एक झूठा लफ़्ज़ मुहब्बत का...


सरहद पार से न्यूज़ एंकर सईद साहब ने हमें एक नज़्म भेजी है...
नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ रूह की गहराइयों में उतर जाने वाला है...जबसे हमने यह नज़्म पढ़ी है...तब से हम ख़ुद को इसके असर से जुदा नहीं कर पाए हैं...इस नज़्म में ऐसा क्या है, जिसने हमें इस क़द्र बांध लिया है...उसे लफ़्ज़ों में क़ैद करके बयां करने में ख़ुद को नाक़ाबिल महसूस कर रहे हैं...मुलाहिज़ा फरमाएं...

एक झूठा लफ़्ज़ मुहब्बत का
इस दिल में सलामत है अब तक
वो शोख़ी-ए-लब वो हर्फ़-ए-वफ़ा
वो नक़्श-ए-क़दम वो अक्स-ए-हिना
सौ बार जिसे चूमा हमने
सौ बार परस्तिश की जिसकी
इस दिल में सलामत है अब तक
वो गर्द-ए-अलम वो दीदा-ए-नम
हम जिसमें छुपाकर रखते हैं
तस्वीर बिखरती यादों की
ज़ंजीर पिघलते वादों की
पूंजी नाकाम इरादों की
ऐ तेज़ हवा नाराज़ न हो
इस दिल में सलामत है अब तक
सामान बिछड़ते साथ का
कुछ टुकड़े गरम दोपहरों के
कुछ रेज़े नरम सवालों के
कुछ ढेर अनमोल ख़्यालों के
एक सच्चा रूप हक़ीक़त का
एक झूठा लफ़्ज़ मुहब्बत का...
(हमारी डायरी से)
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