सुर्ख़ गुलाबों का दिन...


मेरे महबूब! 
आज रोज़ डे है... सुर्ख़ गुलाबों का दिन...महकती यादों का दिन...सोचती हूं कि तुम्हें गुलाब कैसे भेजूं...तुम तो बहुत दूर हो... शायद तुम्हें याद भी नहीं होगा कि आज रोज़ डे है...लेकिन मुझे तो याद है...आज का दिन...बहरहाल तुम्हारे हिस्से के गुलाब तो तुम्हें मिल ही जाएंगे... नेक दुआओं के साथ... हमें तो मिल ही चुके हैं हमारे गुलाब...तुम्हारी मुहब्बत के रूप में... 
मेरे महबूब... हम जानते हैं कि इस वक़्त हमसे ज़्यादा इस मुल्क को तुम्हारी ज़रूरत है...हम भले ही तुमसे दूर हैं, लेकिन रूहानी तौर पर हर वक़्त तुम्हारे साथ हैं...दुआ करते हैं कि तुम फ़तेह हासिल कर अपने घर लौटो...
 
करूं न याद अगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे
वो ख़ार-ख़ार है शाख़े-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूं  फिर भी गले लगाऊं उसे... 
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