सुनना...


आज के दौर में हर इंसान किसी न किसी बात को लेकर परेशान है... वो अपनी बात कहना चाहता है, लेकिन उसे सुनने वाला कोई नहीं है... कोई किसी के दुख नहीं सुनना चाहता, क्योंकि उसकी अपनी परेशानियां है... दूसरों के दुख, उनकी तकलीफ़ें सुनकर वो अपने सर में दर्द नहीं करना चाहता...
ऐसे में हर इंसान इसी तलाश में रहता है कि उसे कोई ऐसा मिल जाए, जिससे वो अपनी बात कह सके... हमारी एक हमसाई हैं... उनकी अपनी बहुत सी घरेलू परेशानियां हैं... बहुत परेशान रहती हैं... अकसर उनकी किसी न किसी से लड़ाई होती रहती है... वजह है, वो परेशानियां, जिनका ज़िक्र वो किसी से नहीं कर पातीं और अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं...
एक दिन हमने उनसे कहा कि आप अपनी हर बात हमसे कह लिया करें, तब से वो अपनी बातें हमसे शेयर करनी लगीं... अकसर वो कहतीं कि आज ’उनसे’ बात करके ही रहूंगी, चाहे जो हो जाए... हमने उनसे कहा कि अंकल थके हुए घर आते हैं. आप उनसे लड़ाई-झगड़े की बातें करेंगी, तो वो आपसे दूर होने लगेंगे... बेहतर है कि घरेलू और रिश्तेदारों के झगड़े आप ख़ुद ही सुलझाएं... सबसे अच्छा ये है कि आप उन लोगों और उनकी बातों को नज़र अंदाज़ करें, जिनका मक़सद आपको तकलीफ़ देना है... जब वो लोग देखेंगे कि उनकी किसी बात से आपको तकलीफ़ ही नहीं हो रही है, तो वो आपको तकलीफ़ देना छोड़ देंगे... आप उन लोगों पर अपना वक़्त और अपने जज़्बात क्यों ज़ाया करती हैं, जो आपको रुलाते हैं... बेहतर है कि आप अपना वक़्त और जज़्बात उन लोगों पर निसार करें, जो आपसे मुहब्बत करते हैं, आपकी परवाह करते हैं...
दरअसल,किसी भी रिश्ते के लिए एक अच्छा श्रोता होना बहुत ज़रूरी है...
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सफ़ेदी से दमकती दिवालें


आंगन की दिवालों को चूने से पोता गया है...
हमारा 'माज़ी' अब भी हमारे 'आज' से वाबस्ता है... भले ही पूरे घर में एशियन पेंट हुआ हो, लेकिन घर का सबसे प्यारा हिस्सा सफ़ेदी से दमकता हुआ बहुत ही भला लग रहा है...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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मिट्टी के दिये

बचपन से ही दिवाली का त्यौहार मन को बहुत भाता है... दादी जान दिवाली की रात में मिट्टी के दीये जलाया करती थीं... घर का कोई कोना ऐसा नहीं होता था, जहां दियों की रौशनी न हो... हम भाई-बहन आतिशबाज़ी ख़रीद कर लाते... पटाख़े, अनार, फुलझड़ियां वग़ैरह-वग़ैरह... घर में खील, बताशे और मिठाइयां भी ख़ूब आतीं...

वक़्त गुज़रता गया... आतिशबाज़ी का मोह जाता रहा, लेकिन दियों से रिश्ता क़ायम रहा... हर बरस हम दिवाली पर बाज़ार से मिट्टी के दिये लाते हैं... दिन में उनमें पानी भरकर रख देते हैं... शाम में उनमें सरसों का तेल भरकर उन्हें रौशन करते हैं... अपनी दादी जान की ही तरह हम भी घर के हर गोशे में दिये रखते हैं...  पहला दीया घर की चौखट
पर रखते हैं... फिर आंगन में, कमरों में, ज़ीने पर, छत पर और मुंडेरों पर दिये रखते हैं...

अमावस की रात में आसमान में तारे टिमटिमा रहे होते हैं, और ज़मीन पर मिट्टी के नन्हे दिये रौशनी बिखेर रहे होते हैं...
मिट्टी के इन नन्हे दियों के साथ हमने अपनी अक़ीदत का भी एक दिया रौशन किया है...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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अक़ीदत के दिये...


मेरे महबूब
मेरी रूह में रौशन हैं
तुम्हारी मुहब्बत के दिये
जैसे
घर में के आंगन में
दमकते हैं
अक़ीदत के दिये...
-फ़िरदौस ख़ान
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