मुतासिर...

इंसान कभी भी, किसी से भी मुतासिर हो सकता है. कोई एक शख़्स होता है, जिसकी शख़्सियत ऐसी हुआ करती है कि वह किसी के भी दिलो-दिमाग़ पर छा जाता है.. लाख कोशिश करने पर भी ज़ेहन ख़ुद को उससे जुदा नहीं कर पाता. किसी शख़्स की कोई एक बात ही तो हुआ करती है, जिसकी वजह से वह हमारे वजूद पर इस क़द्र छा जाता है कि उसके सिवा कुछ और नज़र ही नहीं आता. कब वह हमारे ख़्वाबों में आने लगता है, कब उसका नाम कलमे की तरह हमारी ज़बान पर चढ़ जाता है, कब उसकी तस्वीर हमारी आंखों में बस जाती है, हमें पता ही नहीं चलता. शायद कुछ चीज़ें हमारे अपने अख़्तियार में नहीं हुआ करतीं.

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

मानद उपाधि


जब हम आठवीं जमात में पढ़ते थे, तब हमने इंग्लिश और हिन्दी की टाइपिंग सीखी थी. उस वक़्त हमारे लिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जो बाद में बहुत काम आई.   
नौवीं जमात में हमने एक वयोवृद्ध होम्योपैथिक चिकित्सक के साथ कई साल तक काम किया है. स्कूल से आने के बाद खाना खाते और फिर क्लीनिक चले जाते. इसके साथ ही चश्मे बनाने का काम भी वहीं सीखा. अपनी अम्मी की आंखें ख़ुद टेस्ट कीं. ख़ुद नम्बर देखा और ख़ुद ही उनका चश्मा बनाया. चश्मे का फ़्रेम उनकी पसंद का लिया. हमने शीशे को काटा और उसे फ़्रेम में फ़िट किया. अम्मी बहुत ख़ुश थीं. 
 
जब कोई मरीज़ आता, तो डॉक्टर अंकल उसका हाल पूछते और दवा हम ख़ुद देते. मरीज़ के जाने के बाद अंकल कहते- क़ाबिल हो. बहुत जल्दी सीख जाती हो. कुछ साल बाद हम चिकित्सा शिविरों में भी जाने लगे. ये अल्लाह का बहुत बड़ा करम है कि सीनियर डॉक्टर भी हमारी तारीफ़ करते. एक मेडिकल इंस्टीट्यूट ने हमें Diploma of biochemic medicine की मानद उपाधि से सम्मानित किया. हमें एक जगह से नौकरी का भी प्रस्ताव मिला. लेकिन हमें शायद कुछ और ही करना था. इसलिए उसे आदर सहित मना कर दिया. 

हमें अपने ख़ानदान के बुज़ुर्गों से भी बहुत कुछ सीखने को मिला. हमारी दादी जान को दवाओं का अच्छा इल्म था. हमें पढ़ने और मुख़्तलिफ़ चीज़ों का इल्म हासिल करने में बहुत दिलचस्पी है. ख़ासकर रूहानी इल्म. इस बारे में हम लिखते ही रहते हैं.

ख़ैर हम उन्हीं मर्ज़ के घरेलू इलाज के बारे में लिखते हैं, जिनसे हमने अपने आसपास लोगों को फ़ैज़ हासिल करते हुए देखा है. इंशा अल्लाह जल्द ही एक ऐसे मर्ज़ के इलाज के बारे में लिखेंगे, जिससे बहुत लोग परेशान हैं. 
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब...
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है... कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है... जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे  दोज़ख़ की आग का क्या ख़ौफ़...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (वजूद) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा है, जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...

हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...

बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना...शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते...उन्हें  दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे  दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है...जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी  दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?

बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की  दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत... जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो...

जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए, तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है...

किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है

मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है

मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है

मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से 
मुहब्बत रूठ जाती है


  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

सिल-बट्टे...


बाज़ार में तरह-तरह की नामी कंपनियों के tomato ketchup और saus मिल जाएंगे, लेकिन जो ज़ायक़ा घरों में सिल-बट्टे पर बनने वाली टमाटर, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च और हरे धनिये की चटनियों में है, वह कहीं और नहीं मिलेगा.
हालांकि अब घर-घर grinder mixer आ गए हैं. बाज़ार में भी हल्दी, मिर्च, धनिया से लेकर गरम मसाले तक पिसे हुए मिलने लगे हैं, लेकिन आज भी ऐसे घरों की कमी नहीं, जहां सभी मसाले सिल-बट्टे पर पीसे जाते हैं. हमारी नानी जान भी हमेशा सिल-बट्टे पर ही मसाला पीसा करती थीं. उनका कहना था कि खाने में जो ज़ायक़ा और ख़ुशबू सिल-बट्टे पर पिसे मसालों से आता है, वह grinder mixer में पिसे मसालों से नहीं आ पाता. हमारी एक मामी और उनकी बेटियां भी हमेशा सिल-बट्टे पर ही मसाला पीसती हैं. हालांकि इसमें मेहनत ज़्यादा है और वक़्त भी काफ़ी लग जाता है, लेकिन जिन्हें सिल-बट्टे के मसालों का ज़ायक़ा लग जाए, फिर कहां छूटता है.  हमारे घर में भी सिल-बट्टे वाली चटनी ही पसंद की जाती है. बहुत बरसों पहले जब हम नोएडा में जॉब करते थे और वहीं रहते थे, तब हमें नोएडा में सिल-बट्टा ख़रीदने के लिए बहुत घूमना पड़ा था. पुरानी दिल्ली में तो बहुत आसानी से मिल जाते हैं.

सिल- बट्टे को सही रखने के लिए इसे छेनी हथौड़ी से तराशा जाता है. गांव-क़स्बों में यह काम करने वाले गली-मुहल्लों में आवाज़ लगाते मिल ही जाते हैं. मगर बाज़ार मे मिलने वाले पिसे मसालों और grinder mixer की वजह से इन लोगों काम ख़त्म होता जा रहा है.

दैनिक अमृत विचार 




  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS