मुहब्बत



मुहब्बत सिर्फ़ मुहब्बत होती है और कुछ नहीं. मुहब्बत सिर्फ़ देना जानती है. सावन के बरसते बादलों की मानिन्द. जिस तरह बादल अपनी आख़िरी बूंद तक प्यासी धरती पर उडेल देते हैं, इसी तरह मुहब्बत अपने महबूब को सराबोर कर देती है, मुहब्बत के जज़्बे से. 
फ़िरदौस ख़ान
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हम किसके लिए लिखते हैं


अकसर लोग पूछते हैं कि आप किसके लिए लिखती हैं ? आप जिसके लिए लिखती हैं, वो वाक़ई बहुत ख़ुशनसीब है. हमारा हर लफ़्ज़ उन्हें समर्पित हैं, जिनके क़दमों में हम अपनी अक़ीदत के फूल चढ़ाते हैं, जो हमारी इबादत का मर्कज़ हैं. जिनके बिना हमारी इबादत अधूरी है. जो हर जगह हैं, जिनकी मुहब्बत ने हमें फ़ना कर डाला. 
फ़िरदौस ख़ान
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तुम्हारा नाम


मेरे महबूब !
वो तुम्हारा ही तो नाम है
सबसे ख़ूबसूरत नाम 
जिसे मैं 
कलमे की तरह 
अज़ल से अब्द तक 
पढ़ते रहना चाहती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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यादें


वाक़ई ये यादें ही तो हैं, जो तपती धूप में घने दरख़्त का साया हैं, तो जाड़ों में गुनगुनी धूप का अहसास देती हैं. ज़िन्दगी की भूल-भूलय्या में रौशनी बनकर बिखर जाती हैं, तो कभी सावन की फुहारें बनकर तन-मन को भिगो देती हैं.
फ़िरदौस ख़ान
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मुहब्बत और ईमान


मुहब्बत बिल्कुल ईमान की तरह हुआ करती हैं. जब बन्दा अपने ख़ुदा पर ईमान ले आता है, तो वे दर-दर भटकने से बच जाता है. इसी तरह जब इंसान को मुहब्बत हो जाती है, तो उसे अपने महबूब के दर के सिवा कोई और दर नज़र ही नहीं आता. 
फ़िरदौस ख़ान
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महबूब और चाँद


लोग न जाने क्यों चांद में महबूब का अक्स तलाशते हैं. हक़ीक़त में महबूब का अक्स दहकते सूरज में अया होता है, जो पूरे वजूद को फ़ना कर डालता है. इश्क़ में फ़ना होना ही तो इश्क़ की इंतेहा है.
फ़िरदौस ख़ान
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महबूब से वाबस्ता हर चीज़ें


महबूब से वाबस्ता हर चीज़ अज़ीज़ हुआ करती है. फिर वो ज़मीन क्यूं न अज़ीज़ हो, जिस ज़मीन पर महबूब के क़दम रखे गए हों. जिसकी फ़िज़ाओं में उसकी सांसों की महक शामिल हो. जहां की हवायें उसके जिस्म को छूकर गुज़री हों. फिर क्यूं न उस ज़मीन का हर ज़र्रा क़ाबिले-एहतराम हो.
फ़िरदौस ख़ान
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दो रिश्ते


दुनिया में दो रिश्ते ऐसे हैं, जिनमें ख़ुद को क़ुर्बान कर देने में ही ख़ुशी मिला करती है. पहला मां का रिश्ता. मां अपनी औलाद के लिए हर दर्द ख़ुशी-ख़ुशी सह जाती है. दूसरा रिश्ता इश्क़ का है. इंसान अपने महबूब के लिए ख़ुद को फ़ना कर देता है. ख़ुद को मिटा देने में ही उसे सुकून मिलता है. 
फ़िरदौस ख़ान
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चमेली के फूल



मेरे महबूब ! 
चमेली के सफ़ेद फूलों से आंगन महक रहा है. रोज़ रात में चमेली के फूल खिलते हैं और अपनी ख़ुशबू से रूह तक को महका देते हैं. अल सुबह हम चमेली के फूल अपने दामन में इकट्ठे करते हैं और सोचते हैं कि काश ! तुम पास होते, तो ये फूल तुम्हारे क़दमों में चढ़ा देते. ये फूल हमारी अक़ीदत के फूल हैं, जिन्हें हम आपके क़दमों में बिखेर देना चाहते हैं.
फ़िरदौस
 
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ज़िन्दगी


हमने ज़िन्दगी में जो चाहा वह नहीं मिला, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा मिला. ज़मीन चाही, तो आसमान मिला... इतना मिला कि अब कुछ और चाहने की 'चाह' ही नहीं रही.

* ज़िन्दगी में ऐसा भी मुक़ाम आया करता है, जब इंसान जद्दो-जहद करके थक जाता है. उसकी ख़्वाहिशें दम तोड़ देती हैं. उम्मीद का दिया बुझ जाता है. फिर उसे ज़िन्दगी में कुछ भी अच्छा होने की कोई आस नहीं रहती.

* इंसान को संघर्ष अकेले करना पड़ता है. नाकामी का दर्द भी अकेले ही सहना पड़ता है. लेकिन जब कामयाबी मिल जाती है, तो उसे बांटने के लिए सब आ जाते हैं. यही दुनिया का दस्तूर है.


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सिक्कों की दुनिया की सैर


फ़िरदौस ख़ान
जबसे मुद्रा का विकास हुआ है, तभी से यह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग रही है. इसके बिना जीवन की कल्पना तक संभव नहीं है. हाल में राजकमल प्रकाशन की एक किताब भारतीय सिक्कों का इतिहास प़ढने का मौक़ा मिला. कुछ वक़्त पहले जब चवन्नी का चलन बंद हुआ था, तबसे ही भारतीय मुद्रा के बारे में जानने की जिज्ञासा थी. लेखक गुणाकर मुले ने इस किताब के लिए काफ़ी शोध किया है. इस किताब को कई अध्यायों में बांटा गया है, जैसे सिक्कों की शुरुआत, भारत के सबसे पुराने पंचमार्क सिक्के, मौर्यकाल के पंचमार्क सिक्के, हिन्द-यवन शासकों के सिक्के, शक पह्लव शासकों के सिक्के, कुषाणों के सिक्के, पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्के, गणराज्यों और जनपदों के सिक्के, भारत में रोमन सिक्के, सात वाहनों के सिक्के, गुप्त सम्राटों के सिक्के, हेफतालों के सिक्के, मध्यकालीन उत्तर भारतीय मुद्राएं, दक्षिण भारत के सिक्के, पांड्य, चोल और चेर शासकों के सिक्के, इस्लामी शासकों के सिक्के, दिल्ली सल्तनत के सिक्के, सल्तनत कालीन प्रांतीय राज्यों के सिक्के, मुग़ल शासकों के सिक्के, मुग़ल कालीन प्रादेशिक राज्यों के सिक्के, यूरोप की व्यापारी कंपनियों के सिक्के, भारत में अंग्रेजी राज के सिक्के, सिक्कों की लिपियां और भाषा आदि.

इस किताब में सिक्कों के बारे में बेहद रोचक और ज्ञानवर्द्धक जानकारी मिलती है. इस्लाम में सिक्कों पर प्रतिमांकन कराने की प्रथा नहीं थी, इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर भारत के इस्लामी शासकों के सिक्कों के दोनों तरफ़ केवल मुद्रालेख ही देखने को मिलते हैं. प्राचीन भारत के शासकों की ही तरह इस्लामी शासकों में भी सिंहासन संभालते ही नये सिक्के जारी करने की प्रथा रही है. प्राचीन भारत के सिक्कों को देखकर यह नहीं बताया जा सकता कि वे किस टकसाल में तैयार किए गए थे, लेकिन इस्लामी शासकों ने सिक्कों पर टकसाल की जगह का नाम अंकित कराने की प्रथा शुरू की. इतना ही नहीं, इन टकसालों को कुछ विशिष्ट नाम भी दिए गए, जैसे दिल्ली को देहली हज़रत, दारुल ख़िलाफ़त, दारुल मुल्क, दारुल इस्लाम. दिल्ली के सुल्तानों ने दौलताबाद में भी टकसाल स्थापित की थी. शेरशाह के वक़्त (1540-1545) में टकसालों की तादाद 23 तक पहुंच गई थी. अकबर के शासनकाल (1556-1605) में देश में 76 टकसालें थीं. सिक्कों पर टकसालों के उल्लेख से उन स्थानों के शासकीय महत्व और राज्य की सीमाओं के बारे में जानकारी मिलती है. ज़्यादातर मुस्लिम शासकों के सिक्के शुद्ध धातु और प्रामाणिक तौल के हैं. अकबर के शासनकाल में कोई भी व्यक्ति अपना सोना या अपनी चांदी टकसाल में ले जाकर उसके सिक्के तैयार करा सकता था. चांदी के रुपये बनवाने के लिए उसे कुल मुद्रांकित धातु का क़रीब 5.6 फ़ीसदी मुद्रा निर्माण के लिए देनी होती थी. मुग़ल बादशाहों में जहांगीर (1605-1627) के सिक्के सबसे सुंदर हैं. उसे नये-नये सिक्के बनवाने का शौक़ था. बाबर और हुमायूं के चांदी के दिरहम मध्य एशियाई शैली के हैं और तैमूरी वंश के शासक शाहरुख़ के नाम पर शाहरुख़ीकहलाते हैं. क़रीब 72 ग्रेन के इन सिक्कों के पुरोभाग पर कलमा और ख़लीफ़ाओं के नाम तथा पृष्ठभाग पर बादशाह का नाम है. शेरशाह सूरी ने अपने चंद सालों के शासन के दौरान भारतीय मुद्रा प्रणाली को एक नई दिशा दी थी. उसने मिश्र धातु का इस्तेमाल बंद करवा दिया और शुद्ध चांदी के मानक रुपये को चलाया. अकबर ने सोना, चांदी और तांबे के अपने सिक्कों के लिए सूरी शैली, तौल और बनावट को अपनाया. बुनियादी सिक्का चांदी का रुपया था, जिसका तौल 11.5 माशा या 178 ग्रेन के बराबर था. अकबर के पूरे राज्य में एक ही तौल के रुपये का प्रचलन था और उसकी चांदी की मुद्राओं में चार फ़ीसद से ज़्यादा मिलावट कभी नहीं रही. टीपू सुल्तान ने अपने 17 सालों (1782-1799) के शासनकाल में तरह-तरह के की मुद्राएं जारी कीं. टीपू सुल्तान ने न केवल सोने के पगोद, पणम, चांदी के रुपये और दोहरे रुपये आदि जारी किए, बल्कि तांबे के भी विविध तौल के सिक्के जारी किए. इन सिक्कों को नाम दिए गए. चौथाई मुहर को फ़ारुख़ी, एक रुपये को अहमदी, दोहरे रुपये को हैदरी आदि. ये सब इस्लाम से संबंधित नाम हैं. कुछ सिक्कों के नाम ग्रहों और नक्षत्रों के नाम पर भी रखे गए. 

देश के आज़ाद होने के बाद जो सिक्के ढाले गए, वे 1947 से 1950 के दौर के थे. एक अप्रैल, 1957 को भारतीय मुद्रा अधिनियम लागू हुआ तो सिक्कों में बदलाव आया. इससे पहले आना प्रणाली के सिक्कों का चलन था. इसमें एक रुपया 16 आने के बराबर था. भारतीय मुद्रा अधिनियम के बाद दशमलव प्रणाली आई. रुपये का चलन वैसा ही था, लेकिन आना के बजाय उसकी क़ीमत 100 पैसे के बराबर हो गई. जनता में रुपया नया पैसा के नाम से प्रचलित हुआ. 60 के दशक में तांबे एवं निकल के सिक्के बने. इनमें षटकोण वाले 3 पैसे का सिक्का, लहरियेदार किनारे वाला 20 पैसे का सिक्का प्रचलित था. 70 के दशक में एक, दो एवं तीन पैसे का चलन लगभग ख़त्म होने लगा और उस वक़्त स्टील के 10, 25 और 50 पैसे को शामिल किया गया. बाद में विभिन्न विशेष अवसरों पर सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ, जिन पर नहर, हल जोतने और फ़सल काटते किसान आदि अंकित होते थे. कई सिक्कों पर एक तरफ़ भारत गणराज्य का राज्य चिन्ह एवं सत्यमेव जयते और दूसरी तरफ़ महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी आदि की तस्वीरें या राष्ट्रीय इमारतें अंकित थीं. साल 1972 में 50 पैसे और 10 रुपये के सिक्कों पर सर्वप्रथम संसद भवन का अंकन हुआ था. भारत में चार सरकारी टकसालें हैं. ये महाराष्ट्र में मुंबई, पश्चिम बंगाल में कोलकाता, आंध्रप्रदेश में हैदराबाद और उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर में हैं. भारतीय सरकार पर पर सिक्कों को बनाने की ज़िम्मेदारी है और ये सभी भारतीय टकसालों से भारतीय रिज़र्व बैंक पहुंचते हैं. बहरहाल, इतिहास और पुरातत्व में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह किताब बेहद उपयोगी है. 

समीक्ष्य कृति : भारतीय सिक्कों का इतिहास 
लेखक : गुणाकर मुले 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 
मूल्य : 350 रुपये    
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टपकती छतें...


बारिश में टपकती छतें 
भिगो देती हैं 
घर का हर छोटा-बड़ा सामान 
न कोई कपड़ा सूखा रहता है 
और न ही चूल्हा-चौका 
ऐसे में
घर के सामान को बचाने की जद्दोजहद में
इंसान ख़ुद भी भीग जाता है 
सबसे ज़्यादा मुश्किल होता है 
बच्चों को भीगने से बचाना 
भूखे बच्चों को खाना पकाकर खिलाना 
वाक़ई बहुत दुश्वार होता है 
कमरे में बरसती बारिश से ख़ुद को बचाना
बेशक बारिश रहमत है
लेकिन
ग़ुरबत के मारे ग़रीबों के लिए
बारिशें किसी आफ़त कहां कम हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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