तारीख़ें


तारीख़ें... ये तारीख़ें ही तो हैं, जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं... जिन्हें संजो लेना चाहते हैं, हमेशा के लिए... ये तारीख़ें, जो हमारे लिए बहुत ख़ास हैं... क्योंकि ये वही तारीख़ें हैं, जब हमारी ज़िन्दगी में कोई आया था... साल गुज़रते रहते हैं, साल-दर-साल... मगर ये तारीख़ें वही ठहरी रहती हैं, ये कभी नहीं बदलतीं... उन्हीं ख़ुशियों के साथ, जब इन्हें जिया गया था...
कुछ तारीख़ें, ऐसी भी हैं, जो आंसुओं से भीगी हैं... क्योंकि इनमें किसी अपने से बिछड़ने का दर्द समाया हुआ है... जिन्हें हम चाहकर भी बदल नहीं सकते... मिटा नहीं सकते...
ये तारीख़ें, जो कभी नहीं बदलेंगी... ये हमारी ख़ुशियों, हमारे ग़मों के साथ हमेशा वाबस्ता रहेंगी...
-फ़िरदौस ख़ान
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हम जिएंगे और मरेंगे, ऐ वतन तेरे लिए


हमारा हिन्दुस्तान एक ऐसा मुअज़िज़ मुल्क है, जहां हर शख़्स को अपनी अक़ीदत के मुताबिक़ इबादत करने की इजाज़त है... लोग अपने अक़ीदे के साथ मंदिर में पूजा कर सकते हैं, मस्जिद में नमाज़ पढ़ सकते हैं, चर्च में प्रार्थना कर सकते हैं, गुरुद्वारा में मथ्था टेक सकते हैं... यानी अपने-अपने अक़ीदे के हिसाब से ज़िन्दगी बसर कर सकते हैं... वो चाहें, तो अपना मज़हब  छोड़कर कोई और मज़हब अपना सकते हैं... या नास्तिक भी बने रह सकते हैं... किसी के साथ कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं... उनका आस्तिक होना या न होना, उनकी अपनी मर्ज़ी पर निर्भर करता है...
यहां मौत का डरावा देकर किसी को कोई ख़ास मज़हब मानने पर मजबूर नहीं किया जाता और न ही मज़हब छोड़ने पर उसका बेरहमी से क़त्ल किया जाता है...
हमारा हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे प्यारा मुल्क है... हमें अपने मुल्क पर नाज़ है... हमारी अक़ीदत इसी मुल्क की मिट्टी से वाबस्ता है, जो हमारा जन्मभूमि है... यहां की मिट्टी से हमारा वही रिश्ता है, जो एक बच्चे का अपनी मां के साथ होता है...
दिल दिया है जान भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिए
हम जिएंगे और मरेंगे, ऐ वतन तेरे लिए...
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एक कप चाय...


बात उन दिनों की है, जब हम दसवीं में पढ़ रहे थे... इम्तिहान नज़दीक थे... इसलिए सुबह चार बजे उठकर पढ़ा करते थे... घर दो मंज़िला और काफ़ी बड़ा था... एक कमरा और एक रसोई किराये पर दे दी थी... किरायेदार एक विधवा महिला थीं... नाम था संतो देवी... उनके दो बच्चे उनके साथ रहते थे और एक बड़ा दस साल का बेटा उनके जेठ के पास रहता था... हम उन्हें आंटी कहा करते थे... वह किसी गांव में सरकारी स्कूल में चपरासी थीं... यह नौकरी उन्हें उनके पति की मौत के बाद मिली थी... पहले उनके पति इस पद पर कार्यरत थे... गांव काफ़ी दूर था... उन्हें बस से जाना होता था... इसलिए वह सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाया करती थीं और बच्चों के लिए दोपहर का खाना बनाकर रख दिया करती थीं...
उनके घर गौशाला से गाय का दूध आता था... आंटी हमें पढ़ते हुए देखतीं, तो एक कप चाय हमारी मेज़ पर रख जाया करती थीं... कहती कुछ नहीं थीं... क्योंकि वह कभी पढ़ते वक़्त हमें टोकती नहीं थीं... हमें गाय का दूध कभी अच्छा नहीं लगा... हालांकि गाय का दूध बहुत फ़ायदेमंद होता है... आंटी की चाय क्या होती थी, निरा दूध ही होता था चाय पत्ती डला हुआ... हम लिहाज़ में चाय पी लेते... सोचते कि वो इतने प्यार से लाई हैं, क्यों मना करके उनका दिल दुखाएं... रफ़्ता-रफ़्ता हमें गाय के दूध की चाय की आदत पड़ गई... यह सिलसिला काफ़ी वक़्त तक चला... बाद में हमने दूसरा घर ले लिया और आंटी भी कहीं और चली गईं... आज भी जब कभी चाय का ज़िक्र होता है, तो गाय के दूध की चाय याद आ जाती है... और आंटी का स्नेह भी... 
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हमारा ख़ुदा...


हम उस ख़ुदा को मानते हैं, जिसने ये कायनात बनाई है... जो सारे आलम का मालिक और पालनहार है... जो अपने बन्दों से लिंग, मज़हब या ज़ात की बुनियाद पर किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता... जिसके लिए मर्द और औरत दोनों बराबर हैं... जो मर्द को आला और औरत को कमतर नहीं मानता... जो मर्द को पाक और औरत को नापाक नहीं मानता... जो नेक कामों के लिए औरत को भी वही ईनाम देता है, जो मर्द को देता है... और बुरे कामों के लिए मर्दों को भी वही सज़ा देता है, जो औरतों को देता है...
ऐसा है हमारा ख़ुदा... 
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फ़िरदौस ! मैं आज भी तुम्हारी वो डांट भूला नहीं हूं


बात साल 2009 की है... लोकसभा चुनाव के लिए चुनावी मुहिम चल रही थी... उस वक़्त हमें एक
सियासी दल के प्रभावशाली शख़्स का फ़ोन आया... उन्होंने केंद्र में मंत्री रहे एक शख़्स का हवाला दिया और कहा कि उन्हें हमारी मदद चाहिए. काम मुश्किल नहीं था, उन्हें चुनाव के लिए तक़रीर चाहिए थी. बहरहाल, हमने उन्हें कई तक़रीरें दीं. उन्हें बहुत पसंद आईं. उन्होंने अपनी पार्टी ज्वॊइन करने का ऒफ़र दिया, एक बड़े पद के साथ... जो आज भी है...

बस एक बात बुरी थी. कभी भी फ़ोन आ जाता था. हमने कहा कि बराये-मेहरबानी देख लिया करें कि वक़्त क्या हुआ है. इतना ही नहीं, ये भी ख़्याल करें कि नमाज़ के वक़्त फ़ोन न किया करें. उस शख़्स ने माज़रत की और इस बात का ख़्याल भी रखा. एक बार सुबह साढ़े तीन बजे मोबाइल बज उठा. हम तहज्जुद की नमाज़ पढ़ रहे थे. और मोबाइल बार-बार बज रहा. हमने सलाम फेर कर मोबाइल बंद कर दिया. जब हम फ़ज्र की नमाज़ से फ़ारिग़ हो गए, तो हमने मोबाइल ऒन किया. कुछ ही लम्हे बीते थे कि फिर मोबाइल बज उठा. हमने कॊल रिसीव की और कहा-
आपने नमाज़ पढ़नी दुश्वार कर दी. हद होती है किसी को परेशान करने की भी. जब आपको मालूम है कि इस वक़्त हम इबादत कर रहे होते हैं, तो फिर क्यों फ़ोन किया. फ़ज्र तक का इंतज़ार नहीं कर सकते थे. हमने ग़ुस्से में और भी न जाने क्या-क्या कह दिया. अब तो याद भी नहीं...

ये बात भी इसलिए याद आ गई, क्योंकि कल सुबह उसी शख़्स का फ़ोन आया और कहने लगे-
फ़िरदौस ! मैं आज भी तुम्हारी वो डांट भूला नहीं हूं, लेकिन मुझे अच्छा लगा कि तुमने अपनी इबादत के सामने मेरी कोई परवाह नहीं की. हालांकि किसी आला अफ़सर की भी इतनी मजाल नहीं, जो मेरे सामने बोल जाए...
बात तो सही है, वो शख़्स है ही इतना प्रभावशाली. छह गनर तो हर वक़्त अपने साथ रखता है. आज हुकूमत में हैं.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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ज़िन्दगी कैसे जियें


हम चाहते हैं कि हम ऐसी ज़िन्दगी जियें कि हमारी मौत के बाद कोई ये न कह सके कि हमने जानबूझ कर उसे तकलीफ़ पहुंचाई थी या उसका दिल दुखाया था... हालांकि अनजाने में इंसान से ऐसी न जाने कितनी ग़लतियां हो जाती होंगी, जिससे दूसरों को दुख पहुंचता होगा...
दरअसल, हमारी मौत के बाद लोग हमें किस तरह याद रखेंगे... अगर हम ये सोच कर अपनी ज़िन्दगी गुज़ारें, तो शायद बेहतर ज़िन्दगी जी सकते हैं... 
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अपना काम


कहते हैं- दूसरे के सिंहासन से अपना मूढ़ा अच्छा... क्योंकि किसी की जी हुज़ूरी तो नहीं करनी पड़ती...
आज के युवा अपने स्वरोज़गार को तरजीह दे रहे हैं... वाक़ई यह अच्छी बात है... अपना ख़ुद का काम ही ज़्यादा अच्छा होता है, भले ही परचून की दुकान क्यों न हो...  नौकरी में लगी बंधी तनख़्वाह तो होती है, लेकिन इसकी अपनी परेशानियां हैं... नौकरी प्राइवेट हो, तो और भी मुसीबत... हमेशा एक ही बात याद रखनी होती है- बॊस इस ऒलवेज़ राइट... न जॊब की गारंटी होती है, न काम का वाजिब मेहनताना, न पर्याप्त छुट्टियां...
अपने काम में जो मज़ा है, वो किसी की नौकरी में कहां... स्वरोज़गार अपनाओ और ख़ुश रहो... :)
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मज़दूर


वो लड़की (खेतीहर मज़दूर) खेत में बीज बोती है... फ़सल उगाती है...
हम विचारों के बीज बोते हैं... शब्दों की फ़सल उगाते हैं...
हम भी तो उसी की तरह एक मज़दूर ही हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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अमृता की मुहब्बत


बार-बार एक ख़्याल आ रहा है... क्या मौत के बाद अमृता प्रीतम को उनकी मुहब्बत यानी साहिर लुधियानवी मिल गए होंगे...? क्या मौत के बाद दूसरी दुनिया में इंसान को उसका महबूब मिलता है...?
कुछ अरसे पहले हमें एक अल्लाह वाली मिली थीं... इस बारे में उनसे बहुत-सी बातें हुईं... उनका कहना था कि दूसरी दुनिया में इंसान को उसका महबूब मिलता है... जब हमने यह बात अपनी एक दोस्त को बताई, तो वो बहुत ख़ुश हुई... क्योंकि इस दुनिया में उसे उसका महबूब नहीं मिला... उसके वालदेन ने जबरन उसका निकाह अपनी रिश्तेदारी में कर दिया...
अब उसे लगता है कि जो उसे इस दुनिया में नहीं मिला, उस दुनिया में मिल जाएगा... 
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इमरोज़


हिन्दुस्तान का एक मशहूर शायर लड़की से कहता है-
तुम इतना अच्छा लिखती हो. अमृता प्रीतम की तरह मशहूर हो सकती हो. बस तुम्हें एक साहिर की ज़रूरत है.
लड़की सोचती है कि ये ख़ुद साहिर बनने की कोशिश कर रहा है. वह जवाब देती है-
मुझे साहिर नहीं, इमरोज़ चाहिए... क्योंकि साहिर ने अमृता को भटकाव के सिवा कुछ नहीं दिया, जबकि इमरोज़ ने उसे ठहराव दिया...
मैं भटकना नहीं चाहती...
लेकिन लड़की ये नहीं जानती थी कि इमरोज़ क़िस्मत से मिला करते हैं...  


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मुहब्बत की चमक



मेरे महबूब !
तुम्हारी आंखों में
मुहब्बत की
जो चमक है
उसी से तो
मेरी दुनिया रौशन है...
-फ़िरदौस ख़ान

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विज्ञापन गुमराह करते हैं

सोच रहे हैं, क्या ख़ाला ने ये ख़बर सुनी होगी... अगर सुनी होगी, तो उन्होंने ये ज़रूर सोचा होगा कि ठगी तो वह भी गई हैं, उन करोड़ों लोगों की तरह, जो विज्ञापनों के झूठे दावों पर भरोसा करके कुछ अच्छे की उम्मीद बांध लेते हैं...

ज़्यादातर विज्ञापन गुमराह करते हैं... फिर भी लोग विज्ञापनों के झूठे दावों के दांव में फंस जाते हैं... बचपन की बात है... हमारी रिश्ते की एक ख़ाला हैं... उनका रंग ज़्यादा सांवला है... वो फ़ेयरनेस क्रीम लगाती थीं, शायद उस वक़्त आठ हफ़्तों में गोरा होने का दावा किया जाता था... वो अपनी अम्मी से क्रीम छुपाकर रखती थीं, ताकि वो देख न लें... क्रीम लगाने की सख़्त मनाही थी... बस काजल या सुरमा लगाने की इजाज़त थी... बरसों उन्होंने क्रीम लगाई, लेकिन गोरी नहीं हुईं... चार साल पहले जयपुर में उनसे मुलाक़ात हुई... हमने उनसे पूछा कि क्या अब भी फ़ेयरनेस क्रीम लगाती हैं... वो मुस्करा कर रह गईं...
दिल्‍ली की ज़िला उपभोक्‍ता अदालत ने फ़ेयरनेस क्रीम बनाने वाली कंपनी इमामी पर 15 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है. कोर्ट ने यह फ़ैसला निखिल जैन की याचिका पर सुनाया है. तीन साल पहले दायर अर्ज़ी में निखिल ने आरोप लगाया था कि इमामी ने प्रचार में जो दावा किया था, क्रीम के इस्‍तेमाल से सच में वैसा कोई नतीजा नहीं आया. इमामी स्किन क्रीम के इस्‍तेमाल के बाद ख़ुद को छला हुआ महसूस करने के बाद निखिल ने कंपनी के ख़िलाफ़ अनफ़ेयर ट्रेड प्रैक्टिसेस का आरोप लगाया था. उसने जो क्रीम ख़रीदा थी, उसके प्रचार में चार हफ़्ते में गोरापन लाने का वादा किया गया था. उन्‍हें प्रचार में शाहरुख़ ख़ान यह दावा करते दिखे थे.
अदालत में कंपनी ने कहा कि उसका उत्पाद त्‍वचा की सेहत और गुणवत्‍ता सुधारने के लिए है. इस पर अदालत ने विज्ञापन को भ्रामक बताते हुए ने कहा, ‘पहली बात तो विज्ञापन में गोरापन शब्‍द का इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब है त्‍वचा का रंग साफ़ करना. दूसरी बात, इसमें वादा किया गया है कि चार हफ़्ते के इस्‍तेमाल के बाद गोरी त्‍वचा मिलेगी.’


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राम भला करे... अल्लाह भला करे...


हमारे घर (मायके में) कई फ़क़ीर आते हैं... कुछ रोज़ आती हैं... कुछ कभी-कभार आते हैं... और कुछ दिनों के हिसाब से आते हैं, जैसे हफ़्ते के दिन जो बाबा आते हैं, उनके हाथ में एक बर्तन और शनिदेव की मूरत होती है... पैसे बाबा के हाथ में दे दिए जाते हैं और सरसों का तेल बर्तन में डाल दिया जाता है... हफ़्ते के दिन कटोरी में सरसों का तेल और पैसे आंगन में ताक़ में रख दिए जाते हैं, ताकि बाबा को इंतज़ार न करना पड़े... अमूमन हमारे घर ताक़ में पैसे रखे रहते हैं, ताकि कोई आए, तो उसे वहां से उठाकर पैसे दे दिए जाएं...पिछले काफ़ी अरसे से ये काम हमारी नन्ही परी फ़लक कर रही है...
कई फ़क़ीर ऐसे होते हैं, जो भूख लगने पर खाना मांग लेते हैं, वरना बाक़ी आटा या पैसे लेकर चले जाते हैं...

एक बाबा रोज़ सुबह आते हैं... हमारे भाई अपनी बिटिया फ़लक को गोद में लेकर जाते हैं और उसी से उन्हें पैसे दिलवाते हैं... बाबा बिटिया के सर पर हाथ रखते और आशीष देते... पहले बाबा कहा करते थे- राम भला करे, राम ख़ुश रखे, राम लंबी उम्र दे, वग़ैरह-वग़ैरह... यानी उनके सारे आशीष रामजी को लेकर होते... पिछ्ले दिनों हम घर गए, तो देखा कि बाबा अब भी बिटिया को आशीष देते हुए कहते हैं- अल्लाह भला करे, अल्लाह ख़ुश रखे, अल्लाह लंबी उम्र दे, वग़ैरह-वग़ैरह...
आशीष तो आशीष हुआ करता है... भले ही लफ़्ज़ कुछ भी हों...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)


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