परिजात के फूल...
काफ़ी अरसे पहले की बात है. हम अपने कमरे में बैठे थे, तभी हमारी सखियां आ गईं और कहने लगीं आज मन्दिर चलते हैं. हमने कहा क्या बात है, आज कोई ख़ास दिन है. वे कहने लगीं कि मन्दिर के पास मेले जैसा माहौल होता है. मन्दिर भी हो आएंगे और कुछ चूड़ियां और मोती की मालाएं भी ले आएंगे. हमें कांच की चूड़ियों और मोती की मालों का बचपन से ही शौक़ रहा है. हमने अम्मी से पूछा, तो वो कहने लगीं. ठीक है, साथ में सुशीला को भी लेती जाना. सुशीला आंटी हमारी हमसाई थीं.
हम मन्दिर गए. मन्दिर के पास पूरी हाट लगी थी. लोग ख़रीदारी कर रहे थे. हमारी सहेलियां भी ख़रीदारी में लग गईं. सोचा जब तक सहेलियां ख़रीदारी कर रही हैं, तब तक मन्दिर की वाटिका ही देख ली जाए. वाटिका बहुत सुन्दर थी. त्रिवेणी के अलावा फूलों के कई पेड़ थे. उनमें पारिजात का पेड़ भी था. पूरा पेड़ सफ़ेद फूलों से भरा हुआ था. हमने कहीं सुना था कि पारिजात का पेड़ स्वर्ग का वृक्ष है और यह देवताओं को बहुत प्रिय है. श्रीकृष्ण की पत्नी को पारिजात के फूल बहुत पसंद थे, इसलिए श्रीकृष्ण पारिजात को धरती पर ले आए थे. हम मन ही मन में श्रीकृष्ण की पत्नी का शुक्रिया अदा करने लगे, क्योंकि शायद उनकी वजह से ही आज हम इस पेड़ के इतने क़रीब थे.
पेड़ के पास बहुत से फूल बिखरे पड़े थे. हम ज़मीन पर बैठकर फूल चुनने लगे, तभी मन्दिर के पुजारी, वहां आ गए और कहने लगे कि ज़मीन से फूल क्यों चुन रही हो. इस पेड़ से जितने चाहो फूल तोड़ सकती हो. हमने पंडित जी का शुक्रिया अदा किया और पारिजात के फूल तोड़कर अपने दुपट्टे में इकट्ठे करने लगे. हमने एक अंजुली फूल इकट्ठे कर लिए. तब तक हमारी सहेलियां और आंटी भी वहां आ गईं. फिर हम मन्दिर के अंदर दाख़िल हुए. वहां छोटे-छोटे मन्दिर बने थे. किसी में राम और सीता की मूर्ति थी, किसी में हनुमान जी की मूर्ति थी, किसी में देवी संतोषी की, तो किसी में किसी और देवता की मूर्ति सजी थी. आंटी ने सभी मन्दिरों में घंटी बजाकर माथा टेका. हमारी सहेलियां भी ऐसा ही कर रही थीं. हम भी सबके साथ-साथ चल रहे थे.
आख़िर में एक और मन्दिर आया, जिसमें श्रीकृष्ण की मनोहारी प्रतिमा थी. पीला लिबास धारण किए हुए. हाथ में बांसुरी और होंठों पर मोहक मुस्कान. हम सोचने लगे. श्रीकृष्ण के इसी रूप पर फ़िदा होकर रसखान से लेकर अमीर ख़ुसरो तक कितने ही सूफ़ी-संतों ने श्रीकृष्ण पर गीत रच डाले हैं. हम फ़ौरन प्रतिमा की तरफ़ बढ़े और हमारे हाथ में जितने पारिजात के फूल थे, सभी श्रीकृष्ण के क़दमों में रख दिए.
तभी पंडित जी बोल पड़े- ऐसा लगता है, जैसे श्रीकृष्ण की राधा ने ही पुष्प भेंट किए हों. आंटी और हमारी सहेलियों ने पंडित जी की हां में हां मिलाई. हमने प्रसाद लिया और घर आ गए.
पारिजात के फूल चुनने से लेकर श्रीकृष्ण के क़दमों में रखने तक हमने जो लम्हे जिए और वो हमारी इक उम्र का सरमाया हैं. आज भी जब पारिजात के फूल देखते हैं, तो दिल को अजीब-सा सुकून महसूस होता है. हम नहीं जानते कि श्रीकृष्ण और पारिजात के फूलों से हमारा कौन-सा रिश्ता है.
13 अप्रैल 2010 को 8:40 pm बजे
इसे रूहानी मुहब्बत का रिश्ता कहा जा सकता है।
13 अप्रैल 2010 को 8:45 pm बजे
मुझे लगता है कि अब आपके "हितैषी" और तथाकथित भाई कहीं आपके खिलाफ फतवा न दे दें.....
सुंदर रचना | क़ृष्ण पर रसखान ने बहुत सुंदर दोहे लिखें हैं|अमीर खुसरो का मुझे नहीं पता....
13 अप्रैल 2010 को 8:45 pm बजे
हम इसे हरसिंगार कहते हैं ..मुझे बहुत प्रिय है यह पुष्प सिर्फ अपनी महक की वजह से, पर यह दिन में नही खिलतें हैं.
13 अप्रैल 2010 को 8:58 pm बजे
आपकी ये पोस्ट पढ़ना .... बहुत पवित्र सा एहसास हुआ....
13 अप्रैल 2010 को 9:01 pm बजे
आपकी इस पोस्ट से ही मुझे इन फूलों का नाम पता चला कि यह पारिजात के फूल होते हैं।
असल में रोज सुबह जहाँ मैं ऑफिस बस का खड़े होकर हाईवे पर इंतज़ार करता हूँ वहीं पर इस, तरह के फूल वाला एक वृक्ष है। अभी पिछले महीने मैंने दो तीन फूल बस का इंतजार करने के दौरान ख़ड़े खड़े चुटकियों से पता नहीं कैसे मसल दिये थे।
बस मे चढ़ने पर उंगली का रंग देखा तो कुछ जंग लगे जैसा था। काफी देर परेशान रहा कि यह किस चीज से रंग लग गया है जबकि मैंने किसी चीज को छुआ भी नहीं और तभी यकायक ख़्याल आया कि अरे वो फूल ही मैंने अपनी उंगलियों में रख मसले थे।
दरअसल इन फूलों का निचला हिस्सा केसरिया रंग का और उपरी सफेद मिलकर जंग लगे होने का आभास दे रहे थे।
अब आगे से जब ऑफिस बस का इंतजार करूंगा तो शायद आपकी पोस्ट भी बरबस याद आ जाएगी।
13 अप्रैल 2010 को 9:24 pm बजे
आपने वो गीत अवश्य सुना होगा ... "जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा". उसी गीत में आपके प्रश्न का उत्तर छिपा है. इसी गीत की एक पंक्ति है, "जहाँ हर बालक एक मोहन है और राधा हर एक बाला". भारत माता की गोद में जन्म लिया है तो भगवान श्रीकृष्ण से सम्बन्ध तो अपने आप ही बन जाता है.
13 अप्रैल 2010 को 10:01 pm बजे
फ़िरदौस साहिबा...बहुत प्रभावी प्रस्तुति रही है.
और रिश्तों का आधार हमारी भावनाएं निर्धारित करती हैं.
जिनमें कोई तर्क नहीं चलते.
13 अप्रैल 2010 को 10:07 pm बजे
Ek sachhi bhartiya soch.
13 अप्रैल 2010 को 10:22 pm बजे
श्रीकृष्ण ,राधा ,पारिजात और फिरदौस .....आखिर ये मुआमला क्या है ?
13 अप्रैल 2010 को 10:53 pm बजे
@Sachi
क्या कह सकते हैं अपने 'हितैषी' भाइयों से...
आख़िर हैं तो भाई ही... और बहनों को तो वैसे भी अपने भाइयों से ज़्यादा स्नेह होता है...भाइयों को हो या न हो...
ख़ैर, हम तो यही कह सकते हैं-
पोथी पढ़ पढ़ जगमुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।
13 अप्रैल 2010 को 11:48 pm बजे
chalo acha krishan bhagwan ki aap par kripa hui
bahut khub
shkhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
14 अप्रैल 2010 को 12:38 am बजे
सुन्दर एहसास !!!!
14 अप्रैल 2010 को 9:21 am बजे
कुछ एहसास दिल के करीब होते हैं पारिजात के फूल बहुत पसंद है मुझे भी ...रूहानी लगी आपकी लिखी बाते ..शुक्रिया
14 अप्रैल 2010 को 10:39 am बजे
प्रेम का जो अहसास आपको है, वहां तक पहुंचना विरलों को ही संभव हो पाता है ! मगर एक शुद्ध ईमानदार व्यक्तित्व के लिए ब्लाग लेखन जैसे टूटे कांच के टुकड़ों पर चलना जैसा है ! यहाँ हर कदम पर अर्द्धविक्षिप्त विद्वान् लेखक भरे पड़े हैं जो सिर्फ निर्दयता पूर्वक जख्म देना जानते हैं...ईश्वर तुम्हारे कोमल दिल को इतना मज़बूत बनाये कि अपनों और गैर " इन मशहूर ह्रदयहीन विद्वानों" को झेल सके !
खुदा महफूज़ रख्खे हर बला से हर बला से...
सादर शुभकामनायें
14 अप्रैल 2010 को 12:25 pm बजे
फिरदौस जी, बहुत गुमान हुआ आपका लेख पढ़ कर की आज भी रसखान और आमिर खुसरो, आप जैसो में जिन्दा है !
एक किसी मित्र का कमेन्ट किसी ब्लॉग में कल ही पढ़ा आपके बारे में की कही आप वो नहीं है जो आप है ! सायद ब्लॉग पे छा जाने के लिए आप ऐसा लिख रही है ! अगर वो सही है तो वाकई मुझे दुख होगा !
आप तो बड़ी होकर भी वैसी ही है जैसा बचपन रही होंगी, पर कुछ लोग तो बचपन के मासूम भरी मासूमियत को बहुत बड़ी भूल मन बैठे है !
बधाई आपके निर्भीक लेखनी के लिए... पर सावधानी भी जरुरी होती है.
14 अप्रैल 2010 को 12:31 pm बजे
किसी कवि ने कहा है ....इन मुसलमान हरि जनन पे कोटिन हिंदु वारिये
14 अप्रैल 2010 को 1:03 pm बजे
apne hamara comment kyun nahinlagaya mohtarma ?
14 अप्रैल 2010 को 1:38 pm बजे
@Ganesh Prasad
हमारे मन में श्रीकृष्ण के लिए बचपन में भी श्रद्धा थी, आज भी है...हो हमेशा रहेगी..., इसे कोई कुछ भी नाम दे... हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता...
हमने आज कोई नया लिखना शुरू नहीं किया है... हमेशा से हमारे लेखन को लेकर लोग विवाद पैदा करते रहे हैं... ये कोई नई बात नहीं है...
जहां तक ब्लॉग में छाने की बात है तो, ये बात वो लोग ही कह सकते हैं जो ख़ुद ऐसा करते हों...
शायद आपने हमारा प्रोफाइल नहीं देखा...
क्या हमें ब्लॉग में छाने की ज़रूरत है...???
हमने अपने किसी भी लेख में किसी मज़हब के बारे में 'असभ्य' बातें नहीं कहीं हैं...
हमने जो देखा और महसूस किया... एक क़लमकार के नाते वही लिखा है...
14 अप्रैल 2010 को 5:53 pm बजे
yahi to krishna prem ka aakarshan hai jo apne aap rishta bana leta hai wahan hamein rishta banane ki jaroorat nahi padti......is ahsaas ko sirf aap hi samajh sakti hain.kyunki jjo aapne mahsoos kiya hai uska varnan nhi kiya ja sakta.
15 अप्रैल 2010 को 9:17 am बजे
अच्छा लगा, तुम्हे देखकर, पढकर
बहुत खूब है खयालों की ये दुनिया, बधाई ।
15 अप्रैल 2010 को 11:46 am बजे
yahi bhartiya sanskriti hai ,jaha koi nafrat nahi,Krishna to sabke hai,we koi bhed nahi karte ,bhed to pashchimi bichar me hai,
aapki bhawna bahut pavitra hai,
apne bahut prabhavit kiya .
dhanyabad
16 अप्रैल 2010 को 5:48 pm बजे
raadha aur krishna ka yeh rishta sadiyon se raha hai.
khuda kare aapki muraad poori ho.
27 अप्रैल 2010 को 6:21 am बजे
Radhika aur Shri krishan ka prem aamjan ke liye sandesh hai.Pyar ki koi seema nahi hoti.kudrat ki har vastu me bhawna hoti hai.hame apne mansik star ko us level tak lekar jana hai jahan hum chidiya ke chahchahat ko samajh sake.yehi to prakrati ka narsangik prem hai.
16 जून 2010 को 12:12 am बजे
जितने सुन्दर फूल हैं ,उतने ही सुन्दर विचार हैं.हमारी कामना है कि इन फूलों की सुगंध चारों तरफ फैले
17 जून 2010 को 2:38 pm बजे
behad khubsurat, parijaat, krishna aur apka lekhan, naman
17 जून 2010 को 8:59 pm बजे
प्रेम और सदभाव का रिस्ता
1 सितंबर 2010 को 8:03 pm बजे
फिरदौस,
बहुत खुबसूरत हैं। कृष्ण के कदमों में फूल...
ये फूल अकीदत के हैं, या मासूमियत के...बहुत कीमती हैं ये। यादों के खजाने में यह एक हसीन इजाफा होगा।
एक अजीम शख्सियत थे - मौलाना हसरत मोहानी। मार्क्सवादी थे, मौलाना थे, शायर थे और कृष्ण से उनका गजब का जुड़ाव था। जब तक जिंदा रहे, जन्माष्टमी में मथुरा में रहे।
23 फ़रवरी 2011 को 10:29 pm बजे
Beautiful thoughts !
10 जून 2016 को 11:50 am बजे
Atyant rochak jankari k liye bahut2 dhanyabad...Jo aneko hinduo ko pta nhi hoga ...Jo aapne share kiya...kuchh to smjho ...Hindu bhaiyo..