जंगली फूल...
-फ़िरदौस ख़ान
एक जंगली फूल था. महकता गुलाब का गुलाबी फूल. जंगल उसका घर था. जंगली हवाएं उसे झूला झुलाती थीं. ओस के क़तरे उसे भिगोते थे. सूरज की सुनहरी किरने उसे संवारती थीं. जो भी उसे एक बार देखता, बस देखता रह जाता. राहगीर रुक-रुक कर उसे देखते, उसकी तारीफ़ करते और आगे बढ़ जाते. उसे अपनी क़िस्मत पर नाज़ था.
उस फूल के दिल में बहुत से अरमान थे. वो सुर्ख़ हो जाना चाहता था. वो सोचा करता था, जिस रोज़ उसे किसी की मुहब्बत मिल जाएगी, उसकी मुहब्बत में रंग कर वो सुर्ख़ हो जाएगा. लेकिन क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था. वक़्त बदला. एक रोज़ एक मुसाफ़िर ने उसे तोड़ लिया. फूल का नया सफ़र शुरू हुआ. मुसाफ़िर ने उसे अपने कमरे के एक छोटे से गुलदान में सजा दिया. वो गुलदान में पानी डालना भूल गया या उसने जानबूझ कर ऐसा किया, ये तो मुसाफ़िर ही बेहतर जाने. मुसाफ़िर रोज़ सुबह चला जाता और जब रात ख़त्म होने लगती तब आता. एक दिन मुसाफ़िर परदेस चला गया है. बंद कमरे में फूल क़ैद होकर रह गया. कमरे में कोई खिड़की नहीं थी, बस एक छोटा-सा रौशनदान था, जिसमें से हल्की रौशनी आती थी. इसी से पता चलता था कि कब दिन उगा और कब रात घिर आई. फूल दिन रात तन्हा और उदास रहता. उसका दम घुटने लगा था. उसे न पानी मिलता था, न हवा और न ही भरपूर रौशनी. दिनोदिन वो मुरझाने लगा. उसे दिन रात ज़ारो-क़तार रोता रहता. उसकी सिसकियां कमरे की दीवारों से टकराकर रह जातीं.
एक रोज़ उसे किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी. शायद किसी ने उसकी आवाज़ सुन ली थी. फूल को लगा कि वो इस क़ैद से निजात पा सकता है. उसकी आंखों में उम्मीद की एक किरन चमकी. बाहर कोई राहगीर था. फूल ने उसे पुकारा. राहगीर रुक गया. वो देखने लगा कि आवाज़ कहां से आ रही है. घर को बंद पाकर राहगीर ने रौशनदान से झांका, उसे फूल दिखाई दिया. फूल ने उसे अपनी आपबीती सुनाई. राहगीर ने उससे कहा कि वो मजबूर है. वो उसे इस अपने साथ नहीं ले जा सकता है. हां, इतना ज़रूर कर सकता है कि वो ऊपर से ही गुलदान में थोड़ा-सा पानी डाल दे. और उसे जब भी वक़्त मिलेगा वो गुलदान में पानी डाल दिया करेगा, ताकि फूल को पानी मिल सके और वो ज़िन्दा रह सके. राहगीर को फूल से मुहब्बत हो गई थी. लेकिन ये भी सच है कि मजबूरियां मुहब्बत को पनपने नहीं देतीं.
राहगीर पानी लेने चला गया. फूल सोचने लगा. उसे सिर्फ़ पानी ही तो नहीं चाहिए. ज़िन्दा रहने के लिए हवा और रौशनी की भी ज़रूरत हुआ करती है. ऐसी ज़िन्दगी का क्या हासिल, जिसमें न उसका प्यारा जंगल हो, न जंगली हवाएं हों, न ओस के क़तरे हों, न सूरज की सुनहरी किरने हों. उसकी सारी उम्मीदें दम तोड़ चुकी थीं.
उसने अब अपनी ज़िन्दगी से समझौता कर लिया था. वो चाहता था कि वो पंखुड़ी-पंखुड़ी होकर बिखरने की बजाय एक बार ही बिखर जाए, फ़ना हो जाए. लेकिन एक बार वो अपने उस मसीहा से मिलना चाहता था, जिसने कम से कम एक लम्हे के लिए ही सही उसकी आंखों में उम्मीद की चमक पैदा की, उसके दिल में फिर से जी लेने की ख़्वाहिश को जगाया तो सही.
अब वो अपने प्यारे राहगीर के लिए दुआएं कर रहा था.
20 नवंबर 2014 को 12:22 pm बजे
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.11.2014) को "इंसान का विश्वास " (चर्चा अंक-1804)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
21 नवंबर 2014 को 11:16 am बजे
वक़्त के मुताबिक सही आंकलन
25 नवंबर 2014 को 12:16 pm बजे
फूल का जीवन ही है औरों के लिए महकना ...
1 अप्रैल 2015 को 9:38 pm बजे
सबसे पहले तो वेब पेज के जबरदस्त आउट लुक के लिए बधाई। पढ़ने से पहले ही इस पेज की तारीफ करने से मैं खुद को रोक नहीं पाया!
1 अप्रैल 2015 को 9:40 pm बजे
फूल कहानी कहें या आपबीती - सुन्दर है पर दुखद है