क़ब्र...
मैं
ज़िन्दगी को
जीना चाहती थी
अपने लिए
एक घर चाहती थी
एक ऐसा घर
जिसकी बुनियाद
ख़ुलूस की ईंटों से बनी हो
जिसके आंगन में
बेला और मेहंदी महकती हों
जिसकी क्यारियों में
रफ़ाक़तों के फूल खिलते हों
जिसकी दीवारें
कुर्बतों की सफ़ेदी से पुती हों
जिसकी छत पर
दुआएं
चांद-सितारे बनकर चमकती हों
जिसके दालान में
हसरतें अंगड़ाइयां लेती हों
जिसके दरवाज़ों पर
उम्र की हसीन रुतें
दस्तक देती हों
जिसकी खिड़कियों में
बच्चों-सी मासूम ख़ुशियां
मुस्कराती हों
और
जिसकी मुंडेरों पर
अरमानों के परिन्दे चहकते हों...
मगर
ऐसा हो न सका
आलम ये है
कि मुझे ख़्वाब में भी
घर नहीं दिखता
अब
मेरे तसव्वुर में
बस एक क़ब्र ही रहा करती है
एक ऐसी क़ब्र
जो किसी वीरान क़ब्रिस्तान में
एक घने दरख़्त के साये तले है
मैं सोचती हूं
उस वीरान क़ब्र के बारे में
जिसमें मैं सुकून से सो सकूं...
-फ़िरदौस ख़ान
10 नवंबर 2014 को 3:09 pm बजे
असली चीज तो वही है ...मगर वह कब्र कहीं बाहर नहीं है... है अपने ही मन की अतल गहराई में...