वक़्त का दरिया


वक़्त कभी किसी के लिए नहीं ठहरता... कुछ साल ऐसे हुआ करते हैं, जो यादों के माज़ी को ख़ूबसूरत यादें देकर जाते हैं और कुछ साल अपने में दर्द समेटे होते हैं... ये साल भी जा रहा है, माज़ी को कई ख़ूबसूरत यादों की सौग़ात सौंपकर... कुछ लम्हे मुहब्बत से सराबोर हैं, तो कुछ लम्हों में दर्द समाया है...
अब बस इतना करना है कि ख़ूशनुमा लम्हों को यादों के संदूक़ में क़रीने से सहेज कर रख देना है, अहसास के मख़मली रुमाल में लपेट कर... और दर्द में भीगे लम्हों को किसी ऐसी जगह दफ़न कर देना है, जहां से कभी किसी का गुज़र तक न हो...
मुहब्बत के कुछ लम्हे अपने साथ भी रखने हैं... जिन्हें वक़्त के दरिया में बहते रहना है, ताकि ये जहां-जहां से गुज़रें.... उस धरती की फ़िज़ा को मुहब्बत से महकाते रहें... 
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साहित्य, हम और जावेद अख्तर...


फ़िरदौस ख़ान
हमारी ज़िंदगी में किताबों की बहुत अहमियत है... हम तो किताबों के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर तक नहीं कर सकते... उन्हें भी किताबें पढ़ने का इतना ही शौक़ है... सफ़र में जाते वक़्त सबसे पहले किताब ही बैग में रखते हैं... किताबें पढ़ना एक अच्छी आदत... जिसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए... किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं... ये हमें अज्ञान के अंधेरे से ज्ञान की रौशनी में ले जाती हैं... अख़बार में भी हम संपादकीय के बाद सबसे पहले उसका साहित्य पेज ही देखते हैं... लेकिन अकसर मायूसी ही हाथ आती है, क्योंकि अब अख़बारों से साहित्य ग़ायब होता जा रहा है...

साहित्य समाज का आईना होता है. जिस समाज में जो घटता है, वही उस समाज के साहित्य में दिखलाई देता है. साहित्य के ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद नहीं हुआ है. साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है. जिस समाज का साहित्य जितना ज़्यादा उत्कृष्ट होगा, वह समाज उतना ही ज़्यादा सुसंस्कृत और समृद्ध होगा. प्राचीन भारत की गौरवमयी संस्कृति का पता इसके साहित्य से ही चलता है. प्राचीन काल में भी यहां के लोग सुसंस्कृत और शिक्षित थे, तभी उस समय वेद-पुराणों जैसे महान ग्रंथों की रचना हो सकी. महर्षि वाल्मीकि की रामायण और श्रीमद भागवत गीता भी इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. हिंदुस्तान में संस्कृत के साथ हिंदी और स्थानीय भाषाओं का भी बेहतरीन साहित्य मौजूद है. एक ज़माने में साहित्यकारों की रचनाएं अख़बारों में ख़ूब प्रकाशित हुआ करती थीं. कई प्रसिद्ध साहित्यकार अख़बारों से सीधे रूप से जु़डे हुए थे. साहित्य पेज अख़बारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, लेकिन बदलते वक़्त के साथ-साथ अख़बारों और पत्रिकाओं से साहित्य ग़ायब होने लगा. इसकी एक बड़ी वजह अख़बारों में ग़ैर साहित्यिक लोगों का वर्चस्व भी रहा. उन्होंने साहित्य की बजाय सियासी विषयों और गॉसिप को ज़्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया. अख़बारों और पत्रिकाओं में फ़िल्मी, टीवी गपशप और नायिकाओं की शरीर दिखाऊ तस्वीरें प्रमुखता से छपने लगीं.

पिछले दिनों एक मुलाक़ात के दौरान इसी मुद्दे पर मशहूर फ़िल्म गीतकार जावेद अख्तर साहब से गुफ़्तगू हुई. इसी साल मार्च में हमने उनके ग़ज़ल और नज़्म संग्रह लावा की समीक्षा की थी... इसे राजकमल प्रकाशन ने शाया किया था... क़रीब डेढ़ दशक से ज़्यादा अरसे बाद दूसरा संग्रह आने पर जावेद साहब ने कहा था-अगर मेरी सुस्ती और आलस्य को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो इस देर की एक वजह बताई जा सकती है कि मेरे ख्याल में एक के बाद दूसरे संग्रहों का अंबार लगा देना अपने अंदर कोई कारनामा नहीं है. मैं समझता हूं कि अगर अंबार लगे तो नए-नए विचारों का. जिस विचार को रचना का रूप मिल चुका हो, जिस विचार को अभिव्यक्ति मिल चुकी हो, उसे अगर किसी कारण कहने की ज़रूरत महसूस भी हो रही हो, तो कम से कम कथन शैली में ही कोई नवीनता, कोई विशिष्टता हो, वरना पाठक और श्रोता को बिना वजह तकलीफ़ क्यों दी जाए. अगर नवीनता स़िर्फ नयेपन के लिए है तो कोई लाख समझे कि उसकी शायरी में सु़र्खाब के पर लग गए हैं, मगर उन परों में उड़ने की ताक़त नहीं हो सकती. बात तो जब है कि अक़ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उसे तन्हा छोड़ दिया गया है. मैं जानता हूं कि इसमें असंगति है, मगर बेख़ुदी-ओ-शायरी, सादगी-ओ-पुरकारी, ये सब एक साथ दरकार हैं. वह कहते हैं, दरअसल, शायरी बुद्धि और मन का मिश्रण, विचार और भावनाओं का समन्वय मांगती है. मैंने सच्चे दिल से यही कोशिश की है कि मैं शायरी की यह फ़रमाईश पूरी कर सकूं. शायद इसलिए देर लग गई. फिर भी कौन जाने यह फ़रमाईश किस हद तक पूरी हो सकी है. बहरहाल, जावेद साहब की किताब लावा के बारे में फिर कभी तफ़सील से बात करेंगे. इसलिए मुद्दे पर आते हैं.

अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर जावेद साहब का कहना था-यह एक बहुत ही परेशानी और सोच की बात है कि हमारे समाज में ज़ुबान सिकु़ड़ रही है, सिमट रही है. हमारे यहां तालीम का जो निज़ाम है, उसमें साहित्य को, कविता को वह अहमियत हासिल नहीं है, जो होनी चाहिए थी. ऐसा लगता है कि इससे क्या होगा. वही चीज़ें काम की हैं, जिससे आगे चलकर नौकरी मिल सके, आदमी पैसा कमा सके. अब कोई संस्कृति और साहित्य से पैसा थोड़े ही कमा सकता है. पैसा कमाना बहुत ज़रूरी चीज़ है. कौन पैसा कमा रहा है और ख़र्च कैसे हो रहा है, यह भी बहुत ज़रूरी चीज़ है. यह फ़ैसला इंसान का मज़हब और तहज़ीब करते हैं कि वह जो पाएगा, उसे ख़र्च कैसे करेगा. जब तक आम लोगों ख़ासकर नई नस्ल को साहित्य के बारे में, कविता के बारे में नहीं मालूम होगा, तब तक ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो ही नहीं सकती. अगर आम इंसान को इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा तो फिर वह अख़बारों से भी ग़ायब होगा, क्योंकि अख़बार तो आम लोगों के लिए होते हैं. मैं समझता हूं कि हमें अपने अख़बारों पर नाराज़ होने और शिकायतें करने की बजाय अपनी शैक्षिक व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. हमें साहित्य को स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक महत्व देना होगा. अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी साहित्य को जगह देनी होगी. जब हम ख़ुद साहित्य की अहमियत समझेंगे तो वह किताबों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में भी झलकेगा.

वरिष्ठ साहित्यकार असग़र वज़ाहत भी अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर फ़िक्रमंद नज़र आते हैं. उनका कहना है कि अख़बार समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं. मौजूदा दौर में अख़बारों से साहित्य ग़ायब हो गया है. इसे दोबारा वापस लाया जाना चाहिए, क्योंकि आज इसकी सख्त ज़रूरत है. वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी का मानना था कि अख़बारों से साहित्य ग़ायब होने के लिए सिर्फ़ अख़बार वाले ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. पहले जो पढ़ने-लिखने जाते थे, वही लोग अख़बारों के भी पाठक होते थे. पहले जो व्यक्ति पाठक रहा होगा, उसने शेक्सपियर भी पढ़ा था. उसने रवींद्रनाथ टैगोर को भी पढ़ा था. उसने प्रेमचंद, शरतचंद्र, मार्क्स और टॉलस्टाय को भी पढ़ा था. लेकिन सरकार के साक्षरता अभियान की वजह से समाज में साक्षरता तो आ गई, लेकिन पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हो गई. नव साक्षरों की तरह ही नव पत्रकारों को भी साहित्य की ज़्यादा जानकारी नहीं है. पहले भी साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों को अख़बारों से पर्याप्त साहित्य पढ़ने को कहां मिलता था. वे साहित्य पढ़ने की शुरुआत तो अ़खबारों से करते थे, लेकिन साहित्यिक किताबों से ही उनकी पढ़ने की ललक पूरी होती थी. अब लोग अख़बार पढ़ने की बजाय टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में अख़बारों से साहित्य ग़ायब होगा ही.

माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी डॉ. सौरभ मालवीय अख़बारों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है कि वर्तमान में मीडिया समाज के लिए मज़बूत कड़ी साबित हो रहा है. अख़बारों की प्रासंगिकता हमेशा से रही है और आगे भी रहेगी. मीडिया में बदलाव युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से अख़बारों में गिरावट देखने को मिल रही है. इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में अख़बारों से साहित्य लोप हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में अख़बारों की महती भूमिका रही है. मगर आज अख़बारों ने ही ख़ुद को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है. आज ज़रूरत है कि अख़बारों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएं. युवा लेखक अमित शर्मा का कहना है कि राजेंद्र माथुर अख़बार को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे. अब न उस तरह के संपादक रहे, न अख़बारों में साहित्य के लिए स्थान. साहित्य महज़ साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्‌स में सिमट गया है. अब वह भी ब्रांडिंग साहित्य की भेंट च़ढ रहे हैं. पहला पेज रोचक कहानी और विज्ञापन में खप जाता है. अंतिम पेज को भी विज्ञापन और रोचक जानकारियां सरीखे कॉलम ले डूबते हैं. भीतर के पेज 2-3 में साप्ताहिक राशिफल आदि स्तंभ देने के बाद कहानी-कविता के नाम कुछ ही हिस्सा आ पाता है. ऐसे में साहित्य सिर्फ़ कहानी-कविता को मानने की भूल भी हो जाती है. निबंध, रिपोर्ताज, नाटक जैसी अन्य विधाएं तो हाशिए पर ही फेंक दी गई हैं.

इस सबके बीच अच्छी बात यह है कि आज भी चंद अख़बार साहित्य को अपने में संजोए हुए हैं... वक़्त बदलता रहता है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में अख़बारों में फिर से साहित्य पढ़ने को मिलने लगे... कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है...साहित्य प्रेमी भी अपने लिए अच्छी पत्र-पत्रिकाएं तलाश लेते हैं... बिलकुल हमारी तरह...
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Rest in Peace


जब कोई किसी की मौत की ख़बर सुनता है, तो उसके लिए कुछ लफ़्ज़ बोलता है, जिसे आप ख़िराजे-अक़ीदत कह सकते हैं...
बात इस्लाम को मानने वाले की करते हैं... जब कोई मुसलमान, किसी मुसलमान के मरने की ख़बर सुनता है, तो वह कहता है-
ಯಹ್
إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّـا إِلَيْهِ رَاجِعون
यानी Inna Lillahi Wa inna Ilayhi Rajioon
यानी हम बेशक ख़ुदा से ताल्लुक़ रखते हैं और हमें उसी के पास लौट कर जाना है...
(क़ुरआन सूरह अल-बक़रा 2:156 )

मुसलमान जब किसी ऐसे ग़ैर मुस्लिम की मौत की ख़बर सुनता है, जिसे जलाया गया है, वह तो कहता है-
فِي نَارِ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا
यानी Fee nari jahannama khalidin fihaa
यानी वह दोज़ख़ की आग में है...
(क़ुरआन : सूरह अल-बैयिनह 98:‍6)

दोज़ख़ में हर तरफ़ आग ही आग होगी, क़ुरआन में कई जगह दोज़ख़ का ज़िक्र किया गया है.

अब बात अहले-किताब यानी ईसाइयों की... ईसाई जब किसी ईसाई की मौत की ख़बर सुनता है, तो कहता है-
Rest in Peace
यानी सुकून से आराम करो...
Rest in Peace की जगह RIP भी लिखा जाता है...
आजकल ग़ैर ईसाई भी Rest in Peace या RIP का ख़ूब इस्तेमाल कर रहे हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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आज पहली दिसंबर है...


फ़िरदौस ख़ान
आज पहली दिसंबर है... दिसंबर का महीना हमें बहुत पसंद है... क्योंकि इसी माह में क्रिसमस आता है... जिसका हमें सालभर बेसब्री से इंतज़ार रहता है... यानी क्रिसमस के अगले दिन से ही इंतज़ार शुरू हो जाता है... इस साल मिलाद-उल-नबी यानी हमारे प्यारे आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की यौमे-विलादत भी है...
दिसंबर में ही हमारी जान फ़लक की सालगिरह भी तो आती है...
इस महीने में दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं... और रातें छोटी होने लगती हैं... यह बात अलग है कि इसका असर जनवरी में ही नज़र आता है... दिसंबर में ठंडी हवाएं चलने लगती हैं... सुबह और शामें कोहरे से ढकी होती हैं... क्यारियों में गेंदा और गुलाब महकने लगते हैं... सच, बहुत ख़ूबसूरत होता है दिसंबर का महीना...
इसी महीने में अपने साल भर के कामों पर ग़ौर करने का मौक़ा भी मिल जाता है... यानी इस साल में क्या खोया और क्या पाया...? नये साल में क्या पाना चाहते हैं... और उसके लिए क्या तैयारी की है...वग़ैरह-वग़ैरह...

ग़ौरतलब है कि दिसंबर ग्रेगोरी कैलंडर के मुताबिक़ साल का बारहवां महीना है. यह साल के उन सात महीनों में से एक है, जिनके दिनों की तादाद 31 होती है. दुनिया भर में ग्रेगोरी कैलंडर का इस्तेमाल किया जाता है. यह जूलियन कालदर्शक का रूपातंरण है. ग्रेगोरी कालदर्शक की मूल इकाई दिन होता है. 365 दिनों का एक साल होता है, लेकिन हर चौथा साल 366 दिन का होता है, जिसे अधिवर्ष कहते हैं. सूर्य पर आधारित पंचांग हर 146,097 दिनों बाद दोहराया जाता है. इसे 400 सालों मे बांटा गया है. यह 20871 सप्ताह के बराबर होता है. इन 400 सालों में 303 साल आम साल होते हैं, जिनमें 365 दिन होते हैं, और 97 अधि वर्ष होते हैं, जिनमें 366 दिन होते हैं. इस तरह हर साल में 365 दिन, 5 घंटे, 49 मिनट और 12 सेकंड होते है. इसे पोप ग्रेगोरी ने लागू किया था.
 (हमारी डायरी से)



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तुम्हें कौन-से फूल भेजूं...

फिरदौस खान
फूल…फ़िज़ा में भीनी-भीनी महक बिखेरते रंग-बिरंगे फूल किसी का भी मन मोह लेने के लिए काफ़ी हैं…सुबह का कुहासा हो या गुलाबी शाम की ठंडक…पौधों को पानी देते वक़्त कुछ लम्हे बेला, गुलाब और चंपा-चमेली के साथ बिताने का मौक़ा मिल ही जाता है…गुलाबों में तो अभी नन्हीं कोंपलें ही फूट रही हैं, जबकि चमेली और चंपा के फूल शाम को महका रहे हैं…फूलों के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर ही बेमानी लगता है… उन्हें महकते सुर्ख़ गुलाब पसंद हैं और हमें सफ़ेद फूल ही भाते हैं, चाहे वे गुलाब के हों, बेला, चमेली, चम्पा, जूही या फिर रात की रानी के...
फूल प्रेम का प्रतीक हैं…आस्था और श्रद्धा प्रकट करने के लिए भी फूलों से बेहतर और कोई सांसारिक वस्तु नहीं है…कहते हैं कि देवी-देवताओं को उनके प्रिय फूल भेंट कर प्रसन्न किया जा सकता है… श्रद्धालु अपने इष्ट देवी-देवताओं को उनके प्रिय फूल अर्पित कर मनचाही मुराद पाते हैं…
हमारे देश में ख़ासकर हिंदू धर्म में विभिन्न धार्मिक कार्यों में फूलों का विशेष महत्व है. धार्मिक अनुष्ठान, पूजा और आरती आदि फूलों के बिना पूरे ही नहीं माने जाते हैं. भगवान विष्णु को कमल, मौलसिरी, जूही, चंपा, चमेली, मालती, वासंती, वैजयंती कदम्ब, अपराजिता, केवड़ा और अशोक के फूल बहुत प्रिय हैं. भगवान विष्णु को पीला रंग प्रिय है. इसलिए उनकी पूजा में पीले रंग के फूल विशेष रूप से शामिल किए जाते हैं. भगवान श्रीकृष्ण को परिजात यानी हरसिंगार, पलाश, मालती, कुमुद, करवरी, चणक, नंदिक और वनमाला के फूल प्रिय हैं. इसलिए उन्हें ये फूल अर्पित करने की परंपरा है. कहा जाता है कि परिजात का पेड़ स्वर्ग का वृक्ष है और यह देवताओं को बहुत प्रिय है. रुक्मणि को परिजात के फूल बहुत पसंद थे, इसलिए श्रीकृष्ण परिजात को धरती पर ले आए थे. भगवान शिव को धतूरे के फूल, नागकेसर के फूल, कनेर, सूखे कमल गट्टे, कुसुम, आक, कुश और बेल-पत्र आदि प्रिय हैं. सूर्य देव को कूटज के फूल, कनेर, कमल, चंपा, पलाश, आक और अशोक आदि के फूल भी प्रिय हैं. धन और एश्वर्य की देवी लक्ष्मी को कमल सबसे प्रिय है. उन्हें लाल रंग प्रिय है. देवी दुर्गा को भी लाल रंग प्रिय है और देवी सरस्वती को सफ़ेद रंग प्रिय है. इसलिए लक्ष्मी और दुर्गा को लाल और सरस्वती को सफ़ेद रंग के फूल अर्पित किए जाते हैं. कमल का फूल सभी देवी-देवताओं को बहुत प्रिय है. इसकी पंखु़ड़ियां मनष्य के गुणों की प्रतीक हैं, जिनमें पवित्रता, दया, शांति, मंगल, सरलता और उदारता शामिल है. इसका आशय यही है कि मनुष्य जब इन गुणों को अपना लेता है तब वह भी ईश्वर को कमल के फूल की तरह ही प्रिय हो जाता है. कमल कीचड़ में उगता है और उससे ही पोषण लेता है, लेकिन हमेशा कीचड़ से अलग ही रहता है. यह इस बात का भी प्रतीक है कि सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन किस तरह गुज़ारा जाए. क़ाबिले-ग़ौर है कि किसी भी देवता के पूजन में केतकी के फूल नहीं चढ़ाए जाते. ये फूल वर्जित माने जाते हैं…जबकि गणेश जी को तुलसीदल को छोड़कर सभी प्रकार के फूल चढ़ाए जा सकते हैं. शिव जी को केतकी के साथ केवड़े के फूल चढ़ाना भी वर्जित है. देवी-देवताओं को उनके प्रिय फूल अर्पित कर उन्हें प्रसन्न करने और मनचाही मुरादें मांगने की सदियों पुरानी परंपरा है… 
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सफ़ेद फूल...


सफ़ेद फूल... सफ़ेद फूलों में हमारी रूह बसती है... सफ़ेद फूल हमें बचपन से ही बहुत पसंद हैं...
बेला, गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली, मोगरा, रात की रानी के सफ़ेद फूल खिलते हैं, तो फ़िज़ा महक उठती है... और इन सफ़ेद फूलों की भीनी-भीनी महक मन को लुभाती है... इन सफ़ेद फूलों पर हम यूं ही जां निसार नहीं करते... कुछ तो बात है इनमें...

बुज़ुर्ग औरतें कहती हैं कि सफ़ेद फूलों पर असरात होते हैं... बरसों पहले हमने कई चमेली के पौधे लगाए थे, जो बहुत फैल गए थे... कई औरतों ने कहा कि चमेली घर में लगाना ठीक नहीं है... उसके बाद से अम्मी ने चमेली के कई बड़े झाड़ हटवा दिए... चमेली का एक पौधा हमने अपने नये घर में लगाया... कुछ महीनों में चमेली ख़ूब फैल गई... छत तक ऊंची हो गई... चमेली को यूं फलते-फूलते देखकर बहुत अच्छा लगता है... आंगन में सफ़ेद फूलों के कई पौधे हैं... एक सफ़ेद रंग का सदाबहार भी लगाया हुआ है, ताकि हमारे आंगन में सफ़ेद फूल हमेशा खिलते रहें...
(ज़िन्दगी किताब का एक वर्क़)

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राजेश खन्ना : क़िस्मत से मिली कामयाबी


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के ज़रिये उन्होंने कामयाबी की जो बुलंदियां हासिल कीं, वह हर किसी को नसीब नहीं हो पाती हैं. 29 दिसंबर, 1942 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे राजेश खन्ना का असली नाम जतिन खन्ना था. उन्हें बचपन से ही अभिनय का शौक़ था. फिल्मों में उनके आने का क़िस्सा बेहद रोचक है. युनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर के बैनर तले 1965 में नए अभिनेता की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई. इसमें दस हज़ार लड़कों में से आठ लड़के फाइनल मुक़ाबले तक पहुंचे, जिनमें एक राजेश खन्ना भी थे. आख़िर में कामयाबी का सेहरा राजेश खन्ना के सिर बंधा. अगले साल ही उन्हें फिल्म आख़िरी ख़त में काम करने का मौक़ा मिल गया. इसके बाद उन्होंने राज़, बहारों के सपने, औरत के रूप आदि कई फिल्में कीं, लेकिन कामयाबी उन्हें 1969 में आई फिल्म आराधना से मिली. इसके बाद एक के बाद एक 14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिंदी फिल्मों के पहले सुपरस्टार के तौर पर अपनी पहचान क़ायम कर ली. राजेश खन्ना ने फिल्म आनंद में एक कैंसर मरीज़ के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसमें मरते व़क्त आनंद कहता है-बाबू मोशाय, आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं. इस फिल्म में राजेश खन्ना द्वारा पहने गए गुरु कुर्ते ख़ूब मशहूर हुए. लड़के उन जैसे बाल रखने लगे.

उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उस ज़माने में अभिभावकों ने अपने बेटों के नाम राजेश रखे. फिल्म जगत में उन्हें प्यार से काका कहा जाता था. जब वह सुपरस्टार थे, तब एक कहावत बड़ी मशहूर थी-ऊपर आक़ा और नीचे काका. कहा जाता है कि अपने संघर्ष के दौर में भी वह महंगी गाड़ियों में निर्माताओं से मिलने जाया करते थे. वह रूमानी अभिनेता के तौर पर मशहूर हुए. उनकी आंखें झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने थे, ख़ासकर ल़डकियां तो उन पर जान छिड़कती थीं. राजेश खन्ना लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए. लड़कियों ने उन्हें ख़ून से ख़त लिखे, उनकी तस्वीरों के साथ ब्याह रचाए, अपने हाथ पर उनका नाम गुदवा लिया. कहा जाता है कि कई लड़कियां तो अपने तकिये के नीचे उनकी तस्वीर रखा करती थीं. कहीं राजेश खन्ना की सफ़ेद रंग की कार रुकती थी, तो लड़कियां कार को चूमकर गुलाबी कर देती थीं. निर्माता-निर्देशक उनके घर के बाहर कतार लगाए खड़े रहते थे और मुंहमांगी क़ीमत पर उन्हें अपनी फिल्मों में लेना चाहते थे.

राजेश खन्ना ने तक़रीबन 163 फिल्मों में काम किया. इनमें से 128 फ़िल्मों में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई, जबकि अन्य फ़िल्मों में भी उनका किरदार बेहद अहम रहा. उन्होंने 22 फ़िल्मों में दोहरी भूमिकाएं कीं. उन्हें तीन बार फ़िल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाज़ा गया. ये पुरस्कार उन्हें फ़िल्म सच्चा झूठा (1971),  आनंद (1972) और अविष्कार (1975) में शानदार अभिनय करने के लिए दिए गए. उन्हें 2005 में फ़िल्मफ़ेयर के लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. उनकी फ़िल्मों में बहारों के सपने, आराधना, दो रास्ते, बंधन, सफ़र, कटी पतंग, आन मिलो सजना, आनंद, सच्चा झूठा, दुश्मन, अंदाज़, हाथी मेरे साथी, अमर प्रेम, दिल दौलत दुनिया, जोरू का ग़ुलाम, मालिक, शहज़ादा, बावर्ची, अपना देश, मेरे जीवन साथी, अनुराग, दाग़, नमक हराम, अविष्कार, अजनबी, प्रेम नगर, हमशक्ल, रोटी, आप की क़सम, प्रेम कहानी, महा चोर, महबूबा, त्याग, पलकों की छांव में, आशिक़ हूं बहारों का, छलिया बाबू, कर्म, अनुरोध, नौकरी, भोला भाला, जनता हवलदार, मुक़ाबला, अमर दीप, प्रेम बंधन, थोड़ी सी बेवफ़ाई, आंचल,  फिर वही रात, बंदिश, क़ुदरत, दर्द, धनवान, अशांति, जानवर, धर्म कांटा, सुराग़, राजपूत, नादान, सौतन अगर तुम न होते, अवतार, नया क़दम, आज का एमएलए राम अवतार, मक़सद, धर्म और क़ानून, आवाज़, आशा ज्योति, ऊंचे लोग, नया बकरा, मास्टर जी, दुर्गा, बेवफ़ाई, बाबू, हम दोनों, अलग-अलग, ज़माना, आख़िर क्यों, निशान, शत्रु, नसीहत, अंगारे, अनोखा रिश्ता, अमृत गोरा, आवारा, बाप, अवाम, नज़राना, विजय, पाप का अंत, मैं तेरा दुश्मन, स्वर्ग, रुपये दस करोड़, आ अब लौट चलें, प्यार ज़िंदगी है और क्या दिल ने कहा आदि शामिल हैं.

राजेश खन्ना नब्बे के दशक में राजीव गांधी के कहने पर सियासत में आ गए. उन्होंने 1991 में नई दिल्ली से कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को कड़ी चुनौती दी थी, लेकिन मामूली अंतर से हार गए. आडवाणी ने यह सीट छोड़ दी और अपनी दूसरी सीट गांधीनगर से अपना प्रतिनिधित्व बनाए रखा. सीट ख़ाली होने पर उपचुनाव में वह एक बार फिर खड़े हुए और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे फ़िल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को भारी मतों से शिकस्त दी. उन्होंने 1996 में तीसरी बार इसी सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन भाजपा नेता जगमोहन से हार गए. इसके बाद हर बार चुनाव के मौक़े पर वह कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए दिल्ली आते रहे. उन्होंने 1994 में एक बार फिर ख़ुदाई फ़िल्म से परदे पर वापसी की, लेकिन उन्हें ख़ास कामयाबी नहीं मिल पाई. इसके अलावा अपने बैनर तले उन्होंने जय शिव शंकर नामक फिल्म शुरू की थी, जिसमें उन्होंने पत्नी डिम्पल को साइन किया. फ़िल्म आधी बनने के बाद रुक गई और आज तक रिलीज नहीं हुई. कभी अक्षय कुमार भी इस फ़िल्म में काम मांगने के लिए राजेश खन्ना के पास गए थे, लेकिन राजेश खन्ना से उनकी मुलाक़ात नहीं हो पाई. बाद में वह राजेश खन्ना के दामाद बने.

राजेश खन्ना की कामयाबी में संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर का अहम योगदान रहा. उनके बनाए और राजेश पर फ़िल्माये ज़्यादातर गीत हिट हुए. किशोर कुमार ने 91 फ़िल्मों में राजेश खन्ना को आवाज़ दी, तो आरडी बर्मन ने उनकी 40 फ़िल्मों को संगीत से सजाया. राजेश खन्ना अपनी फ़िल्मों के संगीत को लेकर हमेशा सजग रहते थे. वह गाने की रिकॉर्डिंग के वक़्त स्टुडियो में रहना पसंद करते थे. मुमताज़ और शर्मिला टैगोर के साथ उनकी जो़ड़ी को बहुत पसंद किया गया. आशा पारेख और वहीदा रहमान के साथ भी उन्होंने काम किया. एक दौर ऐसा भी आया जब ज़ंजीर और शोले जैसी फ़िल्में हिट होने लगीं. दर्शक रूमानियत की बजाय एक्शन फ़िल्मों को ज़्यादा पसंद करने लगे तो राजेश खन्ना की फ़िल्में पहले जैसी कामयाबी से महरूम हो गईं. कुछ लोगों का यह भी मानना रहा कि राजेश खन्ना अपनी सुपर स्टार वाली इमेज से कभी बाहर नहीं आ पाए. वह हर वक़्त ऐसे लोगों से घिरे रहने लगे, जो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते थे. अपने अहंकार की वजह से उन्होंने कई अच्छी फ़िल्में ठुकरा दीं, जो बाद में अमिताभ बच्चन की झोली में चली गईं. उनकी आदत की वजह से मनमोहन देसाई, शक्ति सामंत, ऋषिकेश मुखर्जी और यश चोपड़ा ने उन्हें छोड़कर अमिताभ बच्चन को अपनी फ़िल्मों में लेना शुरू कर दिया.

राजेश खन्ना की निजी ज़िंदगी में भी काफ़ी उतार-च़ढाव आए. उन्होंने पहले अभिनेत्री अंजू महेन्द्रू से प्रेम किया, लेकिन उनका यह रिश्ता ज़्यादा वक़्त तक नहीं टिक पाया. बाद में अंजू ने क्रिकेट खिलाड़ी गैरी सोबर्स से सगाई कर ली. इसके बाद 1973 में उन्होंने डिम्पल कपा़डिया से प्रेम विवाह किया. डिम्पल और राजेश में ज़्यादा अच्छा रिश्ता नहीं रहा. बाद में दोनों अलग-अलग रहने लगे. उनकी दो बेटियां हैं टि्‌वंकल और रिंकी. मगर अलग होने के बावजूद डिम्पल से हमेशा राजेश खन्ना का साथ दिया. आख़िरी वक़्त में भी डिम्पल उनके साथ रहीं. टीना मुनीम भी राजेश खन्ना की ज़िंदगी में आईं. एक ज़माने में राजेश खन्ना ने कहा था कि वह और टीना एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करते हैं. वह अपनी हर फ़िल्म में टीना मुनीम को लेना चाहते थे. उन्होंने टीना मुनीम के साथ कई फ़िल्में कीं.

राजशे खन्ना ने अमृतसर के कूचा पीपल वाला की तिवाड़ियां गली में स्थित अपने पैतृक घर को मंदिर के नाम कर दिया था. उनके माता-पिता की मौत के बाद कई साल तक इस मकान में उनके चाचा भगत किशोर चंद खन्ना भी रहे, उनकी मौत के बाद से यह मकान ख़ाली पड़ा था. यहां के लोग आज भी राजेश खन्ना को बहुत याद करते हैं. राजेश खन्ना पिछले काफ़ी दिनों से बीमार चल रहे थे. 18 जुलाई,  2012 को उन्होंने आख़िरी सांस ली. राजेश खन्ना का कहना था कि वह अपनी ज़िंदगी से बेहद ख़ुश हैं. दोबारा मौक़ा मिला तो वह फिर राजेश खन्ना बनना चाहेंगे और वही ग़लतियां दोहराएंगे, जो उन्होंने की हैं. उनकी मौत से उनके प्रशंसकों को बेहद तकली़फ़ पहुंची. हिन्दुस्तान ही नहीं पाकिस्तान और अन्य देशों के बाशिंदों ने भी अपने-अपने तरीक़े से उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


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विश


अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि हमें टूटते तारे बहुत दिखते हैं... जब भी हम रात में खुले आसमान के नीचे बैठकर स्याह आसमान में चमकते चांद-सितारों को देखते हैं, तो हमें कोई बहुत ही चमकता हुआ तारा अपनी तरफ़ बढ़ता दिखता है... बहुत ही तेज़ी से वो हमारी तरफ़ आता है, उसके आसपास बहुत ही रौशनी होती है... फिर बहुत नीचे आकर वो नज़रों से ओझल हो जाता है... अकसर ऐसा होता है...  घर के फ़र्द कहते हैं कि उन्हें तो कोई टूटता तारा नज़र नहीं आया, फिर तुम्हें ही ये टूटते तारे क्यों दिखते हैं.. इसका जवाब हमारे पास नहीं है...
कहते हैं कि टूटते तारे को देखकर कोई 'विश’ मांगी जाए, तो पूरी ज़रूर होती है... छत पर देर तक जागकर चांद-तारों को निहारना अच्छा लगता है... लेकिन टूटते तारे को देखकर मन दुखी हो जाता है... इसलिए कभी टूटते तारे को देखकर कोई 'विश’ नहीं मांगी... अपनी ख़ुशी के लिए किसी का यूं टूटकर बिखर जाना, कभी दिल ने गवारा नहीं किया... शायद इसीलिए एक 'विश’ आज तक ’विश’ ही रह गई...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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भूख

एक साहब ने हमसे सवाल किया-
अगर खाना सामने रखा हो, तो क्या उसे खाये बिना पेट भर जाएगा ?

इसके दो जवाब हैं- एक दुनियावी और दूसरा रूहानी...
पहला, खाना खाये बिना पेट नहीं भर सकता... अल्लाह ने जिस्म दिया है, पेट दिया है, तो भूख भी दी है, जो खाना खाने से ही मिट सकती है...

बाज़ वक़्त खाना खाने से भी भूख नहीं मिटती... इसी से वाबस्ता एक वाक़िया है... तक़रीबन तीन साल पहले की बात है... हम भाई के घर आए हुए थे... दोपहर का वक़्त था... खाने में क़ौरमा और नान था... बहुत ज़्यादा भूख लगी हो, तो भी पौने या एक नान से पेट भर जाता है... हमने पूरा नान खाया, लेकिन
अब भी बहुत भूख लगी थी... लग रहा था, जैसे हमने एक लुक़मा तक न खाया हो... भूख में एक लुक़मा भी खा लिया जाए, तो कुछ तो तसल्ली होती है, लेकिन यहां तो वो भी नहीं... भूख से हमारा बुरा हाल था... हम पानी पीकर दस्तरख़ान से उठ गए...  शर्म की वजह से और खा नहीं सकते थे...
तक़रीबन एक-डेढ़ घंटे तक यूं ही बैचैन रहे... समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर माजरा क्या है... फिर हमने एक कटोरी में छोटी इलायची रखी देखीं... हमने एक इलायची ली... एक दुआ पढ़ी और उसे खा लिया... यक़ीन जानिये भूख ग़ायब हो चुकी थी... पेट भरे होने का अहसास होने लगा...

अब दूसरा रूहानी जवाब, जब इंसान रोज़े में होता है, तो उसके सामने दुनिया की नेमतें रख दी जाएं, तो भी उसका दिल नहीं ललचाता... इंसान जब रूहानी ज़िन्दगी जीने लगता है, तो जिस्म की ज़रूरतें उसके लिए बेमानी हो जाया करती हैं... उसे सिर्फ़ अपनी रूह की ग़िज़ा चाहिए होती है, रूह की ग़िज़ा मुहब्बत है, इबादत है... मुहब्बत और इबादत में ख़ुद को फ़ना करने में जो सुकून है, उसके सामने दुनियावी लज़्ज़तें बेमानी हैं...

अब जिस्म है, तो भूख भी होगी... ऐसे लोगों को ज़ायक़े से कोई लेना-देना नहीं होता... सिर्फ़ पेट भरना होता है, भले ही रूखी रोटी क्यों न हो... हम भूख से कम खाना खाते हैं... दिन में सिर्फ़ दो ही वक़्त खाना खाते हैं...  कई बार सिर्फ़ एक वक़्त ही खाना खाते हैं... ऐसा नहीं है कि हम जानबूझ कर ऐसा करते हैं... क़ुदरती ये हमारी आदत में शुमार है... खाने से पहले हमें एक गिलास पानी ज़रूर चाहिए...

जो लोग रूहानी ज़िन्दगी बसर करते हैं, वो हमारी इस तहरीर को अच्छे से समझ सकते हैं...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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मेहनत और कामयाबी

बहुत से लोग बुलंदी पर पहुंचने के लिए, अपनी कोई ख़ास पहचान बनाने के लिए जद्दो-जहद करते हैं... दिन-रात मेहनत करते हैं... इनमें से जो लोग कामयाब हो जाते हैं... दुनिया उन्हें सलाम करती है, सर-आंखों पर बिठाती है... उनकी जद्दो-जहद की तारीफ़ों के पुल बांधे जाते हैं, लेकिन जो लोग कामयाब नहीं हो पाते, वे गुमनामी के अंधेरों में खो जाते हैं... कोई उनका ज़िक्र तक नहीं करता... उनकी मेहनत, उनकी जद्दो-जहद ज़ाया हो जाती है...
यही तो दुनिया का दस्तूर है... उगते सूरज को सलाम करना... 
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राहुल गांधी : एक मुकम्मल शख़्सियत

फ़िरदौस ख़ान 
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी एक ऐसी शख़्सियत के मालिक हैं, जिनसे कोई भी मुतासिर हुए बिना नहीं रह सकता. उनके कट्टर विरोधी भी कहते हैं कि राहुल का विरोध करना उनकी पार्टी की नीति का एक अहम हिस्सा है, लेकिन ज़ाती तौर पर वे राहुल गांधी को बहुत पसंद करते हैं. वे ख़ुशमिज़ाज, ईमानदार, मेहनती और सकारात्मक सोच वाले हैं.

राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को दिल्ली में हुआ. वे देश के मशहूर गांधी-नेहरू परिवार से हैं. उनकी मां श्रीमती सोनिया गांधी हैं, जो अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं. उनके पिता स्वर्गीय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. राहुल गांधी कांग्रेस में उपाध्यक्ष हैं और लोकसभा में उत्तर प्रदेश में स्थित अमेठी चुनाव क्षेत्र की नुमाइंदगी करते हैं. राहुल गांधी को साल 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली शानदार जीत का श्रेय दिया गया था. वे सरकार में कोई किरदार निभाने की बजाय पार्टी संगठन में काम करना पसंद करते हैं, इसलिए उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री का ओहदा लेने से साफ़ इंकार कर दिया था.

राहुल गांधी की शुरुआती तालीम दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में हुई. उन्होंने प्रसिद्ध दून विद्यालय में भी कुछ वक़्त तक पढ़ाई की, जहां उनके पिता ने भी पढ़ाई की थी. सुरक्षा कारणों की वजह से कुछ अरसे तक उन्हें घर पर ही पढ़ाई-लिखाई करनी पड़ी. साल 1989 में उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज में दाख़िला लिया. उनका यह दाख़िला पिस्टल शूटिंग में उनके हुनर की बदौलत स्पोर्ट्स कोटे से हुआ. उन्होंने इतिहास ऑनर्स में नाम लिखवाया. वे सुरक्षाकर्मियों के साथ कॉलेज आते थे. तक़रीबन सवा साल बाद 1990  में उन्होंने कॊलेज छोड़ दिया. उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कॉलेज फ़्लोरिडा से साल 1994 में अपनी कला स्नातक की उपाधि हासिल की. इसके बाद उन्होंने साल 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से  डेवलपमेंट स्टडीज़ में एम.फ़िल. की उपाधि हासिल की.

राहुल गांधी को घूमने-फिरने और खेलकूद का बचपन से ही शौक़ रहा है. उन्होंने तैराकी, साईलिंग और स्कूबा-डायविंग की और स्वैश खेला. उन्होंने बॊक्सिंग सीखी और पैराग्लाइडिंग का भी प्रशिक्षण लिया. उनके बहुत से शौक़ उनके पिता राजीव गांधी जैसे ही हैं. अपने पिता के तरह उन्होंने दिल्ली के नज़दीक हरियाणा स्थित अरावली की पहाड़ियों पर एक शूटिंग रेंज में निशानेबाज़ी सीखी. उन्हें भी आसमान में उड़ना उतना ही पसंद है, जितना उनके पिता को पसंद था. उन्होंने भी हवाई जहाज़ उड़ाना सीखा. वे अपनी सेहत का भी काफ़ी ख़्याल रखते हैं. कितनी ही मसरूफ़ियत क्यों न हो, वे कसरत के लिए वक़्त निकाल ही लेते हैं. वे रोज़ दस किलोमीटर तक जॉगिंग करते हैं. उन्हें फ़ुटबॊल बहुत पसंद है. लंदन में पढ़ने के दौरान वह फ़ुटबॊल के दीवाने थे.

स्नातक की पढ़ाई करने के बाद वे लंदन चले गए, जहां उन्होंने प्रबंधन गुरु माइकल पोर्टर की प्रबंधन परामर्श कंपनी मॉनीटर ग्रुप के साथ तीन साल तक काम किया. हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफ़ेसर माइकल यूजीन पोर्टर को ब्रैंड स्ट्रैटजी का विद्वान माना जाता है. सुरक्षा कारणों की वजह से राहुल गांधी ने रॉल विंसी के नाम से काम किया. उनके सहयोगी नहीं जानते थे कि वे राजीव गांधी के बेटे और इंदिरा गांधी के पौत्र के साथ काम कर रहे हैं.  राहुल गांधी हमेशा सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहे हैं, इसलिए उन्हें वह ज़िन्दगी नहीं मिल पाई, जिसे कोई आम इंसान जीता है. वे अपनी ज़िन्दगी जीना चाहते थे, एक आम इंसान की ज़िन्दगी. राहुल गांधी ने एक बार कहा था, "अमेरिका में पढ़ाई के बाद मैंने जोखिम उठाया और अपने सुरक्षा गार्डो से निजात पा ली, ताकि इंग्लैंड में आम ज़िन्दगी जी सकूं."

विदेश में रहते राहुल गांधी को दस साल हो गए थे. वे स्वदेश लौटे और फिर साल 2002 के आख़िर में उन्होंने देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में एक इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी आउटसोर्सिग फ़र्म, बेकॉप्स सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाई. रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनीज़ में दर्ज आवेदन के मुताबिक़ इस कंपनी का मक़सद घरेलू और अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों को सलाह और सहायता मुहैया करना, सूचना प्रौद्योगिकी में परामर्शदाता और सलाहकार की भूमिका निभाना और वेब सॉल्यूशन देना था. साल 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग को दिए हल्फ़नामे के मुताबिक़ बेकॉप्स सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड में राहुल गांधी की हिस्सेदारी 83 फ़ीसद थी. उनकी पढ़ाई की तरह उनके कारोबार में भी काफ़ी दिक़्क़तें आईं. सियासत की वजह से वे अपने कारोबार पर ख़ास तवज्जो नहीं दे पाए.

राहुल गांधी की सियासी ज़िन्दगी की शुरुआत भी अचानक ही हुई. वे साल 2003 में कांग्रेस की बैठकों और सार्वजनिक समारोहों में नज़र आए. एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट श्रृंखला देखने के लिए एक सद्भावना यात्रा पर वह अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ पाकिस्तान भी गए. इसके बाद जनवरी 2004 में उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी का दौरा किया, तो उनके सियासत में आने की चर्चा शुरू हो गई. इस बारे में पूछने पर उन्होंने सिर्फ़ इतना कहकर कोई भी प्रतिक्रिया देने से साफ़ इंकार कर दिया था, "मैं राजनीति के ख़िलाफ़ नहीं हूं. मैंने यह तय नहीं किया है कि मैं राजनीति में कब प्रवेश करूंगा और वास्तव में, करूंगा भी या नहीं."

फिर मार्च 2004 में लोकसभा चुनाव का ऐलान हुआ, तो राहुल गांधी ने सियासत में आने का ऐलान कर दिया. उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ा. इससे पहले उनके चाचा संजय गांधी ने भी इसी क्षेत्र का नेतृत्व किया था. उस वक़्त उनकी मां सोनिया गांधी यहां से सांसद थीं. तब मीडिया के साथ अपने पहले साक्षात्कार में राहुल गांधी ने देश को जोड़ने वाले शख़्स के तौर पर ख़ुद को पेश किया. उन्होंने कहा था कि वे जातीय और धार्मिक तनाव को कम करने की कोशिश करेंगे. इलाक़े की अवाम ने राहुल गांधी को भरपूर समर्थन दिया. उन्होंने अपने नज़दीकी प्रतिद्वंदी को एक लाख वोटों से हराकर शानदार जीत हासिल की. इस दौरान उन्होंने सरकार या पार्टी में कोई ओहदा नहीं लिया और अपना सारा ध्यान मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ही केंद्रित किया.

फिर जनवरी 2006 में आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में हुए कांग्रेस के एक सम्मेलन में पार्टी के हज़ारों सदस्यों ने राहुल गांधी से पार्टी में और महत्वपूर्ण नेतृत्व की भूमिका निभाने की ग़ुज़ारिश की. इस पर राहुल गांधी ने कहा, "मैं इसकी सराहना करता हूं और मैं आपके जज़्बात और समर्थन के लिए शुक्रगुज़ार हूं. .मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं आपको मायूस नहीं करूंगा, लेकिन अभी धैर्य रखें." यह कहकर उन्होंने नेतृत्व वाली कोई भी बड़ी भूमिका निभाने से मना कर दिया. राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 में पार्टी सचिवालय के एक फेरबदल में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव नियुक्त किया गया था. उन्हें युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई.  साल 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने नज़दीकी प्रतिद्वंद्वी को तीन लाख तैंतीस हज़ार से शिकस्त देकर जीत दर्ज की. इस चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की कुल 80 लोकसभा सीटों में से 21 जीतीं. इस तरह राहुल गांधी ने प्रदेश में कांग्रेस को ज़िन्दा करने का काम किया और उन्हें इसका श्रेय दिया गया. उन्होंने डेढ़ महीने में देश भर में 125 रैलियों को संबोधित किया.
राहुल गांधी को 19  जनवरी 2013 में कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया. क़ाबिले-ग़ौर है कि इससे पहले कांग्रेस में उपाध्यक्ष का पद नहीं होता था. लेकिन पार्टी में उनका महत्व बढ़ाने और उन्हें सोनिया गांधी का सबसे ख़ास सहयोगी बनाने के लिए पार्टी ने उपाध्यक्ष के पद का सृजन किया.

राहुल गांधी अपनी जनसभाओं में जिस तरह सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार और अपराध को लेकर भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी व अन्य सियासी दलों को निशाना बनाते हैं, उससे सभी दलों के होश उड़ जाते हैं. वे उन पर सधे राजनीतिक अंदाज़ में हमले करते हैं. एक संजीदा वक्ता की तरह तार्किक ढंग से वे सियासी दलों को चुन-चुन कर व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब देते हैं. उनके इसी अंदाज़ से दलों में बौखलाहट पैदा हो जाती है. वे समझ नहीं पाते कि राहुल के ‘आम आदमी’ का कौन सा तोड़ निकालें.

राहुल गांधी भाजपा के झूठे वादों और लोकपाल पर उसके चरित्र की जमकर बखिया उधेड़ते हैं. वे भाजपा द्वारा भ्रष्टाचारी नेताओं से हाथ मिलाने पर लोगों से सवाल करते हैं, तो उन्हें भीड़ से खुलकर जवाब भी मिलते हैं. उन्हीं जवाबों को आगे बढ़ाते हुए मंच से राहुल गांधी लोगों को बताते हैं कि ग़रीबों का मसीहा बनने वाले नेता कहते हैं कि राहुल गांधी पागल हो गया है, और इसके बाद वह आक्रामक हो जाते हैं. अपनी आस्तीनें चढ़ाकर हमलावर अंदाज़ में कहते हैं- ‘‘हां, मैं ग़रीबों का दुख-दर्द देखकर, प्रदेश की दुर्दशा देखकर पागल हो गया हूं. कोई कहता है कि राहुल गांधी अभी बच्चा है, वह क्या जाने राजनीति क्या होती है. तो मेरा कहना है कि हां, मुझे उनकी तरह राजनीति करनी नहीं आती. मैं सच्चाई और साफ़ नीयत वाली राजनीति करना चाहता हूं. मुझे उनकी राजनीति सीखने का शौक़ भी नहीं है. मायावती कहती हैं राहुल नौटंकीबाज़ है. तो मेरा कहना है कि अगर ग़रीबों का हाल जानना, उनके दुख-दर्द को समझना, नाटक है तो राहुल गांधी यह नाटक ताउम्र करता रहेगा."

राहुल गांधी प्रदेश को बदहाली से निकालने के लिए युवाओं से साथ के लिए हाथ बढ़ाते हैं. इस दौरान राहुल गांधी यह बताना नहीं भूलते कि वे यहां चुनाव जीतने नहीं, प्रदेश को बदलने आए हैं. यह उनकी इस साफ़गोई का सियासी दलों के पास कोई जवाब नहीं होता. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि राहुल गांधी की बातों में दम है.
यह हक़ीक़त है कि वे हवाई नेताओं की तरह आसमान में नहीं उड़ते और न ही किसी पंचतारा सेलिब्रिटी की तरह रथ पर चढ़कर ज़िलों का दौरा करते हैं. उन्होंने खाटी देसी अंदाज़ में गांवों में रात रात बिताई. पगडंडियों पर कीचड़ की परवाह किए बिना चले और आम आदमी से बेलाग संवाद स्थापित करने की कोशिश की. आम आदमी को नज़दीक से जानने-समझने और अपना हाथ उसके हाथ में देने की पहल की.

राहुल गांधी एक परिपक्व राजनेता हैं. इसके बावजूद उन्हें अमूल बेबी कहना उनके ख़िलाफ़ एक साज़िश का हिस्सा ही कहा जा सकता है. भूमि अधिग्रहण मामले को ही लीजिए. राहुल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर जिस तरह पदयात्रा की, वह कोई परिपक्व राजनेता ही कर सकता है. हिंदुस्तान की सियासत में ऐसे बहुत कम नेता रहे हैं, जो सीधे जनता के बीच जाकर उनसे संवाद करते हैं. नब्बे की दहाई में बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने गांव-गांव जाकर पार्टी को मज़बूत करने का काम किया था, जिसका फल बसपा को सत्ता के रूप में मिला. चौधरी देवीलाल ने भी इसी तरह हरियाणा में आम जनता के बीच जाकर अपनी एक अलग पहचान बनाई थी. दक्षिण भारत में भी कई राजनेताओं ने पद यात्रा के ज़रिये जनता में अपनी पैठ बनाई और सत्ता हासिल की.

कुल मिलाकर राहुल गांधी ऐसे क़द्दावर नेताओं की फ़ेहरिस्त में शुमार हो चुके हैं, जिनके तूफ़ान से सियासी दलों के  हौसले  पस्त हो जाते हैं. हालत यह हो गई है कि कोई सियासी दल दाग़ी को लेता है, तो कोई दग़ाबाज़ी को सहारा बना लेता है. जब कोई चारा नहीं दिखता, तो कुछ सियासी दल राहुल पर व्यक्तिगत प्रहार करने में जुट जाते हैं.  मगर इससे राहुल गांधी को कोई नुक़सान नहीं होता, क्योंकि राजनीति की विरासत को संभालने वाला यह युवा नेता अब युवाओं, और अन्य वर्गों के साथ-साथ बुजुर्गों का भी चहेता बन चुका है. राहुल गांधी की जनसभाओं में दूर-दूर से आए बुज़ुर्ग यही कहते हैं कि लड़का ठीक ही तो कह रहा है, यही कुछ करेगा. महिलाओं में तो राहुल गांधी को लेकर काफ़ी क्रेज है. यह बात तो विरोधी दलों के नेता भी बेहिचक क़ुबूल  करते हैं. वे तो मज़ाक़ के लहजे में यहां तक कहते हैं कि अगर महिलाओं को किसी एक नेता को वोट देने को कहा जाए, तो सभी राहुल गांधी को ही देकर आएंगी. राहुल युवाओं ही नहीं, बल्कि बच्चों से भी घुलमिल जाते हैं. कभी किसी मदरसे में जाकर बच्चों से बात करते हैं, तो कभी किसी मैदान में खेल रहे बच्चों के साथ बातचीत शुरू कर देते हैं. यहां तक कि गांव-देहात में मिट्टी में खेल रहे बच्चों तक को गोद में उठाकर उसके साथ बच्चे बन जाते हैं. बच्चे उन्हें बहुत अच्छे लगते हैं. उन्हें अपनी भांजी मिराया और भांजे रेहान के साथ वक़्त बिताना भी बहुत अच्छा लगता है. उनके अच्छे बर्ताव की वजह से ही बुज़ुर्ग उन्हें स्नेह करते हैं, उनके सर पर शफ़क़त का हाथ रखते हैं, उन्हें दुआएं देते हैं.  वे युवाओं के चहेते हैं. राहुल गांधी अपने विरोधियों का नाम भी सम्मान के साथ लेते हैं, उनके नाम के साथ जी लगाते हैं.  सच है कि संस्कार विरासत में मिलते हैं, संस्कार घर से मिला करते हैं. अपने से बड़ों के लिए उनके दिल में सम्मान है, तो बच्चों के लिए प्यार-दुलार है.

जब भ्रष्टाचार और महंगाई के मामले में कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार का चौतरफ़ा विरोध हो रहा था, ऐसे वक़्त में राहुल गांधी गांव-गांव जाकर जनमानस से एक भावनात्मक रिश्ता क़ायम कर रहे थे. वे लोगों से मिलने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते. वे उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोयडा के नज़दीकी गांव भट्टा-पारसौल गए. उन्होंने आसपास के गांवों का भी दौरा कर ग्रामीणों से बात की, उनकी समस्याएं सुनीं और उनके समाधान का आश्वासन भी दिया- इससे पहले भी वे सुबह मोटरसाइकिल से भट्टा-पारसौल गांव जा चुके हैं. उस वक़्त उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने उन्हें गिरफ्तार करा दिया था. इस बार भी वह गुपचुप तरीक़े से ही गांव गए थे. न तो प्रशासन को इसकी ख़बर थी और न ही मीडिया को इसकी भनक लगने दी गई. हालांकि उनके दौरे के बाद प्रशासन सक्रिय हो गया था. इसके बाद भी वे गांव लखीमपुर में पीड़ित परिवार के घर गए और उन्हें इंसाफ़ दिलाने का वादा किया. और चौकस प्रशासन को भनक तक नहीं लगी. ऐसे हैं राहुल गांधी.

भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर राहुल गांधी द्वारा निकाली गई पदयात्रा से सियासी हलक़ों में चाहे जो प्रतिक्रिया हुई हो, लेकिन यह हक़ीक़त है कि राहुल गांधी ने ग्रेटर नोएडा के ग्रामीणों के साथ जो वक़्त बिताया, उसे वे कभी नहीं भूल पाएंगे. इन लोगों के लिए यह किसी सौग़ात से कम नहीं था कि उन्हें कांग्रेस के युवराज के साथ वक़्त गुज़ारने का मौक़ा मिला. अपनी पदयात्रा के दौरान पसीने से बेहाल राहुल ने शाम होते ही गांव बांगर के किसान विजय पाल की खुली छत पर स्नान किया. फिर थोड़ी देर आराम करने के बाद उन्होंने घर पर बनी रोटी, दाल और सब्ज़ी खाई. ग्रामीणों ने उन्हें पूड़ी-सब्ज़ी की पेशकश की, लेकिन उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया. गांव में बिजली की क़िल्लत रहती है, इसलिए ग्रामीणों ने जेनरेटर का इंतज़ाम किया, लेकिन राहुल ने पंखा भी बंद करवा दिया. वे एक आम आदमी की तरह ही बांस और बांदों की चारपाई पर सोये. यह कोई पहला मौक़ा नहीं था जब राहुल गांधी इस तरह एक आम आदमी की ज़िंदगी गुज़ार रहे थे. इससे पहले भी वे रोड शो कर चुके थे और उन्हें इस तरह के माहौल में रहने की आदत है. कभी वे किसी दलित के घर भोजन करते हैं, तो कभी किसी मज़दूर के  साथ ख़ुद ही परात उठाकर मिट्टी ढोने लगते हैं. राहुल गांधी के आम लोगों से मिलने-जुलने के इस जज़्बे ने उन्हें लोकप्रिय बनाया. राहुल जहां भी जाते हैं, उन्हें देखने के लिए, उनसे मिलने के लिए लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता है. हालत यह है कि लोगों से मिलने के लिए वह अपना सुरक्षा घेरा तक तोड़ देते हैं.

राहुल गांधी समझ चुके हैं कि जब तक वे आम आदमी की बात नहीं करेंगे, तब तक वे सियासत में आगे नहीं ब़ढ पाएंगे. इसके लिए उन्होंने वह रास्ता अख़्तियार किया, जो बहुत कम लोग चुनते हैं. वे भाजपा की तरह एसी कल्चर की राजनीति नहीं करना चाहते. राहुल गांधी का कहना है कि उन्होंने किसानों की असल हालत को जानने के लिए पदयात्रा शुरू की थी, क्योंकि दिल्ली और लखनऊ के एसी कमरों में बैठकर किसानों की हालत पर सिर्फ़ तरस खाया जा सकता है, उनकी समस्याओं को न तो जाना जा सकता है और न ही उन्हें हल किया जा सकता है.

संसद में भी राहुल गांधी बेहद आक्रामक अंदाज़ में नज़र आते हैं. कालेधन पर तंज़ कसते हुए राहुल गांधी ने कहा था,  "काला धन सफ़ेद कर रहे हैं वित्तमंत्री. पहले कालाधन वापस लाने का वादा किया, अब उसे ही सफ़ेद करने का, यह उनकी फ़ेयर एंड लवली स्कीम है, काले पैसे को आप गोरा कर सकते हो. फ़ेयर एंड लवली योजना के तहत किसी को जेल नहीं होगी, जेटली जी के पास जाइये, आपका पैसा सफ़ेद हो जाएगा."  महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का ज़िक्र करते हुए राहुल गांधी ने कहा, "महात्मा गांधी हमारे हैं, सावरकर आपके हैं. आपने सावरकर को उठाकर फेंक दिया क्या? फेंक दिया, तो बहुत अच्छा किया." राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वह रोज़गार सृजन के लिए काले रंग का एक बड़ा सा बब्बर शेर लिए घूम रहे हैं, लेकिन उसके बावजूद युवाओं को नौकरी नहीं दे पा रहे हैं. उन्होंने कहा, "आपने बब्बर शेर दिया तो दिया, लेकिन रोज़गार कितने दिए, यह किसी को मालूम नहीं. किसी के पास कोई आंकड़ा नहीं है." संसद में जब राहुल बोल रहे थे, तो भाजपा सांसद हंगामा करने लगे. इस पर राहुल गांधी ने कहा, मैं आरएसएस का नहीं हूं. मैं ग़लतियां करता हूं. मैं सब कुछ नहीं जानता, सब कुछ नहीं समझता. मैं जनता से बातचीत करके उनसे उनकी बात सुनकर और समझकर अपनी बात रखता हूं. हम में और आप में फ़र्क़ यही है कि आप सब जानते हैं और ग़लती नहीं करते, जबकि हम ग़लती करते हैं और उससे सीखते हैं.

राहुल गांधी छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. वे कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता. "
वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है."  क़ाबिले-ग़ौर है कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला हैं, यानी दुनिया भी उनकी विश्वसनीयता का लोहा मानती है.

प्रभावशाली घराने से होने के बावजूद राहुल गांधी में सादगी है. खाने के वक़्त मेज़ पर वे साथियों को प्लेटें दे देते हैं, अपनी प्लेटें ख़ुद किचन में रख आते हैं. किसी बुज़ुर्ग के पानी मांगने पर सेवकों से कहने की बजाय ख़ुद किचन से पानी लाकर दे देते हैं. सार्वजनिक मंचों पर उन्हें अकसर डॊ. मनमोहन सिंह व अन्य लोगों को पानी देते हुए देखा गया है. वे बनावटीपन से कोसों दूर हैं. वे संसद की सीढ़ियों पर सर नहीं नवाते. अगर उनकी कोई चीज़ गिर जाए, तो बिना किसी का इंतज़ार किए ख़ुद उठा लेते हैं. यहां तक कि अपनी कुर्सी तक ख़ुद उठाकर ले आते हैं. एक आयोजन में एक बुज़ुर्ग अपने जूते का फ़ीता नही बांध पा रहे थे. राहुल गांधी ने बेहिचक बढ़कर बुज़ुर्ग के जूते का फ़ीता बांधा और फिर उन्हें उठने में मदद की.

दुनिया की सबसे महंगी खुदरा हाई स्ट्रीट में शुमार दिल्ली की ख़ान मार्केट में राहुल का भी सबसे प्रिय हैंगआउट है.  उन्हें बरिस्ता में कॉफी पीते हुए या बाज़ार की बाहरी तरफ़ बुक शॊप्स में किताबों के वर्क़ पलटते देखा जा सकता है. वे खाने के बहुत शौक़ीन हैं. पुरानी दिल्ली का खाना भी उन्हें यहां ख़ींच लाता है. अपनी सुरक्षा की परवाह किए बग़ैर वे शाहजहानाबाद पहुंच जाते हैं.

राहुल गांधी को ख़ामोश शामें बहुत पसंद हैं. इसके साथ ही उन्हें दुनिया की चकाचौंध भी ख़ूब लुभाती है. वे रिश्तों को बहुत अहमियत देते हैं. अगर किसी से कोई वादा कर लें, तो उसे पूरा ज़रूर करते हैं.   बिल्कुल ऐसे हैं राहुल गांधी, जिन्हें लोग प्यार से ’आरजी’ भी कहते हैं.

एक आयोजन में एक बुज़ुर्ग अपने जूते का फ़ीता नही बांध पा रहे थे. राहुल गांधी ने बेहिचक बढ़कर बुज़ुर्ग के जूते का फ़ीता बांधा और फिर उन्हें उठने में मदद की. हासिल की. इसके बाद उन्होंने साल 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से  डेवलपमेंट स्टडीज़ में एम.फ़िल. की उपाधि हासिल की.

राहुल गांधी को घूमने-फिरने और खेलकूद का बचपन से ही शौक़ रहा है. उन्होंने तैराकी, साईलिंग और स्कूबा-डायविंग की और स्वैश खेला. उन्होंने बॊक्सिंग सीखी और पैराग्लाइडिंग का भी प्रशिक्षण लिया. उनके बहुत से शौक़ उनके पिता राजीव गांधी जैसे ही हैं. अपने पिता के तरह उन्होंने दिल्ली के नज़दीक हरियाणा स्थित अरावली की पहाड़ियों पर एक शूटिंग रेंज में निशानेबाज़ी सीखी. उन्हें भी आसमान में उड़ना उतना ही पसंद है, जितना उनके पिता को पसंद था. उन्होंने भी हवाई जहाज़ उड़ाना सीखा. वे अपनी सेहत का भी काफ़ी ख़्याल रखते हैं. कितनी ही मसरूफ़ियत क्यों न हो, वे कसरत के लिए वक़्त निकाल ही लेते हैं. वे रोज़ दस किलोमीटर तक जॉगिंग करते हैं. उन्हें फ़ुटबॊल बहुत पसंद है. लंदन में पढ़ने के दौरान वह फ़ुटबॊल के दीवाने थे.

स्नातक की पढ़ाई करने के बाद वे लंदन चले गए, जहां उन्होंने प्रबंधन गुरु माइकल पोर्टर की प्रबंधन परामर्श कंपनी मॉनीटर ग्रुप के साथ तीन साल तक काम किया. हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफ़ेसर माइकल यूजीन पोर्टर को ब्रैंड स्ट्रैटजी का विद्वान माना जाता है. सुरक्षा कारणों की वजह से राहुल गांधी ने रॉल विंसी के नाम से काम किया. उनके सहयोगी नहीं जानते थे कि वे राजीव गांधी के बेटे और इंदिरा गांधी के पौत्र के साथ काम कर रहे हैं.  राहुल गांधी हमेशा सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहे हैं, इसलिए उन्हें वह ज़िन्दगी नहीं मिल पाई, जिसे कोई आम इंसान जीता है. वे अपनी ज़िन्दगी जीना चाहते थे, एक आम इंसान की ज़िन्दगी. राहुल गांधी ने एक बार कहा था, "अमेरिका में पढ़ाई के बाद मैंने जोखिम उठाया और अपने सुरक्षा गार्डो से निजात पा ली, ताकि इंग्लैंड में आम ज़िन्दगी जी सकूं."

विदेश में रहते राहुल गांधी को दस साल हो गए थे. वे स्वदेश लौटे और फिर साल 2002 के आख़िर में उन्होंने देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में एक इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी आउटसोर्सिग फ़र्म, बेकॉप्स सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाई. रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनीज़ में दर्ज आवेदन के मुताबिक़ इस कंपनी का मक़सद घरेलू और अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों को सलाह और सहायता मुहैया करना, सूचना प्रौद्योगिकी में परामर्शदाता और सलाहकार की भूमिका निभाना और वेब सॉल्यूशन देना था. साल 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग को दिए हल्फ़नामे के मुताबिक़ बेकॉप्स सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड में राहुल गांधी की हिस्सेदारी 83 फ़ीसद थी. उनकी पढ़ाई की तरह उनके कारोबार में भी काफ़ी दिक़्क़तें आईं. सियासत की वजह से वे अपने कारोबार पर ख़ास तवज्जो नहीं दे पाए.

राहुल गांधी की सियासी ज़िन्दगी की शुरुआत भी अचानक ही हुई. वे साल 2003 में कांग्रेस की बैठकों और सार्वजनिक समारोहों में नज़र आए. एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट श्रृंखला देखने के लिए एक सद्भावना यात्रा पर वह अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ पाकिस्तान भी गए. इसके बाद जनवरी 2004 में उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी का दौरा किया, तो उनके सियासत में आने की चर्चा शुरू हो गई. इस बारे में पूछने पर उन्होंने सिर्फ़ इतना कहकर कोई भी प्रतिक्रिया देने से साफ़ इंकार कर दिया था, "मैं राजनीति के ख़िलाफ़ नहीं हूं. मैंने यह तय नहीं किया है कि मैं राजनीति में कब प्रवेश करूंगा और वास्तव में, करूंगा भी या नहीं."

फिर मार्च 2004 में लोकसभा चुनाव का ऐलान हुआ, तो राहुल गांधी ने सियासत में आने का ऐलान कर दिया. उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ा. इससे पहले उनके चाचा संजय गांधी ने भी इसी क्षेत्र का नेतृत्व किया था. उस वक़्त उनकी मां सोनिया गांधी यहां से सांसद थीं. तब मीडिया के साथ अपने पहले साक्षात्कार में राहुल गांधी ने देश को जोड़ने वाले शख़्स के तौर पर ख़ुद को पेश किया. उन्होंने कहा था कि वे जातीय और धार्मिक तनाव को कम करने की कोशिश करेंगे. इलाक़े की अवाम ने राहुल गांधी को भरपूर समर्थन दिया. उन्होंने अपने नज़दीकी प्रतिद्वंदी को एक लाख वोटों से हराकर शानदार जीत हासिल की. इस दौरान उन्होंने सरकार या पार्टी में कोई ओहदा नहीं लिया और अपना सारा ध्यान मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ही केंद्रित किया.

फिर जनवरी 2006 में आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में हुए कांग्रेस के एक सम्मेलन में पार्टी के हज़ारों सदस्यों ने राहुल गांधी से पार्टी में और महत्वपूर्ण नेतृत्व की भूमिका निभाने की ग़ुज़ारिश की. इस पर राहुल गांधी ने कहा, "मैं इसकी सराहना करता हूं और मैं आपके जज़्बात और समर्थन के लिए शुक्रगुज़ार हूं. .मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं आपको मायूस नहीं करूंगा, लेकिन अभी धैर्य रखें." यह कहकर उन्होंने नेतृत्व वाली कोई भी बड़ी भूमिका निभाने से मना कर दिया. राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 में पार्टी सचिवालय के एक फेरबदल में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव नियुक्त किया गया था. उन्हें युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई.  साल 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने नज़दीकी प्रतिद्वंद्वी को तीन लाख तैंतीस हज़ार से शिकस्त देकर जीत दर्ज की. इस चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की कुल 80 लोकसभा सीटों में से 21 जीतीं. इस तरह राहुल गांधी ने प्रदेश में कांग्रेस को ज़िन्दा करने का काम किया और उन्हें इसका श्रेय दिया गया. उन्होंने डेढ़ महीने में देश भर में 125 रैलियों को संबोधित किया.
राहुल गांधी को 19  जनवरी 2013 में कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया. क़ाबिले-ग़ौर है कि इससे पहले कांग्रेस में उपाध्यक्ष का पद नहीं होता था. लेकिन पार्टी में उनका महत्व बढ़ाने और उन्हें सोनिया गांधी का सबसे ख़ास सहयोगी बनाने के लिए पार्टी ने उपाध्यक्ष के पद का सृजन किया.

राहुल गांधी अपनी जनसभाओं में जिस तरह सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार और अपराध को लेकर भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी व अन्य सियासी दलों को निशाना बनाते हैं, उससे सभी दलों के होश उड़ जाते हैं. वे उन पर सधे राजनीतिक अंदाज़ में हमले करते हैं. एक संजीदा वक्ता की तरह तार्किक ढंग से वे सियासी दलों को चुन-चुन कर व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब देते हैं. उनके इसी अंदाज़ से दलों में बौखलाहट पैदा हो जाती है. वे समझ नहीं पाते कि राहुल के ‘आम आदमी’ का कौन सा तोड़ निकालें.

राहुल गांधी भाजपा के झूठे वादों और लोकपाल पर उसके चरित्र की जमकर बखिया उधेड़ते हैं. वे भाजपा द्वारा भ्रष्टाचारी नेताओं से हाथ मिलाने पर लोगों से सवाल करते हैं, तो उन्हें भीड़ से खुलकर जवाब भी मिलते हैं. उन्हीं जवाबों को आगे बढ़ाते हुए मंच से राहुल गांधी लोगों को बताते हैं कि ग़रीबों का मसीहा बनने वाले नेता कहते हैं कि राहुल गांधी पागल हो गया है, और इसके बाद वह आक्रामक हो जाते हैं. अपनी आस्तीनें चढ़ाकर हमलावर अंदाज़ में कहते हैं- ‘‘हां, मैं ग़रीबों का दुख-दर्द देखकर, प्रदेश की दुर्दशा देखकर पागल हो गया हूं. कोई कहता है कि राहुल गांधी अभी बच्चा है, वह क्या जाने राजनीति क्या होती है. तो मेरा कहना है कि हां, मुझे उनकी तरह राजनीति करनी नहीं आती. मैं सच्चाई और साफ़ नीयत वाली राजनीति करना चाहता हूं. मुझे उनकी राजनीति सीखने का शौक़ भी नहीं है. मायावती कहती हैं राहुल नौटंकीबाज़ है. तो मेरा कहना है कि अगर ग़रीबों का हाल जानना, उनके दुख-दर्द को समझना, नाटक है तो राहुल गांधी यह नाटक ताउम्र करता रहेगा."

राहुल गांधी प्रदेश को बदहाली से निकालने के लिए युवाओं से साथ के लिए हाथ बढ़ाते हैं. इस दौरान राहुल गांधी यह बताना नहीं भूलते कि वे यहां चुनाव जीतने नहीं, प्रदेश को बदलने आए हैं. यह उनकी इस साफ़गोई का सियासी दलों के पास कोई जवाब नहीं होता. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि राहुल गांधी की बातों में दम है.
यह हक़ीक़त है कि वे हवाई नेताओं की तरह आसमान में नहीं उड़ते और न ही किसी पंचतारा सेलिब्रिटी की तरह रथ पर चढ़कर ज़िलों का दौरा करते हैं. उन्होंने खाटी देसी अंदाज़ में गांवों में रात रात बिताई. पगडंडियों पर कीचड़ की परवाह किए बिना चले और आम आदमी से बेलाग संवाद स्थापित करने की कोशिश की. आम आदमी को नज़दीक से जानने-समझने और अपना हाथ उसके हाथ में देने की पहल की.

राहुल गांधी एक परिपक्व राजनेता हैं. इसके बावजूद उन्हें अमूल बेबी कहना उनके ख़िलाफ़ एक साज़िश का हिस्सा ही कहा जा सकता है. भूमि अधिग्रहण मामले को ही लीजिए. राहुल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर जिस तरह पदयात्रा की, वह कोई परिपक्व राजनेता ही कर सकता है. हिंदुस्तान की सियासत में ऐसे बहुत कम नेता रहे हैं, जो सीधे जनता के बीच जाकर उनसे संवाद करते हैं. नब्बे की दहाई में बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने गांव-गांव जाकर पार्टी को मज़बूत करने का काम किया था, जिसका फल बसपा को सत्ता के रूप में मिला. चौधरी देवीलाल ने भी इसी तरह हरियाणा में आम जनता के बीच जाकर अपनी एक अलग पहचान बनाई थी. दक्षिण भारत में भी कई राजनेताओं ने पद यात्रा के ज़रिये जनता में अपनी पैठ बनाई और सत्ता हासिल की.

कुल मिलाकर राहुल गांधी ऐसे क़द्दावर नेताओं की फ़ेहरिस्त में शुमार हो चुके हैं, जिनके तूफ़ान से सियासी दलों के  हौसले  पस्त हो जाते हैं. हालत यह हो गई है कि कोई सियासी दल दाग़ी को लेता है, तो कोई दग़ाबाज़ी को सहारा बना लेता है. जब कोई चारा नहीं दिखता, तो कुछ सियासी दल राहुल पर व्यक्तिगत प्रहार करने में जुट जाते हैं.  मगर इससे राहुल गांधी को कोई नुक़सान नहीं होता, क्योंकि राजनीति की विरासत को संभालने वाला यह युवा नेता अब युवाओं, और अन्य वर्गों के साथ-साथ बुजुर्गों का भी चहेता बन चुका है. राहुल गांधी की जनसभाओं में दूर-दूर से आए बुज़ुर्ग यही कहते हैं कि लड़का ठीक ही तो कह रहा है, यही कुछ करेगा. महिलाओं में तो राहुल गांधी को लेकर काफ़ी क्रेज है. यह बात तो विरोधी दलों के नेता भी बेहिचक क़ुबूल  करते हैं. वे तो मज़ाक़ के लहजे में यहां तक कहते हैं कि अगर महिलाओं को किसी एक नेता को वोट देने को कहा जाए, तो सभी राहुल गांधी को ही देकर आएंगी. राहुल युवाओं ही नहीं, बल्कि बच्चों से भी घुलमिल जाते हैं. कभी किसी मदरसे में जाकर बच्चों से बात करते हैं, तो कभी किसी मैदान में खेल रहे बच्चों के साथ बातचीत शुरू कर देते हैं. यहां तक कि गांव-देहात में मिट्टी में खेल रहे बच्चों तक को गोद में उठाकर उसके साथ बच्चे बन जाते हैं. बच्चे उन्हें बहुत अच्छे लगते हैं. उन्हें अपनी भांजी मिराया और भांजे रेहान के साथ वक़्त बिताना भी बहुत अच्छा लगता है. उनके अच्छे बर्ताव की वजह से ही बुज़ुर्ग उन्हें स्नेह करते हैं, उनके सर पर शफ़क़त का हाथ रखते हैं, उन्हें दुआएं देते हैं.  वे युवाओं के चहेते हैं. राहुल गांधी अपने विरोधियों का नाम भी सम्मान के साथ लेते हैं, उनके नाम के साथ जी लगाते हैं.  सच है कि संस्कार विरासत में मिलते हैं, संस्कार घर से मिला करते हैं. अपने से बड़ों के लिए उनके दिल में सम्मान है, तो बच्चों के लिए प्यार-दुलार है.

जब भ्रष्टाचार और महंगाई के मामले में कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार का चौतरफ़ा विरोध हो रहा था, ऐसे वक़्त में राहुल गांधी गांव-गांव जाकर जनमानस से एक भावनात्मक रिश्ता क़ायम कर रहे थे. वे लोगों से मिलने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते. वे उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोयडा के नज़दीकी गांव भट्टा-पारसौल गए. उन्होंने आसपास के गांवों का भी दौरा कर ग्रामीणों से बात की, उनकी समस्याएं सुनीं और उनके समाधान का आश्वासन भी दिया- इससे पहले भी वे सुबह मोटरसाइकिल से भट्टा-पारसौल गांव जा चुके हैं. उस वक़्त उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने उन्हें गिरफ्तार करा दिया था. इस बार भी वह गुपचुप तरीक़े से ही गांव गए थे. न तो प्रशासन को इसकी ख़बर थी और न ही मीडिया को इसकी भनक लगने दी गई. हालांकि उनके दौरे के बाद प्रशासन सक्रिय हो गया था. इसके बाद भी वे गांव लखीमपुर में पीड़ित परिवार के घर गए और उन्हें इंसाफ़ दिलाने का वादा किया. और चौकस प्रशासन को भनक तक नहीं लगी. ऐसे हैं राहुल गांधी.

भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर राहुल गांधी द्वारा निकाली गई पदयात्रा से सियासी हलक़ों में चाहे जो प्रतिक्रिया हुई हो, लेकिन यह हक़ीक़त है कि राहुल गांधी ने ग्रेटर नोएडा के ग्रामीणों के साथ जो वक़्त बिताया, उसे वे कभी नहीं भूल पाएंगे. इन लोगों के लिए यह किसी सौग़ात से कम नहीं था कि उन्हें कांग्रेस के युवराज के साथ वक़्त गुज़ारने का मौक़ा मिला. अपनी पदयात्रा के दौरान पसीने से बेहाल राहुल ने शाम होते ही गांव बांगर के किसान विजय पाल की खुली छत पर स्नान किया. फिर थोड़ी देर आराम करने के बाद उन्होंने घर पर बनी रोटी, दाल और सब्ज़ी खाई. ग्रामीणों ने उन्हें पूड़ी-सब्ज़ी की पेशकश की, लेकिन उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया. गांव में बिजली की क़िल्लत रहती है, इसलिए ग्रामीणों ने जेनरेटर का इंतज़ाम किया, लेकिन राहुल ने पंखा भी बंद करवा दिया. वे एक आम आदमी की तरह ही बांस और बांदों की चारपाई पर सोये. यह कोई पहला मौक़ा नहीं था जब राहुल गांधी इस तरह एक आम आदमी की ज़िंदगी गुज़ार रहे थे. इससे पहले भी वे रोड शो कर चुके थे और उन्हें इस तरह के माहौल में रहने की आदत है. कभी वे किसी दलित के घर भोजन करते हैं, तो कभी किसी मज़दूर के  साथ ख़ुद ही परात उठाकर मिट्टी ढोने लगते हैं. राहुल गांधी के आम लोगों से मिलने-जुलने के इस जज़्बे ने उन्हें लोकप्रिय बनाया. राहुल जहां भी जाते हैं, उन्हें देखने के लिए, उनसे मिलने के लिए लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जाता है. हालत यह है कि लोगों से मिलने के लिए वह अपना सुरक्षा घेरा तक तोड़ देते हैं.

राहुल गांधी समझ चुके हैं कि जब तक वे आम आदमी की बात नहीं करेंगे, तब तक वे सियासत में आगे नहीं ब़ढ पाएंगे. इसके लिए उन्होंने वह रास्ता अख़्तियार किया, जो बहुत कम लोग चुनते हैं. वे भाजपा की तरह एसी कल्चर की राजनीति नहीं करना चाहते. राहुल गांधी का कहना है कि उन्होंने किसानों की असल हालत को जानने के लिए पदयात्रा शुरू की थी, क्योंकि दिल्ली और लखनऊ के एसी कमरों में बैठकर किसानों की हालत पर सिर्फ़ तरस खाया जा सकता है, उनकी समस्याओं को न तो जाना जा सकता है और न ही उन्हें हल किया जा सकता है.

संसद में भी राहुल गांधी बेहद आक्रामक अंदाज़ में नज़र आते हैं. कालेधन पर तंज़ कसते हुए राहुल गांधी ने कहा था,  "काला धन सफ़ेद कर रहे हैं वित्तमंत्री. पहले कालाधन वापस लाने का वादा किया, अब उसे ही सफ़ेद करने का, यह उनकी फ़ेयर एंड लवली स्कीम है, काले पैसे को आप गोरा कर सकते हो. फ़ेयर एंड लवली योजना के तहत किसी को जेल नहीं होगी, जेटली जी के पास जाइये, आपका पैसा सफ़ेद हो जाएगा."  महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का ज़िक्र करते हुए राहुल गांधी ने कहा, "महात्मा गांधी हमारे हैं, सावरकर आपके हैं. आपने सावरकर को उठाकर फेंक दिया क्या? फेंक दिया, तो बहुत अच्छा किया." राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वह रोज़गार सृजन के लिए काले रंग का एक बड़ा सा बब्बर शेर लिए घूम रहे हैं, लेकिन उसके बावजूद युवाओं को नौकरी नहीं दे पा रहे हैं. उन्होंने कहा, "आपने बब्बर शेर दिया तो दिया, लेकिन रोज़गार कितने दिए, यह किसी को मालूम नहीं. किसी के पास कोई आंकड़ा नहीं है." संसद में जब राहुल बोल रहे थे, तो भाजपा सांसद हंगामा करने लगे. इस पर राहुल गांधी ने कहा, मैं आरएसएस का नहीं हूं. मैं ग़लतियां करता हूं. मैं सब कुछ नहीं जानता, सब कुछ नहीं समझता. मैं जनता से बातचीत करके उनसे उनकी बात सुनकर और समझकर अपनी बात रखता हूं. हम में और आप में फ़र्क़ यही है कि आप सब जानते हैं और ग़लती नहीं करते, जबकि हम ग़लती करते हैं और उससे सीखते हैं.

राहुल गांधी छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. वे कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता. "
वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है."  क़ाबिले-ग़ौर है कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला हैं, यानी दुनिया भी उनकी विश्वसनीयता का लोहा मानती है.

प्रभावशाली घराने से होने के बावजूद राहुल गांधी में सादगी है. खाने के वक़्त मेज़ पर वे साथियों को प्लेटें दे देते हैं, अपनी प्लेटें ख़ुद किचन में रख आते हैं. किसी बुज़ुर्ग के पानी मांगने पर सेवकों से कहने की बजाय ख़ुद किचन से पानी लाकर दे देते हैं. सार्वजनिक मंचों पर उन्हें अकसर डॊ. मनमोहन सिंह व अन्य लोगों को पानी देते हुए देखा गया है. वे बनावटीपन से कोसों दूर हैं. वे संसद की सीढ़ियों पर सर नहीं नवाते. अगर उनकी कोई चीज़ गिर जाए, तो बिना किसी का इंतज़ार किए ख़ुद उठा लेते हैं. यहां तक कि अपनी कुर्सी तक ख़ुद उठाकर ले आते हैं. एक आयोजन में एक बुज़ुर्ग अपने जूते का फ़ीता नही बांध पा रहे थे. राहुल गांधी ने बेहिचक बढ़कर बुज़ुर्ग के जूते का फ़ीता बांधा और फिर उन्हें उठने में मदद की.

दुनिया की सबसे महंगी खुदरा हाई स्ट्रीट में शुमार दिल्ली की ख़ान मार्केट में राहुल का भी सबसे प्रिय हैंगआउट है.  उन्हें बरिस्ता में कॉफी पीते हुए या बाज़ार की बाहरी तरफ़ बुक शॊप्स में किताबों के वर्क़ पलटते देखा जा सकता है. वे खाने के बहुत शौक़ीन हैं. पुरानी दिल्ली का खाना भी उन्हें यहां ख़ींच लाता है. अपनी सुरक्षा की परवाह किए बग़ैर वे शाहजहानाबाद पहुंच जाते हैं.

राहुल गांधी को ख़ामोश शामें बहुत पसंद हैं. इसके साथ ही उन्हें दुनिया की चकाचौंध भी ख़ूब लुभाती है. वे रिश्तों को बहुत अहमियत देते हैं. अगर किसी से कोई वादा कर लें, तो उसे पूरा ज़रूर करते हैं.   बिल्कुल ऐसे हैं राहुल गांधी, जिन्हें लोग प्यार से ’आरजी’ भी कहते हैं.

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रुमाल...


मेरे महबूब !
ज़िन्दगी के
सफ़ेद रुमाल पर
मुहब्बत के
शोख़ रंगों से दमकता
और
अहसास के बेल-बूटों से महकता
तुम्हारा नाम टंका है...
जिसे
मैं हमेशा पढ़ते रहना चाहती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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ज़िंदगी के हर पल को जीना चाहिए...


ज़िंदगी के हर पल को जीना चाहिए, क्योंकि एक बार जो लम्हे बीत जाते हैं, फिर वो दोबारा कभी नहीं आते... इसी तरह मुहब्बत भी बार-बार नहीं मिला करती... इसे सहेज लेना चाहिए, अपनी रूह में बसा लेना चाहिए...

पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर कहती हैं-
लड़की!
ये लम्हे बादल हैं
गुज़र गए तो हाथ कभी नहीं आएंगे
उनके लम्स को पीती जा
क़तरा-क़तरा भीगती जा
भीगती जा तू, जब तक इनमें नमी है
और तेरे अंदर की मिट्टी प्यासी है
मुझसे पूछ कि बारिश को वापस आने का रस्ता
न कभी याद हुआ
बाल सुखाने के मौसम अनपढ़ होते हैं...

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बारिश भी अजीब हुआ करती है

बारिश भी अजीब हुआ करती है... बूंदें न बरसें, तब गर्मी से जीना मुहाल... अगर बादल बरस जाएं, तब किसी की याद में मन बेकल रहे...
बारिश में भीगती है कभी उसकी याद तो
इक आग-सी हवा में लगाती हैं बारिशें...
-फ़िरदौस ख़ान
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ऐ चांद ! मेरे महबूब से फ़क़्त इतना कहना...

ऐ चांद !
मेरे महबूब से फ़क़्त इतना कहना...
अब नहीं उठते हाथ
दुआ के लिए
तुम्हें पाने की ख़ातिर...

दिल की वीरानियों में
दफ़न कर दिया
उन सभी जज़्बात को
जो मचलते थे
तुम्हें पाने के लिए...

तुम्हें बेपनाह चाहने की
अपनी हर ख़्वाहिश को
फ़ना कर डाला...

अब नहीं देखती
सहर के सूरज को
जो तुम्हारा ही अक्स लगता था...

अब नहीं बरसतीं
मेरी आंखें
फुरक़त में तम्हारी
क्यूंकि 
दर्द की आग ने
अश्कों के समन्दर को
सहरा बना दिया...

अब कोई मंज़िल है
न कोई राह
और
न ही कोई हसरत रही
जीने की
लेकिन
तुमसे कोई शिकवा-शिकायत भी नहीं...

ऐ चांद !
मेरे महबूब से फ़क़्त इतना कहना...
-फ़िरदौस ख़ान
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अगरबत्तियों का धुआं...

कितना भला लगता है
अगरबत्तियों का
महकता सफ़ेद धुआं...

पुरानी यादों के
कितने अक्स
उभर आते हैं...

जुमेरात को बाद अस्र के
घर में महकने लगती थीं
गुलाब की अगरबत्तियां...

अक़ीदत के चिराग़ रौशन होते
हाथ दुआ के लिए उठ जाते
जाने कौन-सी दुआएं थीं वो
अब याद नहीं...

अब भी आंगन में
अगरबत्तियां महकती हैं
कभी गुलाब की, कभी केवड़ा
और कभी संदल की ख़ुशबू वाली...

लेकिन
अब चिराग़ रौशन नहीं होते
हाथ ज़रूर उठते हैं दुआओं के लिए
ये दुआएं, जो अपने लिए नहीं होतीं...
-फ़िरदौस ख़ान

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आख़िर आग और राई के दानों का रहस्य क्या था


फ़िरदौस ख़ान
विज्ञान और तर्कों के परे भी बहुत कुछ ऐसा है, जिस पर हम तब तक यक़ीन नहीं करते, जब तक अपनी आंखों से न देख लें...
बात हमारे बचपन की है... घर के पास एक बेकरी थी... हमारे यहां ब्रेड, समौसे और बिस्किट वहीं से आया करते थे... एक रोज़ बेकरी वाले ने पापा से कहा कि वह बहुत परेशान है... दो दिन से उसने कई मन लकड़ियां भट्ठी में फूंक दीं, इसके बावजूद भट्ठी में इतनी भी आंच नहीं हो पा रही है कि बिस्किट तक सिक सकें... उसने भट्ठी में बहुत सी लकड़ियां डालीं, आग की लपटें उठने लगीं, कोयले दहक के अंगारा बन गए... बिस्किट का पतरा भट्ठी के अंदर रखा गया, कुछ देर बाद उसे बाहर निकाला, तो बिस्किट कच्चे के कच्चे... उन्हें ज़रा भी आंच नहीं लगी...
फिर एक सयाने को बुलाया गया... उसने हाथ में राई के कुछ दाने लिए, कुछ पढ़ा और दानों पर दम करके भट्ठी में झोंक दिया... फिर बिस्किट का पतरा भट्ठी में रखा गया... पतरा बाहर आया, तो सभी बिस्किट सिके हुए थे...

भट्ठी में इतनी ढेर सारी लकड़ियां फूंक देने के बावजूद उसमें इतनी भी आंच क्यों नहीं हो पा रही थी कि बिस्किट सिक जाएं...
आख़िर राई के उन दानों पर ऐसा क्या पढ़कर फूंका गया था कि उनके भट्ठी में डालते ही इतनी आंच हो गई कि बिस्किट सिक गए...

आख़िर ये क्या रहस्य है... ?

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रहें न रहें हम, महका करेंगे…


फ़िरदौस ख़ान
मशहूर शायर एवं गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हसन ख़ान था. उनका जन्म एक अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में हुआ था. उनके पिता पुलिस विभाग में उपनिरीक्षक थे. मजरूह ने दरसे-निज़ामी का कोर्स किया. इसके बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तिब कॉलेज से यूनानी पद्धति की डॉक्टरी की डिग्री हासिल की. फिर वह हकीम के तौर पर काम करने लगे, मगर उन्हें यह काम रास नहीं आया, क्योंकि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी शेरो-शायरी में थी. जब भी मौक़ा मिलता, वह मुशायरों में शिरकत करते. उन्होंने अपना तख़ल्लुस मजरूह रख लिया. शायरी से उन्हें ख़ासी शोहरत मिली. वह मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए.

उन्होंने अपना हकीमी का काम छोड़ दिया. एक मुशायरे में उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई. 1945 में वह एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता ए आर कारदार से हुई. कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह ने इससे इंकार कर दिया, क्योंकि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे. जब मजरूह ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी. मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया. मशहूर संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा. मजरूह ने उस धुन पर गेसू बिखराए, बादल आए झूम के, गीत लिखा. इससे नौशाद ख़ासे प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म शाहजहां के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी. मजरूह ने हर दौर के संगीतकारों के साथ काम किया. वह वामपंथी विचारधारा से ख़ासे प्रभावित थे. वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़ गए थे. उन्होंने 1940 के दशक में मुंबई में एक नज़्म माज़-ए-साथी जाने न पाए, पढ़ी थी. तत्कालीन सरकार ने इसे सत्ता विरोधी क़रार दिया था. सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया. नतीजतन, उन्हें डेढ़ साल मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताने पड़े. उनका कहना था-
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह भले ही फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे, लेकिन उनका पहला प्यार ग़ज़ल ही रही-
मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने

उन्होंने शायरी को महज़ मोहब्बत के जज़्बे तक सीमित न रखकर उसमें ज़िंदगी की जद्दोजहद को भी शामिल किया. उन्होंने ज़िंदगी को आम आदमी की नज़र से भी देखा और एक दार्शनिक के नज़रिये से भी. जेल में रहने के दौरान 1949 में लिखा उनका फ़िल्मी गीत-एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल… ज़िंदगी की सच्चाई को बयान करता है. बक़ौल बेकल उत्साही, मजरूह एक ऐसे शायर थे, जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्हें एक हद तक प्रयोगवादी शायर और गीतकार भी कहा जा सकता है. उन्होंने अवध के लोकगीतों का रस भी अपनी रचनाओं में घोला था. इससे पहले शायरी की किसी और रचना में ऐसा नहीं देखा गया था. उन्होंने फ़िल्मी गीतों को साहित्य की बुलंदियों पर पहुंचाने में अहम किरदार निभाया. 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ऊंचे लोग का यह गीत इस बात की तस्दीक करता है-
एक परी कुछ शाद सी, नाशाद-सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की
भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना

1993 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे. इसके अलावा 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत-चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए. मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशकों से भी ज़्यादा अरसे तक क़रीब तीन सौ फ़िल्मों के लिए तक़रीबन चार हज़ार गीत लिखे. मजरूह ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर बना दिया. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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राजीव गांधी जी से वाबस्ता यादें


फ़िरदौस ख़ान
कुछ लोगों से ऐसा रिश्ता बन जाता है, जिसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता... राजीव गांधी जी से भी कुछ ऐसा ही रिश्ता था... हमारी अम्मी जान की फूफी जान को राजीव गांधी जी बहुत अच्छे लगते थे... टीवी पर राजीव गांधी जी को देखकर वो बहुत ख़ुश होती थीं... वो ख़बरों का बेसब्री से इंतज़ार करती थीं कि कब ख़बरें शुरू हों और उन्हें राजीव गांधी जी नज़र आएं...
पापा को भी राजीव गांधी जी बहुत पसंद थे... राजीव गांधी जी हमारी अम्मी के भी प्रिय नेता रहे हैं...
राजीव जी की बरसी पर बचपन का वो वाक़िया भी याद आ जाता है, जब राजीव गांधी जी की मौत की ख़बर सुनी थी... बात 25 साल पहले की है... आज ही के दिन यानी 21 मई को दस-बारह साल का एक तमिल लड़का भागा-भागा गया और उसने अम्मी जान से कहा- राजीव गांधी की मौत हो गई... अम्मी ने उसे बहुत डांटा और कहा कि ऐसा नहीं कहते... उस वक़्त अम्मी बहुत ग़ुस्से में थीं... लेकिन जब रेडियो और टीवी पर ये ख़बर सुनी और देखी, तो हमारे घर में उदासी छा गई...
आज भी जब हम उस वाक़िये को याद करते हैं, तो रूह कांप उठती है... सोचते हैं कि जब हमें इतनी तकलीफ़ होती है, तो तब सोनिया गांधी जी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी पर क्या गुज़री होगी और अब क्या गुज़रती होगी...
बच्चों के लिए उसके पापा का जाना बहुत तकलीफ़देह होता है... हमें भी आज अपने पापा की बहुत याद आती है... और उन्हें याद करके आंखें नम हो जाती हैं...
कुछ लोग ज़मीन पर राज करते हैं और कु्छ लोग दिलों पर. मरहूम राजीव गांधी एक ऐसी शख़्सियत थे, जिन्होंने ज़मीन पर ही नहीं, बल्कि दिलों पर भी हुकूमत की. वह भले ही आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन हमारे दिलों में आज भी ज़िंदा हैं और हमेशा ज़िन्दा रहेंगे...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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सदक़ा


मेरे महबूब !
सोचती हूं
तुम्हारे सदक़े में
किसी साइल को
क्या दूं...
अगर मेरे हिस्से में जन्नत हो
तो वो उसके कांसे में डाल दूं...
और
तुम्हारी जान के सदक़े में
अपनी जान निसार कर दूं...
-फ़िरदौस ख़ान

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तुम्हारे नाम की चूड़ियां


मेरे महबूब !
तुम
हमेशा सलामत रहो...
मेरी कलाइयों में
तुम्हारे नाम की
हरे कांच की चूड़ियां
हमेशा खनकती रहें...
हथेलियों पर
तुम्हारे नाम की मेहंदी
रचती रहे...
और
बालों में
बेला के गजरे
तुम्हारे लम्स से
महकते रहें...
-फ़िरदौस ख़ान
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उन्हें अपनी पनाह में रखना


मेरे मौला !
उन्हें
हमेशा अपनी पनाह में रखना
जिनके नाम का कलमा
मेरी ज़बान पर रहता है
और
मेरी सांसें
जिनके नाम की
तस्बीह करती हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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एक असाधारण सृजनशील कलाकार रबीन्द्रनाथ ठाकुर


फ़िरदौस ख़ान
रबीन्द्रनाथ ठाकुर को आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है. वे बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे. वे एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, जिन्हें 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इतना ही नहीं, वे एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं. भारत का राष्ट्रगान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएं हैं. ग़ौरतलब है कि उनका जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता के जो़डासांको ठाकुरबा़डी में हुआ था. उनकी शुरुआती शिक्षा सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई. इसके बाद 1878 में उन्होंने इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में दाख़िला ले लिया. फिर उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए. दरअसल, बहुमुखी प्रतिभा के धनी रबीन्द्रनाथ का बचपन से ही कला के प्रति रुझान था और कविताएं और कहानियां लिखना उन्हें बेहद पसंद था. हालांकि उनके पिता देबेंद्रनाथ ठाकुर यही चाहते थे कि उनका बेटा पढ़-लिखकर वकील बने, लेकिन रबीन्द्रनाथ का मन कला और साहित्य को कब का समर्पित हो चुका था. आख़िरकार पिता को बेटे की ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा और उन्होंने रबीन्द्रनाथ पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां डाल दीं. 1883 में मृणालिनी देवी से उनका विवाह हुआ.

गौरतलब है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था. उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में महज़ सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी. उनकी शुरुआती रचनाओं में बनफूल और कवि काहिनी उल्लेखनीय हैं. किड़ओ कोमल, प्रभात संगीत, छबि ओ गान, मानसी में उनकी काव्य शैली का विकास सा़फ़ झलकता है. इसी तरह सोनार तरी नामक काव्य संग्रह में विश्व जीवन की आनंद चेतना का पहला स्वर फूटता है, जो चित्रा में बुलंदी तक पहुंचता है. उसी वक़्त नैवेद्य काव्य संग्रह में भक्ति के प्रति उनकी व्याकुलता नज़र आती है, जो बाद में गीतांजलि में और भी तीव्र हो उठती है. ब्रिटिश सरकार ने 1913 में उन्हें नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया था, लेकिन जलियांवाला बाग़ के नरसंहार से मर्माहत होकर उन्होंने यह उपाधि वापस कर दी. 1916 में उनका काव्य संग्रह श्लाका प्रकाशित हुआ. इसके बाद पलातक, पूरबी, प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका, पत्रपुट, आरोग्य, शेषलेखा आदि काव्य संग्रह प्रकाशित हुए और ख़ूब सराहे भी गए. रबीन्द्रनाथ ठाकुर पारंपरिक बंधनों से मुक्त होकर सृजन करने में विश्वास करते थे. उन्होंने पद्य की तरह गद्य की रचना भी बचपन से ही शुरू कर दी थी. उनके निबंध उनके शिल्प कार्य केबेहतरीन उदाहरण हैं. इनमें विचारों की गंभीरता के साथ भाषा शैली भी उत्कृष्ट है. उनका श्रेष्ठ गद्य ग्रंथ जीवनस्मृति है, जिसमें जीवन के अनेक चित्र अंकित हैं. उन्होंने 1888 में आधुनिक बांग्ला साहित्य में छोटी कहानी का सृजन करके एक नई विधा की शुरुआत की, जिसे बाद में कई साहित्यकारों ने अपनाया.

1884 में उनका पहला उपन्यास करुणा प्रकाशित हुआ. उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में चोखेर बाली, नौका डूबी, गोरा, घरे-बाइरे आदि उल्लेखनीय हैं. नाटक के क्षेत्र में भी उन्होंने बेहतरीन काम किया. बाल्मीकि प्रतिभा और मायेर खेला उनके शुरुआती गीतिनाट्य हैं. राजा ओ रानी, विसर्जन और चित्रांगदा में उनकी उत्कृष्ट नाट्य प्रतिभा के दर्शन होते हैं. उनका सांकेतिक नाटक रक्तकरबी उनकी श्रेष्ठ कृतियों में से एक है. काव्य, स्वर, नाट्य और नृत्य से सजा उनका नाटक नटीर पूजा, श्यामा आदि भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. शारदोत्सव, राजा, अचलायतन और फाल्गुनी भी उनके प्रसिद्ध नाटकों में शामिल हैं. उन्होंने तक़रीबन 2230 गीतों की भी रचना की, जो रबीन्द्र संगीत के नाम से जाने जाते हैं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित उनके ये गीत ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को अपने में समेटे हुए हैं.

रबीन्द्रनाथ ठाकुर सियालदह और शजादपुर स्थित अपनी पैतृक संपत्ति की देखभाल के लिए 1891 में पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) आ गए और तक़रीबन दस साल तक यहीं रहे. उन्होंने यहां के जनमानस के सुख-दुख को बेहद क़रीब से देखा और अपनी रचनाओं में उसका मार्मिक वर्णन भी किया, जिसे उनकी कहनानियों दीन-हीनों और छोटे-मोटे दुख में महसूस किया जा सकता है. वे प्रकृति प्रेमी थे, इसलिए वे चाहते थे कि विद्यार्थी प्रकृति के बीच रहकर अध्ययन करें. इसी मक़सद से 1901 में उन्होंने सियालदह छोड़ दिया और उसी साल शांति निकेतन नामक एक विद्यालय की स्थापना की, जो 1921 में विश्व भारतीय विश्वविद्यालय बन गया. उनकी रचनाओं में आसमान, सूरज, चांद, सितारे, बरसात, बलखाती नदियां, पेड़ और लहलहाते खेतों का मनोहारी चित्रण मिलता है. उनकी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ और वे देश-विदेश में मशहूर हो गए. रबीन्द्रनाथ के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए. 1902 और 1907 के बीच उनकी पत्नी और उनके दो बच्चों की मौत हो गई. इस दुख से उबरने के लिए उन्होंने अपना सारा वक़्त काम में लगा दिया. एक वक़्त ऐसा भी आया, जब शांति निकेतन की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब हो गई. धन संग्रह के लिए गुरुदेव ने नाटकों का मंचन शुरू कर दिया. उस वक़्त महात्मा गांधी ने उन्हें साठ हज़ार रुपये का चेक दिया था. कहा जाता है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने ही गांधी जी को महात्मा का विशेषण दिया था. ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में उन्होंने चित्र बनाना शुरू किया. यहां भी उन्होंने ज़िंदगी के तमाम रंगों को कैनवास पर उकेरा. उनके चित्र भी उनकी अन्य कृतियों की तरह दुनिया भर में सराहे गए. हालांकि उन्होंने चित्रकला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, बावजूद इसके उन्होंने ब्रुश, रूई और अपनी उंगलियों को रंग में डुबोकर कैनवास पर मन के भावों को उकेर दिया.

रबीन्द्रनाथ ठाकुर की मौत 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई. भले ही आज यह महान कलाकार हमारे बीच नहीं है, लेकिन अपनी महान रचनाओं के कारण वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे. वे कहा करते थे, विश्वास वह पक्षी है, जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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वो डूबने नहीं देगा


दूर-दूर तक सिर्फ़ पानी ही पानी था... लड़की पानी में उतर गई... हालांकि उसे तैरना नहीं आता था... वो जानती थी कि वो डूबेगी नहीं... उसका महबूब उसे डूबने नहीं देगा... वो उसका हाथ थाम लेगा... उसके महबूब को पानी से गहरा लगाव था... वो स्कूबा डाइविंग के लिए फ़िलीपींस तक चला जाता था...

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मई


मई... रोमन देवता मरकरी की मां 'मइया' के नाम पर मई महीने का नाम रखा गया... मई का तात्पर्य 'बड़े-बुज़ुर्ग रईस' हैं... मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है...

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कामयाब ज़िन्दगी


एक कामयाब ज़िन्दगी क्या होती है... इस पर  सबका अपना-अपना नज़रिया है... किसी के लिए ऐशो-आराम की ज़िन्दगी ही कामयाब ज़िन्दगी है... किसी के दौलत और शोहरत हासिल करना ही कामयाबी की निशानी है...
दरअसल, इंसान अपनी ज़िन्दगी से जो चाहता है, और उसे वो मिल जाए, तो यही उसके लिए कामयाब ज़िन्दगी है...
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देव की जान


बचपन में दादी जान से कहानी सुना करते थे कि एक देव की जान एक तोते में क़ैद थी... सोचते थे, ऐसा कैसे हो सकता है... लेकिन अब समझ में आया कि ऐसा बिल्कुल हो सकता है... सच ! कहानियां कितनी सच्ची हुआ करती हैं... बस, वक़्त से साथ उनके किरदार बदल जाया करते हैं...
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औरत का सम्मान


पापा ने हमें शहज़ादी की तरह पाला... हमारी हर छोटी-बड़ी ख़्वाहिश पूरी की... भाई भी हमारा बहुत ख़्याल रखते हैं... हमारी बात उनके लिए हुक्म होती है...
और वो... उन्होंने हमें अहसास दिलाया कि हम उनके लिए कितने ख़ास हैं...
पापा, भाई और ’उनकी’ नज़र में औरत का दर्जा मर्द से कमतर नहीं है... इन सबका मानना है कि औरत भी मर्द की तरह ही इंसान है...
ये हमारी ख़ुशनसीबी है कि हमें अच्छे और सच्चे लोग मिले... दुनिया के उन सब मर्दों को हमारा सलाम, जो औरतों को भी अपनी ही तरह इंसान समझते हैं.
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स्वरोज़गार


कहते हैं- दूसरे के सिंहासन से अपनी चटाई अच्छी... क्योंकि किसी की जी हुज़ूरी तो नहीं करनी पड़ती...
आज के युवा अपने स्वरोज़गार को तरजीह दे रहे हैं... वाक़ई यह अच्छी बात है... अपना ख़ुद का काम ही ज़्यादा अच्छा होता है, भले ही परचून की दुकान क्यों न हो...  नौकरी में लगी बंधी तनख़्वाह तो होती है, लेकिन इसकी अपनी परेशानियां हैं... नौकरी प्राइवेट हो, तो और भी मुसीबत... हमेशा एक ही बात याद रखनी होती है- बॊस इस ऒलवेज़ राइट... न जॊब की गारंटी होती है, न काम का वाजिब मेहनताना, न पर्याप्त छुट्टियां...

अपने काम में जो मज़ा है, वो किसी की नौकरी में कहां... स्वरोज़गार अपनाओ और ख़ुश रहो ... :)
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कल भी पूरे चांद की रात थी


फ़िरदौस ख़ान
कल भी पूरे चांद की रात थी... हमेशा की तरह ख़ूबसूरत... इठलाती हुई... अंगनाई में खिले सफ़ेद फूल अपनी भीनी-भीनी महक से माहौल को और रूमानी बना रहे थे... नींद आंखों से कोसों दूर थी... पिछले कई दिन से वह दिल्ली से बाहर हैं... रात भर चांद आसमान में मुस्कराता रहा... उसकी दूधिया चांदनी अंगनाई में बिखरी हुई थी... शाख़ें हवा से झूम रही थीं... गर्मी के मौसम के बावजूद हवा में ठंडक थी... बादलों के दूधिया टुकड़े आसमान में कहीं-कहीं तैर रहे थे... लेकिन जिन्हें दिल ढूंढ रहा था, बस वही नहीं थे...


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पंजाबी की किताबें...


बात बहुत पुरानी है... हमारा बीए का तीसरा साल था... हमने पंजाबी विषय लिया हुआ था...  पंजाबी की किता्बें मिल नहीं रही थीं... हम शहर की सबसे पुरानी दुकान पर गए, जिसके बारे में कहा जाता था कि वहां सब किताबें मिल जाती हैं... लेकिन हमें वहां भी किताबें नहीं मिलीं... पूरे शहर में पंजाबी के पांच ही स्टुडेंट्स थे, बाक़ी चार के पास किताबें थीं, जो बाहर से मंगवाई गई थीं...
हम बहुत परेशान थे कि क्या करें... हमारे एक पारिवारिक मित्र ने हमसे परेशानी की वजह पूछी, तो हमने उन्हें बताया कि हमें पंजाबी की किताबें नहीं मिल रही हैं... उन्होंने कहा कि तुम प्रकाशक का पता देना... हमने अगले दिन हमने उन्हें प्रकाशक का पता दे दिया... दो-तीन दिन बाद हमने उन्हें फ़ोन किया, तो उन्होंने कहा कि तुमने काम बता दिया है, इसलिए अब ये तुम्हारा नहीं, मेरा काम है... अब दोबारा इसका ज़िक्र मत करना... बात हफ़्ते (शनिवार) की थी... पीर (सोमवार) के रोज़ शाम को वो हमारे घर आए और हमें किताबें दे दीं... उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री के दौरे की वजह से उन्हें छुट्टी नहीं मिल रही थी... इसलिए इतवार को वे पंजाब से हमारे लिए किताबें लेकर आए...
वाक़ई, ऐसे लोग भी होते हैं इस दुनिया में... हम जब भी पंजाबी की कोई किताब देखते हैं, तो वो मोहतरम याद आ जाते हैं... शुक्रिया मेरे मोहसिन...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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किताबों से रिश्ता...


किताबों से हमारा रिश्ता बहुत पुराना है या यूं कहें कि बचपन से ही किताबों से हमारी दोस्ती रही है... हमने अब तक कितनी किताबें पढ़ी हैं, यह ठीक से याद नहीं... लेकिन इतना ज़रूर याद है कि हमने अपनी ज़िन्दगी का बहुत ख़ूबसूरत वक़्त किताबों के बीच ही गुज़ारा है... और अब भी गुज़ार रहे हैं... आज हम अपनी पढ़ी किताबों की पहली फ़ेहरिस्त लिख रहे हैं...
Romeo Juliet : William Shakespeare
Hamlet : William Shakespeare
Julius Caesar : William Shakespeare
Doctor Faustus : Christopher Marlowe
Adam Bede : George Eliot
Far From the Madding Crowd : Thomas Hardy
Saint Joan : George Bernard Shaw
Mother : Maxim Gorky
Joseph Andrews : Henry Fielding
The Best Short Stories of O. Henry

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किताबें...


फ़िरदौस ख़ान
बचपन से ही हमें किताबें पढ़ने का शौक़ रहा है. घर में अम्मी को किताबें पढ़ते हुए देखते थे. उनकी देखादेखी हमें भी किताबें पढ़ने का शौक़ हो गया. पहले कॊमिक्स और कहानियों की किताबें पढ़ा करते थे. लोककथाएं हमें बहुत पसंद थीं, आज भी हैं. किताबों से हमें बहुत मुहब्बत है. अपने दोस्तों को भी उनकी सालगिरह पर किताबें ही देते हैं, लेकिन जिनका किताबों से कोई सरोकार नहीं यानी उन्हें किताबें पसंद नहीं, तो उनके लिए कोई दूसरा तोहफ़ा ख़रीदने में हमें काफ़ी सोचना पड़ता है... ख़ैर पसंद अपनी-अपनी.

दूरदर्शन में हमारे साथ एक बंगाली प्रोड्यूसर भी थे. उनसे बंगाली तहज़ीब को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला. वैसे भी हम बांग्ला साहित्य पढ़ते रहे हैं. वहां के लोगों की एक बात हमें बेहद पसंद है और उनके इस जज़्बे की हम दिल से क़द्र करते हैं. बंगाल में लोग शादी-ब्याह में भी तोहफ़े के तौर पर किताबें भी देते हैं.

जब भी प्रगति मैदान में लगे मेले में जाने का मौक़ा मिलता है, तो हम उर्दू, अरबी, पंजाबी और हिन्दी की बहुत-सी किताबें ख़रीदते हैं. यह देखकर अच्छा लगता है कि किताबों के क़द्रदानों की आज भी कोई कमी नहीं है. जब भी घर जाना होता है, तो हमारी यही कोशिश रहती है कि अम्मी और बहन-भाइयों के लिए उनकी पसंद की कोई न कोई किताब लेकर जाएं. अम्मी को उर्दू और अरबी की किताबें पसंद हैं. भाई को पत्रकारिता, पशु-पक्षियों और बाग़वानी की. हमारे घर पर एक अच्छी-ख़ासी लाइब्रेरी है. यहां भी हमारे पास किताबों का एक ज़ख़ीरा है.

किताबों की अपनी ही एक दुनिया है. कहते हैं किताबों से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता. कॉलेज के वक़्त हर महीने आठ से दस किताबें पढ़ लेते थे. लाइब्रेरी में उर्दू और पंजाबी की किताबें पढ़ने वाले हम अकेले थे. उर्दू या पंजाबी का कोई बुज़ुर्ग पाठक कभी साल-दो-साल में ही वहां आता था. कई बार लाइब्रेरी के लोग किताबों को तरतीब से लगाने के लिए हमारी मदद लेते थे, तो कभी फटी-पुरानी या कभी-कभी नई किताबों के नाम, लेखक और प्रकाशक के नाम हिन्दी में लिखने में. हमें यह सब काम करना बहुत अच्छा लगता था.

किताबों से मुताल्लिक़ एक ख़ास बात. कुछ लोगों की आदत में शुमार होता है कि वो अच्छी किताब देखते ही आपसे मांग लेंगे. आपने एक बार किताब दे दी तो फिर मजाल है कि वो आपको वापस मिल जाए. किताबों के पन्ने मोड़ने, पैन से लाइनें खींचकर किताबों की अच्छी सूरत को बिगाड़ने में भी लोगों को बहुत मज़ा आता है. हमारे पास नामी कहानीकारों की कहानियों का एक संग्रह था. एक रोज़ हम उसे अपने साथ दफ़्तर ले गए. एक लड़की ने हमसे मांग लिया. कई महीने गुज़र गए, लेकिन उसने वापस नहीं किया. हमने पूछा तो कहने लगी-वक़्त ही नहीं मिला. ख़ैर क़रीब दो साल बाद हमारा उसके घर जाना हुआ, तो उसने उसे लौटा दिया. लेकिन उसे वापस पाकर हमें बेहद दुख हुआ. तक़रीबन हर सफ़े पर पैन से लाइनें खींची हुईं थीं. कवर पेज भी बेहद अजनबी लगा. जब भी उस किताब को देखते, तो बुरा लगता. छोटे भाई ने हमारी सालगिरह पर नई किताब लाकर दी और उस किताब को अलमारी से हटा दिया. ऐसे कितने ही क़िस्से हैं अपनी प्यारी किताबों से जुदा होने के...

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की जद्दोजहद में लोग किताबें पढ़ने के शौक़ को क़ायम नहीं रख पाते. जो लोग किताबें पढ़ने के शौक़ीन हैं, उनसे यही गुज़ारिश है कि वो इसे पूरा ज़रूर करें. ख़ैर, हमारा काम तो किताबों से ही जुड़ा है. किताबों की समीक्षा लिखते हैं, इस वजह से भी आए दिन कोई न कोई किताब मिलती ही रहती है और वक़्त निकालकर उसे पढ़ना भी होता है...

अलबत्ता, जांनिसार अख़्तर साहब का एक शेअर याद आता है-
ये इल्म का सौदा, ये रिसालें, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं...
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जो दूसरों के लिए जीते हैं


कुछ लोग ऐसे हुआ करते हैं, जो अपने दुख-सुख की परवाह किए बग़ैर दूसरों के लिए जीते हैं, उनके दुख-सुख में शामिल होते हैं... ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं जो सिर्फ़ अपने लिए ही जीते हैं, उनके लिए सिर्फ़ अपने दुख-सुख ही मायने रखते हैं... वो हर वक़्त सिर्फ़ अपने दुखों की ही बात करते हैं...
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सच क्या है


सच क्या है... सच की तलाश में उम्र बीत जाया करती है... सच को जान लेना कोई आसान काम नहीं है... सबके अपने-अपने सच हुआ करते हैं... जैसे आज का दिन किसी शख़्स की ज़िन्दगी का अब तक का सबसे ख़ूबसूरत दिन है... ये उसका सच है... और आज ही का दिन किसी दूसरे शख़्स की ज़िन्दगी का अब तक का सबसे तकलीफ़देह दिन है... ये उसका सच है... इसलिए सबको अपने-अपने सच के साथ जीने का पूरा हक़ है...
हम जो जीते हैं, महसूस करते हैं, वही लिखते हैं... हम नहीं कहते कि आप इसे universal truth यानी सार्वभौमिक सच मानें...
बेहतर यही है कि आप अपने सच के साथ जियें और दूसरों को उनके सच के साथ जीने दें...

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जब हरि था तो मैं नहीं अब हरि है मैं नाहि


इंसान में जब तक अहंकार है, ’मैं’ है, वो ख़ुदा को क्या, किसी अच्छे इंसान तक को मुतासिर नहीं कर पाएगा...
मैं यानी मेरा मज़हब सबसे बड़ा, मेरी ज़ात सबसे ऊंची, मैं ही सच्चा, मैं ही सबसे अच्छा, मैं ही सही... यानी जब तक मैं-मैं की रट लगी रहती है, तब तक इंसान न कुछ देख पाता है, न सुन पाता है और न ही समझ पाता है... उसकी अक़्ल पर अहंकार की धूल जमी रहती है...
जिस दिन इंसान ने ’मैं’ यानी अपने अहंकार का त्याग कर दिया, तभी वह सही मायने में इंसान कहलाने लायक़ है...
कबीर चचा कह गए हैं-
जब हरि था तो मैं नहीं अब हरि है मैं नाहि
प्रेम गलि अति सांकरी ता में दो न समाये

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