लड़की...
फ़िरदौस ख़ान
लड़की छत पर टहल रही थी. मौसम ख़ुशगवार था. आसमान में काली घटायें छाई हुई थीं. ठंडी हवा चल रही थी. लगता था, कहीं दूर बारिश हो रही है. लड़की बेचैन थी. वह क्यों बेचैन थी, इसका जवाब वह ख़ुद भी नहीं जानती थी. बस वो भीगना चाहती थी. वह चाहती थी कि सारी घटा यहीं बरस जाए और उसका रोम-रोम बारिश में भीग जाए. बूंदों की ठंडक उसके जिस्म में समा जाए, उसकी रूह में उतर जाए. लेकिन किसी के चाहने से घटायें कहां बरसने वाली थीं. उन्हें जब और जहां बरसना होता है, वहीं बरसा करती हैं.
वहीं कुछ दूर छत पर एक लड़का पतंग उड़ा रहा था. उसकी नज़र लड़की पर पड़ती है. न जाने क्या सोचकर लड़का पतंग की डोर एक बच्चे को पकड़ा देता है और ख़ुद लड़की को निहारने लगता है. शायद उसे लंबे बालों वाली लड़की अच्छी लगी थी. लड़की का सब्ज़ लिबास और हवा में लहराता उसका दुपट्टा उसे अपनी तरफ़ खींच रहा था. अचानक लड़की की नज़र उस लड़के पर पड़ती है. पहली ही नज़र में उसे लड़का अच्छा लगता है. उसने महसूस किया कि उसकी बेचैनी ख़त्म हो चुकी है. तभी बारिश होने लगती है और लड़की पानी की बूंदों को अपनी हथेलियों के कटोरे में भर लेना चाहती है. लड़का अब भी उसे निहार रहा है. लड़की को महसूस होता है कि अचानक सावन आग बरसाने लगा है, जिसमें वह झुलसती जा रही है. लड़की छत से नीचे उतर आती है. मौसम अब भी ख़ुशगवार है. बादल बरस रहे हैं और वो भीगना चाहती है, लेकिन छत पर नहीं जाना चाहती. उसे लगता है कि लड़के की नज़रों से ये सावन सुलगने लगा है.
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