एक झूठा लफ़्ज़ मुहब्बत का...


सरहद पार से न्यूज़ एंकर सईद साहब ने हमें एक नज़्म भेजी है...
नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ रूह की गहराइयों में उतर जाने वाला है...जबसे हमने यह नज़्म पढ़ी है...तब से हम ख़ुद को इसके असर से जुदा नहीं कर पाए हैं...इस नज़्म में ऐसा क्या है, जिसने हमें इस क़द्र बांध लिया है...उसे लफ़्ज़ों में क़ैद करके बयां करने में ख़ुद को नाक़ाबिल महसूस कर रहे हैं...मुलाहिज़ा फरमाएं...

एक झूठा लफ़्ज़ मुहब्बत का
इस दिल में सलामत है अब तक
वो शोख़ी-ए-लब वो हर्फ़-ए-वफ़ा
वो नक़्श-ए-क़दम वो अक्स-ए-हिना
सौ बार जिसे चूमा हमने
सौ बार परस्तिश की जिसकी
इस दिल में सलामत है अब तक
वो गर्द-ए-अलम वो दीदा-ए-नम
हम जिसमें छुपाकर रखते हैं
तस्वीर बिखरती यादों की
ज़ंजीर पिघलते वादों की
पूंजी नाकाम इरादों की
ऐ तेज़ हवा नाराज़ न हो
इस दिल में सलामत है अब तक
सामान बिछड़ते साथ का
कुछ टुकड़े गरम दोपहरों के
कुछ रेज़े नरम सवालों के
कुछ ढेर अनमोल ख़्यालों के
एक सच्चा रूप हक़ीक़त का
एक झूठा लफ़्ज़ मुहब्बत का...
(हमारी डायरी से)
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शरारे बनके बरसते हैं अब इंतज़ार के फूल...फ़िरदौस ख़ान


सिसकती वादियां कहती हैं देवदारों से
शरारे बनके बरसते हैं अब इंतज़ार के फूल... (नामालूम)

सच...इंतज़ार की भी अपनी ही ख़ुशी और अपना ही ग़म होता है...यह ख़ुशी और ग़म... इस बात पर निर्भर करता है कि इंतज़ार किसका किया जा रहा है... ? फ़िलहाल एक गुज़ारिश पर अपनी ग़ज़ल पेश कर रहे हैं... अनुराग मुस्कान साहब की एक तस्वीर के साथ, जो कई बरस पहले उन्होंने हमारी एक नज़्म के लिए भेजी थी...
 
ग़ज़ल
लुत्फ़ जब भी किसी मंज़र का उठाया हमने
दिल को बेचैन-सा वीरान सा पाया हमने

आज फिर याद किया धूप में जलकर उसको
आज फिर छत पे वही ख़्वाब बुलाया हमने

हादसा आज अचानक वही फिर याद आया
कितनी मुश्किल से जिसे दिल से भुलाया हमने

नर्म झोंके की तरह दिल को जो छूकर गुज़रा
ग़म उसी शख़्स का ताउम्र उठाया हमने

जिसको ठुकरा दिया 'फ़िरदौस' जहां ने, उसको
अपने गीतों में सदा ख़ूब सजाया हमने
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर : अनुराग मुस्कान  
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तेरा दिल तो है सनम आशना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...

इश्क़, इबादत और शायरी में बहुत गहरा रिश्ता है... इश्क़-ए-मजाज़ी हो तो ज़िन्दगी ख़ूबसूरत हो जाती है...और अगर रूह इश्क़-ए-हक़ीक़ी में डूबी हो तो आख़िरत तक संवर जाती है... शायरों ने इश्क़ और इबादत के बारे में बहुत कुछ कहा है... हज़रत राबिया बसरी फ़रमाती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...

इसी तरह अल्लामा मुहम्मद इक़बाल साहब ने कहा है-
मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
और
अज़ान अज़ल से तेरे इश्क़ का तराना बनी
नमाज़ उसके नज़ारे का इक बहाना बनी
अदा-ए-दीदे-सरापा नयाज़ है तेरी
किसी को देखते रहना नमाज़ है तेरी

कलाम
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में

तरब आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरूद क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़ में

तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में

दम-ए-तौफ़ कर मक-ए-शम्मा न ये कहा के वो अस्र-ए-कोहन
न तेरी हिकायत-ए-सोज़ में न मेरी हदीस-ए-गुदाज़ में

न कहीं जहां में अमां मिली, जो अमां मिली तो कहां मिली
मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब को तेरे उफ़्वे-ए-बंदा-नवाज़ में

न वो इश्क़ में रहीं गर्मियां न वो हुस्न में रहीं शोख़ियां
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में

मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...

अल्लामा मुहम्मद इक़बाल साहब के कलाम को जब  ख़ूबसूरत अबरार उल हक़ की दिलकश आवाज़ मिल जाए तो फिर कहने ही किया...लगता है जैसे किसी जिस्म को रूह मिल गई हो...कलाम सुनिए

अबरार उल हक़
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इश्क़ की नज़्म...


मैं
उम्र के काग़ज़ पर
इश्क़ की नज़्म लिखती रही
और
वक़्त गुज़रता गया
मौसम-दर-मौसम
ज़िन्दगी की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान


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फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में...फ़िरदौस ख़ान



अर्चना चावजी की मधुर आवाज़ में सुनिए...

ग़ज़ल
चांदनी रात में कुछ भीगे ख़्यालों की तरह
मैंने चाहा है तुम्हें दिन के उजालों की तरह

साथ तेरे जो गुज़ारे थे कभी कुछ लम्हें
मेरी यादों में चमकते हैं मशालों की तरह

इक तेरा साथ क्या छूटा हयातभर के लिए
मैं भटकती रही बेचैन ग़ज़ालों की तरह

फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह

तेरे आने की ख़बर लाई हवा जब भी कभी
धूप छाई मेरे आंगन में दुशालों की तरह

कोई सहरा भी नहीं, कोई समंदर भी नहीं
अश्क आंखों में हैं वीरान शिवालों की तरह

पलटे औराक़ कभी हमने गुज़श्ता पल के
दूर होते गए ख़्वाबों से मिसालों की तरह
-फ़िरदौस ख़ान
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विश्व पुस्तक मेले में हमारी किताब...



विश्व पुस्तक मेले में प्रभात प्रकाशन के स्टॉल पर हमारी किताब

यूं तो पुस्तक प्रेमियों को हमेशा ही विश्व पुस्तक मेले का बेसब्री से इंतज़ार रहता है...लेकिन इस बार बात अलग थी...क्योंकि हमारी किताब भी विश्व पुस्तक मेले में प्रदर्शित होने वाली थी...वो दिन भी आया जब राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में हमारी किताब 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' भी छाई रही... इसे ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह) ने शाया किया है. अपनी किताब को यहां देखकर बेहद ख़ुशी हुई...जैसा नाम से ही ज़ाहिर होता है...हमारी किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ में 55 संतों और फ़क़ीरों  की वाणी एवं जीवन-दर्शन को प्रस्‍तुत किया गया है...

नेशलन बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित 19वां विश्व पुस्तक मेला राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदान में 30 जनवरी को शुरू हुआ. सात फ़रवरी तक चले इस पुस्तक मेले का उदघाटन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने किया. इस मौक़े पर उन्होंने कहा कि विश्व पुस्तक मेला एक संवृद्ध विरासत है. इस पुस्तक मेले का मक़सद हज़ारों किताबों  को ज़्यादा से ज़्यादा  लोगों तक पहुंचाना है. अपने एक संदेश में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल  ने कहा कि किताबें मानव ज्ञान का भंडार हैं और यह महत्वपूर्ण है कि देश के पाठकों के लिए सभी क्षेत्र से जुड़ी पुस्तकें उपलब्ध हों.
देश-विदेश के तक़रीबन 1,200 प्रकाशकों ने पुस्तक मेले में अपनी किताबों की प्रदर्शनी लगाई. तक़रीबन  4,200 वर्गमीटर में फैले इस मेला क्षेत्र में 2,400 बुक स्टॉल लगाए गए.  इस साल पिछले साल से ज़्यादा स्टॉल लगे.  हालत यह रही कि हॉल के बाहर भी काफ़ी जगह प्रकाशकों को दी गई . मेले में तक़रीबन 90  फ़ीसदी अंग्रेजी की किताबें थीं.  अमेरिका और ब्रिटेन के बाद हिन्दुस्तान अंग्रेजी किताबों के प्रकाशन का तीसरा सबसे बड़ा देश है. हिन्दुस्तान दुनिया के बड़े पुस्तक बाजारों में एक है और इसी वजह से दुनियाभर के प्रकाशकों ने हिन्दुस्तान का रुख़ किया है. साल 2006 के फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में दूसरी बार अथिति देश होना, साल 2009 के लंदन पुस्तक मेले का ‘मार्केट फोकस’ होना और 2009 के मास्को पुस्तक मेले में अथिति देश होना पुस्तक बाज़ार में हिन्दुस्तान के महत्व को रेखांकित करता है. अन्य भाषाओं का ज़िक्र करें तो यहां 18 से ज़्यादा भाषाओं में किताबें प्रकाशित होती हैं.  यहां विभिन्न भाषाओं के 12 हज़ार से ज़्यादा प्रकाशक हैं, जो हर साल तक़रीबन एक लाख किताबें प्रकाशित करते हैं. यहां सबसे ज़्यादा किताबें क्षेत्रीय भाषाओं में छपती हैं. इनमें हिंदी पहले स्थान पर है.

इस बार का मेला राष्ट्रकुल खेल को समर्पित किया गया था. इस पुस्तक मेले की विषय वस्तु ‘रीडिंग अवर कॉमनवेल्थ’ यानी ‘हमारे साझा वैभव का अध्ययन’ थी. राष्ट्रकुल खेल के नाम एक पूरा पवेलियन था, जिसमें खेल से जुड़ी दुनियाभर की किताबें थीं.  इसके लिए कैटलॉग भी बनाया गया था, ताकि बाद में भी उन किताबों के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की जा सके. देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू पर अलग से किताबें प्रदर्शित की गईं . इनमें नेहरू पर लिखी दुनियाभर की किताबों को शामिल किया गया. मेले में एक बाल पवेलियन भी था, जिसमें अनेक एनजीओ द्वारा बच्चों की रचनात्मकता को प्रोत्साहित करने वाली गतिविधियां शामिल थीं.

ग़ौरतलब है कि मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय पुस्तक ट्रस्ट द्वारा हर दूसरे साल विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाता है. यह एक स्वायत्त संगठन है और इसका काम किताबों को बढ़ावा देना है. इसके अलावाब भारतीय व्यापार संवर्धन संगठन सह-संयोजक के तौर पर इस मेले में शामिल रहता है. यह भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के तत्वावधान में काम करता है. यह देश के व्यापार और उद्योगों के विकास के लिए काम करता है. विश्व  पुस्तक मेले के आयोजन का मक़सद जनमानस में किताबों के लिए दिलचस्पी  पैदा करना है.

नेशलन बुक ट्रस्ट द्वारा  द्विवार्षिक विश्व पुस्तक मेला पहली बार 1972 में दिल्ली के विंडसर पैलेस इलाक़े में लगा था. तक़रीबन 7780 वर्ग मीटर क्षेत्र में आयोजित इस मेले में 200 प्रकाशकों ने हिस्सा लिया था. अगली बार यानी 1976 में लगे दूसरे विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशकों की तादाद बढ़कर 266 हो गई थी.  इस साल 42,839 वर्ग मीटर क्षेत्र में आयोजित 19वें विश्व पुस्तक मेले में 1234 प्रकाशकों ने शिरकत की. 2006 में आयोजित पुस्तक मेले में 10 लाख से ज़्यादा लोग आए थे, जबकि इस साल इनकी तादाद तक़रीबन 20 लाख तक पहुंच गई थी.

दुनियाभर के प्रकाशक सैकड़ों नई किताबें लेकर आए. प्रभात प्रकाशन के प्रमुख प्रभात कुमार ने बताया कि वे पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृषण आडवाणी की मेरा देश मेरा जीवन और फ़िरदौस ख़ान की किताब गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत के सहित कई अच्छी किताबें लेकर आए, जिन्हें बहुत सराहा गया. राजकमल प्रकाशन की किताबें भी मेले में छाई रहीं. किताब घर प्रकाशन के प्रमुख सत्यव्रत का कहना है कि वे 35 नईं किताबें लेकर आए. इनमें साहित्यिक पुस्तकों के अलावा ज्ञान-विज्ञान से संबंधित किताबें भी शामिल थीं. ओशियन बुक्स के निदेशक डॉ. पीयूष कुमार भी हिंदी और अंग्रेजी की सौ से ज़्यादा नई किताबें लाए., जिनमें हिंदी की किताबें ज़्यादा थीं. रॉली बुक्स और डायमंड बुक्स ने भी कई नई किताबें प्रदर्शित कीं.

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार कहते हैं- लेखिका चिन्तक है, सुधारवादी है, परिश्रमी है, निर्भय होकर सच्चाई के नेक मार्ग पर चलने की हिम्मत रखती है. विभिन्न समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर उसके लेख छपते रहते हैं. ज़िंदगी में यह पुस्तक लेखिका को एवं समाज को ठीक मिशन के साथ मंज़िल की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करेगी. सफलताओं की शुभकामनाओं के साथ मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा उस पर उसकी कृपा सदैव बरसती रहे. मुझे विश्वास है कि प्रकाश स्तंभ जैसी यह पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ सभी देशवासियों को इस सच्ची राह पर चलने की हिम्मत प्रदान करेगी.



किताब का नाम : गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत 
लेखिका : फ़िरदौस ख़ान
पेज : 172
क़ीमत : 200 रुपये


प्रकाशक
ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह)
205 -सी, चावड़ी बाज़ार
दिल्ली-110006


प्रभात प्रकाशन 
4/19, आसफ़  अली रोड, दरियागंज
नई दिल्ली-110002
फ़ोन : 011 23289555

Ganga jamuni sanskriti ke agradoot written by Firdaus Khan

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सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे...

मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे

रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे

रेगज़ारों में कटती रही ज़िन्दगी
ख़ार चुभते रहे, गुनगुनाते रहे

ज़िन्दगीभर उसी अजनबी के लिए
हम भी रस्मे-दहर को निभाते रहे
-फ़िरदौस ख़ान
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इस प्यार ने क्या कुछ बदला है...

सच!
आज पहली बार
सुबह सूरज निकला तो
कितना भला लगा
सूरज की सुनहरी किरनों ने
चूम लिया बदन मेरा
तुम थे कोसों दूर
पर यूं लगा
जैसे
यह प्यार भरा पैगाम
तुमने ही भेजा है
इस प्यार ने क्या कुछ बदला है
कि अब तो
हर शय निखरी-निखरी लगती है...
-फ़िरदौस ख़ान
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ब्लॉगवाणी और ब्लॉगर साथियों, हम आपके शुक्रगुज़ार हैं...

पिछले दिनों ब्लॉग जगत में जो कुछ हुआ... और उस वक़्त जिन ब्लॉगर साथियों ने हमें अपना समर्थन दिया... उसके लिए हम सभी ब्लॉगर साथियों के तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हैं...
साथ ही हम ब्लॉगवाणी का भी आभार व्यक्त करते हैं...


हमारे लिए सभी ब्लॉगर आदरणीय और सम्माननीय हैं... इसलिए समझ नहीं आ रहा था कि किसका नाम पहले लिखें... जिनका नाम बाद में आता, शायद हम उनके साथ नाइंसाफ़ी करते, बस इसी को मद्देनज़र रखते हुए हमने किसी भी साथी का नाम नहीं लिखा है...


कुछ साथियों ने सही कहा है कि 'कुछ' (इस्लाम के ठेकेदार, नफ़रत को बढ़ावा देने वाले) ब्लॉगों को ब्लॉगवाणी से हटाने से समस्या का समाधान नहीं होगा...
हर कोई अपनी 'मानसिकता' और अपने 'संस्कारों' का ही प्रदर्शन करता है...
'दिन' को किसी के 'रात' कह देने से उजाला कम तो नहीं हो जाता...
फ़िरदौसी ने सच ही कहा है-
सच पर चलने वालों का हर क़दम शैतान के सीने पर होता है...


जिन लोगों का मक़सद सिर्फ़ नफ़रत की आग फैलाना होता है... शायद वो नहीं जानते कि एक न एक दिन ये आग उनका घर भी फूंक सकती है... देश में हुए कुछ दंगे इसी बात का सबूत हैं...

हम 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में यक़ीन रखते हैं... इसलिए हमने हमेशा इंसानियत की बात की है और हमेशा करते रहेंगे...

क्योंकि-
मुझे तालीम दी है मेरी फ़ितरत ने ये बचपन से
कोई रोये तो आंसू पोंछ देना अपने दामन से...

जय हिन्द

वन्दे मातरम्
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रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे...




 ग़ज़ल
रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे
याद उस शख़्स की हर रोज़ रुलाती है मुझे

ख़्वाब जब सच के समन्दर में बिखर जाते हैं
उम्र तपते हुए सहरा में सजाती है मुझे

ज़िन्दगी एक जज़ीरा है तमन्नाओं का
धूप उल्फ़त की यही बात बताती है मुझे

हर तरफ़ मेरे मसाइल के शरार बरपा हैं
जुस्तजू अब्र की हर लम्हा बुलाती है मुझे

मैं संवरने की तमन्ना में बिखरती ही गई
आंधियां बनके हवा ऐसे सताती है मुझे

जब से क़िस्मत का मेरी रूठ गया है सूरज
तीरगी वक़्त की हर रोज़ डराती है मुझे

आलमे-हिज्र में 'फ़िरदौस' खो गई होती
चांदनी रोज़ रफ़ाक़त की बचाती है मुझे
-फ़िरदौस ख़ान
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ब्लॉगवाणी से अनुरोध : असामाजिक तत्वों का बहिष्कार करे...

बस एक लफ़्ज़-ए-सदाक़त ज़बां से क्या निकला

हर एक हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है...

कुछ असामाजिक तत्व (इस्लाम के ठेकेदार ब्लोगर) जो ब्लॉगवाणी  के सदस्य भी हैं... बेहद बेहूदा कमेन्ट कर रहे हैं... अब अति हो चुकी है...इसलिए ही हमें यह सब लिखने पर मजबूर होना पड़ा...
ब्लॉगवाणी से हमारा अनुरोध है कि ऐसे तत्वों को बाहर का रास्ता दिखाए...

साथ ही अपने भाइयों और बहनों से अनुरोध है कि वो भी वो इन ग़द्दार और असभ्य लोगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं...
ये लोग एक तरफ़ तो ख़ुद तो दूसरे धर्मों की पवित्र किताबों और देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक लेख और टिप्पणियां लिख रहे हैं और दूसरी तरफ़ चैन-अमन की बात करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ एकजुट होकर बेहूदा टिप्पणियां कर रहे हैं... हालत यह है कि ये लोग मेल के ज़रिये भी धमका रहे हैं...

इनका मक़सद सिर्फ़ धार्मिक भावनाएं भड़काकर देश के चैन-अमन के माहौल को ख़राब करना और नफ़रत फैलाना ही है...
ये लोग अपने गिरेबान में नहीं झांकते... जबकि यहां तो टॉयलेट में जाने से संबंधित आयतें भी हैं...
ये बहुसंख्यक वर्ग की महानता है कि वो इस तरह की बातों को बीच में नहीं लाते...
नफ़रत, नफ़रत को बढ़ाती है... और प्रेम, सिर्फ़ प्रेम का माहौल ही पैदा करता है...
हमें इस नफ़रत की आग को फैलने से रोकना है...
इसलिए ज़रूरी है कि ऐसे ब्लोगों का बहिष्कार किया जाए...
इसमें ब्लॉगवाणी भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर इस पुनीत कार्य का हिस्सा बने...
हमारा अपने देश और समाज के प्रति जो नैतिक दायित्व है... आओ सब मिलकर उसका पालन करें...
देश और समाज को तोड़ने की गद्दारों की किसी भी साजिश को कामयाब न होने दें...
जय हिंद
वन्दे मातरम्...

@महफूज़ साहब...

इस मुल्क को... इस दुनिया को आप जैसे क़ाबिल लोगों की ज़रूरत है...
आपने सही कहा है...आपका लेवल कि इन लोगों को कोई जवाब दिया जाए...
वैसे भी ये लोग 'इंसान' तो हैं नहीं... (इन लोगों ने बाकायदा ऐलान कर रखा है कि हम इंसान तो हैं, लेकिन मुसलमान नहीं...)
जो लोग इंसान नहीं होते, उन्हें क्या कहा जाता है...बताने की ज़रूरत नहीं... ये पब्लिक है सब जानती है...
 वैसे भी ये लोग जिस एजेंडे को लेकर चल रहे हैं... एक न एक दिन इस मुल्क का क़ानून इन्हें ख़ुद सबक़ सिखा देगा...

@ भाइयों और बहनों
हमें भाइयों और बहनों का स्नेह और समर्थन मिल रहा है... हम उनका आभार जताकर उनके स्नेह को कम नहीं आंकना चाहते हैं... बस, यही कहना चाहेंगे कि आपकी दुआओं (स्नेह) से हमारी राहें रौशन हैं...
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मौसम दहक रहा है...

मौसम दहक रहा है...

आसमान से
आग बरसाती
सूरज की तेज़ किरणें...

बदन को
और झुलसाते
लू के गरम झोंके...

गुलमोहर की
शाखों पर दहकते
फूलों के सुर्ख़ गुच्छे...

सूनी गलियों में
बंजारन ख्वाहिशों-सी
भटकती आवारा दोपहरें...

दूधिया चांदनी में
मोगरा-सी महकती
सुलगती रातें...
मौसम दहक रहा है...
-फ़िरदौस ख़ान
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यही मुहब्बत है...

कड़ी धूप थी
आसमान से
शोले बरस रहे थे...
उसने कहा-
कितनी प्यारी खिली चांदनी है...
मैंने कहा-
बिल्कुल.
क्यूंकि
मुहब्बत में दिल की सुनी जाती है, ज़ेहन की नहीं
यही मुहब्बत है, मुहब्बत की रिवायत है...
-फ़िरदौस ख़ान
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मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है...हालांकि...आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है...मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समन्दर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है...इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है...बहुत अकेला...क्योंकि भौतिकतावाद ने 'अपनापन' जैसे जज़्बे को कहीं पीछे छोड़ दिया है...
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मेरे रात और दिन


नज़्म
मेरे
रात और दिन
काली डोरियों में पिरे
सुनहरे तावीज़ों की तरह हैं
जिनके
दूधिया काग़ज़ पर
जाफ़रानी धूप ने
रफ़ाक़तों से भीगे मौसम के
कितने ही नगमें लिख छोड़े हैं
और
इस तहरीर का
हर इक लफ्ज़
पल-दर-पल
यादों की किश्ती में बिठाकर
मुझे
मेरे माज़ी के जज़ीरे पर
ले चलता है
और मैं
उन गुज़श्ता लम्हों को
अपने मुस्तक़बिल की किताब में
संजोने के सपने देखने लगती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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वो जुस्तजू, वो मोड़, वो जंगल नहीं रहा



जूड़े में फूल आंखों में काजल नहीं रहा
मुझसा कोई भी आपका पागल नहीं रहा

ताज़ा हवाओं ने मेरी ज़ुल्फ़ें तराश दीं
शानों पे झूमता था वो बादल नहीं रहा

मुट्ठी में क़ैद करने को जुगनू कहां से लाऊं
नज़दीक-ओ-दूर कोई भी जंगल नहीं रहा

दीमक ने चुपके-चुपके वो अल्बम ही चाट ली
महफूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा

मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा

'फ़िरदौस' मैं यक़ीं से सोना कहूं जिसे
ऐसा कोई भी मुझसा क़ायल नहीं रहा
-फ़िरदौस ख़ान
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जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में...


किसी को दुख नहीं होता, कहीं मातम नहीं होता
बिछड़ जाने का इस दुनिया को कोई ग़म नहीं होता

जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में
हर इक क़तरा मेरी जां क़तरा-ए-शबनम नहीं होता

हम इस सुनसान रस्ते में अकेले वो मुसाफिर हैं
हमारा अपना साया भी जहां हमदम नहीं होता

चरागे-दिल जला रखा है हमने उसकी चाहत में
हज़ारों आंधियां आएं, उजाला कम नहीं होता

हर इक लड़की यहां शर्मो-हया का एक पुतला है
मेरी धरती पे नीचा प्यार का परचम नहीं होता

हमारी ज़िन्दगी में वो अगर होता नहीं शामिल
तो ज़ालिम वक़्त शायद हम पे यूं बारहम नहीं होता

अजब है वाक़ई 'फ़िरदौस' अपने दिल का काग़ज़ भी
कभी मैला नहीं होता, कभी भी नम नहीं होता
-फ़िरदौस ख़ान
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ये चांद की बातें, वो रफ़ाक़त की कहानी


हर बात यहां ख़्वाब दिखाने के लिए है
तस्वीर हकीक़त की छुपाने के लिए है

महके हुए फूलों में मुहब्बत है किसी की
ये बात महज़ उनको बताने के लिए है

चाहत के उजालों में रहे हम भी अकेले
बस साथ निभाना तो निभाने के लिए है

माज़ी के जज़ीरे का मुक़द्दर है अंधेरा
गुज़रा हुआ लम्हा तो रुलाने के लिए है

ये चांद की बातें, वो रफ़ाक़त की कहानी
आंगन में सितारों को बुलाने के लिए है

चाहत, ये मरासिम, ये रफ़ाक़त, ये इनायत
इक दिल में किसी को ये बसाने के लिए हैं

'फ़िरदौस' शनासा हैं बहारों की रुतें भी
मौसम ये ख़िज़ां का तो ज़माने के लिए है
-फ़िरदौस ख़ान
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गुलमोहर के दहकते फूल

सुलगती दोपहरी में
खिड़की से झांकते
गुलमोहर के
दहकते फूल
कितने अपने से
लगते हैं...
बिल्कुल
हथेलियों पर लिखे
'नाम' की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरा महबूब

नाम : बहारों का मौसम
तअरुफ़ : मेरा महबूब
ज़बान : शहद से शीरी
लहजा : झड़ते फूल
पता : फूलों की वादियां
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तन्हाई का मौसम...

जब
ज़िन्दगी की वादियों में
तन्हाई का मौसम हो
और
अरमान
पलाश से दहकते हों...
तब
निगाहें
तुम्हें तलाशती हैं...
और
हर सांस
तुमसे मिलने की दुआ करती है
-फ़िरदौस ख़ान
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नाम अपना आइना रख लूंगी मैं...


ज़िन्दगी को ज़िन्दगी समझूंगी मैं
आप कहते हैं तो फिर जी लूंगी मैं

जब सर तस्लीम खुम कर दिया
ना नहीं, हां बोलूंगी मैं

गर नहीं है आपको जूड़ा पसंद
इन घटाओं को खुला रखूंगी मैं

आप अगर यूं ही मुझे तकते रहे
नाम अपना आइना रख लूंगी मैं

लब हिलने की ज़रूरत ही नहीं रही
आपके चहरे से सब पढ़ लूंगी मैं

मैंने जो चाहा हासिल तो किया
और क्या 'फ़िरदौस' अब चाहूंगी मैं
-फ़िरदौस ख़ान
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तू मेरे गोकुल का कान्हा...

तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
-फ़िरदौस ख़ान
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चाहत का गुलाल

फागुन की मादक बेला में
सुर्ख़ पलाश दहकता है...
और
ज़िन्दगी के रुख्सारों पर
चाहत का गुलाल
महकता है...
-फ़िरदौस ख़ान
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इंतज़ार

मेरे महबूब
तुम्हारे इंतज़ार ने
उम्र के उस मोड़ पर
ला खड़ा किया है
जहां से
शुरू होने वाला
एक सफ़र
सांसों के टूटने पर
ख़त्म हो जाता है
लेकिन-
फिर यहीं से
शुरू होता है
एक दूसरा सफ़र
जो हश्र के मैदान में
जाकर ही मुकम्मल होता है...
इश्क़ के इस सफ़र में
मुझे ही तय करना है
फ़ासलों को
ज़िन्दगी में भी
और
ज़िन्दगी के बाद भी
तुम्हारे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान
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इश्क़ का घूंट

एक कप कॉफ़ी...
जिसका एक घूंट
उसने पिया
और एक मैंने
लगा-
कॉफ़ी नहीं
इश्क़ का घूंट
पी लिया है मैंने...
-फ़िरदौस ख़ान
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नए साल की दिली मुबारकबाद


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