ग़ालिब का है अंदाज़-ए बयां और
फ़िरदौस ख़ान
ग़ालिब एक ऐसे शायर हुए हैं, जो अपनी बेहतरीन शायरी के लिए सदियों तक याद किए जाते रहेंगे. उनकी शायरी में ज़िंदगी के ख़ूबसूरत रंग हैं. ग़ालिब के बिना उर्दू शायरी अधूरी है. हिन्द पॉकेट बुक्स ने एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है ग़ालिब. इस किताब में उर्दू और फ़ारसी के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के संक्षिप्त जीवन परिचय के साथ उनका चुनिंदा कलाम दिया गया है. किताब के संपादक प्रकाश पंडित ने इस किताब में फ़ारसी के शब्दों का हिंदी अनुवाद भी दिया है, जिससे पाठकों को शायरी को समझने में आसानी रहेगी. मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असद उल्लाह बेग ख़ां है. उनका जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा में मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग के घर हुआ. उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग ख़ान मध्य एशिया के समरक़ंद से अहमद शाह के शासनकाल में हिंदुस्तान आए थे. कुछ अरसे तक वह दिल्ली, लाहौर और जयपुर में रहे. लेकिन बाद में उन्होंने आगरा में बसने का फ़ैसला किया और फिर यहीं के होकर रह गए. उनके दो बेटे और तीन बेटियां थीं. उनके बेटों के नाम मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ख़ान और मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ख़ान थे. मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ने इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपनी ससुराल में रहने लगे. उन्होंने लखनऊ के नवाब और हैदराबाद के निज़ाम के पास काम किया. 1803 में अलवर में जंग के दौरान उनकी मौत हो गई. उस व़क्त ग़ालिब महज़ पांच साल के थे. उनकी परवरिश उनकी ननिहाल में हुई. उनकी तालीम उर्दू और फ़ारसी में हुई. ईरान के मशहूर विद्वान अब्दुल समद ने उन्हें फ़ारसी और अदब की तालीम दी. अब्दुल समद दो साल के लिए आगरा आए थे और वह ग़ालिब से बहुत प्रभावित थे. महज़ 13 साल की उम्र में नवाब इलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से उनका निकाह हो गया. शादी के कुछ वक़्त बाद वह दिल्ली आ गए और तमाम उम्र यहीं रहे. वह गली क़ासिमजान में रहते थे. दिल्ली में शायराना माहौल था. आए दिन शेअरों-शायरी की महफ़िलें जमा करती थीं. वह भी मुशायरों में शिरकत करते और अपने उम्दा कलाम की बदौलत मुशायरें लूटा करते. पहले वह असल उपनाम से लिखते थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपना उपनाम ग़ालिब रख लिया. उर्दू शायरी में उस्ताद-शार्गिद की परंपरा है, लेकिन वह किसी के शागिर्द नहीं थे. वह अपने आलोचक ख़ुद ही थे. ग़ालिब मशहूर शायर बेदिल से बहुत मुतासिर थे और उन्हीं से प्रभावित होकर उन्होंने तक़रीबन दो हज़ार शेअर लिख दिए.
अपनी शायरी के ख़ूबसूरत अंदाज़ की वजह से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान क़ायम की. वह ख़ुद कहते हैं-
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए बयां और
ग़ालिब के ज़माने में उर्दू शायरी इश्क़, मुहब्बत, विसाल, हिज्र और हुस्न की तारीफ़ों तक सिमटी हुई थी. उन्होंने यह सब पसंद नहीं था. इस बारे में वह कहते हैं-
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयां के लिए
उन्होंने अपनी शायरी में ज़िंदगी के दूसरे रंगों को भी शामिल किया. उनकी शायरी में फ़लस़फा है. हालांकि उस वक़्त कुछ लोगों ने उनका मज़ाक़ भी उड़ाया, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की. वह कहते हैं-
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में माने, न सही
मिर्ज़ा ग़ालिब मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी शायर भी रहे. शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद्दौला के ख़िताब से नवाज़ा. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा के ख़िताब से भी सम्मानित किया गया. वह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में महत्वपूर्ण दरबारी थे. उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के ब़डे बेटे फ़क़रुद्दीन मिर्ज़ा का शिक्षक तैनात किया गया. इसके अलावा वह म़ुगल दरबार के शाही इतिहासकार भी रहे.
उनकी ज़्यादातर ज़िंदगी मुफ़लिसी में गुज़री. वह बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे. उन्होंने अपने स्वाभिमान के आगे कभी समझौता नहीं किया. एक मिसाल पेश है. 1852 में उन्हें नौकरी का बुलावा आया. दिल्ली कॉलेज में उन्हें फ़ारसी का प्रमुख शिक्षक बनाया गया था. अपनी तंगहाली को देखते हुए उन्होंने यह प्रस्ताव मंज़ूर कर लिया. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के सचिव टॉमसन ने बुलावा भेजा था. मिर्ज़ा ग़ालिब पालकी में बैठकर उनके बंगले पर पहुंच गए. अंदर कहलवा भेजा और इंतज़ार करने लगे, लेकिन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए. इससे ग़ालिब के आत्मसम्मान को ठेंस पहुंची और उन्होंने उसी वक़्त कहारों को आदेश दिया कि पालकी वापस अपने घर लौटा ले चलो. जब टॉमसन को उनकी नाराज़गी के बारे में पता चला तो उन्होंने ग़ालिब को समझाना चाहा कि वह ख़ास मुलाक़ाती तो हैं नहीं, ताकि बाहर आकर उनका स्वागत किया जाता, वह तो नौकरी के लिए आए हैं. इस पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा कि जनाबे आली, अगर नौकरी का मतलब यह है कि इससे इज्ज़त में कमी आ जाएगी, तो ऐसी नौकरी मुझे मंज़ूर नहीं. उन्होंने आदाब बजाया और पालकी में सवार होकर लौट गए. ऐसे से मिर्ज़ा ग़ालिब. उन्होंने कई मुसीबतों का सामना किया, लेकिन कभी किसी से मदद नहीं मांगी. उन पर क़र्ज़ इतना था कि उनका घर से बाहर निकलना दुश्वार हो गया. अपनी ख़स्ता हालत में भी वह ज़िंदादिल रहे. वह कहते हैं-
क़र्ज़ की पीते थे लेकिन समझते थे कि
हां रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती इक दिन
ग़ालिब की शायरी में ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त भी है और रूहानी का जज़्बा भी. बानगी देखिए-
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाले-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान झूठ जाना
कि खु़शी से मर न जाते अगर एतबार होता
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूं सवाबे-ताअतो-ज़हद
पर तबीअत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात, जो चुप हूं
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न ची़खूं कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारागर, नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है, पर नहीं आती
काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती
मैं उन्हें छे़डू, और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिये होते
क़हर हो या बला हो जो कुछ हो
काश कि तुम मेरे लिए होते
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब
कोई दिन और भी जिए होते
दिले नादां, तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही, ये माजरा क्या है
मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं
काश, पूछो कि मुद्दा क्या है
ग़ालिब की ज़िंदगी परेशानियों में बीती. उनके सात बच्चे हुए, लेकिन कोई भी ज़िंदा नहीं रह पाया. उनकी ज़िंदगी का आख़िरी हिस्सा भी बीमारी में गुज़रा. उन्होंने लिखा-मेरे मुहिब, मेरे महबूब तुमको मेरी ख़बर भी है? पहले नाजवां था, अब नीम जान हूं. आगे बहरा था, अब अंधा हुआ जाता हूं. जहां चार सतरें लिखीं, उंगलियां टेढ़ी हो गईं. हरूफ़ सजने से रह गए. इकहत्तर बरस जीया, बहुत जीया, अब ज़िंदगी बरसों ही नहीं, महीनों और दिनों की है. उनका लिखा सच हो गया और इस तहरीर से कुछ दिन बाद यानी 15 फ़रवरी, 1869 को वह इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख्सत हो गए.
पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाए कि हम बतलाएं क्या...
समीक्ष्य कृति : ग़ालिब
संपादक : प्रकाश पंडित
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये
28 दिसंबर 2013 को 11:56 am बजे
आज 28/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
28 दिसंबर 2013 को 3:10 pm बजे
सुन्दर लेख