मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

वाल्ट व्हिटमेन के शब्दों में " ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने इंसान को जितना मसरूफ़ बना दिया है, उतना ही उसे अकेला भी कर दिया है...हालांकि...आधुनिक संचार के साधनों ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है...मोबाइल, इंटरनेट के ज़रिये सात समन्दर पार किसी भी पल किसी से भी बात की जा सकती है...इसके बावजूद इंसान बहुत अकेला दिखाई देता है...बहुत अकेला...क्योंकि भौतिकतावाद ने 'अपनापन' जैसे जज़्बे को कहीं पीछे छोड़ दिया है...
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6 Response to "मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं..."

  1. संजय भास्‍कर says:
    25 मार्च 2010 को 8:15 am बजे

    ओ राही! अगर तुझे मुझसे बात करने की इच्छा हुई तो मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं...

    लाजवाब पंक्तियाँ ..............

  2. drsatyajitsahu.blogspot.in says:
    25 मार्च 2010 को 1:37 pm बजे

    "बाद मुद्दत तुम्हें देख कर ये लगा
    जैसे बेचैन दिल को करार आ गया"
    बात करने से ही बात नहीं बनती है ,दिल मिले तो दूरियां कम हो कर एकात्मता की स्थति ही सच्चा संवाद है ,यही प्रेम है

  3. shikha varshney says:
    25 मार्च 2010 को 3:28 pm बजे

    भीड़ से घिरा है ,फिर भी अकेला है ..यही तो दुर्भाग्य है फ़िरदौस जी!

  4. M VERMA says:
    25 मार्च 2010 को 5:57 pm बजे

    सही है तब हम दूर थे पर कितने नज़दीकी थी.

  5. Fauziya Reyaz says:
    26 मार्च 2010 को 11:26 am बजे

    isi ko ko kehte hain...mehfil mein bhi tanhaai

  6. Unknown says:
    2 अप्रैल 2010 को 8:45 pm बजे

    मैं भी तुझसे क्यों न बात करूं.....
    हम भी आपसे सहमत हैं.....

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