोचक जानकारियां सरीखे कॉलम ले डूबते हैं. भीतर के पेज 2-3 में साप्ताहिक राशिफल आदि स्तंभ देने के बाद कहानी-कविता के नाम कुछ ही हिस्सा आ पाता है. ऐसे में साहित्य सिर्फ़ कहानी-कविता को मानने की भूल भी हो जाती है. निबंध, रिपोर्ताज, नाटक जैसी अन्य विधाएं तो हाशिए पर ही फेंक दी गई हैं.

इस सबके बीच अच्छी बात यह है कि आज भी चंद अख़बार साहित्य को अपने में संजोए हुए हैं... वक़्त बदलता रहता है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में अख़बारों में फिर से साहित्य पढ़ने को मिलने लगे... कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है...साहित्य प्रेमी भी अपने लिए अच्छी पत्र-पत्रिकाएं तलाश लेते हैं... बिलकुल हमारी तरह...
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Rest in Peace


जब कोई किसी की मौत की ख़बर सुनता है, तो उसके लिए कुछ लफ़्ज़ बोलता है, जिसे आप ख़िराजे-अक़ीदत कह सकते हैं...
बात इस्लाम को मानने वाले की करते हैं... जब कोई मुसलमान, किसी मुसलमान के मरने की ख़बर सुनता है, तो वह कहता है-
ಯಹ್
إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّـا إِلَيْهِ رَاجِعون
यानी Inna Lillahi Wa inna Ilayhi Rajioon
यानी हम बेशक ख़ुदा से ताल्लुक़ रखते हैं और हमें उसी के पास लौट कर जाना है...
(क़ुरआन सूरह अल-बक़रा 2:156 )

मुसलमान जब किसी ऐसे ग़ैर मुस्लिम की मौत की ख़बर सुनता है, जिसे जलाया गया है, वह तो कहता है-
فِي نَارِ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا
यानी Fee nari jahannama khalidin fihaa
यानी वह दोज़ख़ की आग में है...
(क़ुरआन : सूरह अल-बैयिनह 98:‍6)

दोज़ख़ में हर तरफ़ आग ही आग होगी, क़ुरआन में कई जगह दोज़ख़ का ज़िक्र किया गया है.

अब बात अहले-किताब यानी ईसाइयों की... ईसाई जब किसी ईसाई की मौत की ख़बर सुनता है, तो कहता है-
Rest in Peace
यानी सुकून से आराम करो...
Rest in Peace की जगह RIP भी लिखा जाता है...
आजकल ग़ैर ईसाई भी Rest in Peace या RIP का ख़ूब इस्तेमाल कर रहे हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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आज पहली दिसंबर है...


फ़िरदौस ख़ान
आज पहली दिसंबर है... दिसंबर का महीना हमें बहुत पसंद है... क्योंकि इसी माह में क्रिसमस आता है... जिसका हमें सालभर बेसब्री से इंतज़ार रहता है... यानी क्रिसमस के अगले दिन से ही इंतज़ार शुरू हो जाता है... इस साल मिलाद-उल-नबी यानी हमारे प्यारे आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की यौमे-विलादत भी है...
दिसंबर में ही हमारी जान फ़लक की सालगिरह भी तो आती है...
इस महीने में दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं... और रातें छोटी होने लगती हैं... यह बात अलग है कि इसका असर जनवरी में ही नज़र आता है... दिसंबर में ठंडी हवाएं चलने लगती हैं... सुबह और शामें कोहरे से ढकी होती हैं... क्यारियों में गेंदा और गुलाब महकने लगते हैं... सच, बहुत ख़ूबसूरत होता है दिसंबर का महीना...
इसी महीने में अपने साल भर के कामों पर ग़ौर करने का मौक़ा भी मिल जाता है... यानी इस साल में क्या खोया और क्या पाया...? नये साल में क्या पाना चाहते हैं... और उसके लिए क्या तैयारी की है...वग़ैरह-वग़ैरह...

ग़ौरतलब है कि दिसंबर ग्रेगोरी कैलंडर के मुताबिक़ साल का बारहवां महीना है. यह साल के उन सात महीनों में से एक है, जिनके दिनों की तादाद 31 होती है. दुनिया भर में ग्रेगोरी कैलंडर का इस्तेमाल किया जाता है. यह जूलियन कालदर्शक का रूपातंरण है. ग्रेगोरी कालदर्शक की मूल इकाई दिन होता है. 365 दिनों का एक साल होता है, लेकिन हर चौथा साल 366 दिन का होता है, जिसे अधिवर्ष कहते हैं. सूर्य पर आधारित पंचांग हर 146,097 दिनों बाद दोहराया जाता है. इसे 400 सालों मे बांटा गया है. यह 20871 सप्ताह के बराबर होता है. इन 400 सालों में 303 साल आम साल होते हैं, जिनमें 365 दिन होते हैं, और 97 अधि वर्ष होते हैं, जिनमें 366 दिन होते हैं. इस तरह हर साल में 365 दिन, 5 घंटे, 49 मिनट और 12 सेकंड होते है. इसे पोप ग्रेगोरी ने लागू किया था.
 (हमारी डायरी से)



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