पैग़ाम-ए-मादर-ए-वतन का लोकार्पण


मेरठ में 14 मई 2008 को मासिक पैग़ाम-ए-मादर-ए-वतन का लोकार्पण करते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिज्ञ गुरु इन्देश कुमार व अन्य जानेमाने गण. साथ में हैं पत्रिका की सम्पादक फ़िरदौस ख़ान


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डालडा का डिब्बा हो


हमें बचपन की यादों से वाबस्ता हर चीज़ से निस्बत है, भले ही वह डालडा का डिब्बा हो. उस वक़्त ज़िन्दगी कितनी ख़ुशहाल थी. सर पर वालिदैन का साया जो था. 
-फ़िरदौस ख़ान
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तबीयत


जब तबीयत ठीक नहीं होती. बुख़ार से जिस्म निढाल होता है. आराम करते-करते भी कोफ़्त होने लगती है, ऐसे में अपने कमरे के सिवा सबकुछ कितना भला लगता है. दिल चाहता है कि बाहर कहीं घूमकर आएं. खिड़की से झांकते आसमान के आख़िरी किनारे तक. दिल चाहता है कि उड़कर किसी तरह नीले आसमान में तैर रहे दूधिया बादलों को छू लें. कहीं दूर दिखाई दे रहे दरख़्त की छांव में टहल आएं. खिड़की से नज़र आ रही सड़क पर बेमक़सद चलते रहें.
-फ़िरदौस ख़ान
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ख़ामोश रात की तन्हाई में...

नज़्म
जब कभी
ख़ामोश रात की तन्हाई में
सर्द हवा का इक झोंका
मुहब्बत के किसी अनजान मौसम का
कोई गीत गाता है तो
मैं अपने माज़ी के
वर्क़ पलटती हूं
तह-दर-तह
यादों के जज़ीरे पर
जून की किसी गरम दोपहर की तरह
मुझे अब भी
तुम्हारे लम्स की गर्मी वहां महसूस होती है
और लगता है
तुम मेरे क़रीब हो...
-फ़िरदौस ख़ान
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बरसात का मौसम...

नज़्म
गर्मियों का मौसम भी
बिलकुल
ज़िन्दगी के मौसम-सा लगता है...
भटकते बंजारे से
दहकते आवारा दिन
और
विरह में तड़पती जोगन-सी
सुलगती लम्बी रातें...
काश!
कभी ज़िन्दगी के आंगन में
आकर ठहर जाए
बरसात का मौसम...
-फ़िरदौस ख़ान
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ख़ानज़ादा : एक संग्रहणीय दस्तावेज़


फ़िरदौस ख़ान 
पिछले दिनों राजकमल प्रकाशन की तरफ़ से एक उपन्यास मिला, जिसका नाम था ख़ानज़ादा. यह भगवानदास मोरवाल का उपन्यास है. यह मेवात की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित है. दरअसल यह फ़िरोज़शाह तुग़लक़, सादात, इब्राहीम लोदी और मुग़ल बादशाहों से मुक़ाबला करने वाले मेवात के वीरों की गाथा है. ये उन मेवातियों की गाथा है, जिन्होंने बादशाहों के सामने घुटने नहीं टेके और उनसे जमकर लोहा लिया.  इन्हीं में से एक थे हसन ख़ां मेवाती. फ़िरोज़शाह तुग़लक ने राजा नाहर ख़ान को मेवात का आधिपत्य सौंपा था. उन्होंने मेवात रियासत क़ायम की. राजा नाहर ख़ान को कोटला के राजा समरपाल के नाम से भी जाना जाता है. वे ख़ानज़ादा राजपूतों के पूर्वज थे. उनके ख़ानदान ने मेवात पर दो सौ सालों तक हुकूमत की. हसन ख़ां मेवाती इसी ख़ानदान के आख़िरी हुकुमरान थे. उन्होंने अपनी जान क़ुर्बान कर दी, लेकिन किसी विदेशी हमलावर का साथ नहीं दिया.   

दरअसल मेवात एक अंचल का नाम है, जो उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं में फैला हुआ है. प्राचीन काल में इस इलाक़े को मत्स्य प्रदेश के नाम से जाना जाता था. इसका धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से बहुत महत्व है. वेद और पुराणों में ब्रज की चौरासी कोस की परिक्रमा का उल्लेख मिलता है. इस परिक्रमा में होडल, मधुवन, तालवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, जतीपुरा, डीग, कामवन, बरसाना, नंदगांव, कोकिलायन, जाप, कोटवन, पैगांव, शेरगढ़, चीरभाट, बड़गांव, वृंदावन, लोहवन, गोकुल और मथुरा भी आता है. इस परिकमा में श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े स्थल, सरोवर, वन, मन्दिर और कुंड आदि का भ्रमण किया जाता है. इस दौरान कृष्ण भक्त भजन-कीर्तन एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठान करते हुए परिक्रमा पूरी करते हैं. वे इसे मोक्षदायिनी मानते हैं. 

मेवात का भव्य एवं गौरवशाली इतिहास रहा है. इस उपन्यास के ज़रिये लेखक ने मेवात के इतिहास के साथ-साथ यहां की लोक संस्कृति को भी बख़ूबी पेश किया है. उपन्यास की भाषा सरल और सहज है. इसे पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि चलचित्र की मानिन्द सबकुछ आंखों के सामने ही घटित हो रहा है. उपन्यास की भाषा शैली पाठक को बांधे रखती है. बानगी देखें-
“चौदहवीं सदी का उत्तरार्द्ध. अरावली के शिखर पर बना परकोटा. एक ऐसा परकोटा जिसमें चूने का कोई अता-पता नहीं, मगर फिर भी यह कहलाया गया क़िला. एक ऐसा दुर्गम क़िला कि ऊपर पहुंचते-पहुंचते सांस फूलने लग जाए. यहां से चारों तरफ़ जहां तक नज़र जाती, इसके स्याह पत्थरों की दरारों के बीच बबूल. कीकर, बेर और दूसरी कंटीली झाड़ियों के बीच विशाल बरगद, पीपल सहित दूर तक बिछी हरियाली की चादर दिखाई देती. एकदम सीधे खड़े इस पहाड़ पर चढ़ने की यहां के स्थानीय लोगों की भी हिम्मत नहीं होती.“           

इतिहास के बारे में लिखना कोई आसान काम नहीं है. इसमें लेखक का ईमानदार होना निहायत ही ज़रूरी है, जो बिना किसी पक्षपात और भेदभाव के पूरी निष्ठा के साथ अपने काम को अंजाम दे. पिछले कुछ अरसे से जिस तरह पाठ्य पुस्तकों से इतिहास से वाबस्ता अध्याय हटाए जा रहे हैं, इससे विद्यार्थी इनसे अनजान ही रहेंगे. लेकिन भला हो उन इतिहासकारों और लेखकों का जो अपनी लेखनी के ज़रिये इतिहास और ऐतिहासिक किरदारों को ज़िन्दा रखे हुए हैं.  
लेखक भगवानदास मोरवाल कहते हैं- “कोई बात नहीं मुग़ल इतिहास संबंधी अध्याय ही तो पाठ्यक्रमों से हटाए जा रहे हैं, पुस्तकें तो ख़त्म नहीं हो जाएंगी. इसलिए यदि आपको यह नहीं पता कि बाबर को इस देश में कौन-से हिन्दू राजा ने बुलाया था और उसके आने के बाद खानवा के दूसरे युद्ध से पहले हसन ख़ां मेवाती ने बाबर की पेशकश क्या कहते हुए ठुकरा दी थी, तो यह जानने के लिए यह उपन्यास आपका इंतज़ार कर रहा है.”
लेखक ने सही कहा है. पाठक इस उपन्यास के ज़रिये मेवात के इतिहास को भली-भांति जान पाएंगे. 


क़ाबिले- ग़ौर है कि पाकिस्तान के लाहौर के मशहूर प्रकाशन गृह फ़िक्शन हाउस और नई दिल्ली के एमआर पब्लिकेशन्स ने ख़ानज़ादा का उर्दू संस्करण प्रकाशित किया है. इससे उर्दू भाषी लोग इस ऐतिहासिक उपन्यास को पढ़ पा रहे हैं.  


बहरहाल, यह उपन्यास मेवात के उन नायकों से पाठकों को रूबरू करवाता है, जिनके बारे में बहुत कम लिखा गया है. यह एक ऐतिहासक और संग्रहणीय दस्तावेज़ है, जो इतिहास के छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी साबित होगा. 

समीक्ष्य कृति : ख़ानज़ादा
लेखक : भगवानदास मोरवाल   
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ : 392
मूल्य : 399 रुपये


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दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन...


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय सिनेमा में कई ऐसी हस्तियां हुई हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. इन्हीं में से एक हैं गुलज़ार. गीतकार से लेकर, पटकथा लेखन, संवाद लेखन और फिल्म निर्देशन तक के अपने लंबे स़फर में उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की. मृदुभाषी और सादगी पसंद गुलज़ार का व्यक्तित्व उनके लेखन में सा़फ झलकता है. आज वह जिस मुक़ाम पर हैं, उस तक पहुंचने के लिए उन्हें संघर्ष के कई पड़ावों को पार करना पड़ा.

गुलज़ार का असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है. उनका जन्म 18 अगस्त, 1936 को पाकिस्तान के झेलम ज़िले के दीना में हुआ. उन्होंने देश के विभाजन की त्रासदी को झेला. उनके परिवार को हिंदुस्तान आना प़डा. उनका बचपन दिल्ली की सब्ज़ी मंडी में बीता. उनके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी. उनके आठ भाई-बहन थे. उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने से इंकार कर दिया, लेकिन वह पढ़ना चाहते थे. पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए उन्होंने पेट्रोल पंप पर नौकरी कर ली. इसी दौरान उन्होंने अपने ख्यालात और अपने जज़्बात को शब्दों में ढालना भी शुरू कर दिया. उन्होंने कई भाषाएं सीखीं, जिनमें उर्दू, फ़ारसी और बांग्ला शामिल थी. फिर उन्होंने अनुवाद का काम शुरू कर दिया. वह रवींद्रनाथ ठाकुर और शरत चंद्र की रचनाओं का उर्दू अनुवाद करने लगे. बाद में वह मुंबई चले आए. उनका यहां शायरों, साहित्यकारों और नाटककारों की महफ़िल में उठना-बैठना शुरू हो गया. एक दिन वह गीतकार शैलेंद्र के पास गए और उनसे काम के सिलसिले में बातचीत की. उन दिनों संगीतकार सचिनदेव बर्मन फ़िल्म बंदिनी के गीतों को सुरबद्ध कर रहे थे. शैलेंद्र की सिफ़ारिश पर सचिन दा ने गुलज़ार को एक गीत लिखने को कहा. गुलज़ार ने उन्हें गीत लिखकर दिया, जिसके बोल थे-मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे. सचिन दा को गीत बहुत पसंद आया. उन्होंने अपनी आवाज़ में गाकर बिमल राय को सुनाया. गुलज़ार के बांग्ला ज्ञान से मुतासिर होकर बिमल राय ने उनके सामने अपने होम प्रोडक्शन में स्थायी तौर पर काम करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने इसे विनम्रता से अस्वीकार कर दिया. गुलज़ार की मंज़िल इससे आगे थी, बहुत आगे. उन्हें महज़ एक गीतकार बनकर रहना मंज़ूर नहीं था. उन्होंने आगे चलकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा भी किया.

हुआ यूं कि बिमल राय की मौत के बाद संगीतकार हेमंत कुमार ने उनकी यूनिट के काफ़ी लोगों को अपने प्रोडक्शन में नौकरी पर रख लिया. गुलज़ार ने हेमंत कुमार की फिल्म बीवी और मकान, राहगीर और ख़ामोशी के लिए गीत लिखे थे. ऋषिकेश मुखर्जी ने बिमल राय की फिल्म का संपादन और सह-निर्देशन किया था. वह भी स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशक बन गए और आशीर्वाद फ़िल्म के संवाद के साथ-साथ गीत भी गुलज़ार को ही लिखने पड़े, क्योंकि उन दिनों शैलेंद्र के पास बहुत काम था. गुलज़ार ने बिमल दा के साथ आनंद, गुड्‌डी, बावर्ची और नमक हराम जैसी कामयाब फ़िल्मों में काम किया. गुलज़ार के फ़िल्म निर्माता एनसी सिप्पी से भी अच्छे रिश्ते बन गए. नतीजतन, सिप्पी-गुलज़ार ने मिलकर कई बेहतरीन फ़िल्में बनाईं. गुलज़ार के मीना कुमारी से भी अच्छे रिश्ते थे. मीना कुमारी ने मौत से पहले अपनी तमाम नज़्में उन्हें सौंप दी थीं, जिन्हें बाद में उन्होंने शाया कराया. जब गुलज़ार स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बने तो उन्होंने फ़िल्म मेरे अपने की मुख्य भूमिका मीना को ही थी. 1971 में बनी यह फ़िल्म मीना कुमारी की मौत के बाद रिलीज़ हुई थी. इसके बाद गुलज़ार ने एक से बढ़कर एक कई फ़िल्में बनाईं. बतौर निर्देशक गुलज़ार ने 1971 में मेरे अपने, 1972 में परिचय और कोशिश, 1973 में अचानक, 1974 में ख़ुशबू, 1975 में आंधी, 1976 में मौसम, 1977 में किनारा, 1978 में किताब, 1980 में अंगूर, 1981 में नमकीन और मीरा, 1986 में इजाज़त, 1990 में लेकिन, 1993 में लिबास, 1996 में माचिस और 1999 में हु तू तू बनाई. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को बख़ूबी पेश किया, भले ही वह रंग दुख का हो या फिर इंद्रधनुषी सपनों को समेटे ख़ुशियों का रंग हो. फ़िल्म आंधी में इंदिरा गांधी की झलक मिलती है. इसलिए इसे इंदिरा गांधी की ज़िंदगी पर आधारित बताया जाता है.


आपातकाल के दौरान इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया. यह फ़िल्म आपातकाल के बाद ही रिलीज़ हो सकी. दरअसल, कमलेश्वर द्वारा लिखी गई इस फ़िल्म की नायिका की ज़िंदगी इंदिरा गांधी की ज़िंदगी से मिलती जुलती है. नायिका आरती एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ की बेटी है. वह होटल व्यवसायी जेके से प्रेम करती है. उसके पिता अपनी आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा की वजह से बेटी को भी इसी राह पर ले जाना चाहते हैं. आरती और जेके की शादी हो जाती है, लेकिन पिता के दबाव और अपनी महत्वकांक्षा की वजह से वह सियासत में आ जाती है. वह पति का घर छोड़कर पिता के पास लौट आती है. बरसों बाद दोनों फिर मिलते हैं. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों को फिर से अलग होना पड़ता है. गुलज़ार ने छोटे पर्दे के दर्शकों के लिए 1988 में मिर्ज़ा ग़ालिब और 1993 में किरदार नामक टीवी धारावाहिक बनाए, जिन्हें बहुत पसंद किया गया. इसके अलावा उन्हें 1983 में आरडी बर्मन और आशा भोसले के साथ दिल पड़ोसी है नामक एलबम निकाली. इसके बाद 1999 में जगजीत सिंह की आवाज़ में मरासिम, 2001 में ग़ुलाम अली की आवाज़ में विसाल और फिर 2003 में आबिदा सिंग्स कबीर एल्बम निकाली. फ़िल्म मौसम में दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन जैसे गीत लिखने वाले गुलज़ार आज भी कजरारे-कजरारे जैसे गीत लिख रहे हैं, जिन पर क़दम ख़ुद ब ख़ुद थिरकने लगते हैं. गुलज़ार त्रिवेणी छंद के सृजक हैं. उनके दो त्रिवेणी संग्रह त्रिवेणी और पुखराज नाम से प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य कृतियों में चौरस रात, एक बूंद चांद, रावी पार, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, ख़राशें, कुछ और नज़्में, छैंया-छैंया, मेरा कुछ सामान और यार जुलाहे शामिल हैं. गुलज़ार को 2002 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 2004 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 19 फिल्म फेयर पुरस्कारों सहित अन्य कई और पुरस्कार भी मिल चुके हैं. गुलज़ार की निजी ज़िंदगी में कई उतार- चढ़ाव आए. 1973 में उन्होंने अभिनेत्री राखी से शादी की. वह नहीं चाहते थे कि राखी फ़िल्मों में काम करें. उनका रिश्ता लंबे अरसे तक नहीं चला. जब उनकी बेटी मेघना डेढ़ साल की थी, तभी वे अलग हो गए. मगर उन्होंने तलाक़ नहीं लिया. गुलज़ार मानते हैं कि कोई भी रिश्ता न तो कभी ख़त्म होता है, और न मरता है. शायद इसलिए ही उनका रिश्ता आज भी क़ायम है. वह कहते हैं:-
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते…

राखी ने अपनी ज़िंदगी का ख़ालीपन भरने के लिए फ़िल्मों में काम शुरू कर दिया और गुलज़ार अपने काम में मसरूफ़ हो गए. गुलज़ार मानते हैं कि ज़िंदगी बरसों से नहीं, बल्कि लम्हों से बनती है. इसलिए इंसान को अपनी ज़िंदगी के हर लम्हे को भरपूर जीना चाहिए. उन्हें अपने अकेलेपन से भी कभी कोई शिकवा नहीं रहा. वह कहते हैं:-
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो… 
(स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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हैसियत


इंसान दुनिया में कितना ही माल व दौलत इकट्ठी कर ले, कितने ही ऊंचे ओहदे तक पहुंच जाए, लेकिन सच यही है कि उसकी हैसियत खजूर की गुठली के छिलके के बराबर भी नहीं है. 
-फ़िरदौस ख़ान
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गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काको लागूं पायं...


बात उन दिनों की है जब हम हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. हर रोज़ सुबह फ़ज्र की नमाज़ के बाद रियाज़ शुरू होता था. सबसे पहले संगीत की देवी मां सरस्वती की वन्दना करनी होती थी. फिर. क़रीब दो घंटे तक सुरों की साधना. इस दौरान दिल को जो सुकून मिलता था. उसे शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है.

इसके बाद कॉलेज जाना और कॉलेज से ऑफ़िस. ऑफ़िस के बाद फिर गुरु जी के पास जाना. संध्या, सरस्वती की वन्दना के साथ शुरू होती और फिर वही सुरों की साधना का सिलसिला जारी रहता. हमारे गुरु जी, संगीत के प्रति बहुत ही समर्पित थे. वो जितने संगीत के प्रति समर्पित थे उतना ही अपने शिष्यों के प्रति भी स्नेह रखते थे. उनकी पत्नी भी बहुत अच्छे स्वभाव की गृहिणी थीं. गुरु जी के बेटे और बेटी हम सबके साथ ही शिक्षा ग्रहण करते थे. कुल मिलाकर बहुत ही पारिवारिक माहौल था.

हमारा बी.ए फ़ाइनल का संगीत का इम्तिहान था. एक राग के गायन के वक़्त हम कुछ भूल गए. हमारे नोट्स की कॉपी हमारे ही कॉलेज के एक सहपाठी के पास थी, जो उसने अभी तक लौटाई नहीं थी. अगली सुबह इम्तिहान था. हम बहुत परेशान थे कि क्या करें. इसी कशमकश में हमने गुरु जी के घर जाने का फ़ैसला किया. शाम को क़रीब सात बजे हम गुरु जी के घर गए.

वहां का मंज़र देखकर पैरों तले की ज़मीन निकल गई. घर के बाहर सड़क पर वहां शामियाना लगा था. दरी पर बैठी बहुत-सी औरतें रो रही थीं. हम अन्दर गए, आंटी (गुरु जी की पत्नी को हम आंटी कहते हैं) ने बताया कि गुरु जी के बड़े भाई की सड़क हादसे में मौत हो गई है. और वो दाह संस्कार के लिए शमशान गए हैं. हम उन्हें सांत्वना देकर वापस आ गए.

रात के क़रीब डेढ़ बजे गुरु जी हमारे घर आए. मोटर साइकिल उनका बेटा चला रहा था और गुरु जी पीछे तबले थामे बैठे थे.

अम्मी ने हमें नींद से जगाया. हम कभी भी रात को जागकर पढ़ाई नहीं करते थे, बल्कि सुबह जल्दी उठकर पढ़ना ही हमें पसंद था .हम बैठक में आए.

गुरु जी ने कहा - तुम्हारी आंटी ने बताया था की तुम्हें कुछ पूछना था. कल तुम्हारा इम्तिहान भी है. मैंने सोचा- हो सकता है, तुम्हें कोई ताल भी पूछनी हो इसलिए तबले भी ले आया. गुरु जी ने हमें क़रीब एक घंटे तक शिक्षा दी.

गुरु जी अपने भाई के दाह संस्कार के बाद सीधे हमारे पास ही आ गए थे. ऐसे गुरु पर भला किसको नाज़ नहीं होगा, जिन्होंने ऐसे नाज़ुक वक़्त में भी अपनी शिष्या के प्रति अपने दायित्व को निभाया हो.

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय।।

हमारे गुरु जी गुरु-शिष्य परंपरा की जीवंत मिसाल हैं.
गुरु जी को हमारा शत-शत नमन और गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं.

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पूनम की रात...


आज
पूनम की रात है
और चांद
आसमान में
मुस्करा रहा है
तारे भी
खिलखिला रहे हैं

सच
कितनी भली है
पूनम की ये चांदनी रात
दिल चाहता है
इसे सहेज कर
रख लूं

क्या ख़बर
ज़िन्दगी की
कोई अंधियारी रात
इसकी यादों से ही
रौशन हो जाए
और
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर
उजाला बिखर जाए...
-फ़िरदौस ख़ान
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फूल पलाश के...


फूल पलाश के
वक़्त के समन्दर में
यादों का जज़ीरा हैं
जिसके हर ज़र्रे में  
ख़्वाबों की धनक फूटती है
फ़िज़ाओं में
चाहत के गुलाब महकते हैं
जिसकी हवायें 
रूमानी नग़में गुनगुनाती हैं
जिसके जाड़ों पर
क़ुर्बतों का कोहरा छाया होता है
जिसकी गर्मियों में
तमन्नायें अंगड़ाइयां लेती हैं
जिसकी बरसात
रफ़ाक़तों से भीगी होती है
फूल पलाश के
इक उम्र का
हसीन सरमाया ही तो हैं...
-फ़िरदौस ख़ान

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तुम एक ख़्वाब लगते हो...




कभी
मैं सोचती
ज़ुल्फ़ों की घनी, महकी, नरम छांव में
तुम्हें बिठाकर
वो सभी जज़्बात से सराबोर अल्फ़ाज़ 
जो मैंने बरसों से
अपने दिल की गहराइयों में
छुपाकर रखे
तुम्हारे सामने बिखेर दूं
और तुम
मेरे जज़्बात, मेरे अहसासात पढ़ लो
लेकिन
मेरा ज़हन
मेरा साथ नहीं देता
क्यूंकि
मेरी रूह, मेरे ख्यालात
कहते हैं-
कहीं ये एक ख़्वाब ही न हो
और
ये तसव्वुर करके
मेरा वजूद सहम जाता है
बस, ख़्वाब के टूटने के खौफ़ से
पता नहीं क्यूं
तुम एक ख़्वाब लगते हो
और मैं
उम्र की रहगुज़ारों में
भटकती रहती हूं
बस इक ख़्वाब को अपने हमराह लिए
जो मेरा अपना है...
-फ़िरदौस ख़ान

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किताबें…


तस्वीरें और ख़त
यादों का ज़ख़ीरा ही तो हैं
जिस पर
हमेशा के लिए
बस जाने को
दिल चाहता है...
-फ़िरदौस ख़ान

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तब झूठा लगता है हर लफ़्ज़ मुहब्बत का...




हर रोज़ की तरह
जब
सुबह का सूरज
दस्तक देता है
ज़िन्दगी के
नये दिन की चौखट पर
और
फिर से शुरू होता है
तन्हाई का
एक और मुश्किल सफ़र...

जब
उम्र की तपती दोपहरी में
जिस्म तरसता है
ठंडी छांव को...

जब
सुरमई शाम को
बिखरते ख़्वाबों की किरचें
लहू-लुहान करती हैं
अरमानों के पांव को...

जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
अंगारों से...

तब, वाक़ई
झूठा लगता है
हर लफ़्ज़ मुहब्बत का...
-फ़िरदौस ख़ान
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वो नज़्म...


वो नज़्म
जो कभी
तुमने मुझ पर लिखी थी
एक प्यार भरे रिश्ते से
आज बरसों बाद भी
उस पर नज़र पड़ती है तो
यूं लगता है
जैसे
फिर से वही लम्हें लौट आए हैं
वही मुहब्बत का मौसम
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी होती थीं
जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी तेज़ धूप से
सराबोर होती थीं
जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ होती थीं
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती थी
सच !
कितनी कशिश है
तुम्हारे चंद लफ़्जों में
जो आज भी
मेरी उंगली थामकर
मुझे मेरे माज़ी की तरफ़
ले चलते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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तुम समझ लेना, मैं तुम्हें याद करती हूं...

जब सुबह सूरज की
चंचल किरनें
पेशानी को चूमें
और शोख़ हवायें 
बालों को सहलायें
तब
तुम समझ लेना
मैं तुम्हें याद करती हूं...

जब
ज़मीन पर
चांदनी की चादर
बिछ जाए
और फूल
अपनी भीनी-भीनी महक से
माहौल को
रूमानी कर दें
हर सिम्त
मुहब्बत का मौसम
अंगड़ाइयां लेने लगे
तब
तुम समझ लेना
मैं तुम्हें याद करती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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कितना भला लगता है पतझड़ भी कभी-कभी


कितना लुभावना होता है
पतझड़ भी कभी-कभी
बाग़ों में
ज़मीं पे बिखरे
सूखे ज़र्द पत्तों पर
चलना
कितना भला लगता है कभी-कभी

माहौल को रूमानी बनातीं
दरख़्तों की, वीरान शाख़ों पर
चहकते परिन्दों की आवाज़ें
कितनी भली लगती हैं कभी-कभी

क्यारियों में लगे
गेंदे और गुलाब के
खिलते फूलों की
भीनी-भीनी ख़ुशबू
आंगन में कच्ची दीवारों पर, चढ़ती धूप
कितनी भली लगती है, कभी-कभी

सच! पतझड़ का भी
अपना ही रंग
बसंत और बरसात की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
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मन्नतों के पीले धागे


बस्ती से दूर
किसी ख़ामोश मक़ाम पर
बने दूधिया मज़ारों के पास खड़े
दरख़्त की शाख़ों पर बंधे
मन्नतों के पीले धागे
कितने बीते लम्हों की
याद दिला जाते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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सुलगते अहसास...


ज़िन्दगी के आंगन में
मुहब्बत की चांदनी बिखरी है
हसरतों की क्यारी में
सतरंगी ख़्वाबों के फूल खिले हैं
ख़्वाहिशों के बिस्तर पर
सुलगते अहसास की चादर है
इंतज़ार की चौखट पर
बेचैन निगाहों के पर्दे हैं
माज़ी के जज़ीरे पर
यादों की पुरवाई है
फिर भी
ज़िन्दगी के आंगन में
मुहब्बत की चांदनी बिखरी है...
-फ़िरदौस ख़ान 
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कितने वर्क़ पुरानी यादों के...


ज़िन्दगी की किताब में
कितने वर्क़ पुरानी यादों के
आज भी
मैंने सहेजकर रखे हैं...

कुछ वर्क़
क़ुर्बतों की खुशबू से सराबोर हैं
हथेलियों पर सजी
गीली मेहंदी की
भीनी-भीनी महक की तरह...

और
कुछ वर्क़
हिज्र की स्याह रातों से वाबस्ता हैं
जाड़ों की कोहरे से ढकी
उदास शाम की तरह...

मैंने
आज भी सहेजकर रखा है
पुरानी यादों को
कच्चे ताक़ में रखी
पाक किताबों की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
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मेरे महबूब...


आज उनकी सालगिरह है, जिनके क़दमों में हम अपनी अक़ीदत के फूल चढ़ाते हैं... इस मुबारक मौक़े पर उन्हें समर्पित एक नज़्म ’मेरे महबूब’ पेश-ख़िदमत है...
मेरे महबूब !
तुम्हारा चेहरा
मेरा क़ुरआन है
जिसे मैं
अज़ल से अबद तक
पढ़ते रहना चाहती हूं…

तुम्हारा ज़िक्र
मेरी नमाज़ है
जिसे मैं
रोज़े-हश्र तक
अदा करते रहना चाहती हूं…

तुम्हारा हर लफ़्ज़
मेरे लिए
कलामे-इलाही की मानिन्द है
तुम्हारी हर बात पर
लब्बैक कहना चाहती हूं...

मेरे महबूब !
तुमसे मिलने की चाह में
दोज़ख़ से भी गुज़र हो तो
गुज़र जाना चाहती हूं…

तुम्हारी मुहब्बत ही
मेरी रूह की तस्कीन है
तुम्हारे इश्क़ में
फ़ना होना चाहती हूं…
-फ़िरदौस ख़ान


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मुहब्बत के फूल...


मेरे महबूब !
उम्र की रहगुज़र में 
हर क़दम पर मिले 
तुम्हारी मुहब्बत के फूल...
अहसास की शिद्दत से दहकते 
जैसे सुर्ख़ गुलाब के फूल...

उम्र की तपती दोपहरी में 
घनी ठंडी छांव से 
जैसे पीले अमलतास के फूल...

आंखों में इन्द्रधनुषी सपने संजोये
गोरी हथेलियों पर सजे 
जैसे ख़ुशरंग मेहंदी के फूल...  

दूधिया चांदनी रात में 
ख़्वाहिशों के बिस्तर पर बिछे 
जैसे महकते बेला के फूल...

मेरे महबूब 
मुझे हर क़दम पर मिले 
तुम्हारी मुहब्बत के फूल...
-फ़िरदौस ख़ान  

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इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब...
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है... कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है... जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे  दोज़ख़ की आग का क्या ख़ौफ़...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (वजूद) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा है, जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...

हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...

बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना...शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते...उन्हें  दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे  दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है...जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी  दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?

बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की  दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत... जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो...

जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए, तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है...

किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है

मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है

मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है

मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से 
मुहब्बत रूठ जाती है


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मई दिवस और पापा

आज मज़दूर दिवस है. आज के दिन पापा सुबह-सवेरे तैयार होकर मई दिवस के कार्यक्रमों में जाते थे. पापा ठेकेदार थे. लोगों के घर बनाते थे. छोटी-बड़ी इमारतें बनाते थे. उनके पास हमेशा कमज़ोर और बूढ़े मिस्त्री-मज़दूर हुआ करते थे. हमने पापा से पूछा कि लोग ताक़तवर और जवानों को रखना पसंद करते हैं, फिर आप कमज़ोर और बूढ़े लोगों को काम पर क्यों रखते हैं. पापा जवाब देते कि इसीलिए तो इन्हें रखता हूं, क्योंकि सबको जवान और ताक़तवर मिस्त्री-मज़दूर चाहिए. ऐसे में कमज़ोर और बूढ़े लोग कहां जाएंगे. अगर इन्हें काम नहीं मिलेगा, तो इनका और इनके परिवार का क्या होगा.

हमें अपने पापा पर फ़ख़्र है. उन्होंने कभी किसी का शोषण नहीं किया. किसी से तयशुदा घंटों से ज़्यादा काम नहीं करवाया, बल्कि कभी-कभार वक़्त से पहले ही उन्हें छोड़ दिया करते थे. अगर कोई मज़दूर भूखा होता, तो उसे अपना खाना खिला दिया करते थे. फिर ख़ुद शाम को जल्दी आकर खाना खाते. पापा ने न कभी कमीशन लिया और न ही किसी से एक पैसा ज़्यादा लिया. इसीलिए हमेशा नुक़सान में रहते. अपने बच्चों के लिए न तो दौलत जोड़ पाए और न ही कोई जायदाद नहीं बना पाए.

हमें इस बात पर फ़ख़्र है कि पापा ने हलाल की कमाई से अपने बच्चों की परवरिश की.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

मेहनतकशों को मज़दूर दिवस की मुबारकबाद 
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चांद तन्हा है, आसमां तन्हा...




फ़िरदौस ख़ान
बहुत कम लोग जानते हैं कि सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री एवं ट्रेजडी क्वीन के नाम से विख्यात मीना कुमारी शायरा भी थीं. मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था. एक अगस्त, 1932 को मुंबई में जन्मी मीना कुमारी के पिता अली बक़्श पारसी रंगमंच के जाने-माने कलाकार थे. उन्होंने कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया था. उनकी मां इक़बाल बानो मशहूर नृत्यांगना थीं. उनका असली नाम प्रभावती देवी था. उनका संबंध टैगोर परिवार से था यानी मीना कुमारी की नानी रवींद्र नाथ टैगोर की भतीजी थीं, लेकिन अली बक़्श से विवाह के लिए प्रभावती ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था. मीना कुमारी ने छह साल की उम्र में एक फ़िल्म में बतौर बाल कलाकार काम किया था. 1952 में प्रदर्शित विजय भट्ट की लोकप्रिय फ़िल्म बैजू बावरा से वह मीना कुमारी के रूप में जानी गईं. 1953 तक मीना कुमारी की तीन हिट फ़िल्में आ चुकी थीं, जिनमें दायरा, दो बीघा ज़मीन एवं परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिए एक नया दौर शुरू हुआ. इसमें उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को ख़ासा प्रभावित किया था. इसके बाद उन्हें ऐसी फ़िल्में मिलने लगीं, जिनसे वह ट्रेजडी क्वीन के रूप में मशहूर हो गईं. उनकी ज़िंदगी परेशानियों के दौर से ग़ुजर रही थी. उन्हें मशहूर फ़िल्मकार कमाल अमरोही के रूप में एक हमदर्द इंसान मिला. उन्होंने कमाल से प्रभावित होकर उनसे विवाह कर लिया, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही और दस साल के वैवाहिक जीवन के बाद 1964 में वह कमाल अमरोही से अलग हो गईं. कहा यह भी गया कि औलाद न होने की वजह से उनके रिश्ते में दरार पड़ने लगी थी.
1966 में बनी फ़िल्म फूल और पत्थर के नायक धर्मेंद्र से मीना कुमारी की नज़दीकियां बढ़ने लगी थीं. मीना कुमारी उस दौर की कामयाब अभिनेत्री थीं, जबकि धर्मेंद्र का करियर ठीक से नहीं चल रहा था. लिहाज़ा धर्मेंद्र ने मीना कुमारी का सहारा लेकर ख़ुद को आगे बढ़ाया. उनके क़िस्से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, जिसका असर उनकी शादीशुदा ज़िंदगी पर पड़ा. अमरोहा में एक मुशायरे के दौरान किसी युवक ने मीना कुमारी पर कटाक्ष करते हुए एक ऐसा शेअर पढ़ा, जिस पर मुशायरे की सदारत कर रहे कमाल अमरोही भड़क गए.

कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें पाकीज़ा भी शामिल है. पाकीज़ा के निर्माण में सत्रह साल लगे थे, जिसकी वजह मीना कुमारी से उनका अलगाव था. यह कला के प्रति मीना कुमारी का समर्पण ही था कि उन्होंने बीमारी की हालत में भी इस फ़िल्म को पूरा किया. पाकीज़ा में पहले धर्मेंद्र को लिया गया था, लेकिन कमाल अमरोही ने धर्मेंद्र को फ़िल्म से बाहर कर उनकी जगह राजकुमार को ले लिया. 1956 में शुरू हुई पाकीज़ा 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज़ हुई और उसी साल 31 मार्च को मीना कुमारी चल बसीं. फ़िल्म हिट रही, कमाल अमरोही अमर हो गए, लेकिन मीना कुमारी ग़ुरबत में मरीं. अस्पताल का बिल उनके प्रशंसक एक डॉक्टर ने चुकाया. मीना कुमारी ज़िंदगी भर सुर्ख़ियों और विवादों में रहीं. कभी शराब पीने की आदत को लेकर, तो कभी धर्मेंद्र के साथ संबंधों को लेकर. मीना कुमारी ने अपने अकेलेपन में शराब और शायरी को अपना साथी बना लिया था. वह नज़्में लिखती थीं, जो उनकी मौत के बाद नाज़ नाम से प्रकाशित हुईं :-
मेरे महबूब
जब दोपहर को
समुंदर की लहरें
मेरे दिल की धड़कनों से हमआहंग होकर उठती हैं तो
आफ़ताब की हयात आफ़री शुआओं से मुझे
तेरी जुदाई को बर्दाश्त करने की क़ुव्वत मिलती है…

धर्मेंद्र ने भी करियर की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद मीना को अकेला छोड़ दिया. कभी मुड़कर भी उनकी तरफ़ नहीं देखा. मीना उम्र भर मुहब्बत पाने के लिए तरसती रह गईं :-
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे
अपने जिस्म के रोएं-रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है, जिसके
रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके
आहिस्ता-आहिस्ता दूर-दूर
पुरसुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम जज़ीरों
की तऱफ लिए जा रहे हों,
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह-रहकर चमकते दिखाई देते हैं,
हमारी गुफ़्तगू की ज़ुबान
वही है जो
दरख्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है,
ये घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आंसू छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत…

ज़िन्दगी में मुहब्बत हो, तो ज़िन्दगी सवाब होती है. और जब न हो, तो उसकी तलाश होती है... और इसी तलाश में इंसान उम्रभर भटकता रहता है. अपनी एक ग़ज़ल में मीना कुमारी उम्र भर मुहब्बत को तरसती हुई औरत की तड़प बयां करते हुए कहती हैं-
ज़र्रे-ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक-एक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए कांटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा...

कमाल अमरोही से निकाह करके भी उनका अकेलापन दूर नहीं हुआ और वह शराब में डूब गईं. एक बार जब दादा मुनि अशोक कुमार उनके लिए दवा लेकर पहुंचे तो उन्होंने कहा, दवा खाकर भी मैं जीऊंगी नहीं, यह जानती हूं मैं. इसलिए कुछ तंबाक़ू खा लेने दो, शराब के कुछ घूंट गले के नीचे उतर जाने दो. मीना कुमारी का यह जवाब सुनकर दादा मुनि कांप उठे. मीना कुमारी की उदासी उनकी नज़्मों में भी उतर आई थी :-
दिन गुज़रता नहीं
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक ख़ौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह क्षण पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिसे राह से उठाया है
शाम का उदास सन्नाटा
धुंधलका देख बढ़ जाता है
नहीं मालूम यह धुआं क्यों है
दिल तो ख़ुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों की तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आग़ोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है…

बचपन से जवानी तक या यूं कहें कि ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे तक उन्होंने दुश्वारियों का सामना किया:-
आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता,
जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता,
हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की क़िस्मत में ईनाम नहीं होता,
बहते हुए आंसू ने आंख से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता,
दिन डूबे या डूबे बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता…

मीना कुमारी की ज़िंदगी एक सच्चे प्रेमी की तलाश में ही गुज़र गई. अकेलेपन का दर्द उनकी रचनाओं में समाया हुआ है :-
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा,
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुंआ तन्हा,
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा,
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी
दोनों चलते रहे कहां तन्हा,
जलती-बुझती सी रोशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा,
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा… (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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आज प्रोमिस डे है


आज प्रोमिस डे है, यानी वादों का दिन. एक-दूजे से वादा करने का दिन.
लेकिन हम मानते हैं कि सबके अपने-अपने प्रोमिस डे हुआ करते हैं, जो किसी भी माह के किसी भी दिन, किसी भी तारीख़ को हो सकते हैं. बहरहाल, इसी बहाने कुछ गुज़श्ता लम्हे सामने आकर खड़े हो गए.
बात कई बरस पुरानी है. वो अपनी अम्मी के साथ खड़े थे. हम भी वहां थे. न जाने क्यों मन बहुत उदास था, इतना उदास कि बयान से बाहर. बाज़ दफ़ा ऐसा होता है कि मन बहुत उदास होता है, लेकिन हमें उदासी की वजह ख़ुद मालूम नहीं होती. शायद हम इस बारे में सोचते ही नहीं हैं कि हम उदास क्यों हैं. इसी तरह कई मर्तबा दिल बहुत ख़ुश होता है. इतना ख़ुश कि हवाओं में उड़ने को दिल चाहता है.
ख़ैर, उनकी नज़र हम पर पड़ी और वो हमारे क़रीब आ गए. उन्होंने हमसे ’कुछ’ कहा. कुछ ऐसा कि हम उन अल्फ़ाज़ को कभी भूल ही नहीं सकते. उनका एक-एक लफ़्ज़ हमारी रूह पर लिखा गया. मुहब्बत की शिद्दत के रंग इतने गहरे थे कि हमारी रूह ही नहीं, हमारा तन-मन भी उन रंगों में रंग गया.
वो शायर नहीं हैं, लेखक नहीं हैं, कोई फ़नकार भी नहीं हैं. जिस पेशे से वो ताल्लुक़ रखते हैं, उसके मद्देनज़र हम सोच भी नहीं सकते थे कि वो मुहब्बत के जज़्बे से सराबोर रूहानी अल्फ़ाज़ का इस तरह से इस्तेमाल भी कर सकते हैं. किसी शायर ने भी शायद ही अपनी महबूबा से इन अल्फ़ाज़ में अपनी मुहब्बत का इक़रार किया होगा, उससे कोई वादा किया होगा.
वाक़ई मुहब्बत इंसान को किस बुलंदी पर पहुंचा देती है. शायद इसीलिए मुहब्बत में एक बादशाह तक अपनी महबूबा की ग़ुलामी दिल से क़ुबूल कर लेता है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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मुतासिर...

इंसान कभी भी, किसी से भी मुतासिर हो सकता है. कोई एक शख़्स होता है, जिसकी शख़्सियत ऐसी हुआ करती है कि वह किसी के भी दिलो-दिमाग़ पर छा जाता है.. लाख कोशिश करने पर भी ज़ेहन ख़ुद को उससे जुदा नहीं कर पाता. किसी शख़्स की कोई एक बात ही तो हुआ करती है, जिसकी वजह से वह हमारे वजूद पर इस क़द्र छा जाता है कि उसके सिवा कुछ और नज़र ही नहीं आता. कब वह हमारे ख़्वाबों में आने लगता है, कब उसका नाम कलमे की तरह हमारी ज़बान पर चढ़ जाता है, कब उसकी तस्वीर हमारी आंखों में बस जाती है, हमें पता ही नहीं चलता. शायद कुछ चीज़ें हमारे अपने अख़्तियार में नहीं हुआ करतीं.

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मानद उपाधि


जब हम आठवीं जमात में पढ़ते थे, तब हमने इंग्लिश और हिन्दी की टाइपिंग सीखी थी. उस वक़्त हमारे लिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जो बाद में बहुत काम आई.   
नौवीं जमात में हमने एक वयोवृद्ध होम्योपैथिक चिकित्सक के साथ कई साल तक काम किया है. स्कूल से आने के बाद खाना खाते और फिर क्लीनिक चले जाते. इसके साथ ही चश्मे बनाने का काम भी वहीं सीखा. अपनी अम्मी की आंखें ख़ुद टेस्ट कीं. ख़ुद नम्बर देखा और ख़ुद ही उनका चश्मा बनाया. चश्मे का फ़्रेम उनकी पसंद का लिया. हमने शीशे को काटा और उसे फ़्रेम में फ़िट किया. अम्मी बहुत ख़ुश थीं. 
 
जब कोई मरीज़ आता, तो डॉक्टर अंकल उसका हाल पूछते और दवा हम ख़ुद देते. मरीज़ के जाने के बाद अंकल कहते- क़ाबिल हो. बहुत जल्दी सीख जाती हो. कुछ साल बाद हम चिकित्सा शिविरों में भी जाने लगे. ये अल्लाह का बहुत बड़ा करम है कि सीनियर डॉक्टर भी हमारी तारीफ़ करते. एक मेडिकल इंस्टीट्यूट ने हमें Diploma of biochemic medicine की मानद उपाधि से सम्मानित किया. हमें एक जगह से नौकरी का भी प्रस्ताव मिला. लेकिन हमें शायद कुछ और ही करना था. इसलिए उसे आदर सहित मना कर दिया. 

हमें अपने ख़ानदान के बुज़ुर्गों से भी बहुत कुछ सीखने को मिला. हमारी दादी जान को दवाओं का अच्छा इल्म था. हमें पढ़ने और मुख़्तलिफ़ चीज़ों का इल्म हासिल करने में बहुत दिलचस्पी है. ख़ासकर रूहानी इल्म. इस बारे में हम लिखते ही रहते हैं.

ख़ैर हम उन्हीं मर्ज़ के घरेलू इलाज के बारे में लिखते हैं, जिनसे हमने अपने आसपास लोगों को फ़ैज़ हासिल करते हुए देखा है. इंशा अल्लाह जल्द ही एक ऐसे मर्ज़ के इलाज के बारे में लिखेंगे, जिससे बहुत लोग परेशान हैं. 
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सिल-बट्टे...


बाज़ार में तरह-तरह की नामी कंपनियों के tomato ketchup और saus मिल जाएंगे, लेकिन जो ज़ायक़ा घरों में सिल-बट्टे पर बनने वाली टमाटर, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च और हरे धनिये की चटनियों में है, वह कहीं और नहीं मिलेगा.
हालांकि अब घर-घर grinder mixer आ गए हैं. बाज़ार में भी हल्दी, मिर्च, धनिया से लेकर गरम मसाले तक पिसे हुए मिलने लगे हैं, लेकिन आज भी ऐसे घरों की कमी नहीं, जहां सभी मसाले सिल-बट्टे पर पीसे जाते हैं. हमारी नानी जान भी हमेशा सिल-बट्टे पर ही मसाला पीसा करती थीं. उनका कहना था कि खाने में जो ज़ायक़ा और ख़ुशबू सिल-बट्टे पर पिसे मसालों से आता है, वह grinder mixer में पिसे मसालों से नहीं आ पाता. हमारी एक मामी और उनकी बेटियां भी हमेशा सिल-बट्टे पर ही मसाला पीसती हैं. हालांकि इसमें मेहनत ज़्यादा है और वक़्त भी काफ़ी लग जाता है, लेकिन जिन्हें सिल-बट्टे के मसालों का ज़ायक़ा लग जाए, फिर कहां छूटता है.  हमारे घर में भी सिल-बट्टे वाली चटनी ही पसंद की जाती है. बहुत बरसों पहले जब हम नोएडा में जॉब करते थे और वहीं रहते थे, तब हमें नोएडा में सिल-बट्टा ख़रीदने के लिए बहुत घूमना पड़ा था. पुरानी दिल्ली में तो बहुत आसानी से मिल जाते हैं.

सिल- बट्टे को सही रखने के लिए इसे छेनी हथौड़ी से तराशा जाता है. गांव-क़स्बों में यह काम करने वाले गली-मुहल्लों में आवाज़ लगाते मिल ही जाते हैं. मगर बाज़ार मे मिलने वाले पिसे मसालों और grinder mixer की वजह से इन लोगों काम ख़त्म होता जा रहा है.

दैनिक अमृत विचार 




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