ये लखनऊ की सरज़मीं ...




-फ़िरदौस ख़ान
लखनऊ कई बार आना हुआ. पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान...और फिर यहां समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद. हमें दावत दी गई थी कि हम अखिलेश यादव की ताजपोशी के मौक़े पर मौजूद रहें और जश्न में भी शिरकत करें. बहरहाल, एक सुबह हमने दिल्ली से लखनऊ के लिए उड़ान भरी और क़रीब एक घंटे बाद हम इस प्यारी धरती पर थे... हमारे पास वक़्त बहुत काम था, लेकिन काम बहुत ज़्यादा...अगले रोज़ हमें वापस दिल्ली पहुंचना था...इस दौरान हमने अपने काम निपटाए और फिर कुछ वक़्त निकालकर बाज़ार की राह पकड़ी...वाक़ई बहुत अच्छा है यह शहर...इतना अच्छा कि कोई भी यहां बस जाना चाहेगा... लखनऊ में बहुत अच्छा वक़्त गुज़रा...इतनी पुरख़ुलूस मेहमान नवाज़ी कि हम कभी इसे भूल ही नहीं पाएंगे... रहने के लिए शानदार जगह और घूमने के लिए महंगी गाड़ी... साथ में सुरक्षा गार्ड...लगा कि हम उत्तर प्रदेश सरकार की ही कोई वज़ीर हैं...हा हा हा...

नवाबों का शहर लखनऊ अपनी तहज़ीब के लिए जाना जाता है. इसे पूरब की स्वर्ण नगरी और शिराज-ए-हिन्द भी कहा जाता है. शहर के बीच से गोमती नदी बहती है. लखनऊ जिस इलाक़े में आता है, उसे अवध के नाम से जाना जाता है. लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था. यह राम की विरासत थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को सौंप दिया था. लक्ष्मण के नाम पर इसका नाम लक्ष्मणावती पड़ गया. बाद में इसे लक्ष्मणपुर कहा जाने लगा. इसके बाद इसे लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया. यहां से अयोध्या भी महज़ 80 मील की दूरी पर है.

लखनऊ के बारे में एक और कहानी बताई जाती है, जिसके मुताबिक़ इस शहर का नाम लखन क़िले के कारीगर लखन अहीर के नाम पर रखा गया है. फ़िलहाल हम जिस लखनऊ को देख रहे हैं, जान रहे हैं, उसकी बुनियाद अवध के नवाब आसफ़-उद्दौला ने 1775 में रखी थी. वह  अवध के नवाब शुजाउद्दौला के बेटे थे. अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया,  लेकिन बाद के नवाबों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. नतीजा यह हुआ कि लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध पर क़ब्ज़ा कर इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया. 1850 में अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली और इसी के साथ लखनऊ के नवाबों का शासन ख़त्म हो गया.

इसके बाद 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एंड अवध कर दिया गया. आम बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया. फिर 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया. राज्य का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गई. आज़ादी के बाद 12 जनवरी, 1950 को इस इलाक़े का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना.

पुराने लखनऊ में चौक का बाज़ार अहम है. यह चिकन के कारीगरों और बाज़ारों के लिए मशहूर है.  चिकन के कपड़े और लज़ीज़ मिठाइयों के लिए लखनऊ में इससे अच्छी जगह नहीं मिलेगी. इसी चौक में नक्खास बाज़ार भी है. यहां का अमीनाबाद दिल्ली के चांदनी चौक की याद दिला देता है. यह बाज़ार शहर के बीचोबीच है. यहां थोक का सामान, सजावटी सामान, ज़ेवरात और कपड़े वगैरह मिलते हैं. दिल्ली में जो दर्जा कनॉट प्लेस को हासिल है, वही मुक़ाम लखनऊ में हज़रतगंज का है. यहां ख़ूब चहल-पहल रहती है. उत्तर प्रदेश का विधानसभा भवन भी इसी इलाक़े में है. इसके अलावा लाल बाग़, बेगम हज़रत महल पार्क,  कैथेड्रल चर्च, चिड़ियाघर, उत्तर रेलवे का मंडलीय रेलवे कार्यालय, मुख्य डाकघर,  पोस्टमास्टर जनरल कार्यालय, परिवर्तन चौक वगैरह भी यहां हैं. इनके अलावा निशातगंज, डालीगंज, सदर बाज़ार, बंगला बाज़ार, नरही, केसर बाग़ भी यहां के बड़े बाज़ारों में शामिल हैं.

चिकन लखनऊ की कशीदाकारी का बेहतरीन नमूना है. लखनवी ज़रदोज़ी यहां का लघु उद्योग है. ज़रदोज़ी फ़ारसी ज़बान का लफ़्ज़ है, जिसका मतलब है सोने की कढ़ाई. यह कढ़ाई हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में प्रचलित है. मुगल बादशाह अकबर के दौर में ज़रदोज़ी और समृद्ध हुई, लेकिन बाद में शाही संरक्षण की कमी और औद्योगिकरण के दौर में इसकी चमक मांद पड़ने लगी. मौजूदा दौर में इसका चलन फिर से बढ़ गया और इसकी चमक हिन्दुस्तान से लेकर विलायत तक झिलमिलाने लगी. लखनऊ के अलावा भोपाल और चेन्नई आदि कई शहरों में भी चिकन का काम होता है. चिकन की तक़रीबन 36 शैलियां हैं,  मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि शामिल हैं. उस्ताद फ़याज़ खां और हसन मिर्ज़ा साहिब चिकन के मशहूर कारीगर थे. हमने यहां से अम्मी के लिए चिकन के सूट ख़रीदे और अपने लिए चिकन के सूटों के  अलावा ज़रदोज़ी के काम वाली लहंगा-चुन्नी ख़रीदी. यहां जो लहंगा- चुन्नी हमें 35 हज़ार में मिल गई, वो दिल्ली में 50 हज़ार में भी नहीं मिल पाती. अब कपड़ों के साथ चूड़ियां न ली जाएं, भला यह कैसे हो सकता है. हरी, नीली, पीली और  गुलाबी कांच की चूड़ियों के साथ सुनहरी और नुक़रई यानी चांदी रंग की चूड़ियां भी ग़ज़ब ढा रही थीं.चुनांचे  उन्हें भी ले ही लिया.        

लखनऊ का खाना भी लाजवाब है. पुरानी दिल्ली के खाने का ज़ायक़ा यहां आपको मिलेगा. सच पूछिए तो मुग़लई खाने की लज़्ज़त किसी और शैली के खाने में मिल ही नहीं सकती. बिरयानी, कबाब, कौरमा, क़ीमा, नाहरी, शीरमाल, ज़र्दा, शाही टुकड़े, नान और रुमाली रोटी के क्या कहने. वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुंडे के कबाब भी कम लज़ीज़ नहीं हैं. दिल्ली के दरयागंज के  कबाब के बाद यहीं के कबाब हमें पसंद आये. सईद साहब अकसर हमारे लिए लखनऊ से कबाब लेकर आते हैं. खाने के साथ, चाट, मिठाई और पान का ज़िक्र न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. यहां की मिठाइयों में जितनी लज़्ज़त है, उतनी ही चटपटी चाट भी है. पान के तो क्या कहने, हम सादा पान ही खा लेते हैं, कभी-कभार इसलिए बाक़ी पान के ज़ायक़ों के बारे में क्या कहें.

लखनऊ का ज़िक्र आते ही 1960 में गुरुदत्त फिलम्स के बैनर तले बनी फ़िल्म चौदहवीं का चांद का एक गीत याद आ जाता है, जो लखनऊ की तहज़ीब पर रचा गया था. मशहूर शायर शकील बदायूंनी के  लिखे इस गीत को मुहम्मद रफ़ी साहब ने गाया था, जिसके बोल हैं-
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क़ का वतन
यही तो वो मुक़ाम है
जहां अवध की शाम है
जवां-जवां हसीं- हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं 


शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये अहल-ए-इल्म का नगर
है मंज़िलों की गोद में
यहां हर एक रहगुज़र
ये शहर लालदार है
यहां दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली-कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं ...


यहां की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर अहल-ए-दिल यहां 
ग़रीब जां-निसार हैं
हर एक शाख़ पर यहां
हैं बुलबुलों के चह चहे
क़दम-क़दम पे कहकहे
हर एक नज़ारा दिलनशीं 
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहां के दोस्त बावफ़ा
मोहब्बतों से आशना
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबां भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती को यक़ीन 
ये लखनऊ की सरज़मीं ...               
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