ज़िन्दगी में मुहब्बत का मौसम हो...


काश! कभी ऐसा हो...
ज़िन्दगी में
मुहब्बत का मौसम हो...

सुबहें
उम्मीद की किरनों से
रौशन हों...

दोपहरें
पलाश-वन सी
दहकी हों...

शामें
सुर्ख़ गुलाबों-सी
महकी हों...

और
रातें
मुहब्बत की चांदनी में
भीगी हों...

काश! कभी ऐसा हो...
ज़िन्दगी में
मुहब्बत का मौसम हो...
-फ़िरदौस ख़ान
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मरने वाले के नाम की जगह मेरा नाम लिखा होगा...

नज़्म
जब कभी
अख़बार में पढ़ती हूं
खुदकुशी की कोई ख़बर
तो अकसर
यह सोचने लगती हूं
क्या कभी ऐसा होगा
मरने वाले के नाम की जगह
मेरा नाम लिखा होगा
और
मौत की वजह 'नामालूम' होगी
क्या कभी ऐसा होगा...?
-फ़िरदौस ख़ान
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तुमको जब भी क़रीब पाती हूं

तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
निज़्द जाकर तेरे ख़्यालों के
मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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ज़िन्दगी अमावस की स्याह रात है

ज़िन्दगी
अमावस की
स्याह रात है
जिसमें
रौशन हैं
उम्मीदों के
हज़ारों दीये...

दुख और तकलीफ़ों का अंधेरा
कितना ही घना
क्यूं न हो...

एक न एक दिन
सुख और खुशियों
के उजाले को
ज़िन्दगी के आंगन में
छा ही जाना होता है
बिल्कुल
पहले पहर की
उजली धूप की तरह...
फ़िरदौस ख़ान
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फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में


जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बगैर कितने ज़माने गुज़र गए

फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह

मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा

आप अगर यूं ही मुझे तकते रहे
नाम अपना आइना रख लूंगी मैं

रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे
याद उस शख्स की हर रोज़ रुलाती है मुझे

देख लेना मेरी तक़दीर भी चमकेगी ज़रूर
मेरी आवाज़ से रौशन ये ज़माना होगा

जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन
हर इक क़तरा मेरी जां कतरा-ए-शबनम नहीं होता

आज अपनी पसंद के चंद अशआर पोस्ट कर रही हूं...उम्मीद करती हूं पढ़ने वालों को पसंद आएंगे...
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इस देस को 'फ़िरदौस' जफ़ाएं नहीं आतीं


ख़ुशहाल घरों में यूं बलाएं नहीं आतीं
भारत में मेरे जंग की हवाएं नहीं आतीं

ग़ुरबत में ग़रीबों का ये क्या हाल हुआ है
लाचार के होंठों पे दुआएं नहीं आतीं

सरकार बनाने से क़बल खाते हैं क़समें
पर सबको पता, इनको वफ़ाएं नहीं आतीं

बादल तो गरजते हैं, मगर ये भी हक़ीक़त
आंगन में ग़रीबों के घटाएं नहीं आतीं

आज़ाद वतन है मेरा आज़ाद फ़िज़ाएं
पर फिर भी सुरीली-सी सदाएं नहीं आतीं

दुनिया को सिखानी है, यही एक रिवायत
इस देस को 'फ़िरदौस' जफ़ाएं नहीं आतीं
-फ़िरदौस ख़ान
शब्दार्थ = गुरबत - ग़रीबी, सदाएं - आवाज़ें
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तुम क्यूं चले जाते हो, मुझसे दूर, बहुत दूर...

ऐ दोस्त !
तुम क्यूं चले जाते हो
मुझसे दूर, बहुत दूर...
अकसर
उस वक़्त
जब मुझे
तुम्हारी बहुत ज़रूरत होती है...
-फ़िरदौस ख़ान
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चैन कब पाया है मैंने ये न पूछो मुझसे

तेरी ख़ामोश निगाहों में अया होता है
मुझको मालूम है उल्फ़त का नशा होता है

मुझसे मिलता है वो जब भी मेरे हमदम की तरह
उसकी पलकों पे कोई ख़्वाब सजा होता है

चैन कब पाया है मैंने ये न पूछो मुझसे
मैं करूं शिकवा तो नाराज़ ख़ुदा होता है

हाथ भी रहते हैं साये में मेरे आंचल के
जब हथेली पे तेरा नाम लिखा होता है
-फ़िरदौस ख़ान
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मौसम बदलते रहते हैं...


वक़्त-दर-वक़्त
मौसम बदलते रहते हैं
मगर
नहीं बदलता
रोज़ी-रोटी के लिए
काम में जुटे रहने का सिलसिला...
-फ़िरदौस ख़ान
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गुलाब-सी महकी यादें




चंद यादें
ज़िन्दगी के आंगन में
खिले सुर्ख़ गुलाबों की तरह
होती हैं
जिनकी भीनी-भीनी ख़ुशबू
मुस्तक़बिल तक को महका देती है...
-फ़िरदौस ख़ान
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सहरा की धूप नज़र आती है ये हयात


पतझड़ में मुझको ख़ार का मौसम बहुत अज़ीज़
तन्हा उदास शाम का आलम बहुत अज़ीज़

छोटी-सी ज़िन्दगी में पिया है कुछ इतना ज़हर
लगने लगा है मुझको हर इक ग़म बहुत अज़ीज़

सहरा की धूप नज़र आती है ये हयात
जाड़ों की नरम धूप-सा हमदम बहुत अज़ीज़

सारी उम्र गुज़ारी है ख़ुदा ही के ज़िक्र में
मोमिन की नात में ढली सरगम बहुत अज़ीज़

सूरज के साथ-साथ हूं आशिक़ बहारे-गुल
सावन बहुत अज़ीज़, शबनम बहुत अज़ीज़
-फ़िरदौस ख़ान

शब्दार्थ
अज़ीज़ : प्रिय
हयात : ज़िन्दगी

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जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में


किसी को दुख नहीं होता, कहीं मातम नहीं होता
बिछड़ जाने का इस दुनिया को कोई ग़म नहीं होता

जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में
हर इक क़तरा मेरी जां कतरा-ए-शबनम नहीं होता

हम इस सुनसान रस्ते में अकेले वो मुसाफ़िर हैं
हमारा अपना साया भी जहां हमदम नहीं होता

चरागे-दिल जला रखा है हमने उसकी चाहत में
हज़ारों आंधियां आएं, उजाला कम नहीं होता

हर इक लड़की यहां शर्मो-हया का एक पुतला है
मेरी धरती पे नीचा प्यार का परचम नहीं होता

हमारी ज़िन्दगी में वो अगर होता नहीं शामिल
तो ज़ालिम वक़्त शायद हम पे यूं बारहम नहीं होता

अजब है वाक़ई 'फ़िरदौस' अपने दिल का काग़ज़ भी
कभी मैला नहीं होता, कभी भी नम नहीं होता
-फ़िरदौस ख़ान
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परंपरा में रहकर परंपरा से मुक्ति 'मेले में यायावर'

फ़िरदौस ख़ान
सीमा में रहते हुए असीम हो जाना और परंपरा का अनुगमन करते हुए परंपरा का अतिक्रमण कर जाना किसी चमत्कार के द्वारा ही संभव है, लेकिन डॉ. राम सनेही लाल शर्मा 'यायावर' के नवीनतम गीत संग्रह 'मेले में यायावर' से गुंजरते हुए यह अनुभूति पग-पग पर होती है. सुकीर्ति प्रकाशन कैथल से प्रकाशित उनका संग्रह 75 विविधवर्णी गीतों का गुलदस्ता है. गीत को अपना 'प्राण तत्व' अपनी 'ऊर्जा' और 'सर्वस्व' बताने वाले यायावर जी कई गीतों में परंपरागत कथ्य संसार और प्रचलित फार्मेट को अतिक्रमित करते दिखाई पडते हैं. कहीं वे छंद की छवि को तोडक़र नई लय-भंगिमा रच देते हैं और कहीं शब्दों के विचलनपरक प्रयोगों से नयी अर्थ-छवियों को जगा देते हैं. कहीं से विशुध्द परंपरागत गीतकार लगते हैं और कहीं शुध्द नवगीतकार. गीत भंगिमा का यही व्याप उन्हें गीतकारों से अलग करता है जहां-
-शैया पर अंगारे धरकर निंदा में नींद चुराई है
-कांधों पर घर है
-ये टूटी आस्थाओं वाले दरके दिन हैं
-जागरणों में हंसती रातें
-मौसम की सूखी टहनी पर फिर से वृंदावन चाहकेगा
-खेतों में उगती मिली अदावत की फ़सलें
-ढोंगी मुस्कानें
-कुंठाएं आकर लगी बैठने सिरहाने ले चली उदासी कान पकड़कर मैख़ाने
-कलह यहां कजरी गाती है गाता वैर मल्हारें
-हिंसक होकर प्रश्न अड़े हैं उत्तर सहमे हुए खड़े हैं
-पीड़ाएं हो गईं सयानी
-ले नपुंसक क्रोध भटके नौजवानी
-अब संबंधों के हर गमले में उगती है बस नागफनी
-कुछ मार रहे हैं अपने 'मैं' को कुछ हैं जिनको मारा मैं ने
-हर आंगन में छत से ऊंची तनी हुई मीनारें
जैसी अभिव्यक्तियां उन्हें गीत का पांक्तेय गीतकार ही सिध्द नहीं करतीं अपितु उनका शब्द-सामर्थ्य, शिल्प-कौशल और पुरातन शब्दों को ही अभिनव अर्थ गरिमा प्रदान करने की क्षमता का उद्धोष भी करती हैं.
डॉ. यायावर के गीतों का कथ्य-संसार बहु आयामी है. वे दर्शन की दुरूहता को गीत की स्नेहिल तरलता सौंपने में सिध्दहस्त हैं. इसलिए उनके गीतों में कहीं जीवन 'वृंदावन का रास' है और कहीं 'भागती हुई एक्सप्रैस गाडी', कहीं वह 'सागर की सीपी' है और कहीं 'मरूथल में अपनी गंध से विभ्रमित दौडते मृग की भटकन'. कभी डॉ. यायावर 'मंजुललित कोमल ललाम' कवि विद्यापतिको प्रणाम करते हैं और कभी मातृभूमि की महिमामयी गरिमा को मस्तक झुकाते हैं, लेकिन युग का जटिल यथार्थ, मूल्यों का धू-धूकर जलता लाक्षागृह, सांस्कृतिक प्रदूषण की धिक्कृत अवस्था नगरों का स्वार्थ रंजित, उपयोगितावाद, गांव की दरकती हुई 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है' वाली परंपरागत छवि तथा भारत की शस्य श्यामला धरती की हरियाली को चरने वाला डंकल उनकी 'तीसरी आंख' से ओझल नहीं है तभी तो वे-
बांचते हैं गीध अब पावन ऋचायें
पढ़ रहे हैं काक पौराणिक कथायें
जैसी पंक्तियों से राजनीतिक विद्रूपता और नायकों के प्रतिनायकों में बदल जाने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करते हैं.
और कभी-
लाठी चला रही जूते से
सरपंची कानून
मुखिया के बेटे से बड़ा
न कोई अफलातून
जैसी अभिव्यक्तियां से गांव के नंगे सच को रेखांकित कर रहे होते हैं. लोक संस्कृति से डॉ. यायावर को गहरा आत्मिक लगाव है इसीलिए वे शहरों के भस्मासुरी उदर में समाती पगडंडियों, पनघटों और चौपालों की व्यथा से पीडित हैं. साथ ही महानगर के प्रतीकों शोर, उन्माद, पोस्टर, ढोंग, बोरियत और काफीघर को भूल भुलैया कहकर उससे बाहर निकलने को अकुलाते हैं.
डॉ. यायावर अपने व्यष्टि को समष्टि की चिंता में विलीन करने की कला जानते हैं इसीलिए जब वे अपने बेटे को या पोती को संबोधित कर रहे होते हैं तब भी क्रमश: युग के भयावह दोगलेपन या 'कविता के भविष्य' या 'भविष्य की कविता' को लेकर चिंता प्रकट कर रहे होते हैं.
डॉ. यायावर के गीतों में मिथकों का प्रयोग नई अर्थ छवियां पैदा करता है. बांसुरी, कृष्ण, राधा, गोपी, अर्जुन, वृंदावन, कुबरी, यशोदा, राम, सीता, शकुनि, धृतराष्ट्र, कुम्भकर्ण, मेघनाद तथा हनुमान आदि मिथकों को वे बिल्कुल नए तेवर में प्रयुक्त कर उन्हें युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति का वाहक बना देते हैं. उनकी प्रतीकात्मकता उच्च स्तरीय है उनके प्रतीक जाने पहचाने हैं, लेकिन उनसे अभिव्यक्त अर्थ बिल्कुल भिन्न प्रकार का है. जंगल, अमराई, नदी, नाव, घाट, सूर्य, चंद्रमा, पगडंडी, पनघट, काफीघर, चिमनी, काक, गीध, कबीर, प्रश्न, उत्तर, मेघदूत, यक्ष, चौपाल, खेत, मेंड, फ़सल, पायल, चूनर आदि नितांत परिचित प्रतीक हैं, लेकिन इनके द्वारा होने वाला अर्थाभिव्यंजन नितांत नवीन है. गीतकार भाषा के स्तर पर ही नयापन नहीं करता छांदसिक संरचना में भी नवीनता उत्पन्न करता है मसलन उनके एक गीत का धु्रवपद व अंतरा देखें-
ज्वालामुखी दबाकर उर में बूंद-बूंद पडता है गलना
बेटे! बहुत संभलकर चलना
आपाधापी वाला यह युग जराजीर्ण है
जीवन का पथ सरल नहीं कंट काकीर्ण है
तापमान बढ़ रहा धरा कासपने नित्य जला करते हैं
गैरों से अपनापन मिलता अपने यहां छला करते हैं
छल के हाथों से छल जाना किंतु किसी को कभी न
यहां धु्रवपद की पहली पंक्ति 32 मात्रा की है. फिर 16 मात्रा की अध्र्दाली है. अंतरे की पहली व दूसरी पंक्ति 24-24 मात्रा की है. तीसरी, चौथी व पांचवीं पंक्तियां 32-32 मात्रा की हैं. पांचवीं पंक्ति के अध्र्दाश से तुक मिलती है, लेकिन एक ही अंतरे में छंद का यह वैविध्य होते हुए भी कवि ने यहां लय-भंग नहीं होने दी है, न पाठक इस छंद परिवर्तन को समझ जाता है. यही यायावर जी की कुशलता है.
ये गीत कवि के जीवन, जगत व ईश्वर के प्रति आस्था के सूचक हैं. मुख्य पृष्ठ उत्तम कोटि का है. प्रभावी है व शीर्षक को सार्थक करता है, लेकिन प्रूंफ की भूलें यत्र तत्र रह गई हैं. फिर भी यह गीत संग्रह गीत-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा, ऐसी उम्मीद है.
समीक्ष्य कृति : मेले में यायावर (गीत संग्रह)
कृतिकार : डॉ. राम स्नेही लाल शर्मा
पृष्ठ : 128
मूल्य : 100 रुपए
प्रकाशन : 2007
प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन
करनाल रोड, कैथल-136027
(हरियाणा)

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माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं


होठों पे नरम धूप सजाते रहे हैं हम
आंखों में जुगनुओं को छुपाते रहे हैं हम

माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम

हक़ दोस्ती का यूं तो अदा हो नहीं सका
ख़ुद को मगर ज़रूर मिटाते रहे हैं हम

ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
राहे-वफ़ा जहां को दिखाते रहे हैं हम

भूली हुई गली में वो शायद कि आ ही जाए
इस आस में चराग़ जलाते रहे हैं हम

दो पल की ज़िन्दगी की ख़ुशी के लिए सदा
'फ़िरदौस' आंसुओं में नहाते रहे हैं हम
-फ़िरदौस ख़ान
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अब ख़्वाब भी नींदों में सताने नहीं आते


होंठों पे मुहब्बत के तराने नहीं आते
जो बीत गए फिर वो ज़माने नहीं आते

हल कोई जुदाई का निकालो मेरे हमदम
अब ख़्वाब भी नींदों में सताने नहीं आते

बादल तो गरजते हैं, मगर ये भी हकीक़त
आंगन में घटा बनके वो छाने नहीं आते

क़दमों में बहारें तो बहुत रहती हैं लेकिन
'फ़िरदौस' को ये रास ख़ज़ाने नहीं आते
-फ़िरदौस ख़ान
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बारिश में भीगती है कभी उसकी याद तो

नगमें रफ़ाक़तों के सुनाती हैं बारिशें
अरमान ख़ूब दिल में जगाती हैं बारिशें

बारिश में भीगती है कभी उसकी याद तो
इक आग-सी हवा में लगाती हैं बारिशें

मिस्ले-धनक जुदाई के ल्म्हाते-ज़िंदगी
रंगीन मेरे ख़्वाब बनाती हैं बारिशें

ख़ामोश घर की छत की मुंडेरों पे बैठकर
परदेसियों को आस बंधाती हैं बारिशें

जैसे बगैर रात के होती नहीं सहर
यूं साथ बादलों का निभाती हैं बारिशें

सहरा में खिल उठे कई महके हुए चमन
बंजर ज़मीं में फूल खिलाती हैं बारिशें

'फ़िरदौस' अब क़रीब मौसम बहार का
आ जाओ कब से तुमको बुलाती हैं बारिशें
- फ़िरदौस ख़ान
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उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए...


कुछ ख़्वाब इस तरह से जहां में बिखर गए
अहसास जिस कद्र थे वो सारे ही मर गए

जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए

माज़ी किताब है या अरस्तु का फ़लसफ़ा
औराक़ जो पलटे तो कई पल ठहर गए

कब उम्र ने बिखेरी है राहों में कहकशां
रातें मिली स्याह, उजाले निखर गए

सहरा में ढूंढते हो घटाओं के सिलसिले
दरिया समन्दरों में ही जाकर उतर गए

कुछ कर दिखाओ, वक़्त नहीं सोचने का अब
शाम हो गई तो परिंदे भी घर गए

'फ़िरदौस' भीगने की तमन्ना ही रह गई
बादल मेरे शहर से न जाने किधर गए

-फ़िरदौस ख़ान
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तुम्हारे इंतज़ार में...


मैंने
कितने ही ख़त लिखे
तुम्हें बुलाने के लिए
मगर
तुम न आए
तुम्हारे इंतज़ार से ही
मेरी सहर की इब्तिदा होती
दोपहर ढलती
और फिर
शाम की लाली की तरह
तुमसे मिलने की
मेरी ख़्वाहिश भी शल हो जाती
सारे अहसासात दम तोड़ चुके होते
लेकिन
उम्मीद की एक नन्ही किरन
मेरी उंगली थामकर
मुझे, रात की तारीकियों से दूर, बहुत दूर...
दिन के पहले पहर की चौखट तक ले आती
और फिर
मेरी नज़रें राह में बिछ जातीं
तुम्हारे इंतज़ार में...
-फ़िरदौस ख़ान
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तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं...

तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं
क्यूंकि
तुम्हारी तहरीर का
हर इक लफ़्ज़
डूबा होता है
जज़्बात के समंदर में
और मैं
जज़्बात की इस ख़ुनक (ठंडक ) को
उतार लेना चाहती हूं
अपनी रूह की गहराई में
क्यूंकि
मेरी रूह भी प्यासी है
बिल्कुल मेरी तरह
और ये प्यास
दिनों या बरसों की नहीं
बल्कि सदियों की है
तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं
क्यूंकि
तुम्हारी तहरीर का
हर इक लफ़्ज़
अया होता है
उम्मीद की सुनहरी किरनों से
और मैं
इन किरनों को अपने आंचल में समेटे
चलती रहती हूं
उम्र की उस रहगुज़र पर
जो हालात की तारीकियों से दूर
बहुत दूर जाती है
सच !
तुम्हारे ख़त मुझे बहुत अच्छे लगते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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बिन सावन के बरसा

बिन सावन के बरसा फिर इक तन्हा बादल
किसकी आंखों का भीग गया है काजल

आंगन में आने की इक हल्की सी आहट
दिल धड़काती है, कांप उठा पलकों का पट
छूट गया फिर तन से भीगा-भीगा आंचल
बिन सावन के बरसा फिर इक तन्हा बादल

रस्ता किसका तकता है मन का सूनापन
कंगन रूठा, रूठ गई पायल की छन-छन
तन में शूल चुभाए झोंका बैरन शीतल
बिन सावन के बरसा फिर इक तन्हा बादल
-फ़िरदौस ख़ान
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सजी फूलों से राहें


आज बिखरे हैं मेरी क़िस्मत के सितारें कितने
कल तलक थे मेरी मुट्ठी में सहारे कितने

यूं भी दिन गुज़रे सजी फूलों से राहें, लेकिन
घर में बसते रहे हर सिम्त शरारे कितने

फिर बहार आई जो महकी है रफ़ाकत उसकी
देखना इसमें छुपे ख़्वाब हमारे कितने

चाह क़ुर्बत की लिए लोग भटकते हैं
कर रहे मील के पत्थर भी इशारे कितने

भीड़ ही भीड़ यहां हसरतों की किश्ती में
नाख़ुदा तूने यहां लोग उतारे कितने

सब पहुंच जाएंगे मंज़िल, भरोसा तो रखो
एक ही दरिया के होते हैं किनारे कितने

कौन अब वादिये-फ़िरदौस तेरी सैर करे
रूठते जा रहे हैं झीलों के नज़ारे कितने
-फ़िरदौस ख़ान

शब्दार्थ
शरारे=शरारे
क़ुर्बत=नज़दीकी
वादिये-फ़िरदौस= कश्मीर
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हाथों में कैसे ये मेहंदी रचा लूं

इन आंखों में सूरत तुम्हारी बसा लूं
सफ़र आख़िरी है चलो मैं विदा लूं

ख़फ़ा ज़िन्दगी का हर इक रंग मुझसे
तो हाथों में कैसे ये मेहंदी रचा लूं

बहुत दूर मंज़िल तो राहें अंधेरी
अब ऐसे में यादों की शम्में जला लूं

ये मंज़र तो अब मुझसे देखें न जाएं
मैं दुख-दर्द दुनिया के दिल में छुपा लूं

हर इक लम्हा जब मौत सिर पर खड़ी है
तो क्या ज़िन्दगी से मैं अहदे-वफ़ा लूं

ये आंखें तो 'फ़िरदौस' सूनी रहेंगी
अगर ज़वरों से मैं ख़ुद को सजा लूं
-फ़िरदौस ख़ान
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आहटें धूप की


ज़ुल्मतें जब भी मेरे घर से गुज़र जाएंगी
आहटें धूप की आंगन में उतर जाएंगी

रहगुज़ारों में अगर उम्र को भटकाओगे
हसरतें ख़्वाब के जंगल में बिखर जाएंगी

मौसम-ए-ख़ार में कलियां जो हुईं अफ़सुर्दा
चांदनी बनके बहारों में निखर जाएंगी

हर तरफ़ आग और सहरा का अजब मंज़र है
बदलियां बनके घटा किसके नगर जाएंगी

तोड़ न देना परिंदों के बसेरे फिर से
ख़्वाहिशें उड़ने की बेचारों की मर जाएंगी

दास्तां माज़ी की पूछो न, तो बेहतर होगा
बूंदें शबनम की लबे-गुल से बिखर जाएंगी

याद आएंगे फ़िरदौस के गुज़रे लम्हे
तितलियां वक़्त की कुछ और संवर जाएंगी
-फ़िरदौस ख़ान

शब्दार्थ
फ़िरदौस - जन्नत, स्वर्ग
अफ़सुर्दा - उदास
माज़ी - अतीत
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सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे

मुस्कराते रहे, ग़म उठाते रहे
सरफ़रोशी के हम गीत गाते रहे

रोज़ बसते नहीं हसरतों के नगर
ख़्वाब आंखों में फिर भी सजाते रहे

रेगज़ारों में कटती रही ज़िन्दगी
ख़ार चुभते रहे, गुनगुनाते रहे

ज़िन्दगीभर उसी अजनबी के लिए
हम भी रस्मे-दहर को निभाते रहे
-फ़िरदौस ख़ान
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तुम हो महबूब मेरे...

तुम हो महबूब मेरे तुमको बताऊं कैसे
बेक़रारी तुम्हें दिल की दिखाऊं कैसे

ज़िन्दगी में मेरी कांटों के सिवा कुछ भी नहीं
फूल राहों में तुम्हारी मैं बिछाऊं कैसे

तेरे नग़में मेरी इक उम्र का सरमाया हैं
अपनी यादों से भला इनको मिटाऊं कैसे

दरो-दीवार पे छाई हुई ख़ामोशी है
घर के आंगन में बहारों को बुलाऊं कैसे

जुस्तजू फिर मुझे सहराओं में ले आई है
वक़्त की तल्ख़ियों से ख़ुद को बचाऊं कैसे

मुझको मालूम है हर ख़्वाब की ताबीर नहीं
अपनी पलकों पे सदा इनको सजाऊं कैसे

फिर स्याह रात किनारों पे उतर आई है
बीच तूफ़ां के चराग़ों को जलाऊं कैसे
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरा साथ निभाना होगा...


सामने ग़ैर के हंसते हुए आना होगा
ऐ मेरे दर्द, मेरा साथ निभाना होगा

देख लेना मेरी तक़दीर भी चमकेगी ज़रूर
मेरी आवाज़ से रौशन ये ज़माना होगा

बेख़्याली में तुझे देख लिया था यूं ही
मुझको मालूम न था दिल ये दिवाना होगा

तेरी यादों का कफ़न ओढ़ के सो जाऊंगी
दफ़न होकर भी मुझे प्यार निभाना होगा
-फ़िरदौस ख़ान
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लुत्फ़ जब भी किसी मंज़र का उठाया हमने...

लुत्फ़ जब भी किसी मंज़र का उठाया हमने
दिल को बेचैन-सा वीरान सा पाया हमने

आज फिर याद किया धूप में जलकर उसको
आज फिर छत पे वही ख़्वाब बुलाया हमने

हादसा आज अचानक वही फिर याद आया
कितनी मुश्किल से जिसे दिल से भुलाया हमने

नर्म झोंके की तरह दिल को जो छूकर गुज़रा
ग़म उसी शख्स का ताउम्र उठाया हमने

जिसको ठुकरा दिया 'फ़िरदौस' जहां ने, उसको
अपने गीतों में सदा ख़ूब सजाया हमने
-फ़िरदौस ख़ान
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याद उस शख़्स की...


रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे
याद उस शख़्स की हर रोज़ रुलाती है मुझे

ख़्वाब जब सच के समन्दर में बिखर जाते हैं
उम्र तपते हुए सहरा में सजाती है मुझे

ज़िन्दगी एक जज़ीरा है तमन्नाओं का
धूप उल्फ़त की यही बात बताती है मुझे

हर तरफ़ मेरे मसाइल के शरार बरपा हैं
जुस्तजू अब्र की हर लम्हा बुलाती है मुझे

में संवरने की तमन्ना में बिखरती ही गई
आंधियां बनके हवा ऐसे सताती है मुझे

जब से क़िस्मत का मेरी रूठ गया है सूरज
तीरगी वक़्त की हर रोज़ डराती है मुझे

आलमे-हिज्र में 'फ़िरदौस' खो गई होती
चांदनी रोज़ रफ़ाक़त की बचाती है मुझे
-फ़िरदौस ख़ान
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मरने के हमेशा ही बहाने नहीं आते

होठों पे मुहब्बत के तराने नहीं आते
जो बीत गए फिर वो ज़माने नहीं आते

आज़ाद वतन है, इसे आज़ाद रखेंगे
मरने के हमेशा ही बहाने नहीं आते

इस देश की इज़्ज़त है तिरंगा ये हमारा
रंग इसके निगाहों में बसाने नहीं आते

बातें तो बहुत करते हैं, ये अहले-सियासत
उजड़ी हुई बस्ती को बसाने नहीं आते

पत्थर को भी हमने दिया भगवन का दर्जा
दुश्मन के भी दिल, हमको दुखाने नहीं आते
-फ़िरदौस ख़ान
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रोटी और चांद

रात के सन्नाटे में
एक लम्बी, पतली
स्याह सड़क
नागिन की तरह
बल खाती हुई
दिखाई देती है
दूर, बहुत दूर...
सड़क के एक छोर पर
खड़े पेड़ के नीचे
एक बच्चा
'रोटी-रोटी' चिल्ला रहा है
एक रोटी के लिए
भूख से बेहाल
कभी नोंचता है
मां के बिखरे हुए बाल
तो कभी
उसके आंचल का
फटा पुराना पल्लू
चबाने लगता है
ढकने की पूरी कोशिश की है
भूख न मिटने की हालत में
मां को जड़ देख
वो हाथ बढ़ाता है
दूर आसमान में
सितारों के बीच
चमकते चांद की तरफ़
अपने नन्हें हाथों से
ताली बजाता है
मानो
उसकी चाह
पूरी हो गई हो
उसे रोटी दिख गई हो
फिर वो चांद पकड़ने की
नाकाम कोशिश करता है
बच्चे के मासूम चेहरे को देख
मां के सब्र का बांध
टूट जाता है
और आंखों से
बहने लगती है
गंगा-जमना
कोसती है वो ख़ुद को
अपनी बदकिस्मती को
ग़रीबी को
अपनी मजबूरी को
फिर उसकी नज़र
जा टिकती है चांद पर
पूछती है ख़ुद से
रोटी और चांद में अंतर
आख़िर में
दोनों को ही
एक मान लेती है
क्यूंकि
दोनों ही तो
उससे दूर है, बहुत दूर...
-फ़िरदौस ख़ान

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तुम्हारे लिए...


मैं अकसर सोचती हूं
तुम्हारे लिए
एक गीत लिखूं
आसमान के काग़ज़ पर
चांदनी की रौशनाई से
मगर
मेरे जज़्बात के मुक़ाबिल
हर शय छोटी पड़ जाती है
इस कायनात की...
-फ़िरदौस ख़ान
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हमसफ़र


हमसफ़र
कहने को
महज़ एक लफ्ज़ है
लेकिन
इसमें छुपी हैं
दो धड़कते जवां दिलों की
कितनी ही उमंगें, ख़्वाहिशें
और तमन्नाएं
जिनके सहारे
इंसान
दुनिया की भूल-भूलैया में
कितनी ही दिक्क़तों को
झेलते हुए
आगे बढ़ जाता है
अपनी उस मंज़िल की चाह में
जिसके इंद्रधनुषी सपने
उसने संजोए हैं
बचपन से जवानी तक
या शायद
हसरतों के आखिरी लम्हे तक
मगर
कितना मुश्किल होता है
अपने ख्यालात, अपने अहसासात को
मुजस्सम करना
शायद
दो धड़कते जवां दिलों की इंतिहा
हमेशा
तड़पते रहने में ही है...
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरे महबूब


मेरे महबूब !
उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख़्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख़्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश  की है...

-फ़िरदौस ख़ानशब्दार्थ
परस्तिश---- पूजा
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