मुहब्बत का मीम


इंसान में जब तक ’मैं’ है, तब तक वह न तो अपने मिज़ाजी महबूब को पा सकता है और न ही हक़ीक़ी महबूब को... मुहब्बत में पहले ख़ुद को मिटाना पड़ता है, तब कहीं जाकर इंसान मुहब्बत का मीम ही सीख पाता है...
बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब-
न था कुछ तो, ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

0 Response to "मुहब्बत का मीम"

एक टिप्पणी भेजें